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अन्तिम आकांक्षा

सियारामशरण गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6097
आईएसबीएन :9788180312083

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एक रोचक और मनोरंजक उपन्यास

Antim Aakanksha a hind ibook by Siyaramsharan Gupta - अन्तिम आकांक्षा - सियारामशरण गुप्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किसी के स्वस्थ व्यवहार और उपहार के प्रति कृतज्ञता-समर्पण की सीमा तक पहुँची हुई ऐसी कृतज्ञता कि बचपन से चाकरी में रहने वाला नौकर अपने उसी हम उम्र स्वामि-पुत्र के परिवार में अगले जन्म में भी जन्म लेने और उस परिवार की चाकरी करने की आकांक्षा अंतिम सांस लेते समय प्रकट कर रहा हो- यही है वह अंतरधारा जो इस उपन्यास में अनादि से अंत तक प्रवाहित हो रही है।
नौकर रमला को सेवा के पहले ही दिन पूरे नाम रामलाल से पुकारने का जो भाव उसका खास पुत्र-प्रकट करता है वह भाव धीरे-धीरे अपने उत्कर्ष की ओर बढ़ता जाता है और रामलाल की अन्तिम आकांक्षा का कारण बन जाता है।

उपन्यासकार सियारामशरण गुप्त अपने उपन्यासों में किसी न किसी ऐसे ही उत्कृष्ट भावना अथवा मान्यता को आधार बनाकर अपने उपन्यास की रचना करने के कायल थे, जिसे उन्होंने इस उपन्यास की भी अन्तरधारा के रूप में अपने कथानक में प्रवाहित किया है, जिससे उपन्यास रोचक और मनोरंजक बनने के साथ ही पाठक के अंतर्मन को भी प्रभावित करने वाला बन गया है।

श्रीराम
अन्तिम-आकांक्षा
1

उस दिन दस-बारह बरस के हृष्ट-पुष्ट लड़के को अपने यहाँ मजूरी के काम पर देखकर सहसा मेरे मुँह से एक लम्बी साँस निकल पड़ी। इस साँस का कारण बताने के लिये मुझे बहुत पीछे लौटना पड़ेगा।

बरसों की बात है, एक दिन रामलाल भी पहले-पहल इसी अवस्था में मेरे यहाँ काम पर आया था। आज इस लड़के को देख कर मुझे उसी का स्मरण हो आया। देखता हूँ, बचने का प्रयत्न करने पर भी किसी तरह मैं उसकी स्मृति से बच नहीं सकता। मेरी मानसिक दशा सचमुच उस बच्चे जैसी हो रही है, जो अपने साथियों के दुर्व्यवहार की शिकायत अपने बड़ों के पास ले दौड़ता है और इसके दूसरे ही क्षण उन्हीं साथियों में मिलकर लड़ता झगड़ता हुआ फिर खेलने लगता है।

रामलाल के आने के दिन की बात मुझे अच्छी तरह याद है। उस दिन किसी मुसलमानी त्यौहार के कारण मेरे मदरसे की छुट्टी थी। मेरी वह छुट्टी, कारागार के सीकचों से कार्यवशात् ही उस बन्दी के बाहर निकलने के समान थी,- जिसके हाथ-पैर हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े ही रहते हैं। क्योंकि मेरे अध्यापक को अच्छी तरह मालूम था कि मैं मुसलमान किसी तरह नहीं हूँ। और, उनका विचार था कि व्यवस्थापिका सभाओं के स्थानों की तरह सार्वजनिक छुट्टियाँ भी अलग-अलग होनी चाहिये। इसलिए घर पर अध्ययन करने का कठोर निर्देश उन्होंने मुझे पहले ही कर रक्खा था। सहसा उस अध्ययन से ऊबकर मैंने अपने कमरे के भीतर के पुकारा- परसादी !
एक बालक मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। अवस्था में वह मुझसे बड़ा न था, परन्तु अपनी स्वस्थ देह के कारण वह पहली ही बार वह मुझे अपने से बड़ा मालूम हुआ। मुझे अपनी ओर देखते देख कर अपरिचय के किसी संकोच के बिना तुरन्त ही उसने कहा- परदासी भैया सौदा-पता लेने बाजार गये हैं। क्या काम है,- मैं कर दूँगा।

मैंने विरक्ति प्रकट करते हुए कहा- तुम क्या कर सकोगे- जाओ, देखो अपना काम। जब वह आ जाय, तब उसी को भेज देना। बड़ा कामचोर है; कई दिन से कमरे में झाड़ू तक नहीं दी। पाँच मिनट के किसी काम से गया होगा और लगा देगा पूरा एक घण्टा। मुझसे तो इस गंदगी में बैठकर पढ़ा-लिखा नहीं जाता।

