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कुटज

हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6108
आईएसबीएन :9788180319013

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भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया है जिसकी झलक पुस्तक में संकलित इन निबन्धों में मिलती है।

Kutaj -A Hindi Book BY Hajariprasad Dwivedi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भारतीय मनीषा के प्रतीक और साहित्य एवं संस्कृति के अप्रतिम व्याख्याकार माने जाते हैं और उनकी मूल निष्ठा भारत की पुरानी संस्कृति में हैं लेकिन उनकी रचनाओं में आधुनिकता के साथ भी आश्चर्यजनक सामंजस्य पाया जाता है।

हिन्दी साहित्य की भूमिका और बाणभट्ट की आत्मकथा जैसी यशस्वी कृतियों के प्रणेता आचार्य द्विवेदी को उनके निबन्धों के लिए भी विशेष ख्याति मिली। निबन्धों में विषयानुसार शैली का प्रयोग करने में इन्हें अद्भुत क्षमता प्राप्त है। तत्सम शब्दों के साथ ठेठ ग्रामीण जीवन के शब्दों का सार्थक प्रयोग इनकी शैली का विशेष गुण है।

भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया है जिसकी झलक पुस्तक में संकलित इन निबन्धों में मिलती है। छोटी-छोटी चीजों, विषयों का सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन और विश्लेषण-विवेचन उनकी निबन्धकला का विशिष्ट व मौलिक गुण है।
निश्चय ही उनके निबन्धों का यह संग्रह पाठकों को न केवल पठनीय लगेगा बल्कि उनकी सोच को एक रचनात्मक आयाम प्रदान करेगा।

 

कुटज

 

कहते हैं, पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्या ! पूर्व और अपर समुद्र-महोदधि और रत्नाकर-दोनों का दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ‘पृथ्वी का मानदण्ड’ कहा जाय तो गलत क्या है ? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है, लोग इस ‘शिवालिक’ श्रृंखला कहते हैं। ‘शिवालिक’ का क्या अर्थ है, ‘शिवालक’ या शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा तो नहीं है ? लगता तो ऐसा ही है। ‘सपाद-लक्ष’ या सवा लाख की मालगुजारी वाला इलाका तो वह लगता नहीं। शिव की लटियाई जटा ही इतनी सूखी, नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे, अलकनंदा का स्रोत्र यहाँ से काफी दूर पर है, लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। सम्पूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्थ महादेव की मूर्ति स्पष्ट हुई होगी। उसी समाधिस्थ महादेव के अलकाजल के निचले हिस्से का प्रतिनिधित्व यह गिरि-श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात-नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ दिख अवश्य जाते हैं, पर कोई हरियाली नहीं। दूब तक तो सूख गई है। काली-काली चट्टानें और बीच-बीच में शुष्कता की अंतर्निरुद्ध सत्ता का इजहार करने वाली रक्ताभ रेती ! रस कहाँ है ? ये तो ठिगने-से लेकिन शानदार दरख्त गर्मी की भयंकर मार खा-खाकर और भूख-प्यास की निरन्तर चोट सह-सहकर भी जी रहे हैं। बेहया हैं, क्या ? या मस्तमौला हैं ? कभी-कभी जो ऊपर से बेहया दिखते हैं, उनकी जड़े काफी गहरे पैठी रहती हैं। ये भी पाषाण की छाती फाड़कर न जाने किस अतल गह्नर में अपना भोग्य खींच लाते हैं।

शिवालिक की सूखी नीरस पहाड़ियों पर मुस्कराते हुये ये वृक्ष द्वन्द्वातीत हैं, अलमस्त हैं। मैं किसी का नाम नहीं जानता, कुल नहीं जानता, शील नहीं जानता पर लगता है, ये जैसे अनादि काल से जानते हैं। इन्हीं में एक छोटा-सा-बहुत ही ठिगना-पेड़ है। पत्ते चौड़े भी हैं, बड़े भी हैं। फूलों से तो ऐसा लदा है कि कुछ पूछिए नहीं। अजीब-सी अदा है, मुस्कराता जान पड़ता है। लगता है, पूछ रहा है कि क्या तुम मुझे भी नहीं पहचानते ? पहचानता तो हूँ, अवश्य पहचानता हूँ। लगता है, बहुत बार देख चुका हूँ। पहचानता हूँ। उजाड़ के साथी, तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ। नाम भूल रहा हूँ। प्राय: भूल जाता हूँ। रूप देखकर प्राय: पहचान जाता हूँ, नाम नहीं याद आता। पर नाम ऐसा है कि जब तक रूप के पहले ही हाजिर न हो जाय, तब तक रूप की पहचान अधूरी रह जाती है। भारतीय पण्डितों का सैकड़ों बार का कचरा-निचड़ा प्रश्न सामने आ गया- रूप मुख्य है या नाम ? नाम बड़ा है या रूप ?

