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अपवित्र आख्यान

अब्दुल बिस्मिल्लाह

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6104
आईएसबीएन :9788126714773

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हिन्दू मुश्लिम रिश्तों की मिठास और खटास के साथ समय की तिक्ताओं और विरोधाभासों का सूक्ष्म चित्रण करता उपन्यास...

Apavitra Aakhyan -A Hindi Book by Abdul Bismillah - अपवित्र आख्यान - अब्दुल बिस्मिल्लाह

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

‘‘अरे गोली मारिए डाक्साब जमील को। मैं जो कह रहा हूँ, सुनिए। और हाँ, आपके यहाँ सेलेक्शन कमेटी कब हो रही है... नवम्बर में न ?’’ हेट साहब ने प्रकाऱान्त से यह जताया कि ‘उसका’ ध्यान रखकर सुनिए, ‘‘एक मुसलमान लड़की है मैं उसे काम कराने जा रहा हूँ ‘हिन्दी के मुसलमान कवियों पर हिन्दू आस्थाओं का प्रभाव’ विषय पर …...’’
‘‘बस बस समझ गए, ’’ दक्षिण भारतीय प्रोफेसर बोले। फिर आगे उन्होंने जोड़ा, ‘‘कन्या सुन्दरी तो है न ?’’ और हँस पड़े।
साथ ही अन्य दोनों प्रोफेसर भी हँस पड़े।

‘‘मियाँइने वैसे भी सुन्दर होती हैं क्यों डॉक्साब ?’’ बिहारवाले प्रोफ्सर ने अपने होठ चाटते हुए कहा तो प्रो चतुर्वेदी की आँखें तिरछी हो गई। बोले, ‘‘विशेषकर जब वे बुरक़े के भीतर से झाँकती हैं।’’
अब्दुल बिस्मिला उन चन्द भारतीय लेखकों में से है जिन्होंने देश की गंगा-जमनी तहज़ीब को काफ़ी करीब से देखा है और उसे अपनी कहानियों और उपन्यासों का विषय बनाया है।

समय की सबसे बड़ी विडम्बना है मनुष्य का इनसान हो पाना। हम हिन्दू, मुसलमान, तो है पर इनसान बनने की जद्दोजहद हमें बेचैन कर देती है। यह उपन्यास हिन्दू मुश्लिम रिश्तों की मिठास और खटास के साथ समय की तिक्ताओं और विरोधाभासों का भी सूक्ष्म चित्रण करता है।

उपन्यास के नायक का सम्बन्ध ऐसी संस्कृति से है जहां संस्कार और भाषा के बीच धर्म कोई दीवार खड़ा नहीं करता। लेकिन शहर का सभ्य समाज उसे बार-बार यह अहसास दिलाता है कि वह मुसलमान है और इसलिये उसे हिन्दी और संस्कृति की जगह उर्दू या फारसी की प़ढ़ायी करनी चाहिए थी। वहीं ऐसे पात्रों से भी उनका सामना होता है जो अन्दर से कुछ और और बाहर से कुछ और होते हैं। उपन्यास की नायिका यूँ तो व्यवहार में नवाज़ रोजे वाली है लेकिन नौकरी के लिए किसी मुश्लिम नेता हमबिस्तरी करने में उसे कोई हिचक भी नहीं होती।

अपवित्र आख्यान मौजूदा अर्थ क्रेन्द्रित समाज और उसके सामने खड़े मुश्लिम समाज के अन्तर्वाह्य अवरोधो की कथा के बहाने देश-समाज की मौजूदा सामाजिक और राजनीति स्थितियों का भी गहन चित्रण करता है।

 

अपवित्र आख्यान

वे दोनों पहली बार साथ-साथ रिक्शे पर बैठे थे। गर्मियों के दिन थे। चारों तरफ़ धूप चिलचिला रही थी। रह-रहकर धूप-भरे बवंडर उठ रहे थे। पसीने से रिक्शा चलानेवाले की क़मीज़ तर हो गई थी। मगर था वह मस्त। गले में लाल रंग का रुमाल बाँधे गुनगुनाता हुआ इतनी तेज़ी के साथ रिक्शा चला रहा था कि वे लोग रह-रहकर एक-दूसरे को पकड़ लेते थे। जब कभी वह दाएँ या बाएँ रिक्शा घुमाता तो ऐसा लगता मानो अब गिरे, अब गिरे। रिक्शा जैसे ही चौड़ी सड़क को पार करके संकरी सड़क पर पहुँचा यासमीन ने अपना पर्श खोला और नक़ाब निकालकर जल्दी –जल्दी उसे पहनने लगी। जमील हक्का-बक्का रह गया।