‘‘मैं अभी सब ठीक किये देता हूँ, उस कमरे में झाड़ू पड़ी है’’- कहकर वह वहाँ से तेजी से चला गया। उसकी इस तत्परता ने परसादी के प्रति मेरा क्रोध और बढ़ा दिया। मुझे छोटा समझ कर ही वह मेरी परवा नहीं करता; उसे काम करना चाहिए इस नये नौकर की तरह दौड़ कर। झाड़ू उठाकर वह तुरन्त ही लौट आया और आज्ञा की प्रतीक्षा में चुपचाप एक जगह खड़ा हो गया। मैंने कहा- देख, इस तरह
झाड़ू फेर की कोई चीज इधर की उधर न हो जाय।

‘‘यह मैं जानता हूँ; परन्तु भैया, तनिक उठकर तुम बाहर चले जाओ। धूल उड़ेगी।’’
नई बात सुनी। परदासी इस तरह का वाक्य-व्यय आवश्यक नहीं समझता। आया और झट-से उसने अपना काम शुरू कर दिया। धूल उड़ेगी तो मैं अपने आप उसके साथ उड़कर बाहर चला जाऊँगा, यह एक मानी हुई बात है। मैं प्रसन्नता-पूर्वक उठकर बाहर चला गया।

घंटे डेढ़ घंटे बाद लौट कर देखा कि खड़ा-खड़ा वह अपने हाथ-पैर धो रहा है। पूछने पर मालूम हुआ, कमरे की सफाई करके अभी-अभी बाहर आया है। सुनकर जी खट्टा हो गया। जैसा परसादी, वैसा ही यह;- नौकर नौकर सब एक हैं ! इतनी देर तक क्या करता रहा ? झाड़ू उठाने तो इस तेजी से गया था मानों सब काम अभी एक क्षण में किये डालता है और काम करने बैठा तो दो घंटे लगा दिये। परन्तु जहाँ एक ओर मुझे असन्तोष हुआ, वहीं दूसरी ओर सन्तोष का कारण भी कम न था। बाहर जाकर अनावश्यक देर मैंने स्वयं कर दी थी। अब मैं कह सकता था कि इतनी देर न पढ़ सकने में कुछ दोष नहीं ।

भीतर जाकर देखा तो वैसा ही रह गया। मेरे कमरे का यह सम्मार्जन पूर्ण स्वस्थ पुरुष के गंगा-स्नान जैसा था, किसी रुग्ण के दो चार छीटों से शुद्ध हो जाने जैसा नहीं। ऊपर के जिन आलों में दीवाली के दूसरे दिन की धूल साल भर तक के लिए सुख से जमकर बैठ गई थी, वहाँ से उसे भी मानों बलपूर्वक हटा दिया गया था। मकड़जालों ने छत में मसहरी तान रक्खी थी। एक लकड़ी में लत्ता बाँध कर उसकी सफाई भी कर दी गई थी। अलमारी में कुछ पुस्तकों के नीचे धूल चिपक गई थी, उसे पोंछना भी वह न भूला था। पुस्तकें और कागज-पत्र इधर-उधर बिखरे पड़े थे, उठाकर वे सब एक स्थान पर रख दिये गये थे। यद्यपि बड़े के ऊपर छोटे के सिलसिले से वे न थे, परन्तु यह सब करना तो मेरा काम था। स्थान के अनन्तर अस्त-व्यस्त बालों के लिये कन्घी को ही कष्ट देना पड़ता है।

मेरे मुँह से अपने आप निकल पड़ा- वाह तूने तो बड़ा काम किया !
उसने प्रसन्नतापूर्वक चुपचाप सिर झुका लिया। मैंने पूछा- तेरा नाम क्या है ?
‘‘रमला।’’
मैंने माँ से सीखा था कि नौकर-चाकरों का नाम भी बिगाड़ कर न कहना चाहिए। पूछा- रमला क्या, -रामलाल ?
उसने हँसकर कहा- हाँ, सब लोग मुझे रमला ही कहते हैं।
मैंने सिर हिलाकर कहा- नहीं, दादा का नौकर परसादी, मेरा नौकर रामलाल। अच्छा बोल, करेगा मेरा सब काम ?
उसे जोर की हँसी आई। बोला-काम न करूँगा तो आया किस लिये हूँ ?
‘‘ठीक ! दादा का नौकर परसादी, मेरा रामलाल।’’
उसे ‘रामलाल’ कह कर मुझे ऐसी प्रसन्नता हुई मानों काम के पुरस्कार में मैंने उसे एक अक्षर और एक मात्रा की कोई दुर्लभ उपाधि ही दे डाली हो।

