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उपन्यास >> चरित्रहीन

चरित्रहीन

शरत चन्द्र (अनुवाद विमल मिश्र)

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :408
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6136
आईएसबीएन :9788183614238

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बांग्ला से हिन्दी में पहली बार शुद्ध एवं सम्पूर्ण अनुवाद...

Charitraheen-A Hindi Book by Sharat Chandra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नारी का शोषण, समर्पण और भाव-जगत तथा पुरुष समाज में उसका चारित्रिक मूल्यांकन-इससे उभरने वाला अन्तर्विरोध ही इस उपन्यास का केन्द्रबिन्दु है।

शरतचन्द्र ने नारी मन के साथ-साथ इस उपन्यास में मानव मन की सूक्ष्म प्रवृत्तियों का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है, साथ ही यह उपन्यास नारी की परम्परावादी छवि को तोड़ने का भी सफल प्रयास करता है। उपन्यास सवाल उठाता है कि देवी की तरह पूजनीय और दासी की तरह पितृसत्ता के अधीन घुट-घुटकर जीने वाली स्त्री के साथ यह अन्तर्विरोध और विडम्बना क्यों है ?

उपन्यास ‘चरित्र’ की अवधारणा को भी पुनःपरिभाषित करता है। चरित्र को स्त्री के साथ ही अनिवार्य गुण की तरह क्यों जोड़ा जाता है ? वह कैसे चरित्रहीन हो जाती है ? उसे चरित्रहीन कहने वाला कौन होता है ? यह प्रसिद्ध उपन्यास बार-बार हमें इन सवालों के सामने ला खड़ा करता है।

नारी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में दक्ष शरत् बाबू इस उपन्यास में उस परिवर्तन को भी रेखांकित करते हैं जो समाज में आया है इसलिए दशको पहले लिखा गया यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास का अनुवाद नए सिरे से किया गया है, उन तमाम अंशों को साथ रखते हुए जो अभी तक उपलब्ध अनुवादों में छोड़ दिए गए थे। एक सम्पूर्ण उत्कृष्ट उपन्यास।

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय


जन्म : 15 सितम्बर, 1876 को हुगली जिले के देवानंदपुर (पश्चिम बंगाल) में हुआ।

प्रमुख कृतियाँ : पंडित मोशाय, बैकंठेर बिल, मेज दीदी, दर्पचूर्ण, श्रीकान्त, अरक्षणीया, निष्कृति, मामलार फल, गृहदाह, शेष प्रश्न, देवदास, बाम्हान की लड़की, विप्रदास, देना पावना, पथेर दाबी और चरित्रहीन।

‘चरित्रहीन’ पर आधारित 1974 में फिल्म बनी थी। ‘देवदास’ फिल्म का निर्माण तीन बार हो चुका है। उसके अतिरिक्त ‘परिणीता’ 1953 और 2005 में, ‘बड़ी दीदी’ (1969) तथा ‘मँझली बहन’ आदि पर भी चलचित्रों के निर्माण हुए हैं। ‘श्रीकान्त’ पर टी.वी. सीरियल भी।

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पश्चिम के एक बड़े शहर में इस समय ठंड पड़ने ही वाली थी। परमहंस रामकृष्ण के एक शिष्य किसी अच्छे काम की सहायता के लिए भिक्षा माँगते हुए इस शहर में आ धमके थे। वे जिस सभा में भाषण देंगे, उपेन्द्र को उसका सभापति बनाना होगा और उन शिष्य की मर्यादा के अनुकूल एक कार्यक्रम बनाना होगा। इसी प्रस्ताव को लेकर एक दिन प्रातःकाल कॉलेज के छात्रों के एक दल ने उपेन्द्र को पकड़ा। उपेन्द्र ने पूछा-‘पर कौन-सा अच्छा काम है, जरा मैं भी तो सुनूं।’

छात्रों ने कहा-‘यह तो अभी मालूम नहीं हुआ है। स्वामी जी ने केवल अभी इतना ही कहा है कि सभा में ही उस विषय को वे विस्तार से समझा कर कहेंगे, इसलिए सभा बुलाई जा रही है।’

उपेन्द्र ने और कोई प्रश्न नहीं किया। वे सहमत हो गए। ऐसा करना उनके स्वभाव का एक अंग ही बन गया था। विश्वविद्यालय की परीक्षाएं उन्होंने ऐसे सम्मान के साथ पास की थीं कि विद्यार्थी-समाज उनको बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखता था। इसे वे भी वे जानते थे। इसीलिए किसी भी कामकाज में मुसीबत आ पड़ने पर उपेन्द्र मोहवश उनके अनुरोध को नहीं टाल सकते थे। विश्वविद्यालय की सरस्वती के कृपापात्र होने के बाद कचहरी की लक्ष्मी की सेवा में लग जाने पर भी बच्चों के जिमनास्टिक के अखाड़े से लेकर फुटबाल, क्रिक्रेट के मैदान और डिबेटिंग क्लब तक के ऊंचे स्थान पर पहले की तरह उन्हें बैठना पड़ता था। पर आज लोग जिस सभा के सभापतित्व का प्रस्ताव लेकर आए थे उसमें जाकर सभापति के आसन पर चुपचाप बैठ जाना तो नहीं था, कुछ-न-कुछ बोलना अवश्य था। एक आदमी की ओर ताककर बोले-‘अरे भाई, सभा में कुछ तो बोलना चाहिए न जी। किसी सभा के उद्देश्य के संबंध में बिल्कुल अंधकार में रहकर उसका सभापतित्व करना क्या अच्छा होगा ? मैं तो यह ठीक नहीं समझता। तुम्हारा क्या विचार है ?’

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