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नैतिक बाल कहानियाँ

सुधा मूर्ति

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6065
आईएसबीएन :81-7315-675-1

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प्रस्तुत है पुस्तक नैतिक बाल कहानियाँ ....

Naiitik Baal Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


लच्छू वापस जंगल की ओर चल पड़ा। पेड़ के पास पहुँचकर उसने कहा वृक्ष देवता मेरी पत्नी ढेर सारा भोजन चाहती है। जाओ मिल जाएगा। वृक्ष देवता ने आश्वासन दिया। लच्छू जब वापस अपने घर पहुचा तो उसने देखा कि उसका घर अन्न के बोरो से भरा पड़ा है। अब कमली और लच्छू दोनों खुश थे। परन्तु उनकी खुशी ज्यादा दिनो तक नहीं रही। कुछ दिन बीतने पर एक दिन कमली फिर बोली, ‘‘केवल अन्न से क्या होगा ? उससे कुछ कपड़े भी माँग लो।’’

लच्छू एक बार फिर पेड़ के पास पहुँचा और बोला, ‘‘वृक्ष देवता, हमें कपड़े चाहिए।’’
‘‘ठीक है, मिल जाएँगे।’’ वृक्ष देवता ने आश्वासन दिया।
लच्छू और कमली खुशी-खुशी रहने लगे थे। परन्तु वे ज्यादा दिन तक खुश नहीं रह सके। एक दिन कमली ने कहा, ‘‘केवल लकड़ियों, कपड़ों और अन्न से क्या होगा ? हमें एक अच्छा सा घर भी चाहिए। जाओ, वृक्ष देवता से घर माँगो।’’

दो शब्द


बच्चों के लिए रोचक एवं प्रेरणाप्रद कहनियों की यह मेरी दूसरी पुस्तक है। बच्चों के लिए लिखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मेरा विश्वास रहा है कि लोक-कथाएँ जीवन के यथार्थ अनुभवों का निचोड़ या सारतत्त्व हैं, जिसमें मनुष्य की कई-कई पीढ़ियों तक व्यवहारिक अनुभव छिपा होता है। यह पुस्तक लिखते समय मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ कि कहानियाँ कल्पना पर आधारित नहीं होतीं, उनमें यथार्थ और व्यावहारिकता होती है। ये कहानियाँ जिन घटनाओं एवं परिस्थितियों पर आधारित होती हैं, वे किसी देश, क्षेत्र, समुदाय, जाति और भाषा से जुड़ी हैं।

सुधा मूर्ति

1
रोटी का टुकड़ा


रामू और श्यामू जुड़वाँ भाई थे। वे जुड़वाँ तो थे, पर एक-दूसरे से बिलकुल अलग थे- स्वभाव में भी शरीर की बनावट में भी। रामू लंबे कद का और दुबला-पतला था। रामू दूसरों के साथ जल्दी घुल मिल जाता था और दूसरों की मदद भी करता था, परन्तु श्यामू कंजूस था और किसी से खुलकर बात नहीं करता था। वे कभी एक साथ नहीं रह पाते थे और आपस में अकसर लड़ते-झगड़ते रहते थे।

एक दिन वे दूर शहर की यात्रा पर निकले। वे एक जंगल से होकर गुजर रहे थे। उनकी माँ ने रास्ते के लिए खाना बनाकर दिया था। रास्ते में चलते हुए आपस में लड़ते-झगड़ते वे बरगद के पेड़ के नीचे पहुँचे। पेड़ के पास एक ही सरोवर था। गरमी का महीना था और भरी दुपहरी का समय था। दोनों भाइयों को जोर की भूख लगी थी और वे प्यासे भी थे। वे बरगद के नीचे बैठकर खना खाने के लिए तैयार हो गए।

वहाँ कुछ और राहगीर भी बैठे थे। कुछ खाना खा रहे थे तो कुछ आराम करे रहे थे। रामू और श्यामू ने भी सरोवर के पानी से हाथ-मुँह धोकर अपना खाने का डिब्बा खोल दिया।
रामू के पास तीन रोटियाँ थीं और श्यामू के पास दो। यह देखकर श्यामू को अपनी माँ पर बहुत गुस्सा आया। माँ ने तो शायद रामू का शरीर भारी होने के कारण उसे ज्यादा और श्यामू को कम रोटियाँ दी होंगी; लेकिन श्यामू यह बात नहीं समझ सकता था। तभी एक और राहगीर वहाँ आया और बोला, ‘‘भाई, मैं आप दोनों को भोजन के समय परेशान करने के लिए क्षमा चाहता हूँ; लेकिन मैं बहुत भूखा हूँ और रास्ता भूल गया हूँ। मेरे पास पैसे तो हैं, लेकिन यहाँ आस-पास कोई होटल या ढाबा वगैरह नहीं है। अगर आप लोग अपने खाने में से थोड़ा सा मुझे दे देंगे तो मैं उसके दाम दूँगा।
दोनों भाई तैयार हो गए। रामू इसलिए तैयार हुआ कि उसे पैसा मिल रहा था और श्यामू इसलिए तैयार हुआ कि वह अपनी रोटियाँ बाँटकर खाना चाहता था।