पद पहले है या पदार्थ सामने हैं, पद नहीं सूझ रहा है। मन व्याकुल हो गया, स्मृतियों के पंख फैलाकर सुदूर अतीत के कोनों में झाँकता रहा। सोचता हूँ इसमें व्याकुल होने की क्या बात है ? नाम में क्या रखा है- ह्वाट्स देयर इन ए नेम ! नाम की जरूरत ही हो तो सौ दिए जा सकते हैं। सुस्मिता, गिरिकांता, वनप्रभा, शुभ्रकिरीटिनी, मदोद्धता, विजितातपा, अलकावतंसा, बहुत से नाम हैं। या फिर पौरुष-व्यंजक नाम भी दिये जा सकते हैं- अकुतोभय, गिरिगौरव, कुटोल्लास, अपराजित, धरती धकेल, पहाड़फोड़, पातालभेद ! पर मन नहीं मानता। नाम इसलिए बड़ा नहीं है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। रूप व्यक्ति सत्य है, नाम समाज-सत्य है। नाम उस पद को कहते हैं कि, जिस पर समाज की मुहर लगी होती है, आधुनिक शिक्षित लोग उसे ‘सोशल सैक्शन’ कहा करते हैं। मेरा मन नाम के लिए व्याकुल है, समाज द्वारा स्वीकृति, इतिहास द्वारा प्रमाणित, समष्टि-मानव की चित्त-गंगा में स्नान !

इस गिरिकूट-बिहारी का नाम क्या है। मन दूर-दूर तक उड़ रहा है- देश में और काल में- मनोरथानामगतिर्न विद्यते ! अचानक याद आया- अरे, यह तो कुटज है ! संस्कृत साहित्य का बहुत परिचित किन्तु कवियों द्वारा अवमानित यह छोटा-सा शानदार वृक्ष ‘कुटज’ है। ‘कुटज’ कहा गया होता तो कदाचित् ज्यादा अच्छा होता। पर उसका नाम चाहे कुटुज ही हो, विरुद तो निस्संदेह ‘कुटज’ होगा। गिरिकूट पर उत्पन्न होने वाले इस वृक्ष को ‘कुटज’ कहने में विशेष आनन्द मिलता है। बहरहाल यह कूटज-कुटज है, मनोहर कुसुम-स्तवकों से ‘आषाढस्य प्रथमदिवसे’ रामगिरि पर यक्ष को जब मेघ की अभ्यर्थना के लिए नियोजित किया तो कम्बख्त तो ताजे कुटज पुष्पों की अंजलि देकर ही सन्तोष करना पड़ा- चंपक नहीं, बकुल नहीं, नीलोत्पल नहीं, मल्लिका नहीं, अरविन्द जुलाई का का पहला दिन है। मगर फर्क भी कितना है। बार-बार मन विश्वास करने ‘शापेनास्तंगमितामहिमा’ (शाप से जिनकी महिमा अस्त हो गई हो) होकर रमागिरि पहुँचे थे, अपने ही हाथों से इस कुटज पुष्प का अर्घ्द देकर उन्होंने मेघ की अभ्यर्थना की थी। शिवालिक की इस अनत्युच्च पर्वत-श्रृंखला की भाँति रामगिरि पर भी उस समय और कोई फूल नहीं मिला होगा। कुटज ने उसके संतप्त चित्त को सहारा दिया था- बड़भागी फूल है यह। धन्य कुटज, ‘तुम गाढ़े के साथी’ हो। उत्तर की ओर से सिर उठाकर देखता हूँ, सुदूर तक ऊँची काली पर्वत-श्रृंखला छाई हुई है और एकाथ सफेद बाल के बच्चे उससे लिपटे खेल रहे हैं। मैं भी इन पुष्पों का अर्घ्य उन्हें पढ़ा दूँ ? पर काहे वास्ते ? लेकिन बुरा भी क्या है ?