इसी समय बाहर खेलती हुई मुन्नी जोर से चिल्ला उठी- अरे भैया, रस्सी तोड़कर श्यामा छूट गई।

छूटी क्या, बँधी गाय को भी मुन्नी डरती थी और मैं था उसका बड़ा भाई। फलत: उसके लिये मेरे मुँह से सान्त्वना की कोई बात न निकल सकी। तब तक रामलाल बोल उठा- बिन्नी, डर मत, श्यामा को मैं अभी बाँधे देता हूँ।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने कहा- बिना पहचान की है, तुझे मारेगी तो नहीं ?
‘‘मारेगी कैसे’’- कह कर उसने पास रक्खी हुई एक लकड़ी उठा ली। परन्तु उसे लकड़ी के अच्छे या बुरे किसी उपयोग की आवश्यकता नहीं पड़ी। झट-से जाकर उसने गाय की टूटी डोर पकड़ ली और उसे थपथपाने लगा। मुझे अपने स्थान पर पीछे हटते देख उसने हँसते हुये कहा- भैया, घबराने की क्या बात है ? आओ, तुम भी इसके ऊपर हाथ फेर जाओ।

इस डर से रामलाल कहीं मेरे पास न हाँक लाये, मैंने पीछे हटते हुये कहा- नहीं रे, तू इसे पीछे के घर में जल्दी बाँध आ। कहीं बिचक न उठे। ढोरों से मुझे बहुत डर लगता है। अभी परसों ही मुहल्ले में किसी गाय ने एक लड़के के पैर में वह ठोकर मारी कि उसकी हड्डी टूटते-टूटते बची।

रामलाल ने कहा- उसने कोई पाप किया होगा, नहीं तो गाय किसी को मारती है ? श्यामा है। भगवान् तक ने इसका दूध पिया है।
श्यामा गाय की यह महिमा मैंने भी सुनी थी। परन्तु इस बात पर विश्वास करने के ही लिये मैंने अपने को संकट में डालना उचित नहीं समझा।

वह उसे ले जाकर यथास्थान बाँध आया। मैंने कहा- चल रामलाल, माँ के पास। देर हो गई, कुछ खा ले।
वह बोला- माँ ने तो पहले ही खिला दिया था। कहने लगीं, घर जाने में देर हो गई, इसीलिये यहीं खा ले। मैंने कहा, नहीं माँ, देर कुछ नहीं हुई; घर पर अभी रोटी हुई तैयार न हुई होगी। काम लग जाता है तो मैं तीसरे पहर तक बिना खाये रह सकता हूँ। सबेरे डट कर जो खा लेता हूँ। सुनकर वे ‘राम-नाम’ करके कहने लगी, इतने छोटे बच्चे भी कहीं इतनी देर तक भूखे रह सकते हैं ! आ, कुछ खा ले। फिर मैं नाहीं न कर सका।

सुनकर मुझे कुछ बहुत अच्छा न लगा। माँ में यही तो ऐब है, जिसे देखो उसी को प्यार करने लगती हैं। उचित तो यही है कि सब माताएँ अपने-अपने बच्चों को प्यार करें ! मुझे मुनीम कक्का की बात याद आई कि इस घर में कोई नौकर अच्छी तरह काम नहीं कर सकता। माँ ही उन्हें बिगाड़ देती है। नौकरी तो उन्हें मिलती ही है, खाना-पीना उनका मुफ्त हो जाता है। कोई भी हो, घर में किसी का पेट खाली नहीं रहने पाता, और पेट भरा है तो किसी को काम की क्या चिन्ता ?
किसी काम से माँ को वहाँ आया देखकर मैंने कहा- माँ, तुमने मेरे नौकर को क्यों खिला दिया ?

माँ ने हँस कर कहा- खिला दिया तो क्या हुआ ? तू भी तो उससे खा लेने को ही कह रहा था।
रामलाल कुछ संकुचित हो पड़ा। कदाचित् इस विचार से कि माँ के संबंध में वह जो कुछ कह रहा था, उसे उन्होंने सुन लिया। मैंने कहा- खिलाना होता तो अपने नौकर को मैं खिलाता, तुम बीच में क्यों पड़ गई ? तुम उसे फुसलाना चाहती हो ! देख रामलाल, तू मेरा नौकर है, अब माँ का कोई काम किया तो ठीक न होगा।


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