इस प्रकार तीनों ने आपस में रोटियों का बँटवारा करके एक साथ बैठकर खाया। जाने से पहले राहगीर ने चाँदी के पाँच सिक्के उनके सामने रखते हुए कहा, ‘‘भगवान् आप दोनों का भला करे। मेरा पेट भर गया, अब मैं संतुष्ट हूँ।’’
खाना तो किसी को भी खुश और संतुष्ट कर सकता है। लालची-से-लालची आदमी भी कभी-न-कभी संतुष्ट हो जाता है।

रामू ने चाँदी के पाँच सिक्कों में से दो श्यामू को दिए और शेष तीन अपने पास रख लिये। यह देखकर श्यामू आगबबूला हो गया। वह कहने लगा, ‘‘राहगीर को हम दोनों ने ही खाना दिया था, तो दोनों को बराबर पैसे मिलने चाहिए। मुझे आधा सिक्का और दो।’’
इस पर रामू ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मैंने सोचा कि मेरे पास तीन रोटियाँ थीं, इसलिये मुझे तीन सिक्के मिलने चाहिए और तुम्हारे पास दो रोटियाँ थीं, इसलिए तुम्हें दो सिक्के मिलने चाहिए। लेकिन तुम अगर खुश नहीं हो तो ठीक है, मैं तुम्हें आधा सिक्का और दूँगा; लेकिन मेरे पास अभी खुला नहीं है।’’
उधर, श्यामू जिद करने लगा कि उसे सिक्का अभी और यहीं चाहिए। रामू को कुछ नहीं सूझा तो वह एक साथी राहगीर के पास पहुँचा, जो पास में ही बैठा पहले से उनकी बातें सुन रहा था।

रामू ने उससे पैसे खुले करने के लिए अनुरोध किया। इस पर राहगीर मुस्करा कर कहने लगा, ‘‘मेरा ख्याल है कि यह न्याय नहीं है। तुम तीन सिक्के नहीं ले सकते। अगर तुम चाहों तो मैं तुम लोगों का ठीक-ठीक बँटवारा कर सकता हूँ।’’
श्यामू बहुत खुश था। उसने कहा, ‘‘ठीक है, आप न्याय करें। हम वैसा ही करेंगे जैसा आप कहेंगे।’’
इस पर राहगीर बोला, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो। तुम दोनों के पास कुल मिलाकर पाँच रोटियाँ थीं और तीन लोगों ने बराबर-बराबर रोटियाँ ली; इसका अर्थ हुआ कि हर रोटी के तीन बराबर हिस्से किए गए। इस प्रकार कुल पंद्रह हिस्से हुए। अब, रोटियों के पंद्रह टुकड़े तीन आदमियों ने मिलकर खाए। श्यामू के पास छह टुकड़े थे और उसने पाँच टुकड़े खाए। इस प्रकार उस अतिथि राहगीर को रामू ने चार टुकड़े खिलाए और श्यामू ने एक। अत: पाँच सिक्कों में रामू को चार और श्यामू को एक सिक्का मिलना चाहिए।’’
इस फैसले से श्यामू बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसने एक सिक्का अपने भाई को वापस दे दिया।

2
चालाक चोर


विमलापुर नामक एक नगर था, जो बहुत खुशहाल था; लेकिन नगर में कभी-कभी चोरी की घटनाएँ हो जाया करती थीं। करिया उसी नगर का एक चोर था। जो बहुच चालाक था। उसे कोई पकड़ नहीं पाता था। वह छोटी-मोटी चोरियाँ करके भागने में हर बार कामयाब हो जाता था।

एक दिन रात को जब वह किसी के यहाँ चोरी करने के इरादे से निकला था, तो रास्ते में एक अजनबी मिला। करिया समझ गया कि वह चोर ही होगा। बातचीत के दौरान दोनों समझ गए कि दोनों का एक ही काम (चोरी) है। अजनबी का नाम भैरव था। करिया ने भैरव से कहा, ‘‘उस टोपीवाले आदमी को देखो। वह बहुत अमीर लगता है। मैं उसके पास जाकर देखकर बताता हूँ कि उनकी जेब में क्या है और उसे पता तक नहीं चलेगा।’’

इतना कहकर वह वहाँ से गायब हो गया और थोड़ी देर बाद जब वापस आया तो उसके हाथ में एक बटुआ था। बटुआ खोलकर देखा गया, उसमें सोने के दस सिक्के थे।

यह देखकर भैरव ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मैं तो इससे भी बढ़कर काम करके दिखा सकता हूँ। मैं मालिक को भी चोर साबित कर सकता हूँ।’’ उसने सोने के सिक्कों में से दो सिक्के निकाल लिये और उनके स्थान पर ताँबे के दो सिक्के रख दिए। उसके बाद वह वहाँ से गायब हो गया।



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