कुटज के ये सुन्दर फूल बहुत बुरे तो नहीं। जो कालिदास के काम आया हो, उसे ज्यादा इज्जत मिलनी चाहिए। मिली कम है। पर इज्जत तो नसीब की बात है। रहीम को मैं बड़े आदर के साथ स्मरण करता हूँ। दरियादिल आदमी थे, पाया सो लुटाया। लेकिन दुनिया है कि मतलब से मतलब है, रस चूस लेती है छिलका और गुठली फेंक देती है। सुना है, रस चूस लेने के बाद रहीम को भी फेंक दिया गया। एक बादशाह ने आदर के साथ बुलाया, दूसरे ने फेंक दिया ! हुआ ही करता है। इससे रहीम का मोल घट नहीं जाता। उनकी फक्कड़ाना मस्ती कहीं गई नहीं। अच्छे भले कद्रदान थे। लेकिन बड़े लोगों पर भी कभी-कभी ऐसी वितृष्णा सवार होती है कि गलती कर बैठते हैं। मन खराब रहा होगा, लोगों की बेरुखी और बेकद्रदानी से मुरझा गए होंगे- ऐसे ही मन: स्थिति में उन्होंने बिचारे कुटज को भी एक चपत लगा दी। झुँझलाये थे, कह दिया-


वे रहीम अब बिरछ कहँ, जिनकर छाँह गम्भीर।
बागन बिच-बिच देखियत, सेंहुड़, कुटज करीर।।


गोया कुटज अदना-सा ‘बिरछ’ हो। ‘छाँह’ की क्या बड़ी बात है, फूल क्या कुछ भी नहीं ? छाया के लिए न सही, फूल के लिए तो कुछ सम्मान होना चाहिए। मगर कभी-कभी कवियों का भी ‘मूड’ खराब हो जाया करता है, वे भी गलतबयानी के शिकार हो जाया करते हैं। फिर बागों से गिरिकूट-बिहारी कुटज का क्या तुक है ?

कुटज अर्थात् जो कुट से पैदा हुआ है। ‘कुट’ घड़े को भी कहते हैं, घर को भी कहते हैं। कुट अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण प्रतापी अगस्त्य मुनि भी ‘कुटज’ कहे जाते हैं। घड़े से तो क्या उत्पन्न हुए होंगे। कोई और बात होगी। संस्कृत में ‘कुटहारिका’ और ‘कुटकारिका’ दासी को कहते हैं। क्यों कहते हैं ! ‘कुटिया’ या ‘कुटीर’ शब्द भी कदाचित इसी शब्द से सम्बद्ध है। क्या इस शब्द का अर्थ घर ही है ? घर में काम-काज करने वाली दासी कुटकारिका और कुटहारिका कही जा सकती है। एक जरा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ भी कही जाती है। संस्कृत में उसकी गलतियों को थोड़ा अधिक मुखर बनाने के लिए उसे ‘कुट्टनी’ कह दिया गया है। अगस्त्य मुनि भी नारदजी की तरह दासी के पुत्र थे क्या ? घड़े में पैदा होने का तो कोई तुक नहीं है, न मुनि कुटज के सिलसिले में, न फूल कुटज के। फूल गमले में होते अवश्य हैं, पर कुटज तो जंगल का सैलानी है। उसे घड़े या गमले से क्या लेना-देना है ? शब्द विचारोत्तेजक अवश्य है। कहाँ से आया ? मुझे तो इसी में सन्देह हैं कि वह आर्यभाषाओं का शब्द है भी या नहीं। एक भाषा-भाषी किसी संस्कृत शब्दों को एक से अधिक रूप में प्रचलित पाते थे, जो तुरन्त उसकी कुलीनता पर शक कर बैठते थे। संस्कृत में ‘कुटज’ रूप भी मिलता है और ‘कुटच’ भी। मिलने को तो कुटज भी मिल जाता है।

तो यह शब्द किस जाति का ? आर्य जाति का तो नहीं जान पड़ता। सिलवाँ लेवी कह गये हैं कि संस्कृत भाषा में फूलों, वृक्षों और खेती-बागवानी के अधिकांश शब्द आग्नेय भाषा-परिवार के हैं। यह भी वहीं का तो नहीं। एक जमाना था जब आस्ट्रेलिया और एशिया के महाद्वीप मिले हुए थे, फिर कोई भयंकर प्राकृतिक विस्फोट हुआ और ये दोनों अलग हो गये। उन्नीसवीं शताब्दी के भाषा-विज्ञानी पण्डितों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आस्ट्रेलिया के सुदूर जंगलों में बसी जातियों की भाषा एशिया में बसी हुई कुछ जातियों की भाषा से संबद्ध है। भारत की अनेक जातियाँ वह भाषा बोलती हैं जिनमें संथाल, मुंडा आदि भी शामिल हैं। शुरू-शुरू में इस भाषा का नाम आस्ट्रो-एशियाटिक दिया गया था। दक्षिण-पूर्व या अग्नकोण की भाषा होने के कारण इसे आग्नेय परिवार भी कहा जाने लगा है। अब हम लोग भारतीय जनता के वर्ग विशेष को ध्यान में रखकर और पुराने साहित्य का स्मरण करके इसे कोल-परिवार की भाषा कहने लगे हैं, पण्डितों ने बताया है कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्द, जो अब भातीय संस्कृति के अविच्छेद अंग बन गए हैं, इसी श्रेणी की भाषा के हैं। कमल, कुड्मल, कंबु, कंबल, ताम्बूल आदि शब्द ऐसे ही बताये जाते हैं। पेड़-पौधों, खेती के उपकरणों और औजारों के नाम भी ऐसे ही हैं। कुटज भी हो तो क्या आश्चर्य ? संस्कृत भाषा ने शब्दों के संग्रह में कभी छूट नहीं मानी। न जाने किस-किस नस्ल के कितने शब्द उसमें आकर अपने बन गये हैं। पण्डित लोग उसकी छानबीन करके हैरान होते हैं। संस्कृत सर्वग्रासी भाषा है।

