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उम्रकैद

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6027
आईएसबीएन :98-81-8143-683-

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‘उम्रकैद’- एक सूत्र में बँधे तीन महत्वपूर्ण लघु उपन्यास...

Umrakaid

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महाश्वेता देवी की ख्याति प्रमुख रूप से उनके उन उपन्यासों के कारण हैं जिनमें उन्होंने आदिवासी जीवन और आदिवासियों के संघर्षों का अप्रतिम चित्रण किया है या फिर ‘1084वीं की माँ’ जैसे उन उपन्यासों की वजह से भी दो नक्सलबाड़ी के महान् विप्लव की उपज हैं। लेकिन महाश्वेता देवी कई बार भारतीय जीवन के अन्याय पहलुओं पर नज़र डाली है। और अपनी सुपरिचित शैली में- जो दलित-शोषी जनों के पक्ष को उजागर करती है- इन आभागों की व्यथा-कथा बयान की है।

‘उम्रक़ैद’ ऐसे ही तीन लघु उपन्यासों की श्रृंखला है, जिसमें महाश्वेता देवी ने ऐसे लोगों को जल के अन्धकार से बाहर ला कर हमारे-आपके सामने पेश किया है जिन्हें ‘लाइफ़र’ कहते हैं- उम्रक़ैद पाये हुए कैदी जो कई बार चालचलन ठीक होने पर भी चौदह साल बाद रिहा नहीं हो पाते। कई कैदी रिहा होने पर बार-बार लौटते रहते हैं। कौन हैं ये लोग ? क्या हैं इनकी प्रेरणाएँ या दुष्प्रेरणाएँ ? सतीश हो या अबीर या अन्ना- इनके दु:ख बिल्कुल अलग-अलग है। महाश्वेता देवी ने उनकी कहानियाँ बयान करते समय अपनी सहानुभूति से भी काम लिया है और समझदारी से भी। तभी वे यह कह सकीं हैं कि आज के समाज के नियन्ता ही असली हत्यारे हैं।
‘उम्रकैद’- एक सूत्र में बँधे तीन ऐसे महत्वपूर्ण लघु उपन्यास हैं जो पाठक को अविचलित नहीं रहने देंगे।

यह किताब क्यों?


मेरी ज़िन्दगी में ढेरों काम हिसाब-बाहर ही होते हैं। अनगिनत काम-अकाम करते-करते दिन गुज़रते जाते हैं। उन सब कामों में, लिखने का ढेरों मसाला भी जरूर होता है, मैं ही नहीं लिखती। वजह यह है कि जिन लोगों के साथ मैं काम करती हूँ, उन लोगों को लेखन की विषय-वस्तु बनाना हमेशा संभव नहीं होता। उन पर लिखना, उनका अपमान करना होता है।

कभी, किसी वक़्त, कुछ लोगों को उम्रक़ैद की सज़ा मिली, लेकिन मीयाद ख़त्म हो जाने के बाद भी उन्हें रिहाई नहीं मिली। ऐसे चन्द लोग, जब आवेदन करते हैं, तो मैं उन लोगों की थोड़ी-बहुत मदद करने की कोशिश करती हूँ। आजकल आजीवन का मतलब, बीस वर्ष की क़ैद नहीं, बल्कि सचमुच आजीवन क़ैद है। ख़ैर, यह मेरे लिए सुनी-सुनाई ख़बर है। यह कहाँ तक सच है, मुझे नहीं पता। दो साल पहले तक, इसका मतलब था, बीस साल की क़ैद। जेल-अधिकारी आजीवन सज़ा झेलते हुए क़ैदियों के चाल-चलन और बर्ताव से संतुष्ट हुए, तो वे लोग चौदह साल बाद, न्याय-मन्त्रालय को उनकी मुक्ति की सिफ़ारिश करते थे। सिफ़ारिश भेजने के बाद भी, जिन लोगों को रिहाई नहीं मिलती थी, वे ही क़ैदी किसी तरह, मुझसे आवेदन करते थे। मैं उन लोगों के पक्ष में न्याय-मन्त्रालय को बण्डल-बण्डल तालिका भेजती थी। बस, यहीं तक ! मेरी दौड़, कोशिश करने भर की थी।

