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धर्म एवं दर्शन >> कल्पवृक्ष की छाँव

कल्पवृक्ष की छाँव

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :287
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6039
आईएसबीएन :978-81-310-0622

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प्रस्तुत है पुस्तक कल्पवृक्ष की छाँव .......

Kalpvriksh Ki Chhanav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

बाजार में जब आपको कुछ नया और उपयोगी दिखाई देता है, तो उसकी चर्चा आप अपने लोगों के बीच किए बिना नहीं रह पाते। इस पुस्तक की सामग्री का संकलन करते समय मेरे मन में यह चाह रही है कि जिस कल्पवृक्ष के नीचे मैं बैठकर अपने मनोरथों को पूरा कर पा रही हूं, उसकी छाया प्राप्त करने का सौभाग्य आप सबको भी मिले। आदि शकंकराचार्य ने सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्मविचार और संतोष—इन चार को परम दुर्लभ माना है। आत्मानुभूति की यात्रा इन्हीं चार-चरणों में होती है।

मैंने महापुरुषों से सुना है कि सद्गुरु का सान्निध्य और दर्शनपूर्वक श्रवण जीवन में आध्यात्मिक प्रगति की रफ्तार बढ़ा देता है। लेकिन यदि किसी कारण यह सौभाग्य आपको प्राप्त नहीं हो रहा है, तो पठित द्वारा स्वयं को उच्चादर्शों के लिए आप प्रेरित तो कर ही सकते हैं, यह प्रेरणा सहज रूप से आपके द्वारा वह सब कुछ करवा लेगी, जिससे आपका कल्याण हो। परोक्ष ज्ञान का यही तो माहात्म्य है।

शास्त्र-ज्ञान ही तो साधना से संयुक्त होकर हृदय की गहराई में जाकर साधक के संपूर्ण व्यक्तित्व को बदलता है। जो परोक्ष ज्ञान को नकारते हुए आत्मनुभूति की बात करते हैं, बाह्य साधनाओं के बिना आंतरिक परिवर्तन का पक्ष लेते हैं और उसकी पुष्टि के लिए कुछ विशिष्ट महापुरुषों का उदाहरण देते हैं, वे भूल जाते हैं कि अपवादों से सिद्धांतों का निर्माण नहीं होता। वे इस सत्य को भी नकार देते हैं कि साधना-जन्म-जन्मांतरों की होती है।—जो सामने दिख रहा है, वह वैसा है नहीं। कबीर एवं रैदास सरीखे महापुरुषों ने अपने पूर्वजन्म में उस ज्ञान को प्राप्त कर लिया था जिसे हम-आप आज प्राप्त करना चाह रहे हैं। प्रकृति में विकास की एक सुनिश्चित प्रक्रिया होती है। यदि आप इसे स्वीकारते हैं, तो आध्यात्मिक विकास की सुव्यवस्था से आप कैसे नजर चुरा सकते हैं। वहां ‘बाईचांस’ कहकर नहीं बचा जा सकता। कार्य कारण का सिद्धांत वहां भी कार्य करता है।

परम श्रद्धेय आचार्य प्रवर सद्गुरु देव आचार्य मंडलेश्वर श्री स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों में सिद्धांत के विश्लेषण के साथ ही गहरी व्यवहार कुशलता का भी पुट है। कथा ‘रामचरित मानस’ की हो या ‘श्रीमद्भागवत’ की—दोनों में ही जीवन में सफलता के सूत्र समाहित हैं। मेरी दृष्टि में सफलता का अर्थ है मुक्ति पथ को प्रशस्त करना। शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम को पुरुषार्थ कहा गया है। मनीषियों की दृष्टि में परम पुरुषार्थ मोक्ष है। इसका सीधा अर्थ है कि यदि धर्मादि पुरुषार्थ मुक्ति की ओर नहीं ले जा रहा हैं, तो वे निरर्थक हैं।
संत तुलसी दास का यह संदेश कुछ ऐसा ही संकेत देता है—
जिनके प्रिय न राम बैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।

