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वसीयतनामा

सूर्यनारायण व्यास

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :206
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6399
आईएसबीएन :81-263-1509-3

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व्यंग्य विधा अपनी शैशवावस्था में कितनी चंचल, परिपक्व और सतर्क थी यह व्यास जी के व्यंग्यों को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता हैं...

Vasiyatnama

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा के प्रारम्भिक स्वरूप और विकास–क्रम के प्रतिनधि साक्ष्य के रूप में पं. सूर्यनारायण व्यास की उपस्थिति आश्वस्तकारी रही हैं। व्यंग्य विधा अपनी शैशवावस्था में कितनी चंचल, परिपक्व और सतर्क थी यह व्यास जी के व्यंग्यों को पढ़कर सहज ही जाना जा सकता हैं।

विषयों की विविधता, दृष्टि की नवीनता और स्वयंशोधित शैली व्यास जी को अपने समकालीन व्यंग्य लेखकों से तो अलगाती ही हैं, व्यंग्य साहित्य को समृद्धि भी प्रदान करती है। इस अर्थ में भी व्यास जी विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं कि एक उन्होंने ही अपने व्यंग्य लेखों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रयोग किया है। अपनी चुहलभरी भाषा और नवीन कथनकोण से वे उपहास का ऐसा माहौल रचते हैं कि पाठक पढ़कर गदगद हो उठता है। साहित्य –जगत् में शायद ही किसी व्यंग्यकार ने अपने जीवनकाल में ही अपनी मृत्यु पर व्यंग्य लिखा हो। वसीयतनामा में ‘आँखों देखी अपनी मौत’ भी है तो मृत्यु के बाद उनकी मूर्तिस्थापना को लेकर क्या क्या मसले खड़े होंगे, उस पर मूर्ति का मसला’ भी।

गम्भीर सांस्कृतिक छवि के रचनाकार व्यासजी के सरल हास्य-व्यंग्य लेख और पैरोडियाँ समालोचकों के सम्मुख चुनौतियाँ पेश करती रही हैं। समीक्षा की कसौटी पर खरा उतरने की मंशा के विरूद्ध व्यास जी का रचनाकार अनवरत अपने ही तरह से समर्पित रहा और आलोचकों की संकीर्ण दृष्टि को ललकारता रहा।

उपोद्घघात

व्यास जी और व्यंग्य


‘‘या तो दीवाना हँसे, या तू जिसे तौफ़ीक़ दे वर्ना इस दुनिया में या रब मुस्कुराता कौन हैं ?’’

पं. सूर्यनारायण व्यास बेहद खुशमिज़ाज, हँसमुख विनोदप्रियता व्यक्ति थे। उनकी खुशमिजाजी और विनोदप्रियता की चर्चा अनेक साहित्यकारों ने की हैं। यूँ व्यंग्य विनोद उनका केन्द्रीय लेखक नहीं था, किन्तु जैसा उनकी प्रतिनिधि रचनाओं के सम्पादक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने ‘अनुष्टुप’ में लिखा हैं- ‘‘साहित्य के क्षेत्र में किसी भी विधा की अपेझा व्यास जी ने हास्य–व्यंग्य सबसे अधिक लिखे हैं। समकालीन विकृति पर उन्होंने मखौल–भरे व्यंग्य यथासमय किये हैं। यधपि आज व्यंग्य की चुभन और आस्वाद बदल गये हैं, लेकिन यदि इन व्यंग्यों को अपने युग की कसौटी पर कस सकें तो वे एक विशिष्ट स्थान के अधिकारी होंगे, क्योंकि उनके अतिरिक्त किसी हास्य-व्यंग्यकार ने अपने लेखों में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्रयोग नहीं किया है। यह हिन्दी–व्यंग्य की दृष्टि से एक सार्थक प्रयोग है। व्यास जी के व्यंग्य में चुभन कम, मखौल या उपहास ज्यादा है, लेकिन उनके सांस्कृतिक व्यक्तित्व के कारण उसमें कहीं भी फूहड़पन नहीं आ पाया है, अलबत्ता ‘उग्रजी’ से एक अरसे तक उनकी संगत रही है। उनके व्यंग्य –लेखन सन्दर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि यह उनका केन्द्रीय लेखकर नहीं हैं।

