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उपन्यास >> आखिरी मंजिल

आखिरी मंजिल

रवीन्द्र वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6085
आईएसबीएन :9788126714742

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प्रस्तुत है पुस्तक आखिरी मंजिल ...

Aakhiri Manzil a hindi book by Ravindra Verma - आखिरी मंजिल- रवीन्द्र वर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1857 के झाँसी के विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को न पकड़ पाने की हताशा का बदला रानी महल को कोतवाली बना कर लिया था। जिस प्रांगण में रानी फ़ब्बारों के इर्द-गिर्द बिहार करती थीं, वह सिपाहियों और उनके घोड़ों का मैदान हो गया था घोड़े कभी वहाँ लीद कर देते थे। जब आज़ादी मिली तब रानी महल मुक्त हुआ। अब यह अजायबघर था। प्रांगण वीरान था। पारामदों में प्राचीन मूर्तियाँ रखी थीं, जिनमें से कुछ खण्डित हो गयी थीं। इन मूर्तियों में एक पूरा संसार था जैसे पहली मंजिल की दीवारों पर बने चित्रों में। छित्र धुँधले थे जिनमें नाचती हुई स्त्रियाँ और उड़ते हुए पंछी बरसता हुआ पानी था। पेड़ों के ऊपर बादल और नीचे नाचते हुए मोर थे। हॉल में और कोई नहीं था। माधव चित्रों के सामने देर तक ऐसे खड़ा रहा जैसे मोर, पंछी और स्त्रियाँ चित्रों से बाहर निकल आयेंगी। खिड़किया खुली थीं, खिड़कियों से रोशनी और सड़क का शोर आ रहे थे। माधव खिड़की के पास सड़क की ओर मुँह करके खड़ा हो गया जैसे रानी एक सदी पहले खड़ी थी जब विद्रोही सिपाही घोड़ों पर महल के बाहर जमा हो गये थे ! क्या इन सैनिकों में ऐसा कोई था जिसे अंग्रेज पीपल के पेड़ से लटका कर फाँसी देंगे ?

 

इसी पुस्तक से


वरिष्ठ क़लमकार रवीन्द्र वर्मा के उपन्यास के आख़िरी मंज़िल के कवि-नायक में एक ओर ऐसी आत्मिक उत्कटता है कि वह अपने शरीर का अतिक्रमण करना चाहता है, दूसरी ओर अपनी अन्तिम आत्मिक हताशा में भी उसे आत्महत्या से बचे किसान का सपना आता है जो उसका पड़ोसी है और जिसका घर ‘ईश्वर का घर’ है। हमारे कथा-साहित्य में अक्सर ये आत्मिक और सामाजिक चेतना के दोनों धरातल बहुत-कुछ अलग-अलग पाये जाते हैं। यह उपन्यास मनुष्य की चेतना के विविध स्तरों की पुंजीभूत खोज है—उनकी सम्भावनाओं और सीमाओं की भी। इसमें चेतना आत्मिक-आध्यात्मिक और सामाजिक पहलू एक-दूसरे से अन्तर्क्रिया करते हुए एक-दूसरे से अपना रिश्ता ढूँढ़ते हैं। ऐसा लगता है जैसे चेतना के विभिन्न स्तर एक-दूसरे से मिलकर एक संश्लिष्ट, पूर्ण बेचैन मानव-अस्मिता रच रहे हैं सारे तार एक-दूसरे में गुँथे हैं।

इस भोगवादी समय में कलाकार की नियति से जुड़ी सफलता और सार्थकता का द्वन्द्व और भी तीखा हो गया है। यह द्वन्द्व इस आख्यान का एक मूलभूत आयाम है जिसके माध्यम से मनुष्य की नियति की खोज सम्भव होती है। यह खोज अन्ततः एक त्रासद सिम्फ़नी में समाप्त होती है।
रवीन्द्र वर्मा अपने क़िस्म के अनुठे रचनाकार हैं। कथ्य और शिल्प के मामले में परम्परा और आधुनिकता का जो सम्मिलन उनके इस उपन्यास में दिखाई देता है, वह अद्वितीय है।
साहित्य-समाज की मौजूदा तिक्तता और संत्रास तथा प्रकाशन और पुरस्कार की राजनीति को जानने-समझने का अवसर मुहैया करानेवाला अत्यन्त ज़रूरी उपन्यास।

 

आख़िरी मंज़िल

 

