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सुनहरी भोर का सपना

भगवतीलाल व्यास

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :12
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6165
आईएसबीएन :81-237-4732-2

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पोकरण पीछे छूट गया था। बस जैसलमेर की तरफ बढ़ रही थी। सुबह का समय था। हवा में ठंडक थी। कई बरसों बाद इस बरस पानी बरसा था। हवा में ठंडक इसी कारण थी। जब पानी नहीं बरसता तो धोरों वाली यह धरती सुबह से ही आग उगलने लगती है।

Sunhari Bhor Ka Sapna A Hindi Book by Bhagwati Lal Vyas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुनहरी भोर का सपना


पोकरण पीछे छूट गया था। बस जैसलमेर की तरफ बढ़ रही थी। सुबह का समय था। हवा में ठंडक थी। कई बरसों बाद इस बरस पानी बरसा था। हवा में ठंडक इसी कारण थी। जब पानी नहीं बरसता तो धोरों वाली यह धरती सुबह से ही आग उगलने लगती है।
हरियाली इस तरफ ज्यादा नहीं है। गिनती के पेड़-पौधे। आक, खेजड़ी, बेर और केर। इस बार पानी पड़ा तो कहीं-कहीं घास भी नजर आ रही थी। दूर तक यही नजारा। सब पानी की माया है। पानी है तो पान-फूल हैं। घास-फूस हैं। खेती-बाड़ी ढोर-डंगर । गांव–ढाणी। कस्बा–शहर सब पानी से।

पानी से जुड़ी है जिन्दगानी। मगर थार की किस्मत में कितनी कम बूंदें। मोती जैसा महंगा पानी। लेकिन जिंदगी है कि रुकना नहीं जानती। इन्सान है कि कुदरत हार नहीं मानता। झुकना नहीं जानता। इसीलिए कुदरत और इन्सान का साथ बरसों से चला आ रहा है। निभ भी रहा है।

अचानक बस की रफ्तार धीमी होती है। भेड़ों का एक झुण्ड सड़क पार कर रहा था। इधर भेड़ पालन खूब होता है। चांदन गांव और तन्नौट के बीच की पट्टी के गांव-ढ़ाणियों में कई परिवार यह काम करते हैं। ज्यादातर राजपूत और मुसलमान परिवार।

अकेले जेसूराणा गांव में ही साठ-पैंसठ परिवार यह काम करते हैं। एक-एक रेवड़ में सौ से हजार के बीच भेड़ बकरियां होती हैं। भेंड़ें ज्यादा, बकरियां कम। भेंड़ से ऊन मिलती है। दूध मिलता है। मेमने मिलते हैं। किसी तरह गिरस्ती की गाड़ी खिंच जाती है।

अभी-अभी जिस रेवड़ ने सड़क पार की उसके साथ असलम और साबिर थे। सुबह खाना खाकर निकले थे। दोपहर का खाना साथ है। प्लास्टिक की केतली में पीने का पानी। गरम हवा से बचने के लिए सिर पर बांधने का कपड़ा । हाथ में पतली सी छड़ी।

असलम छड़ी का उपयोग कम ही करता है। उसकी आवाज पहचानती हैं भेड़ें। असलम भी एक-एक भेंड़ को पहचानता है। हर भेड़ की एब-अच्छाई सब मालूम है असलम को। साथ रहते रहते कैसा अजीब रिश्ता बन जाता है इन्सान और जानवर में। प्रेम की, अपनपे की बोली में कैसा खिंचाव है। सब खिंचे चले आते हैं। क्या मानुस क्या गैर मानुस।


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