यह भारी–भरकम शोध से राहत पाने का जरिया है और इसीलिए इस पर पूरे साहित्यिक अस्त्र-शस्त्रों के साथ कूद पड़ने की जरूरत नहीं हैं। इसी तरह उनकी पैरोडियों और हलकी फुलकी रचनाओं के बारे में समझना चाहिए।’’

जब शरद जोशी और हरिशंकर परसाई पालने में शायद अँगूठा चूस रहे होंगे, उसी काल में जी. पी. श्रीवास्तव (लतखोरीलाल) विनोद शर्मा, भैया सा. उर्फ पं, श्रीनारायण चतुर्वेदी, अन्नपूर्णानन्द (स्व. डॉ. सम्पूर्णानन्द के भाई), पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, प. सूर्यनारायण व्यास, मतवाला, स्वराज, वीणा, वाणी मालव मयूर, हंस, आज भविष्य, अभ्युदय, कर्मवीर, चाँद में निरन्तर व्यंग्य–विनोद के स्तम्भ लिख रहे थे, धारावाहिक लिख रहे थे।

पं. सूर्यनारायण व्यास का पहला व्यंग्य–संग्रह ‘ तू-तूः मैं-मैं’ पुस्तक भवन काशी से वर्ष 1935 में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसी विषय पर लगभग 60 वर्ष बाद ‘तू—तूः मैं-मैं धारावाहिक सेटेलाइट चैनल पर प्रसारित हुआ। (इस पुस्तक को भी अभी पंडित व्यास जन्म शताब्दी वर्ष प्रसंग में वर्ष 2001 में हर्षिता प्रकाशन, ई-11/5, महरौली, दिल्ली ने पुनः प्रकाशित किया हैं।)

1976 में पं. व्य़ास का देहावसान हुआ, तब मैं बमुश्किल 13 या 14 वर्ष का था। उन्हीं दिनों मुझे मुम्बई जाने का अवसर मिला। प्रख्यात फ़िल्म निर्माता –निर्देशक और भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह श्री विजय भट्ट के घर ठहरा। वे पं. व्यास के अनन्य अन्तरंग मित्र–सखा थे। ‘रामराज्य’, ‘भरत-मिलाप’, बैजूबावरा’, ‘गूँज उठी शहनाई’ आदि फिल्मों से विख्यात होने ले पूर्व वे पंड़ित जी के साथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक फिल्म ‘सम्राट विक्रमादित्य’ (पृथ्वीराज कपूर, रतनमाला) एंव ‘कवि कालिदास’ (भारत भूषण, निरूपा राय) पंडित जी के मार्गनिर्देशन में एवं उन्हीं की प्रेरणा से निर्मित कर चुके थे।
बिजू भाई जैसे बुजुर्ग निर्देशक विचारक ने मुझे व्यास जी के बारे में संस्मरण सुनाते हुए कहा था- पंडित व्यास बेहद विनोदप्रिय थे। मुम्बई में वर्ष 1942 में वे मेरे घर 21 दिन रहे, और आज यदि मुझसे कोई जीवन के इस उत्तरार्ध में पूछे कि आपके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण निधि क्या है, तो मैं अपने द्वारा निर्मित-निर्देशित फ़िल्मो का नहीं वरन् उन 21 दिनों का ज़िक्र करना चाहूँगा, जो मैंने पंडित व्यास के साथ हँसते–मुस्कराते और ठहाका लगाते बिताये। हर व्यंग्य मे जीवन था, हर बात में हास्य का पुट होता था। यही विनोद, उनके संघर्षशील क्रान्तिकारी जीवन का आधार था। उन्होंने जीवन को विनोद बना लिया था। तो यह जो विनोदप्रियता हैं पं. व्यास की, मुझे लगता है इसके संस्कार उन्हें बचपन में ही मिल गये थे। वे वर्ष 1919 में काशी में पढ़ने गये थे। वहाँ उन्हें जयशंकर प्रसाद, पं. वीनोदशंकर व्यास, ‘उग्र’, लाला भगवानदीन, शिवपूजन सहाय जैसे विनोदप्रिय लोगों की मंडली के साहचर्य का सौभाग्य मिला। (देखें‘ प्रसाद स्मृति’, माधुरी, जुलाई 1939) एवं ‘यादें’ (भारतीय ज्ञानपीठ, वर्ष 2001)। प्रायः प्रसाद जी की बैठक में पं. व्यास का भी सहज एंव नियमित प्रवेश था। बनारस से हँसी ठट्टे और ठहाके लेकर जो वे आये, तो मालवा में उनका साहचर्य हास्य-व्यंग्य विनोद सम्राट और प्रख्यात जयशंकर क्रान्तिकारी, पत्रकार तथा ‘कर्मवीर’ एंव ‘स्वराज्य’ के सम्पादक सिद्धनाथ माधव आगरकर से हुआ। आगरकर जी ने ही उन्हें नाम दिया था ‘व्यासाचार्य’ और उन्होंने ही व्यास जी से इसी उपनाम से राजनीति एंव शिष्ट हास्य-व्यंग्य में अनेक स्तम्भ लिखवाये, जो स्वराज्य कर्मवीर, क्रान्ति, सौनिक एंव आज में बराबर प्रकाशित भी होते रहे। व्यासाचार्य नाम से ही लिखे उनके व्यंग्य ‘तू-तूः मैं-मैं’, वाग्युद्धकला, गद्य –गौरव, श्वास प्रबन्ध, अक्ल सप्लाय एंड को, विद्वत गर्व-हरण मंडली, बहुत मशहूर हुए थे और इसी नाम से फिर 1935 में जो व्यासाचार्य की पुस्तक काशी से प्रकाशित हुई, तू-तूः मैं-मैं, वह वास्तव में इसी अवधि में लिखे गये लेखों का संग्रह था।