धरती पर देह पड़ी थी।
माधव दयाल ने अचानक आंखें खोलीं, जैसे कोई सपना टूटा हो दोनों ओर एक-एक आकृति नज़र आयी। स्त्री आकृति थी। मगर दोनों ओर धुँधलापन था। आकृतियाँ लम्बे धब्बों-सी लगती थीं। धब्बे लम्बे थे। धरती पर लेटे माधव दयाल को धब्बे और लम्बे लगे।
‘‘चश्मा !’’ वे चीख़े।
सुनन्दा ने चश्मा मेज़ से उठाया, उसकी कमानियाँ सीधी कीं और झुक कर उसे जमीन पर लेटे माधव दयाल की आँखों पर लगा दिया। वह खुद अचम्भे में थी। उसके गालों पर आँसू की लड़ियाँ थीं। उसने एकाएक पिता की आँखें खुलती देखी थीं। जैसे किसी बन्द गुफ़ा का दरवाज़ा खुल रहा हो।
‘‘सुनन्दा।’’ माधव दयाल सहज स्वर में बोले।
‘‘जी, पापा।’’ सुनन्दा ने रूमाल से आँसू पोंछते हुए कहा।
‘‘क्यों रो रही हो ?’’
‘‘आप अच्छे हो गये, पापा !’’
वे हँसे, ‘‘क्या मैं मर गया था ?’’
चुप्पी।

‘‘इसीलिए जमीन पर रखा था !’’ वे फिर हँसे
उनकी आँखे सिर और दाढ़ी के सफेद बालों से घिरी थीं। सफ़ेद ऊबड़-खाबड़ भौहें चश्मे के ऊपर झाँक रही थीं। उनके मन में कोई सन्देह नहीं बचा। सचमुच कुछ देर पहले उनकी साँस रुकी थी। तभी उन्हें पलंग से उतारकर ज़मीन को सौंप दिया गया था। कितनी देर पहले ? कितनी देर वे ज़मीन पर थे ?
‘‘मैं कब मरा था, सुनन्दा ?’’
सुनन्दा पहले अचकचायी, फिर उसने पिता की क्षैतिज देह के दूसरी ओर खड़ी आकृति की ओर देखा। माधव दयाल ने सुनन्दा की नज़र का पीछा किया, जैसे वह अपना सवाल का जवाब पाने का कोई रास्ता हो ! उनकी नज़र उस चेहरे पर ठिठक गयी : एक लम्बी बूढ़ी औरत थी, जिसके गोल चेहरे पर झुर्रियाँ थीं; साँवला चेहरा खिचड़ी बालों से घिरा था। वह हौले से मुस्करायी। उनकी उलझन बढ़ गयी।
‘‘कौन है ?’’ वे बुदबुदाये।
मुस्कान चित्र की तरह खिंची रही।

‘‘आप कौन हैं ?’’ वे फिर बोले। तभी उनकी नज़रे मिलीं। वही चमक थी। जैसे कोई दूसरे जन्म में मिल रहा हो।
‘‘मधु...’’ उनके मुँह से अस्फुट स्वर फूटे।
‘‘हाँ, पापा।’’ सुनन्दा ने सहज होने की भरसक कोशिश की, ‘‘मम्मी हैं। आज सुबह दिल्ली से आयी थीं। आपकी तबियत देखने आ गयीं।’’
मधु के चित्र से स्वर झरे, ‘‘अब तबियत कैसी है ?’’
‘‘मगर मैं मरा कब था ?’’ यह कहते हुए माधव बैठ गये जैसे लेटा हुआ आदमी बैठ जाता है।

जब वे बैठे तो सीधे देख रहे थे पहले उन्होंने बायें देखा जहाँ सुनन्दा खड़ी थी, फिर दायीं ओर जहाँ मधु थी। दोनों चुप थीं। उन्होंने दायीं ओर से नज़र बायीं ओर घुमायी, फिर बायीं ओरे से दाहिनी ओर, चुप्पी जारी थी। क्या चुप्पी ही सवाल का जवाब थी ?
तभी सुनन्दा बोली, ‘‘आप मरे नहीं थे, पापा।’’
‘‘फिर ?’’ माधव गया की नज़र फिर बायीं ओर घूमी।
‘‘आप कहीं और थे।’’
‘‘कहां ?’
‘‘पता नहीं।’’

‘‘क्या यही पता करने को मुझे नीचे उतारा था ?’’ वे हँसे। कोई और नहीं हँसा।
‘‘नीचे हमने नहीं उतारा था, पापा।’’
माधव ने प्रश्नवाचक नज़र से मधु की ओर देखा।
‘‘पण्डित ने उतारा था।’’ सुनन्दा ने कहा।
‘‘पण्डित ?...कौन-सा पण्डित ?’’ माधव ने कमरे में चारों ओर देखा।
‘जो आपको गीता सुना रहा था।’’
‘‘मैंने न गीता सुनी, न पण्डित को देखा।’’
‘‘तब आपकी आँखे बन्द थीं।’’
‘‘शायद मैं कहीं और था।’’ वे फिर हँसे।
‘‘हां, पापा, तभी पण्डित जी आये और गीता का पाठ करने लगे।’’
‘‘वे कहाँ गये ?’’ माधव ने फिर चारों ओर नज़रे दौड़ायीं।
‘‘आपकी आँखे खुलते ही चले गये।’’
‘‘चले गये ?’’
‘‘हाँ।’’

