लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> भारतमाता ग्रामवासिनी

भारतमाता ग्रामवासिनी

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 621
आईएसबीएन :81-7028-598-4

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

431 पाठक हैं

प्रस्तुत नाटक में भारतीय कृषि सभ्यता के विकास की कहानी दृश्य-श्रव्य प्रभार से साकार की गई है...

Bharatmata Gramvasini a hindi book by Kamleshwar - भारतमाता ग्रामवासिनी - कमलेश्वर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हमारे समय में महत्त्वपूर्ण हिन्दी कथाकार एवं मीडिया-विशेषज्ञ कमलेश्वर के कलम से निकली एक अनूठी कृति है ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’। इसमें टी.वी. स्क्रीनप्ले के शिल्प में भारतीय कृषि सभ्यता के विकास की कहानी दृश्य-श्रव्य प्रभाव से साकार की गई है। पृथ्वी पर मानव जीवन के उद्भव काल से शुरु होकर हमारे आज के वर्तमान तक फैली इस महागाथा में इतिहास, पुरातत्व, विज्ञान, साहित्य एवं संस्कृति के अनेक गहरे रंग उभरे हैं। पाँच हजार साल के कालखंड में फैले अनेकानेक स्थल एवं युगनायक जीवन के विविध रंग और कार्यकलाप एक के बाद एक किसी फिल्म के दृश्यों की भाँति इस पुस्तक के पृष्ठों पर पुनर्जीवित हो उठे हैं।
इतिहास और आख्यान, सिनेमा और रंगमंच के मिले-जुले आस्वाद वाली एक नाट्यकृति टी.वी स्क्रीन-प्ले में रूचि रखने वालों के लिए भी विशेष रूप से उपयोगी है।

भारतमाता ग्रामवासिनी

 

 

अपनी जड़ों की जानकारी सबके लिए बहुत ज़रूरी है, उन्हीं आधारभूत जड़ों की पहचान भारतमाता ग्रामवासिनी में की गई है। आर्यों के भारत आगमन से लेकर अब तक प्रकृति के साथ सहभागिता और सहजीवन से निर्मित एक बहुत बड़ी सभ्यता के उदय और विकास की कहानी है यह।
दुनिया के इतिहास में कई बड़ी-बड़ी सभ्यताओं ने जन्म लिया और समय के साथ वे तिरोहित भी हो गईं। भारतीय सभ्यता को लेकर यह आश्चर्य हमेशा प्रकट किया जाता है कि यही एक सभ्यता है जो अपने जन्म से लेकर आज तक अक्षुण्य चली आ रही है....और यह जानने की लगातार कोशिश की गई कि इसकी इस अखण्डता का रहस्य क्या है ? भारतीय सभ्यता की अटूट अखण्डता को पहचानने की कोशिश तरह-तरह से की गई और विद्वान लोग अपने-अपने नतीजों तक पहुँचे हैं। भारतमाता ग्रामवासिनी लिखते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भारतीय सभ्यता की इस अक्षुण्ण परम्परा के मूल में इसका वह जीवन दर्शन है, जो अन्य सभ्यताओं के पास नहीं था।

आज माना यह जाता है कि मनुष्य और इसकी सभ्यताओं ने जो भी विकास किया वह प्रकृति के साथ लगातार किये गये संघर्ष से ही हासिल हुआ है। मैं जब अपनी जड़ों की तलाश इस रचना के माध्यम से कर रहा था तो संघर्ष वाली थ्योरी मुझे बेकार होती दिखाई दी। तमाम तथ्यों और सत्यों ने मुझे इस नतीजे तक पहुँचाया कि भारतीय सभ्यता संघर्ष की नहीं, प्रकृति के साथ सहयोग, सहभागिता समायोजन और सह-अस्तित्व का नतीजा है और इसका मूल कारण है भारतीय सभ्यता का अपनी ज़मीन के साथ रिश्ता। किसी अन्य सभ्यता का अपनी ज़मीन के साथ वह रिश्ता नहीं रहा जो भारतीय सभ्यता का है और रहा है। यही वह जीवन दर्शन है जो संघर्षवाली थ्योरी से अलग भी है और निराला भी।
इसीलिए मैंने ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ को लिखना जरूरी समझा। यह मात्र कृषि नहीं, यह सभ्यता के विकास की कहानी है जो मैंने मूलतः मीडिया के लिए लिखी थी।
और अब यह पुस्तक रूप में आपके हाथों में क्योंकि मीडिया लेखन मात्र मनोरंजन का फूहड़ माध्यम नहीं है, वह लेखन के गम्भीर पक्षों की ओर भी उन्मुख हुआ है, इसीलिए मैं इसे रचना के रूप में आपके सामने पेश कर रहा हूँ।