‘‘यासमीन तुम नक़ाब ओढ़ती हो ?’’
‘‘क्यों ?’’ यासमीन ने उँगलियों से नक़ाब का पल्ला उठाते हुए उसकी तरफ़ ताका। ‘‘हिन्दी पढ़ते का यह मतलब तो नहीं होता कि आदमी अपनी तहज़ीब भुला दे।’’
‘‘यह तुम्हारी तहजीब है या डर ?’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं....।’’
‘‘देखो जमील.....’’ बस, इतना ही यासमीन ने कहा और रिक्शेवाले को आगे बढ़ने से रोकती हुई बोली,‘‘रुको।’’ रिक्शा रुक गया।
‘‘तुम यहीं उतर जाओ।’’ यासमीन ने उस क्षण ठीक से अपना चेहरा छिपा लिया था, ‘‘मैं चलती हूँ। तुम थोड़ी देर बाद आना।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यूँ ही हमारा इस तरह एक साथ रिक्शे पर बैठकर घर चलना ठीक नहीं होगा। अब्बू ने या बड़े भैया ने देख लिया तो....?’’
‘‘तो क्या होगा ?’’
‘‘होगा तो कुछ नहीं मगर ...’’
जमील रिक्शे से उतर गया।
‘‘चलो ....’’ यासमीन ने रिक्शे से कहा और जमील से बोलीः
‘‘थोड़ा इधर-उधर टहलते हुए आना- आँ...। मकान नम्बर एक सौ पैंतीस, ठीक रोड पर.....।’’
धूल का एक जलता हुआ बवंडर आया और पल-भर में रिक्शा ओझल हो गया।
जमील पीछे आ रहे स्कूटर के पिर्र-पिर्र से चौका। घबराहट में वह बजाय बाई ओर के दाई ओर भागा। स्कूटर वाले के मुँह से एक अस्पष्ट गाली निकली, फिर वह भी ओझल हो गया।

दाहिनी तरफ़ चायखाना था। सामने भट्ठी में पत्थर के कोयले जिस पर एक केतली चढ़ी थी। भट्टी के ऊपर, इधर उधर उबली हुई चाय की पत्तियाँ बिखरी थीं। कहीं-कहीं शक्कर के दाने भी। इस तरह कुल मिलाकर ऐसा लग रहा था मानो वह भट्ठी नहीं, साक्षात् ब्रह्मांड है। लाल-लाल दहकते हुए सूर्य के इर्द-गिर्द अदर्शनीय नक्षत्र।
जमील चायख़ाने में घुस गया। वहाँ धूप नहीं थी, मगर भट्ठी की आँच का ताप मौजूद था। वह धूल के बवंडर भी नहीं थे, मगर बीडियों का धुआँ भी हुआ था। वह एक बेंच पर बैठ गया।

‘‘एक चाय।’’ उसने ज़रा ज़ोर से आवाज़ लगाई और अपनी फ़ाइल रखने के लिए जगह देखने लगा। जिस बेंच पर वह बैठा था. उस पर दो लोग बैठे हुए थे दाहिनी तरफ़। बाई तरफ़ थोड़ी-सी जगह न ख़ाली थी, मगर वहां पानी गिरा हुआ था। टेबुल पर चाय के भरे हुए प्याले तो थे ही, ख़ाली भी पड़े थे। उन पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थी। प्यालों और मक्खियों के क़ब्जें से तो जो टुकड़े बचे हुए थे उन पर या तो अधजली बीड़ियों के जंगल नज़र आ रहे थे या फिर छलकी हुई चाय के सागर.....और जमील की फाइल में...अयोध्याकांड, कामयाबी और झूठा सच के नोट्स...।