माधव दयाल सहसा खड़े हो गये और मधु के पार देखने लगे। मधु के पीछे खिड़की थी। खिड़की खुली थी । खिड़की में कुछ दूर गुलमोहर की पत्तियाँ हिल रही थीं। साँवला उजाला पत्तियों को घेरे था। उन्हें लगा जैसे सूर्य अगले क्षण निकलेगा और पत्तियाँ चमकने लगेंगी।
कितना बजा है ?’’ माधव गयाल ने पूछा।
‘‘छः।’’ सुनन्दा ने कहा।
‘‘सूरज अभी तक नहीं निकला ?’’ उन्होंने भँवें सिकोड़ीं।
सुनन्दा हँसी, ‘‘सूरज डूब रहा है।’’
माधव ने सवालिया नज़रें उसकी ओर घुमायीं।
‘‘पापा, अभी शाम के छः बजे हैं।’’
एकाएक उन्हें याद किया वे गहरी प्रतीक्षा में थे। क्या वह आज ही की सुबह थी ?
‘‘आज क्या तारीख है ?’’
‘‘13 मई।’’
वे बाहर के हॉल में टी.वी. की ओर भागे। उन्होंने रिमोट से एन.डी.टी.वी. लगाया। ख़बरें आ रही थीं। यह अप्रत्याशित था। ऐसे किसी को उम्मीद नहीं थी। समाचार-वाचक कह रहा था कि भाजपा का सूरज आम चुनाव में डूब गया है। वे सोफ़े पर पसर गये। उन्होंने आँखें मूँद लीं। उनके होंठों से ये शब्द निकले, ‘‘सुनन्दा, ज़रा पंखा तेज़ कर दो।’’
उन्हें सहसा बहुत गर्मी लगी थी।

उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी। दिल की सबसे भीतरी परत में ज़रूर एक उम्मीद छिपी थी। लेकिन वह ऐसी शास्वत उम्मीद थी जो तभी टूटती है जब साँस टूटती है। ऐसी हताश उम्मीद सच ही निकलेगी, यह माधव दयाल ने नहीं सोचा था। यह 1977 के इमर्जेंसी के चुनावफल की तरह ही था जब वे बूढ़े नहीं हुए थे—मगर बेचैनी ऐसी ही थी। यह बेचैनी कुछ उसी मोमबत्ती की तरह थी जिसे हाथ में लिए वे पिछले हफ़्ते की एक गर्म शाम शहीद स्मारक से अम्बेडकर पार्क तक जुलूस में चले था। अँधेरा हो गया था। यह भाजपा के विरुद्ध चुनावचिह्न का मोमबत्ती जुलूस था। दो लम्बी क़तारों में अँधेरे में चलती लगती मोमबत्ती किसी चमत्कार-सी लगती थीं। अगले दिन अख़बारों में छपे चित्रों को देखकर यही लगा था। शहर के लोगों ने बूढ़ा जान कर उन्हें आने के लिए फ़ोन नहीं किया था। लेकिन अख़बार में सूचना देख वे खुद ही चले गये थे वे जानते थे कि इससे उनकी बेचैनी कुछ देर को ही सही, दूर होगी।
माधव दयाल को लगा कि वही हाथ की मोमबत्ती अभी दिल के अँधेरे में फिर जल गयी थी। उन्होंने आँखें खोल दीं।

‘‘कॉफ़ीं पियेंगे ?’’ यह सुनन्दा की आवाज़ नहीं थी। उसकी माँ की आवाज़ थी, जिसमें समय का बोध घुल गया था। वह पारे-सी भारी थी। माधव ने बायीं ओर देखा जहाँ मधु बैठी थी। उसका चेहरा निर्विकार था। उसमें जीवाश्म-सी यह जानकारी थी कि माधव दिन के तीसरे पहर कॉफ़ीं पीते हैं।
‘‘पापा, कॉफ़ी बनाऊँ ?’’ दूसरी ओर से सुनन्दा की आवाज आयी।
‘हाँ।’ माधव ने कहा।
जब सुनन्दा किचन में चली गयी तो माधव मधु की ओर देखते हुए बोले, ‘‘तुम्हें पच्चीस बरस बाद देख रहा हूँ। पहली नज़र में पहचान नहीं सका।’’
मधु मुस्करायी, ‘‘तुम्हें देखने आयी थी।...सोचा नहीं था कि हम फिर इस तरह बैठ कर बात करेंगे।’’
वे हँसे, ‘‘क्या बात करें हम ?’’