असल में, ‘लाइफ़र’ के बारे में मेरी धारणा काफ़ी असन्तुष्ट थी। मुक्त हुए लाइफ़र लोगों से ही पता चला कि बीस साल को चौदह साल तक उतार लाने के भी ढेरों नियम मौजूद हैं। मसलन, स्वेच्छा से बार-बार रक्तदान; जेल में साँप निकल आये, तो साँप मारना; कोई दुर्घटना हो जाये तो उसके लिए काम करना, वगै़रह-वग़ैरह ! इसके अलावा भी जेल गाथा के अनेक रहस्य हैं। किसी-किसी लाइफ़र ने ऐसी-ऐसी कहानियाँ भी लिखी हैं कि मैं सिर्फ़ सुनती रही हूँ। जो सब मामले, जेल जीवन में, स्थायी तौर पर कायम होकर, नसों में समा गये हैं, वह सब जानने के लिए, फ़ुर्सत की जरूरत होती है, जो सम्भव नहीं है।

मेरी कहानियाँ लाइफ़र क़ैदियों के जीवन के बारे में नहीं हैं। कम-से-कम सीतेश और अबीर की कहानी के सन्दर्भ में, यह बात बिलकुल सच है। हाँ, अन्ना की कहानी ज़रूर फ़र्क है।

अपने कमरे में बैठे-बैठे ही, मैंने लाइफ़र क़ैदियों के बारे में, एक बात, बार-बार सुनी है। मध्यवित्त और अन्यान्य वर्ग के लोग (उच्चवित्त नहीं। उच्चवित्त के लोग क्षमतावान होते हैं, उनके लिए तो हर कोई मौजूद होता है) इन अपने लोगों की मुक्ति के लिए, किस कदर आकुल-व्याकुल होते हैं। एक मुसलमान किशोर था। झूल-झाड़न, पंखों के झाड़न वग़ैरह बेचता था और अपने बाप के लिए हाहाकार करता रहता था। जब तक उसका बाप रिहा नहीं हुआ, तब तक कई-कई बार झूल-झाड़न मैं ख़रीद-ख़रीदकर बाँटती रही। मैंने यही देखा है कि अधिकांश लोग, अपनों की रिहाई के लिए आकुल-व्याकुल रहे।

मैंने यह भी देखा है कि ढेरों लोग उम्र-क़ैद की सज़ा झेलते रहे, पैरोल पर बाहर आते रहे, दुबारा जेल में लौटते रहे।

ऐसा भी हुआ है कि कुछ लोग सज़ा काटकर निकल आये हैं और अपनी पुरानी मेहनत-मशक्कत की ज़िन्दगी में लौट गये हैं या फिर कोई नयी जीविका खोज ली है।

सीतेश और अबीर से जुड़ी मेरी कहानी बिलकुल अलग तरह की है। जो लोग निम्न-मध्यवित्त तबके के हैं (आजकल मध्यवित्त वर्ग का भी वार्षिक उपार्जन बिलकुल अलग तरह का है) उन्हें अपने पुराने मुहल्ले में ही लौटना पड़ता है; वहीं रहना-सहना भी होता है। उन लोगों के मामले में, उनके साथ-साथ उनके अपनों को भी उम्र-क़ैद की सज़ा झेलनी पड़ती है। ये लोग ग़ैर-राजनीतिक बन्दे होते हैं। इन लोगों के लिए हत्या के ज़ुर्म के पीछे, कोई आदर्शवाद या ऐसी कोई प्रेरणा भी नहीं होती, इसलिए ख़ास सख़्त-समर्थ भी नहीं होते। ‘लाइफ़र’ के रूप में उनका अवतरण उनके अपने लोगों के जीवन में भी, सैकड़ों सवाल खड़े कर देते हैं। मूल्यबोध और स्नेह-ममता कहती है कि सन्तान/भाई/बड़े भाई/मालिक- इनसे आप इन्कार नहीं कर सकते। लेकिन उनके साथ रहना-सहना भी आसान नहीं होता। मैं ऐसे भी कुछेक लोगों को जानती हूँ, जिन लोगों ने अपने सगों को मुक्ति दे दी और अपना नाम बदलकर, नये परिचय के साथ कहीं और चले गये। यानी इन लोगों को जन्मान्तरित होना पड़ा है। जिन दिनों वे लोग जेल गये थे और जिन दिनों वे लोग लौटकर आये, इसी बीच समाज असम्भव रूप से बदल चुका था। हालाँकि वे लोग ज़्यादा हद तक बदले हुए नहीं होते, क्योंकि बाहरी दुनिया से उनका रिश्ता-नाता टूटा हुआ था।