चाय आ गई जमील ने फ़ाइल अपनी गोद में रख ली और इन्तजार करने लगा चाय ऊपर भूरे रंग की पर्त जम जाने का इन्तजार। जमील पहले उस पर्त को उँगली से निकालकर अलग करता, फिर चाय पीता। यह उसकी आदत नहीं, उसका दर्शन था। पानी में घुसने से पहले काई हटा दो। पानी क्या है ? काई क्या है इन प्रश्नों के उत्तर अभी तक उसे नहीं मिले थे।
जमील मुस्कराया। लेकिन तुरन्त ही उसने लक्ष्य किया कि सामने की बेंच पर बैठा आदमी भाँप गया है कि वह मुस्करा रहा है। जमील गम्भीर हो गया। ‘ये क्या दार्शनिक जैसी बातें करते हो ? यासमीन ने उसे दिन टोका था- लाइब्रेरी में।‘इस मुल्क में कोई मुसलमान दार्शनिक होता हुआ है ?’
चाय में भूरे-रंग की परत जम गई थी। मगर जमील ने जब उसे अलग करने की कोशिश की तो वह बिखर गई। अब उसे हटाया नहीं जा सकता था। या तो पर्त के टुकड़ों समेत चाय पी जा सकती थी, या फिर छोटी जा सकती थी ! सो, क्या करना चाहिए ?

मकान नम्बर एक सौ पैंतीस में जाना चाहिए या नहीं जमील ने स,मय जानने के लिए अपनी बाई कलाई पर से क़मीज की आस्तीन हटाई लेकिन घडी़ तो वहां थी ही नहीं वह क्षेप गया । मान लीजिए आपका रास्ता बीच में ही कटा हुआ हो और उस गड्ड़े में पाँव रखते हुए आप आगे बढ़ते हों.... कि अचानक एक रोज़ जब आप गड्ढे में पाँव रखने की केशिश करे और पता चले की वहां तो कोई गड्ढा नहीं है ...तो ?’’
दरअसल हफ्ते भर पहले जमील ने अपनी घडी बेच दी थी। मगर वह भूल गया था.... और घड़ी के बगैर भी क्या कोई समय का अनुमान लगा सकता है।

जमील को लगा कि वह फिर दर्शन के जाले में फँसा रहा है। किसी भी जाले अथवा जाल में न फँसने के एकमात्र उपाय य़ह है कि मनुष्य स्वयं को कार्य और कारण से परे कर ले। उसने तत्काल निर्णय लिया और चाय छोड़ दी ! वाह, निर्णय ले लेने का भी क्या सुख है ! वह भट्ठी के ताप और धुँए की घुटन से बाहर आ गया। जमील यासमीन के घर नहीं गया। शाम हो गई थी, मगर सूरज अभी नहीं डूबा था। वह क़ब्रस्तान के पार, पेड़ों के पीछे चमक रहा था। जमील ने खिड़की खोली तो भीतर एक-लपट-सी घुसी। उसने फ़ौरन खिड़की बन्द कर दी। खिड़की खोली तो भीतर एक के पास ही उसकी चारपाई थी- बँसखट। दस रुपये में खरीदी थी। बँसखट पर एक पुरानी-सी दरी बिछी थी,.जिस पर उसने लाल –हरे चारखाने की सूती चादर डाल रखी थी। तकिया बहुत पुराना था। भीतर कई-कई तो अस्तर थे। जिसमें सबसे ऊपर वाला भी तेलहुँस... उसके ऊपर एक सस्ता-सा कवर। जमील ने खिड़की बन्द करने के बाद बिस्तर उलटकर सिरहाने की तरफ़ मोड़ दिया।

दरवाज़े के पास उसका किचन था। कोयलों वाली एक अँगीठी, आटा-चावल-दाल के डिब्बे, बालटी, कुछ बर्तन और एकदम कोने में कोयलों वाली बोरी। अंगीठी में कोयले धधक गए थे। जमीन ने पतीली में दाल का पानी चढ़ा दिया।
जमील ने वह कमरा पन्द्रह रुपए महीने पर लिया था, जिसका दरवाज़ा पश्चिम की तरफ़ था। उसके गाँव में ऐसा कोई भी घर नहीं था। वह दरवाज़े या तो पूर्व की तरफ़ थे या फिर उत्तर की तरफ़। पश्चिम की तरफ दरवाजा बनाने का तर्क उसकी समझ में नहीं आता था। गर्मियों में दिन-भर सूरज की लपटें भीतर आती थीं। लेकिन मकान-मालिक के पास तर्क था। मग़रिब में काबा है ! और मशरिक़ में ? मशरिक़-यानी पूरब में मकान-मालिक ने पाखाना बनवा रखा था, जिसमें प्रवेश करने के लिए पहले कमरे से बाहर निकलना होता था, फिर बाईं ओर की गली से पीछे की तरफ जाना होता था। चूकि पाख़ाने में ताले की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए वहाँ कोई भी जा कर निपट सकता था !