बाद के काल में परिस्थितियों के कारण और विभिन्न कारणों से अपने महान ऋषि पिता के स्वर्गवास एंव क्रान्तिकारी गतिविधियों में, स्वतन्त्रता-संग्राम में सक्रिय रहने के कारण पत्रकारिता में संलिप्त हो जाने से व्यास जी का व्यंग्य-लेखक जब कम होने लगा तो पं. सिद्धनाथ माधव आगरकर ने उन्हें पत्र लिखा-
‘‘तबियत में एक बार फिर वही मस्ती आने दीजिए, जो आपकी निजी प्रकृति रही है। हम लोग भौतिक सुखों की शोध में अपना आनन्द खो रहे हैं। ‘भारती भवन’ (पंडित व्यास का आवास) के सुधारू न वाढ़ विड़े ली आवृति (सुधारकर विस्तृत किये हुए संस्करण) मैं बैठे हुए सू. ना. व्यास से मुझे व्यासाचार्य की वह मस्त मूर्ति अधिक आकर्षित करती है, जो दुनिया के ललकारकर लड़ने के लिए ख़म ठोककर तैयार रहती थीं। मैं वो दिन भूला नहीं, जब अकृत्रिम रीति से जनसेवा का आदर्श सामने रहता था, उस आनन्द और मस्ती की कल्पना आज भी मन को आनन्द देती है। उस समय शायद विभूति कम थी, परन्तु जीवन का वैभव अधिक था, उस ‘कुटी’ की साहित्य–साधना क्या कभी भूलने की बात हैं ?’’ (आगरकर स्मृति पुनः ‘यादे’, भारतीय ज्ञानपीठ, 2001)

अपने आरम्भिक संघर्षकाल में पंडित व्यास ने एक कुटिया में रहकर साहित्य साधना की थी, जिसमें उनके अंतरंग साहित्यकर्मी प्रो. रमाशंकर शुक्ल ‘हृदय’, सिद्धनाथ माधव आगरकर, प्रो. गोपीकृष्ण शास्त्री आदि ने क्रान्तिकारी सहित्य का अनुवाद करने के साथ–साथ हास्य-व्यंग्य के लिए एक ‘विद्वत्–गर्व–हरण मंडली’ भी बनायी थी। इस मंडली में प्रायः देश –विदेश के विद्वानों का नाममर्दन बड़े ही मजेदार ढंग से किया जाता था। मराठी और गुजराती में भी पंडित जी व्यंग्य लिखते थे और वे अनेक पत्रों में प्रकाशित भी हुए हैं।’’

डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन ने लिखा है- ‘‘राजशेखर द्वारा वर्णित युग की प्रतीति तो मुझे नहीं, पर अपने युग में मैंने आधुनिक राजशेखर पं. सूर्यनारायण व्यास के सभामंडल में इस परीक्षा का दृश्य कई बार देखा था। इसे भी संयोग कहा जाएगा कि व्यास जी के व्यक्तित्व में राजशेखर की विद्घता और रसिकता दोनों का अद्भुत सम्मिश्रण था। ऐसी विद्वत् मंडली में मुझ –जैसे नौंसिखिए के लिए कोई स्थान नहीं था। मैं तो काव्यशास्त्र- विनोद के क्षेत्र में उनके अखाड़े का लठमार था, जो बाद में पहलवान बनने का दम्भ करने लगा। उनकी संवेदनशीलता के सहभागी तो स्व. रमाशंकर शुक्ल ‘हृदय’ और गोपीकृष्ण शास्त्री जैसे मर्म–मधुर मनीषी थे।’’ (नई दुनियी, 23 जून, 1977)

1919 से व्यंग्य –लेखन आरम्भ करने वाले व्यास जी सिर्फ व्यासाचार्य नाम से ही नहीं, अपितु अनेक छदय नामों से भी लिखते थे- मसलन ख़ग, डॉ. एकान्तबिहारी, डॉ. चक्रधरशरण, महाकवि अंटशंटाचार्य, मालवसूत। वर्ष 1942 के आते-आते उनका व्यंग्य लेखन पूरे उफान पर था। जब उन्होंने हिन्दी मासिक ‘विक्रम’ का प्रकाशन आरम्भ किया तो उसमें ‘महन्त मूँजीराम’ नाम से प्रति माह एक नियमित व्यंग्य–स्तम्भ लिखते रहे। विक्रम के अनेक अंकों में उनकी व्यंग्य- विनोद रचनाएँ बिखरी पड़ी हैं। विक्रम के ‘‘होली अंक’’ पूरे–के–पूरे उन्होंने लिखे हैं। अपने व्यंग्य लेखों में वर्ष 1942, 43, 44, 45, 46 में जब देश पराधीन था, सर विंस्टन चर्चिल, एटली, लार्ड इरविन, लार्ड माउंटबेटन तक के उन्होंने मजा़क और उनके बेहतरीन कार्टून भी बनवाए। उज्जैन में उस समय दो प्रमुख व्यवसायी फर्म एंव मिल्स थीं- विनोदीराम बालचन्द एवं द विनोद मिल्स लि.। पंडित व्यास ने मुखपृष्ठ पर ही ‘द विनोद मिल्स अनलिमिटेड’ का बेहद मजेदार कार्टून बनवाया था। विक्रम का वह होली अंक पं. व्यास के व्यंग्य–विनोद और सूझबूझ का एक बेहतरीन नमूना है। पंड़ित व्यास का लिखा एक व्यंग्य था, जिसकी लपेट में डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल प्रो. वि. वा मिराशी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जैसे अनेक प्रसिद्ध विद्धान भी आ गये थे। उसकी कथा बड़ी ही दिलचस्प है। हुआ यह कि पंडित व्यास ने सोचा अ-कविता, अ कहानी का दौरा आया तो ‘अ-अनुसन्धान’ भी होना चाहिए। प्रायः पंडित व्यास उन तथाकथित विद्वानों और पुरातत्त्ववेत्ताओं का मजाक उड़ाते ही रहते थे, जो किसी भी ऐतिहासिक विषय में शोध कर प्रमाण के लिए मनुष्य पर कम और शिलालेख, शिलाखंड, पत्थर, सिक्के ताम्रपत्रों, और भोजपत्रों पर ज्यादा यकीन करते थे। ऐसे में शोधी विद्वान इतिहासकार पुरातत्ववेत्ता पंडित व्यास का मुख्य कार्य विक्रम और कालिदास पर था। इसके जन्म, जन्म-स्थान, काल पर उन्होने असाधारण कार्य किया था, इसी पर पाश्चात्य गति–मति से प्रभावति विद्वानों की टिप्पणी से खीचकर उन्होंने एक लेख लिखा-‘‘ अवन्ती में फिर जन्में है कालिदास–लेखक डॉ, एकान्तबिहारी।’’ यह लेख साप्ताहिक हिन्दुस्तान के होली अंक में प्रकाशनार्थ गम्भीर विनोद, टिप्पणी लगाकर भेज दिया। इस लेख में उन्होने (चूँकि वे स्वयं संस्कृत के भी महान विद्वान थे) पद्यमय भाषा में संस्कृत में स्वंय कालिदास की तरह अनुष्टुप छन्द में आत्मकथात्मक परिचय लिखा हैं। मैं कैसे कहाँ जन्मा और किस काल मैं कौन –कौन से ग्रन्थों की रचना मैंने कब-कब और क्यों तथा किन परिस्थितियों में की जैसी सभी बातें बड़े ही सुन्दर श्लोकों में अंकित है। हाँ, सचमुच के पत्थर (प्रस्तर) पर वह पद्य अंकित भी किया और उसमें यह भी लिखा है कि मेरे जाने के बाद किसी भी कारणवश मुझे लेकर कोई विवाद न हो। अतः यह शिलालेख पर अंकित करवाकर फलाने मन्दिर में सुरक्षित रखवा रहा हूँ ताकि वक्त जरूरत काम आए, यानी सनद रहे। इस शिलालेख के चित्र भी लेख के साथ संलग्न किये।