मुमकिन है, किसी दिन ऐसी सहज-सरल कहानी न लिखी जाये, बल्कि कोई लेखक बहु-स्तरीय कहानी लिखने की सोचे, जिसमें हत्यारे के परिवार, मृतक के परिवार-कहानी में उन लोगों के बारे में भी लिखा जाये। वर्तमान कहानियों में मृतक लोगों को ‘मृत्युयोग्य’ कहें, तो चला जाता है। वैसे टापू ऐसा नहीं है। हत्या, हत्यारा-कौन, क्यों वग़ैरह के बारे में, किसी ज़माने में मैंने काफ़ी कुछ लिखा है। ‘घातक’ उसी स्तर की यह रचना, सबसे बड़े सच के सर्वाधिक करीब है। उस कहानी की आखिरी पंक्ति थी- ‘असली हत्यारा कभी भी हाथ में छुरा नहीं पकड़ता।’ आज के समाज की नियन्ता ही, उसी किस्म के असली हत्यारे हैं। उन लोगों के बारे में भी मैंने कुछ-कुछ लिखा है। अब उस विषय में मन उचाट हो गया है। अब मन उन विषयों पर दोबारा लौटेगा या नहीं, पता नहीं।

इसमें अन्ना की कहानी बिलकुल अलग किस्म की है। वह सीतेश या अबीर की क्लास की नहीं है, वह दूसरी ही क्लास की औरत है। इस कहानी की पृष्ठभूमि काल्पनिक है या सच्ची, मुझे नहीं लगता कि यह बताने की कोई जरूरत है। इन लोगों के समाज में औरत महज़ गोश्त का टुकड़ा होती है। इसलिए उनकी ख़रीद-फरोख़्त होती है और यह बात बहुतेरे लोग जानते हैं। आजकल तो पहली दुनिया ही तीसरी दुनिया में कच्ची उम्र के लड़के-लड़कियों के ज़रिये यौन-कर्म उद्योग को प्रमोट कर रहे हैं, पहले कुछ-कुछ दबा-ढँका था, लेकिन अब, वह सब फूँक में उड़कर, यौन-कर्म को वृहद् उद्योग में परिणत करने का इन्तज़ाम भी पक्का हो चुका है। मुझे तो यह पता चला है कि एशिया के कई-कई देशों में यह धन्धा काफ़ी गहरे जड़ जमा चुका है। भारत क्या बच सकेगा ?

या ‘सेक्स-टूरिज़्म’ के जाल में जा फँसेगा, मेरा ख़याल है कि नाबालिग़ यौनकर्मियों का धन्धा, कानून में निषिद्ध है और यह दण्ड-योग्य ही रहेगा। शुक्र है कि, इस बारे में इतना-सा कानून में निषिद्ध है और यह दण्ड-योग्य ही रहेगा। शुक्र है कि, इस बारे में इतना-सा कानून मौजूद है। वैसे कानून को तुच्छ करके, अँधेरे की दुनिया में यह धन्धा चलता ही रहता है। जब तक जनमत और जन-संगठन सक्रिय नहीं होगा, सिर्फ़ कानून के भरोसे, यह धन्धा कम नहीं हो सकता। इन सब कामों के नियन्ता ‘असली और पेशेवर पापी’ होते हैं, ये नज़र नहीं आते। अच्छा, लड़के क्या मध्य-पश्चिम जाते हैं ? औरतें क्या इसी महादेश में ही यहाँ-वहाँ भटक रही हैं ? इस जवाब हम खोजें या न खोजें ? इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं कहना है।

