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इतिहास और राजनीति >> झूठ नहीं बोलता इतिहास

झूठ नहीं बोलता इतिहास

जगदीश चंद्रिकेश

प्रकाशक : परमेश्वरी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6011
आईएसबीएन :978-81-88121-89

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प्रस्तुत है अल्पज्ञात रोचक इतिहास प्रसंग......

Jhoot Nahin Bolta Itihas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इतिहास झूठ नहीं बोलता, यह सच है; लेकिन प्रायः इतिहासकार झूठ बोल जाते हैं, क्योंकि इतिहास लिखने वाले पहले भी दरबारी होते थे, चारण, भाट और राजकवि, और आज भी दरबारी होते हैं कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष। सत्ता-प्रतिष्ठान का वरदहस्त तो उन्हें मिला ही होता है। इसलिए इतिहास में वही सब कुछ लिखा जाता है, जो सत्ता चाहता है। हां, इतना अवश्य है कि किसी-किसी इतिहास लेखक का जमीर कभी-कभी उसे इस बात की गवाही नहीं देता कि वह झूठ की मक्खी को जानते-बूझते निगल ले। इसलिए वह घटनाओं के बीच ‘गैप’ या ‘संकेत’ छोड़ देता है, जो घटना के दूसरे पक्ष को उजागर कर सके इन्ही ‘गैप’ या ‘संकेतों’ को पढ़ने को अंग्रेजी में ‘बिटवीन्स दी लाइंस’ पढ़ना कहा गया है। इसी तरह ‘बिटवीन्स द लाइंस’ पढ़ने की कोशिश से जन्मी हैं प्रस्तुत संकलन की रचनाएं।

प्रस्तुत संकलन की रचनाओं में इतिहास की ज्ञात, अज्ञात और अल्पज्ञात रोचक घटनाओं के आलेख हैं, जो प्रमाणित है जिनके स्रोत और संदर्भ यथास्थान दिए गये हैं।
हालांकि सभी रचनाएं इतिहास से जुड़ी हैं फिर भी कुछ रचनाएं चमत्कारों से संबंधित हैं, जो यह बताती हैं कि प्रकृति के नियमों के बारे में जितना हम समझे हुए हैं, शायद उतना पर्याप्त नहीं है। कुछ रचनाएं गुप्तचरी की किंवदंतियां बनी गु्प्तचर युवतियां माताहारी, नूर इनायत और तेनिया पर हैं, जो अद्यतन जानकारी लिए हुए हैं, जैसे माताहारी तो जासूस थी ही नहीं।

एक आलेख टावर ऑव लंदन को लेकर है, जिसमें ब्रिटेन के छह सौ साल के इतिहास का क्रूरतम चेहरा दफन है। एक आलेख नेपोलियन के उस चेहरे को बेनकाब करता है, जो उसने प्रजातंत्र के नाम पर ओढ़ रखा था। चर्च के अंधे धर्माधिकरण ने सत्य की खोज करने वाले वैज्ञानिकों को किस तरह जिंदा जलवा दिया, यह भी जानना रोमांचक है।
आलेखों की वस्तुगत विविधता लेखक के बहुपठित और बहुविज्ञ होने को प्रमाणित तो करती ही है, साथ ही भाषा पर उसकी पकड़ और शैली की प्रवाहमय सहज सरलता पाठक को अभिभूत किए बिना नहीं रहती।

प्राक्कथन

इतिहास हमेशा विजेताओं का हुआ करता है या शासकों का, पराजित या शासितों का नहीं, क्योंकि इतिहास तो वही लिखवा सकते हैं, और लिखवाते हैं, जो सत्ता में होते हैं। इतिहास लिखने वाले पहले दरबारी ही हुआ करते थे-चारण, भाट और राजकवि। वर्तमान में भी दरबारी ही होते हैं—कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष। सत्ता-प्रतिष्ठान का वरदहस्त तो उन्हें मिला ही हुआ होता है, इसलिए इतिहास में वही सब कुछ लिखा या लिखाया जाता है, जो सत्ता उनसे लिखवाना चाहती है।
 इतिहासकार का स्वतंत्रजीवी या तटस्थ होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं होता, यदि है तो वह अपवाद ही है।
 हां, इतना अवश्य है कि किसी-किसी इतिहास-लेखक का जमीर कभी-कभी इस बात की गवाही नहीं  देता कि वह झूठ की मक्खी को जानते-बूझते निगल ले। इसलिए वह घटनाओं को लिखते-लिखते उनके बीच या तो कुछ ‘ ‘संकेत’ छोड़ देता है या ऐसा कोई संकेत दे देता है, जो घटना के दूसरे पक्ष को उजागर करने मददगार हो  सके इन्ही संकेतो को या खाली जगह यानी ‘गैप’ को पढ़ने को अंग्रेजी में ‘बिटवीन्स द लाइंस’ पढ़ना कहा गया है। इसी तरह ‘बिटवीन्स द लाइंस’ पढ़ने की कोशिश इन रचनाओं में की गई है। अध्ययनशील प्रवृत्ति के कारण इतिहास की किताबें पढ़ना, मैं कह सकता हूँ कि मेरा प्रिय शगल रहा है, इसलिए जहां कहीं भी ऐसे संकेत मुझे मिले हैं, मैंने उनका पीछा किया है और जहां कहीं भी दूसरी जगह इसके पूरक मिले हैं, उन्हें लेकर तारतम्य बैठाने का प्रयास किया है। इसमें एक लंबा समय लगा है, और समय-समय पर ही लिखी जा सकी ये रचनाएं।