चुप्पी।
‘‘तुम्हारा नाम है तुम सफल हो।’’ मधु ने कहा।
‘शायद।’’ माधव के होंठ मुस्कान में तिरछे हो गये थे।
‘‘क्या तुमने जीवन से वह पा लिया जो तुम पाना चाहते थे ?’’
‘‘मुझे अभी भी नहीं पता कि मैं क्या चाहता हूँ।’’ वे हँसे।
‘‘जब हम अलग हुए तुम्हें पता था ?’’
‘‘तब मुझे यह पता था कि मुझे क्या नहीं चाहिए।’’
चुप्पी। चुप्पी की बर्फ़। जिसमें ठण्डक नहीं थी।

सुन्नदा खिलखिलाती हुई हाथ में कॉफी की ट्रे लिये हुए आयी। कुछ घुँघरुओं को बिखरते जाना शायद याद आता था। वह माँ की तरह साँवली थी। लम्बी भी। हँसती हुई सुन्दर लगती थी जैसे झीने बादलों में सूर्य उग रहा हो। मगर घुँघरू नकली थे। माघव उसके चेहरे की ओर ताक रहे थे। उसने एक-एक कप माता-पिता के सामने रखा और तीसरा कप अपने हाथ में लेकर बैठ गयी। अब वह हँस नहीं रही थी। वह कॉफ़ी का कप अपने होंठों की ओर ले जा रही थी जो कॉफ़ी का इंतज़ार कर रहे थे। अब वह सहज लगती थी। सुनन्दा अपनी माँ की बेटी लगती थी। उन्होंने बायीं आँख से मधु को और दायीं आँख से सुनन्दा को देखा। फिर दोनों को एक साथ देखा। वे अचम्भे में आ गये। सुनन्दा वैसी ही दिख रही थी जैसी मधु तब लगती थी जब वे अलग हुए थे। सामने मधु को देख कर उन्हें यह एहसास हुआ था। सुनन्दा को अकेले देखते हुए कभी ऐसा नहीं लगा। मधु शायद तसव्वुर के दायरे से बाहर चली गयी थी।

कुछ पल दोनों को ताकते हुए उन्हें याद आया कि सुनन्दा जब पैदा हुई तो उसकी नाक देख कर वे चौंके थे। उस की नाक माँ की तरह तोता-नाक नहीं थी, जिस पर वे फ़िदा थे सुनन्दा की नाक कुछ चपटी थी। तब उन्होंने माधव से कहा था कि अच्छा है, यह तुम्हारी तरह मिर्च मिज़ा़ज नहीं होगी। माधव दयाल ने अपने को झकझोरा। उन्हें लगा जैसे चलते-चलते अचानक उनका पैर धूर में चला गया हो। उन्होंने अपना पैर वापिस खींचा।

‘‘लगता ही नहीं’’, सुनन्दा ने कहा, ‘‘कि कुछ देर पहले आप बीमार थे।’’
‘‘मुझे भी नहीं लगा।’’ कह कर माधव दयाल ठठा कर हँसे।
उन्हें कुछ याद नहीं था। उन्हें सिर्फ़ दोपहर में खाना खाकर लेटना याद था। फिर अभी कुछ देर पहले अपने शरीर को ज़मीन पर पड़ा हुआ पाना। ज़मीन पर पड़ा हुआ पाना और अपने ही जिस्म को उठा कर बिठाना और खड़ा करना जैसे किसी दूसरे का जिस्म हो। मधु और सुनन्दा से नज़र बचा कर उन्होंने एक बार ऊपर से नीचे तक अपने कुर्ते-पाजामें में छिपे जिस्म को देखा और मुस्कराये। उन्हें अचानक अपनी देह का अतिक्रमण करने की पुरानी इच्छा और न कर पाने की हताशा याद आयी।

वे सोफ़े पर सधे-सन्तुलित बैठे थे।
सुनन्दा ने बताया कि तीसरे पहर जब वह हाथ में कॉफ़ी का कप लिए उनके कमरे में घुसी और उन्हें पुकारा तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया था। तीसरी बार पुकार कर उसने उनका हाथ और सीना छुआ जहाँ कोई हरकत नहीं था। फिर वह चीख़ी थी। चीख सुन कर पड़ोस से पण्डित जी आ गये थे। उन्होंने देह को धरती पर उतार दिया और गीता का पाठ शुरु कर दिया : वासांसि जीर्णानि...

जैसे कोई पुराने वस्त्र उतार कर नये वस्त्र पहनता है, उसी तरह आत्मा शरीर बदलती है। आत्मा अमर है। इसे न आग जलाती है, न पानी भिगोता है, और न हवा सुखाती है।
माधव दयाल हँसने लगे।
‘‘क्यों हँसे, पापा ?’’
‘अपनी अमर आत्मा के लिए।’’ वे अब भी हँस रहे थे।


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