प्रकाशक चाहते थे मैं इन तीनों कहानियों को गूँथकर एक कर दूँ। कहानियों में सूत्र एक ही है। नहीं, मुक्त जीवन से बन्दी जीवन नहीं कहूँगी। अन्ना जैसे लोगों का जीवन श्रृंखलाबद्ध है, मध्यवित्त जीवन किसी और ही तरीके से, अपने ही मूल्यबोध की दुनिया में मग्न रहता है। बहरहाल, इस मूल्यबोध का चरित्र-निरूपण मेरा उद्देश्य नहीं है। हाँ, मानवीय मूल्यबोध की कामना ज़रूर है। मानवीय मूल्यबोध जहाँ है, वहीं जीवन का भी लक्षण होता है। कहानियों में अन्त:सूत्र एक ही है। जेल से बाहर आने से पहले ही सीतेश का अन्दाज़ा हो गया था कि उसकी वापसी घरवालों के लिए सुखद नहीं होगी। इसलिए तो उसे ख़ारिज करके, उसके बिना ही, उसकी बहन और बीवी ने अपनी-अपनी ज़िन्दगी रच-गढ़ ली है। उसके माँ-बाप के लिए भी मुमकिन है, उसकी उपस्थिति, अन्त में उनकी ज़िन्दगी के अभ्यस्त पैटर्न को तितर-बितर कर देगी। इसलिए उसके लौटने का जोखिम उठाया ही नहीं। उसे नहीं मालूम कि उसके न लौटने को, उसके माँ-बाप कैसे लेंगे।
अबीर जब लौटा, तो उसे समझ में आया कि उसके लिए प्यार, घर में भी ज़िन्दा है और बाहर भी ! लेकिन वह अगर रुक गया, तो उसका परिवार अभ्यस्त नियम तोड़कर किसी नयी ज़िन्दगी में दाख़िल होने को लाचार है। अबीर वहाँ से चल देता है। मगर प्राप्ति के ढेर-ढेर एहसास के साथ विदा लेता है।

अन्ना पहले लाइफ़र नहीं थी। लेकिन अब वह जिस किस्म की लाइफ़र हो सकती थी, उनके आगे उम्र-क़ैद जैसी सज़ा बिलकुल तुच्छ थी। वह सज़ा देना चाहती थी, वही उसने दिया। बेटियां मिल जातीं, तो वह कोई नयी ज़िन्दगी शुरू करती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह जेल चली जाती है, लेकिन उसे नहीं लगता कि मुजरिम है। वही न्यायाधीश है, वही दण्डदाता भी !
इन कहानियों को आपस में जोड़नेवाले सूत्र कहाँ है, पाठक ही फ़ैसला करें।

महाश्वेता देवी

चला गया.........


पापा


मैं, हितेश, सुबह-सुबह ही समझ गया कि पिछली रात मैं सोया नहीं, प्रतिमा जान गयी है।
ख़ैर, जान तो वह जाती ही। पिछली रात वह भी तो नहीं सोयी थी।
सुबह-सुबह उठते हुए उसने कहा, ‘‘तुम अभी, और थोड़ी देर लेटे रहो। इसी वक्त बिस्तर न भी छोड़ो, तो चलेगा।’’
पहले वह कहती थी, ‘‘रिटायर हो चुके हो। अब सुबह-सवेरे उठकर हड़बड़ी मचाने की ज़रूरत नहीं।’’
उन दिनों सच ही सुबह छ: बजे उठ जाता था।

टुक्के भर ज़मीन पर मैंने बड़े एहतियात से कामिनी, गन्धराज, जवा, नयनतारा के पौधे लगाये थे। उनसे बतियाने का वक्त तो भोर-भोर ही होता है। उन दिनों भी बेदेमुहाल में (सुन्दर बसु सरणी नाम की, अभी भी आदत नहीं पड़ी है) भोर का वक्त, भोर जैसा ही होता था। खुले-खुले मैदान थे; पोखर तालाब थे; रिहायशी बस्ती कम थी। लेकिन यह कब की बाते हैं ? उन दिनों तो मेरे बेटे-बेटी भी काफी़ छोटे-छोटे थे।

उन दिनों मैं सुबह-सुबह ही उठकर बागवानी में जुट जाता था। पौधों की सिंचाई करता था, जड़ों की मिट्टी कुरेदकर अलग करता था। बाग़वानी के मामले में, मैं काफ़ी कड़क था। मेरे पौधों को कोई भी हाथ नहीं लगा सकता था। कोई फूल नहीं तोड़ेगा। ख़बरदार !
उसके बाद, मैं चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अख़बार की सुर्ख़ियों पर नज़रे दौड़ाकर एक ओर रख देता था।
शाम को जब घर लौटता था, तब एक-एक ख़बर बड़े ध्यान से पढ़ता था।


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