यदि जीवन की सारी मर्यादाएं, सारे कर्तव्य, सारे रिश्ते-नाते तथा समस्त साधनाएं जीव को आत्मानुभूति के लक्ष्य की प्राप्ति कराती हैं, तो वे सार्थक हैं।
महाराजश्री के प्रवचनों में मुझे जो सूत्र रूप लगा, उसी को मैंने अपनी भाषा में देने का प्रयास किया है। कोशिश तो की है कि भाव के साथ ही महाराजश्री की शब्दावली के माध्यम से कुछ संजोया जा सके, यह जानते हुए भी कि महापुरुषों के भाव-शब्द दोनों की गहराई को पकड़ पाना आसान काम नहीं है, समान स्तर वाले के लिए ही ऐसा हो पाना संभव होता है। अपने प्रयास में मुझे कहां तक सफलता मिली है, यह तो विद्वान ही बता सकते हैं।

मुझे विश्वास है कि मेरे इस प्रयास की जिज्ञासु साधक अवश्य सराहना करेंगे। यदि उन्हें कहीं भी ऐसा कुछ लगता है, जो मुझे नहीं करना चाहिए था, तो इसकी जानकारी मुझे अवश्य दें ताकि मैं उसमें परिवर्तित और सुधार कर सकूं।

इस कार्य को मैं सद्गुरु देव की कृपा के बिना नहीं कर सकती थी। असल में उन्होंने मुझे निमित्त बनाकर ऐसा कुछ करने का सौभाग्य प्रदान किया है, जिससे गुरु सेवा हो सके, साथ ही आत्ममंथन का सुअवसर भी मिले। इस संकल्प को अपने पितृतुल्य श्री गंगा प्रसाद शर्मा जी से मुझे जो संबल मिला, उसके लिए मैं उनकी अत्यंत आभारी हूं। और अंत में—तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा !


वीणा गोस्वामी


1
सच्चरित्र मानव



जब तक सृष्टि है तब तक विषमता का रहना सर्वथा अनिवार्य है। प्रकृति, स्वभाव एवं व्यवहार आदि की इस विषमता में भी जो समता देखता है, उसके मन में व्यवहार भेद होने पर भी राग-द्वेष या मोह-घृणा का अभाव होता है। जो तमाम भेदों को एक ही शरीर के विभिन्न अंगों तथा अवयवों के भेदों की भांति मानकर सबके सुख में सुखी और सबके दुख में दुखी होकर यथायोग्य-यथासाध्य अपने निज दुख का निवारण करता है, वही यथार्थ मानव है। जब मानव का ‘स्व’ अत्यंत विस्तृत होकर प्राणिमात्र में फैल जाता है तब उसे सर्वत्र एकात्म भाव के दर्शन होते हैं। तब व्यहारादि में भेद रहते हुए भी उसके समस्त आचरण देह के विभिन्न अवयवों के समान हित करने और सबको सुखी करने वाले शरीरधारी की भांति प्राणिमात्र के लिए हितकर तथा सुखोत्पादक हो जाते हैं।

संसार में जो भय, संदेह, अशांति, दुख एवं क्लेश आदि का उद्भव तथा विस्तार होता है; उसमें प्रधान कारण इस ‘स्व’ एवं ‘मैं’ का संकोच ही है। ‘स्व’ शरीर और नाम से जकड़ा हुआ है। इसीलिए मानव को शरीर दिया गया है कि वह सब प्राणियों को अपनी आत्मा में समझे और अपनी आत्मा को सब जीवों में देखे। इस प्रकार जगत के लघु-विशाल समस्त प्राणियों में आत्मनुभूति करके सबको सुख पहुँचाने वाला सच्चरित्र मानव ‘ज्ञानी मानव’ है। जब तक सृष्टि है तब तक विषमता का रहना सर्वथा अनिवार्य है। नन्ही-सी चींटी के साथ भी एक-सा व्यवहार सिर्फ आत्मदृष्टि से ही संभव है।


