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जैनी मेहरबान सिंह

कृष्णा सोबती

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6111
आईएसबीएन :978-81-267-1050

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जैनी मेहरबान सिंह ज़िन्दगी के रोमांस, उत्साह, उमंग और उजास की पटकथा है जिसे कृष्णा सोबती ने गुनगुनी सादगी से प्रस्तुत किया है।

Jenny Meharban Singh-A Hindi Book by Krishna Sobti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय मूल के प्रवासी मेहरबान सिंह और उनकी पत्नी लिज़ा की इकलौती सन्तान सुनहरी बालों वाली जैनी पूर्व और पश्चिम, देश और विदेश के दोरंगी सम्मिश्रण की अनोखी तस्वीर है। चुलबुली मनमौजी, समझदार और गम्भीर एक साथ।

जैनी मेहरबान सिंह ज़िन्दगी के रोमांस, उत्साह, उमंग और उजास की पटकथा है जिसे कृष्णा सोबती ने गुनगुनी सादगी से प्रस्तुत किया है।

वैन्कूवर से दूर पिछवाड़े से झाँकते हैं एक दूसरे के वैरी दो गाँव पट्टीवाल और अट्टारीवाला। एक दूसरे को तरेरते दो कुनबों के बीच पड़ी गहरी दरारें, जान लेने वाली दुश्मनियाँ और मरने मारने की कसमें ! ऐसे में मेहरबान सिंह और साहब कौर की अल्हड़ मुहब्बत कैसे परवान चढ़ती ! मेहरबान सिंह ने अपनी मुहब्बत के ख़ातिर जान बख्श देने की दोस्ती निभाई और गाँव को पीठ दे कैनेडा जा बसे। नए मुल्क में नई जिन्दगी चल निकली। लिज़ा को खूब तो प्यार दिया, जैनी को भरपूर लाड़-चाव फिर भी दिल से लगी साहिब कौर की छवि मद्धम न पड़ी-

इसके बाद की चलचित्री कहानी क्या मोड़ लेती है- पढ़कर देखिए जैनी मेहरबान सिंह।


इधर हाल ही में पुराने काग़ज़ों को फाड़ते हुए जैनी मेहरबान सिंह की भुरभुराती पुरानी कापी हाथ लगी। पीले पड़े काग़ज़ों के स्पर्श से बदन में झुरझुरी-सी उठ आई। पुराने बरसों का पुलिंदा। रखने से फ़ायदा ! फाड़ दो। जाने दो। फाड़ने को ही थी कि पहले पन्ने पर से अक्षर फड़फड़ाए- जैनी मेहरबान सिंह। इसी के साथ एक दूसरा नाम आँखों के सामने लहराया- स्कवाड्रन लीडर जोरावर सिंह !

हाथ वहीं का वहीं रुक गया- रुको इतनी जल्दी भी क्या है।
दशकों पहले की लिखित को तनिक पढ़कर तो देखो। दो रातों और एक दिन में लिखा गया जैनी मेहरबान सिंह और जोरावर सिंह का यह चलचित्री आख्यान; इसमें पाठकों के लिए कुछ पढ़ने को है भी कि नहीं। कभी लगता, है। कभी लगता, नहीं है। बेकार का असमंजस। अनजाने में काग़ज़ फट ही जाते तो भी कुछ बुरा तो न होता।

अपने प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के अशोक महेश्वरी को जिज्ञासा हुई और मैंने वह पन्ने उन्हें पढ़ने के लिए सौंप दिए। इस पाठ को प्रकाशित होना चाहिए कि नहीं- इसका अन्तिम निर्णय भी उन्हीं पर छोड़ दिया गया। रामकमल से यह सूचना मिलने पर कि वह इसे प्रकाशित करने जा रहे हैं, मैं जैनी मेहरबान सिंह के पाठकों से कुछ जरूरी तथ्य बाँटना चाहती हूँ।
सबसे पहले तो यह कि मूल रूप से जैनी मेहरबान पटकथा के पहले प्रारूप के अन्दाज़ में ही लिखी गई थी और इस पाठ का संयोग गहरे से मित्रो मरजानी से जुड़ा है।
राम महेश्वरी साहिब ने मित्रो मरजानी उपन्यास पढ़ा तो उन्हें उसमें सिनेमाई सम्भावनाएँ दीख पड़ीं। लेखक से पत्र-व्यवहार हुआ और उन्होंने मुझे बम्बई आने का निमंत्रण दिया। राम महेश्वरी साहिबा अंग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक रह चुके थे और उनके सफल फिल्मों के निर्देशक भी।

‘मित्रो मरजानी’ के अधिकार अनुबन्ध को लेकर सब कुछ सुभीते से हो गया ! राम महेश्वरी साहिब और उनकी कार्यकारी टीम के साथ मैं शाम की बैठकों में शामिल होने लगी। फ़िल्म की नई विधा और अनुशासन की बारीकियाँ मुझमें नए अनुशासन के प्रति जिज्ञासा और दिलचस्पियाँ जगाने लगीं।