एपिसोड :1

 

 

सीनः 1

 

 

भयानक विस्फोट-जैसे लाखों ज्वालामुखी एक साथ
फट पड़े हों...
पीछे तूफ़ानी हवाओं का शोर
और आसमान छूती समुद्री लहरों का ताण्डव प्रलय का दृश्य...
कौंधती और कड़कती बिजलियाँ...तेज़ बारिश...
इंसानी आवाजों का टूटता-बिखरता आर्त्तनाद उसी में पैबस्त और गड्ड-मड्ड तमाम दृश्यों और स्वरों का मोंताज और
क्रीसेण्डो...अंधकार...
धीरे-धीरे एक लय के साथ शान्त होते प्रलय दृश्य में मिक्स-थमते विस्फोट जमता लावा, हवाओं का थमता शोर शान्त होती तूफ़ानी बारिश और लहरें डूबता इंसानी आर्त्तनाद
लौटती लहरें विलीन होती हुई
फटता अंधकार कुछ क्षणों का सम्पूर्ण सन्नाटा
उभरता प्रकाश-
सन्नाटा
कैप्शन : सृष्टिकथा
अर्थात् : कृषि कथा यानी भारतमाता ग्रामवासिनी !
भारतमाता ग्रामवासिनी कैप्शन तीन-चार बार फ्लैश होता है।

 

सीन : 2

 

 

सूखी हवायें...
प्रकृतिस्थ होती प्रकृति...
जैसे धरती की सांस सामान्य हो रही हो...


सीन : 3

 


भीगी धरती...लेकिन बंजर...जैसे कोई महामरुथल
भीग गया हो...
ईको के साथ सारी दृष्टि 3800 में घूम जाती है...

 

सीन : 4

 


और उसी घूमते दृश्य में से धीरे धीरे एक मानव
आकार साकार होता है-यह अमूर्त-सा मानव आकार आदिकालीन जंगली गुफा में से सामने आता है।
यह विशेष प्रभाव के माध्यम से उभरता है
फिर स्पष्ट होता है कि यह मानव आकृति है।


सीन : 5

 

 

पाषणकालीन आदि पुरुष की आकृति
पीछे जंगली स्वर और प्रकृति का संगीत
पाषाणकालीन एक महामानव उपस्थित होता है-
चमड़े के वस्त्रों में...

स्वर : सृष्टि की शुरुआत के साथ जब जीवन जागा तब मनुष्य कहाँ था ? तब तो थी केवल प्रकृति तब धरती, बहुत बड़ी थी और इतिहास बहुत छोटा। फिर सैकड़ों सदियों बाद मानव के आकार प्रकार शक्ल-सूरत वाला एक मानव पशु जन्मा।


सीनः 5 (ए)

 


होमो सैपिसंय से पहले की मानव आकृति


सीनः 6

 


आदिम मनुष्य : यह मेरे ही नहीं, आपके, हम सबके पूर्वज हैं। अपने इस पूर्वज को हम अमानुष पुकार सकते हैं। अमानुष अर्थात् आधा मनुष्य और आधा पशु। इसके बाद हम आए, यानी बुद्धिमानव होमो सैपियंस-वह मनुष्य जिसके पास बुद्धि की कोषिकाएँ थीं-जो सोच और समझ सकता था।...
आदिम मनुष्य : (वॉयस अंडर)
परन्तु सभ्यता की शुरू की सदियों में न कृषि थी, न व्यापार, न पशुपालन की परम्परा और न कृषि मंडियाँ...तब तो था पाषाण युग...जब मनुष्य भोजन और जीवन के लिए भटकता था...


सीनः 7

 


जंगलों में भटकते आदिम जाति के पाषाणकालीन लोग...उनके साथ स्त्रियाँ भी हैं...
(ए) उनकी जंगली आवाजें वन्य पशुओं या प्रकृति की आवाजों से मिलती-जुलती फिर ऐसे स्वर दो आदिमों के बीच; जैसे वे कुछ बात समझ रहे हों-हाव-भाव द्वारा




प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book