दुर्भाग्यवश या सौभाग्यवश यह ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के होली अंक में तो नहीं छपा और उस पर लगी गम्भीर विनोद की टिप्पणी भी कहीं अन्यत्र हो गयी। कुछ अर्से बाद अचानक वह लेख फिर सम्पादक डा. बाँकेबिहारी भटनागर के हाथ आ गया। उन्हें लगा, अरे यह तो पं. सूर्यनारायण व्यास का लिखा बहुत महत्त्वपूर्ण शोध- लेख है। उन्होंने, आव देखा न ताव, कालिदास जयंती के अवसर पर उसे छाप दिया। इसके बाद से देशभर के विद्वानों की चिट्टी–पत्री आना प्रारम्भ हो गयी, अनेक मत-सम्मत आने लगे, खंडन–मंडन होने लगा, तर्क-वितर्क शुरू हो गये, अनेक लेख पक्ष-विपक्ष में लिखे गये। यहाँ तक तो ठीक था, अनेक खोजी विद्वान शिलालेख देखने उज्जैन भी आ टपके। मामला जब बहुत बढ़ गया तब पंडित व्यास को पत्र–पत्रिकाओं मे, अखबारों में लेख उन्होंने क्यों लिखा ? उन्होंने पाठकों के मानसिक स्तर का भी मजा लेते हुए कहा कि अ-कविता, अ-कहानी के दौर में अ-अनुसंधान का अभी दौर नहीं आया। अतः पुनः डॉ. एकान्तबिहारी एकान्त में चले गये हैं।

वह गम्भीर शोध–लेख एंव ‘डॉ एकान्तबिहारी मेरा अभिन्न’ प्रस्तुत ग्रन्थ में दिये जा रहे है। सबसे दिलचस्प घटना तो तब हुई, जब लखनऊ से प्रकाशित मासिक ‘राष्ट्रधर्म’ के सम्पादक पं. आनन्द मिश्र अभय ने मुझे पुनः पत्र लिखा कि मुझे पंडित व्यास का वह शोधपूर्ण निबन्ध अवन्ति में फिर जन्में हैं ‘कालिदास’, जिसमें उन्होंने कालिदास के जन्म और काल का शिलालेख तक खोज निकाला था, पुनः प्रकाशनार्थ चाहिए। मैंने उनसे कहा कि यह व्यंग्य लेख है तो उन्होंने सच मानिए मेरी अल्पबुद्धि पर तरस खाया, जो ऐसे शोधपूर्ण लेख को समझ नहीं पाया।

प्रायः हिन्दी साहित्य के बारे में और हमारे देश के बारे में यह भी कहा जाता है कि हम भारतीयों में ‘सैन्स ऑफ हयूमर’ का अभाव है, हम अपना मजाक स्वयं नहीं उड़ा पाते। दूसरों का म़जाक उड़ाना हमारे लिए सहज–सरल है, पर अपना मज़ाक हम सह नहीं पातें, दूसरों का मज़ाक क्षण भर में बनानेवाले हम अपने मज़ाक से क्षण में नाराज़ हो जाते हैं।

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