यह जो मेरे सामने कुटज का लहराया पौधा खड़ा है, वह नाम और रूप दोनों में अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा कर रहा है। इसलिए वह इतना आकर्षक है कि हजारों वर्ष से जीता चला आ रहा है। कितने नाम आये और गये। दुनिया उनको भूल गई, वे दुनिया को भूल गये। मगर कुटज है कि संस्कृति की निरन्तर स्फीयमान शब्दराशि में जो जम के बैठा ही है और रूप की तो बात ही क्या है। बलिहारी है इस मादक शोभा की। चारों ओर कुपित यमराज के दारुण नि:श्वास के समान धधकती लू में यह हरा भी है और भरा भी है, दुर्जन के चित्त से भी अधिक कठोर पाषाण की कारा में रुद्ध अज्ञात जल-स्रोत्र से बरबस रस खींचकर सरस बना हुआ है और मूर्ख के मस्तिष्क से भी अधिक सूने गिरि कांतार में भी ऐसा मस्त बना है कि ईर्ष्या होती है, कितनी कठिन जीवनी-शक्ति है ! प्राण ही प्राण को पुलकित करता है, जीवनी-शक्ति की जीवनी-शक्ति को प्रेरणा देती है।

दूर पर्वतराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियाँ हैं, वहीं कहीं भगवान महादेव समाधि लगाकर बैठे होंगे। नीचे सपाट पथरीली जमीन का मैदान है, कहीं-कहीं पर्वतनंदिनी सरिताएँ आगे बढ़ने का रास्ता खोज रही होंगी- बीच में चट्टानों की ऊबड़खाबड़ जटाभूमि है- सूखी, नीरस, कठोर ! यहीं आसन मारकर बैठे हैं मेरे चिरपरिचित दोस्त कुटज। एक बार अपने झबरीले मूर्धा को हिलाकर समाधिनिष्ठ महादेव को पुष्पस्तवक का उपहार चढ़ा देते हैं और एक बार नीचे की ओर अपनी पाताल-भेदी जड़ों को दबा कर गिरिनंदिनी सरिताओं को संकेत से बता देते हैं कि रस स्रोत्र कहाँ हैं। जीना चाहते हो ? कठोर पाषाण को भेदकर, पाताल की छाती चीरकर अपना भोग संग्रह करो, वायुमण्डल को चूसकर, झंझा-तूफान को रगड़कर, अपना प्राप्य वसूल लो, आकाश को चूमकर, अवकाश लहरी में झूमकर, उल्लास खींच लो। कुटज का यही उपदेश है-

 

भित्त्वा पाषाणपिठरं छित्त्वा प्राभंजनीं व्यथाम्।
पीत्वा पातालपानीयं कुटजश्चुम्बते नभ:।


दुरंत जीवन-शक्ति है। कठिन उपदेश है। जीना भी एक कला है। लेकिन कला ही नहीं तपस्या है। जियो तो प्राण ढाल दो जिन्दगी में, ढाल दो जीवन रस के उपकरणों में ! ठीक है ! लेकिन क्यों ? क्या जीने के लिए जीना ही बड़ी बात है ? सारा संसार तो अपने मतलब के लिए ही जी रहा है। याज्ञवल्क्य बहुत बड़े ब्रह्मवादी ऋषि थे। उन्होंने अपनी पत्नी को विचित्र भाव से समझाने की कोशिश की कि सब कुछ स्वार्थ के लिए है। पुत्र के लिए पुत्र प्रिय नहीं होता, पत्नी के लिए पत्नी प्रिया नहीं होती- सब अपने मतलब के लिए होते हैं- ‘आत्मस्तु-कामाय सर्व पियं भवति !’ विचित्र नहीं है यह तर्क ? संसार में जहाँ कहीं प्रेम है सब मतलब के लिए। सुना है, पश्चिम के हॉब्स और हेल्वेशियस जैसे विचारकों ने भी ऐसी ही बात कही हैं।

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