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ब्रह्म ही सत्य है

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6019
आईएसबीएन :81-310-0524-4

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प्रस्तुत है पुस्तक ब्रह्म ही सत्य है

Brahama Hi Sataya Hai Ganga a hindi book by Prasad Sharma - ब्रह्म ही सत्य है - स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

श्लाकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रंथ कोटिभ:।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।।


अर्थात् जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं।

दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है। इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है, मिथ्या क्या है तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर संबंध है- इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर है इसमें।
इन सृष्टि में अनुस्यूत है ब्रह्म ! संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है। जो था, जो है और जो सदैव रहेगा- वही तो ब्रह्म है। सत्यनाम से ऋषियों-मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है।
यहां मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है। मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होनेवाली वस्तु सत्य सी लगती है जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं। यही मिथ्यात्व है। इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है। संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही ‘जीव’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है।

वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है जिसका प्रतिपादन आचार्य महामंडलेश्वर श्री स्वामी अवधेशानन्द गिरि जी महाराज ने अपने विभिन्न प्रवचनों में किया है।
इस पुस्तक में प्रस्तुत है- जिज्ञासु पाठकों के लिए सरल-सुगम शब्दों में सत्य ही अलौकिक शब्दमयी झांकी !


सत्य का अर्थ है- जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता अर्थात् जो था, जो है और जो रहेगा।
इस दृष्टि से जगत् ब्रह्म-सापेक्ष है। ब्रह्म को जगत् के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता। जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है, उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था। दूसरे शब्दों में, ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है। श्रुति का वचन है- सदेव सोम्येदग्रमासीत् अर्थात् हे सौम्य ! सृष्टि से पूर्व सत्य ही था।

वेदांत ग्रंथों में व्यावहारिक दृष्टि (सत्ता) से ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए ईश्वर को कारण-ब्रह्म और जगत् को कार्य-ब्रह्म कहा गया है। इस कारण और कार्य रूप उपाधियों को नकारते हुए स्वामी रामतीर्थ ने सत्यानुभूति को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है-

न मैं बन्दा न खुदा था, मुझे मालूम न था
दोनों इल्लत से जुदा था, मुझे मालूम न था

1
ब्रह्म का चिंतन


इस सृष्टि में मानव देह की उपलब्धता सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। मनुष्य जीवन की प्राप्ति परमेश्वर के अनुग्रह का ही फल है जिसने सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन किया है। इस संसार में मनुष्य जन्म से ही दो तरह की अनुभूतियों से परिचय होता है- सुख और दुख। सुख-दुख के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में आई परिस्थितियों से जुड़े रहते हैं। परिस्थिति अनुकूल होती या प्रतिकूल। अनुकूल परिस्थितियों से सुख मिलता है जबकि प्रतिकूल परिस्थितियों से दुख की प्राप्ति होती है।
मनुष्य के कल्याण एवं भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं। अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती तथा मन परमपिता परमात्मा के चरणों में लगने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

प्रतिकूल परिस्थितियाँ आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है। प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं। यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे तो उसका मनोबल टूटने लगेगा। परन्तु यदि प्रभु पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा, ब्रह्म के चिंतन में वृद्धि होगी, दुष्प्रवृत्तियों से गुजरने वाला व्यक्ति वैसे ही सफल होकर निकलता है जैसे तपने के पश्चात् सोना अधिक चमकदार हो जाता है।

2
ब्रह्म क्या है


सभी का मानना है कि बिना किसी संतुलित संचालन व्यवस्था के यह संपूर्ण ब्रह्मांड इतने सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल सकता। यह सर्वोच्च नियामक सत्ता वैदिक दर्शनों में ब्रह्म है। आद्य शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद के अनुसार इस संपूर्ण जगत में जो कुछ भी इंद्रियों द्वारा गृहीत है अर्थात् जो कुछ भी दिखाई, सुनाई, सुंघाई या स्पर्श आदि में आता है; वह सब मात्र ब्रह्म ही है। इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं।

जिस प्रकार मिट्टी से निर्मित पात्रों का अलग-अलग नाम-रूप होने के पश्चात् भी मूल रूप मिट्टी ही होती है, इसी प्रकार जो भी जड़ अथवा चेतन तत्व विभिन्न नाम-रूप से ज्ञात होते हैं; वे मूल रूप से ब्रह्म ही हैं। भौतिक विज्ञानी आइंसटीन के नियम के अनुसार इसे पूरे ब्रह्मांड में द्रव्य या ऊर्जा है। यह दोनों भी आपस में परिवर्तनशील हैं अर्थात् जो द्रव्य या ठोस पदार्थ हमें दिखते हैं; वे भी ऊर्जा से निर्मित हैं और सभी ठोस पदार्थ अंतत: ऊर्जा में ही परिवर्तित हो जाते हैं। अत: इस पूरे ब्राह्मंड में ऊर्जा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अध्यात्म विज्ञान में यही ऊर्जा ब्रह्म है। हम ‘ब्रह्मांड’ शब्द का प्रयोग इसलिए करते हैं कि यह सर्वव्याप्त ब्रह्म से परिपूर्ण एवं अंडाकार है।

खगोल विज्ञानियों के अनुसार ब्रह्मांड की उत्पत्ति पूर्ण ऊर्जा एवं धूल के कणों में महाविस्फोट से हुई है। कालांतर में इसी से आकाशगंगाएं, नक्षत्र, तारे एवं ग्रह आदि बने। सूर्य के विखंडन से संपूर्ण सौरमंडल अस्तित्व में आया। अध्यात्म विज्ञानी इस सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानते हैं जबकि खगोल विज्ञानी विस्फोटक से मानते हैं अर्थात् सभी ग्रहों या पृथ्वी पर जो कुछ भी जड़-चेतन तत्त्व है; वह सूर्य या ब्रह्मांड के मूल तत्त्व से ही बना है। परन्तु नाम-रूप में भिन्नता होने पर भी मूल तत्त्व एक ही है और वह ब्रह्म है।

दर्शन शास्त्रों में ब्रह्म के संदर्भ में एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति कहा गया है। मृत्योपरांत चेतन तत्व द्वारा शरीर को छोड़ने के पश्चात जड़ तत्त्व प्रकृति में विलीन हो जाता है। ब्रह्म को निर्लिप्त, निराकार, निर्विशेष तथा निर्विकार आदि कहा गया है। अध्यात्म शास्त्रियों ने इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा के तीन गुण बताए हैं। इसमें सत् सत्य है, चित् चेतन है तथा आनन्द ब्रह्म स्वरूप है। इसी को सच्चिदानन्द परमात्मा के रूप में जाना जाता है।


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