खाना और पाखाना-कितने मिलते-जुलते शब्द हैं। हैं कि नहीं ?
जमील पानी में दाल के दाने डाल रहा था और मुस्करा रहा था। उस समय उसकी मुस्कान को भाँपने वाला वहाँ कोई नहीं था। दाल जब पक जाएगी तो वह पकाएगा चावल। चावल जब पक जाएगा तो वह पकाएगा सब्जी। सब्जी जब पक जाएगी तो वह बनाएगा रोटी। रोटी जब बन जाएगी तो वह...आदमी इसी तरह सोचता है, जबकि ऐसा होता नहीं। सच तो यह है कि जमील दाल पकाने के बाद सिर्फ़ रोटी बनाएगा ! अरहर की खूब गाढ़ी दाल-हल्दी, लहसुन और कटी मिर्च वाली। साथ में मोटी-मोटी दो रोटियाँ अगर वह चावल बनाता तो सिर्फ़ चावल बनाता। बाज़ार से एक रुपए की दही दीये के बराबर कसोरे में ले आता और थोड़ा-सा शक्कर मिलाकर खा लेता। मगर सोचने में क्या जाता है ?

दाल में हल्दी-मिर्च डालकर जमील कुर्सी पर बैठ गया। कुर्सी ? हाँ, बँसखट के साथ ही उसने पचास रुपयों में एक कुर्सी और मेज़ भी ख़रीदी थी। महुवे की लकड़ी की। किचन के बगल में ही वे सजी हुई थीं। क्योंकि उसी तरफ़ दीवार में अलमारियाँ बनी थीं। अलमारियों में किताबें भरी थीं। जमील ने उन्हें कबाड़ी की दुकान से ख़रीदा था। डाक्टर ज़िवागो आठ आने में, यह पथबन्धु था (छात्र संस्करण) एक रुपए में, मार्क्स, गाँधी एण्ड सोशलिज़्म दो रुपए में, न आनेवाला कल और वरुण के बेटे (पाकेट बुक) चार-चार आने में...जमील कुर्सी पर बैठता तो पहले उन किताबों को गंभीरतापूर्वक देखता, फिर रद्दी की दुकान से तौल के हिसाब से ख़रीदे गए काग़ज़ों को टेबुल पर फैलाकर अपनी कलम का कैप खोलता। कहानी लेखकः जमील अहमद ....!

हिन्दी में बहुत से मुसलमान कहानी-उपन्यास लिख रहे हैं, क्या तुम कोई नया तीर मारने वाले हो ?’ यासमीन ने उसे टोका था एक दिन- पार्क में घूमते हुए। जमील को लगा, कोई दरवाजा खटखटा रहा है। उसके बदन पर उस वक्त सिर्फ़ एक जाँघिया था-पट्टे का-और सेंडो बनियान। लेकिन लुँगी बाँधने का मतलब था खटखटाने की आवाज़ को सुनते रहना-लगातार। यह बहुत तकलीफ़देह था.....उसने दरवाज़ा खोल दिया।
‘‘आपको बुलाई हैं। अभी।’’

सड़क पर एक बचकानी साइकिल थी। सीट पर इरफान बैठा था-यासमीन का भाई। उसका एक पांव पायडिल पर था, दूसरा चबूतरे पर।
‘‘तुम चलो, मैं आता हूँ।’’
इतना कहते ही साइकिल मुड़ गई और दरवाज़ा बन्द करके जमील कपड़े बदलने लगा।

जमील जब कमरे से बाहर आया, सूरज ढूब चुका था। क़ब्रिस्तान में खड़े पेड़ों पर झुंड की झुंड चिड़ियाँ मडराने लगी थी। गली में सस्ती आइस्क्रीम और चाट बेचने वालों की आवाजें गूँजने लगी थीं। नंगे-अधनंगे बच्चे अपनी मुट्ठियों में पैसे दबाए उनके इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे थे। दरवाजों पर पड़े मैले-कुचैले पर्दों की आड़ से उनकी अम्माओं के चेहरे झाँक रहे थे। मुहल्ले की दुकानों की बत्तियाँ जल गई थीं।




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