2
प्रकृति की उपासना



‘ऋग्वेद’ में पुरुष सूक्त के द्वितीय मंत्र पुरषे वेद सर्वंयद्भूत यच्चभव्यम् के अनुसार जो कुछ भी वर्तमान में है, भूतकाल में था या भविष्य में होगा; वह सब परमात्मा ही है। उपनिषद में कहा गया है—प्रारंभ में केवल एक परमात्मा उपस्थित था। कालांतर में उसने इच्छा की कि मैं बहुत रूपों में हो जाऊं। फिर वह अपनी इच्छानुसार अपने से ही संसार बनाकर जीवित और अजीवित नाना रूपों में हो गया।
अर्जुन ने परमात्मा श्रीकृष्ण में ही इस जगत को देखा। यह उसी प्रकार प्रत्यक्ष जगत ब्रह्म है जिस प्रकार पृथ्वी अपने से पेड़, पौधे एवं वनस्पतियां उत्पन्न करती है। परंतु अविद्या के कारण जगत परमात्मा के रूप में नहीं दिखाई पड़ता। हमारे ऋषि मंत्र द्रष्टा थे इसीलिए वेदों में उन्होंने दो प्रकार के मंत्र संकलित किए—प्रथम, सगुण ब्रह्म की विभिन प्राकृतिक शक्तियों को देवता मानकर उसकी उपसाना के मंत्र और दूसरे, निराकार-निर्गुण ब्रह्म की उपासना के मंत्र। चारों वेदों में प्रकृति, आकाश, वायु जल, नदी, विद्युत, वनस्पति, पृथ्वी, अंतरिक्ष और सूर्य आदि की प्रार्थना के मंत्र हैं।

यथा—पयः पृथिव्या पयौषधीषु दिविऽन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु महयम्।।


अर्थात् यह पृथ्वी, वनस्पतियां, पेड़-पौधे, अंतरिक्ष और सभी दिशाएं मेरे लिए अमृतमयी हों।
हमारे ऋषि इन प्राकृतिक संपदाओं को पूज्य एवं जीवनदायी मानते थे इसीलिए उनकी अनुकूलता के लिए प्रार्थन करते थे। ये प्राकृतिक शक्तियां अनुकूल रहने पर जीवों के लिए अमृत हैं और प्रतिकूल होने पर साक्षात् प्रलय हैं। अग्नि, जल, वायु तथा प्राण आदि साम्यावस्था में रहने पर उत्तम स्वास्थ्य, धन, संपदा और आनंद देते हैं जबकि विषमावस्था में आग, बाढ़, सूखा, अकाल एवं महामारी आदि प्रदान करते हैं। इसीलिए हमारे ऋषियों ने इन प्राकृतिक साधनों के दुरुपयोग को पाप एवं दंडनीय बताया है।
इस प्रकृति का अनुकूल रहना ही रामराज्य है। इसीलिए इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है—


ससि संपन्न सदा रह घरनी।
लता विटपमांगे मधु चवहीं।
मन भवतो धेनु पय स्ववहीं।
सरितां सकल बहहिंबर बारी।
विधु मदि पुर मयुरवन्दि रवि तप त्रेतनहि काज।
मांगे वारिद देंहि जल रामचंद्र के राज।


अर्थात् आवश्यकतानुसार ही सूर्य ताप, चंद्रमा शीतलता एवं मेघ वर्षा देते हैं। पृथ्वी अन्न से, वृक्ष फलों से एवं नदियां जलों से परिपूर्ण रहती हैं। ऐसा आज भी संभव है परंतु मानव की समस्याओं का एकमात्र कारण परमात्मा की इस प्रकृति रूप की उपेक्षा एवं अश्रद्धा है इसलिए हम प्रकृति के साथ अपराध कर रहे हैं। अतः शांति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए हमें प्रकृति में परमात्मा के समान ही श्रद्धा रखनी होगी, इन्हें पूज्य समझकर उपासना करनी होगी और इनसे प्राप्त फलों को वरदान समझकर अवश्यकतानुसार सेवन करना होगा। मनुष्य के कल्याण के लिए यही एक मार्ग है। यही धर्म है और यही ईश्वर की उपासना है।


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