समझ में यह भी आया कि रचनात्मक लेखक एक व्यक्ति के वजूद में रचना को नया रंग-रूप दे अपने कथ्य को लिखित में ढालता है और ठीक इसके विपरीत कहानी को पर्दे पर उतारनेवाली टीम खासी लम्बी प्रक्रिया में से निकालकर इसे परिणति तक पहुँचाती है।

राम महेश्वरी साहिब की उपस्थिति में मित्रो मरजानी सिलसिलेवार एक नया सिने-रूप धारण करने लगी जो मित्रों के मूल पाठ से अलग पड़ने लगा था। एक शाम चर्चा हुई उस सम्भावित शॉट पर कि मित्रो बिकिनी में गाँव की नहर में तैरती दिखाई जा सकती है।

बिकिनी पहने मित्रो- यह जुमला और इससे उभरती छवि दोनों ने मेरे दिल-दिमाग में खलबली मचा दी। मैंने कहा- गाँव हो या कस्बा- लड़किया बिकनी में नहीं नहा सकतीं।

चिन्ता न करें हम ठीक से एडजस्ट कर लेंगे।
इस दृश्य पर बैठक में मौजूद लोगों को काफी उत्साह नज़र आया।
मैं मित्रो के लिये ख़ासी परेशान हुई। कोई भी निर्णय लेने से पहले एक और कोशिश तो लाज़मी थी। ख़्यालों ही ख़्यालों में उस लड़की का नाम पता ढूँढ़ती रहो जो गाँव की नहर में बिकिनी पहनकर नहा सके।
मेज़ पर पहुँची तो आँखों में कुछ कौंधा, कैनेडा में जन्मी-पली सुनहरे बालों वाली लड़की लौटती है अपने पंजाब के गाँव में-और नहर में तैर रही है।
भला नाम क्या है इस लड़की का !
सोचा-सोचा-
फिर चुपके से जैसे कोई पैगाम मिला- जैनी मेहरबान सिंह।

लिखने बैठी तो जैनी मेहरबान सिंह का प्रारूप उभरने लगा। लगा मित्रो पर आया ख़तरा शायद टल जाएगा।
शाम अपनी भूमिका के साथ यह कहानी सुनाई। प्रतिक्रियाएँ ठीक-ठीक ही रहीं पर यह भी जोड़ दिया गया कि जैनी और मित्रो का सम्मिश्रण अच्छा रहेगा।
मैं चौकस हुई। लेखक होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं मित्रो जैसे पात्र से इतनी छेड़छाड़ न होने दूँ। पर्दे के लिए मित्रो के भविष्य की कौशलपूर्ण तरतीबें और तरकीबें खुलती-उघड़ती रहीं और मेरे दिल्ली लौटने का दिन आ पहुँचा।

अभी आपको दो-एक बार आना होगा। कहानी के साथ-साथ संवादों में कुछ अदला-बदली तो होगी ही। उन्हें आप ही लिख सकेंगी।

बम्बई से दिल्ली तक के सफर में मेरे पास इतना वक़्त था कि मित्रो मरजानी पर पुन: विचार कर सकूँ। जैनी मेहरबान की स्टोरीलाइन और मित्रो जैसे पाठ और पात्र की बन्दिश देख सकूँ ! दिल्ली पहुँचने से पहले मैं निर्णय ले चुकी थी और हल्का महसूस कर रही थी।

राम साहिबा को पत्र लिखकर पहले धन्यवाद दिया। फिर मित्रो मरजानी के बदले जैनी मेहरबान सिंह को फिल्माने का सुझाव दिया। अपनी गति और विविधता में यह मित्रो से कही कहीं बेहतर रहेगी। उम्मीद करती हूँ कैनेडा में जन्मी-पली सुनहरी बालों वाली जैनी मेहरबान सिंह अपने अंदाज में पर्दे पर कुछ नया प्रस्तुत करेगी। मित्रो जहाँ थी वहीं रही- और जैनी मेहरबान सिंह को फिल्म निर्देशक की पुकार न पड़ी। उसकी प्रतिलिपि फाइल कवर में पड़ी रही।
वही अब आपके सामने है।


जैनी मेहरबान सिंह


वैन्कूवर के सरदार मेहरबान सिंह के फार्म-हाउस की एक शाम।
रात के अँधेरे में घर की बत्तियाँ झिलमिलाती हैं। हवा सरसराती है और एक मीठे घने सन्नाटे में मज़बूत क़दमों की आहट सुन पड़ती है।

मेहरबान सिंह की ऊँची लम्बी आकृति ट्रैक्टर के शैड के पास लमहा-भर ठिठक रहती है। आँखें मानों किसी को खोज रही हों- कान कोई भूली बिसरी आवाज़ सुनते हों-फिर कुछ न पाकर ओठों पर थकी-थकी मुस्कुराहट फैल जाती है।

मेहरबान सिंह सिर उठाकर आसमान की ओर देखते हैं, फिर ज़मीन की ओर झुकते हैं जैसे उसमें छिपी किसी मुहब्बत को पाना हो-फिर नपे-तुले क़दमों में घर की ओर आगे बढ़ जाते हैं।

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