उदाहरण के लिए, ‘भरतपुर लुट गया’ वाली लोकोक्ति बहुत समय तक परेशान किए रही कि आखिर यह लोकोक्ति प्रचलन में आई तो आई कैसे ? इसका सूत्र मिला पं. सुंदरलाला की इतिहास पुस्तक ‘भारत में अंगरेजी राज’ पढ़ते समय, जिसमें बिटवीन्स द लाइन्स’ पढ़ने वाली लाइने थीं ,मुझे यह लिखते दुःख है कि खाई इतनी अधिक चौड़ी और गहरी निकली कि उसे पार करने की जितनी कोशिशे की गईं, सब बेकार गईं....हम पर इतनी देर तक जोर से और ठीक निशानों के साथ फसील की तोपों के गोले बरसते रहे कि हमारा बहुत अधिक नुकसान हुआ।’

-ये वे पंक्तियां हैं, जो जनरल लेक ने अपनी विफलता के बारे में गवर्नर जनरल मार्क्विस वेल्जली को लिखी थीं। भरतपुर को हथियाने के लिए अंग्रेजों ने पूरी तैयारी के साथ 21 जनवरी, 1805 को दूसरे हमले में भरतपुर की घेराबंदी कर बारह दिन तक गोलाबारी की, लेकिन पहले हमले की तरह इस बार भी वे भरतपुर का कुछ न बिगाड़ सके। अंततः उन्हें पीछे हटना पड़ा। फिर 20 फरवरी को तीसरा हमला किया गया। वह भी बेकार गया। इस तरह तीन-तीन बार के जबरदस्त हमलों को झेलकर भरतपुर की फसीलों ने अंग्रेजों के घमंड को इस बुरी तरह चूर कर दिया कि अंग्रेजों ने बीस साल तक भरतपुर की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा। फिर भी भरतपुर उनके दिल में काँटे की तरह चुभता रहा, तभी तो इन तीन-तीन हमलों के नौ साल बाद भी लॉर्ड मेटकॉफ को लिखना पड़ा कि, ‘...हमारी सैनिक कीर्ति का अधिकतर भाग भरतपुर में दफन हो गया।’

इसके बाद जाट इतिहास और राजा सूरजमल को पढ़ने पर पूरी तस्वीर उभरकर सामने आई कि भरतपुर के अभेद्य दुर्ग और जाटों की दुर्दम्य जुझारू शक्ति उस कालखंड में अपने सर्वोच्च पर थी और इसने अंग्रेजों को जितना आतंकित किया और सताया था उसी का बदला अंग्रेजों ने भरतपुर को बुरी तरह लूटकर लिया। भरतपुर की आबादी को बेदर्दी से मारा-काटा गया। जिनके पास कुछ भी नहीं था उन लोगों के बाल तक उखाड़ लिए। किसी के पास कुछ नहीं छोड़ा, तभी तो भरतपुर का लुटना लोकोक्ति बन गया।

ऐसी ही एक और लोकोक्ति है—‘अभी दिल्ली दूर है।’ हजरत निजामुद्दीन औलिया का ये कथन—‘हनोज दिल्ली दुरअस्त’ और सुलतान गयासुद्दीन तुगलक की मौत एक  ऐतिहासिक घटना है। गयासुद्दीन तुगलक कैसे मरा और उस दौरे के इतिहासकारों ने इसे किस तरह लिया, यह जानना बेहद दिलचस्प है। गयासुद्दीन के उत्तराधिकारी बेटे मुहम्मद शाह तुगलक, जिसे इतिहास ने एक सनकी और पागल बादशाह के रूप में लिया है, उसका दरबारी इतिहासकारी जियाउद्दीन बरनी ‘तारीखे-फीरोजशाही’ में लिखता है, ‘गयासुद्दीन जब विजय अभियान के बाद दिल्ली लौट रहा था, तो दिल्ली से कुछ ही दूर अफगानपुर में उसने रात्रि-विश्राम उस महल में किया, जिसे उसके बेटे मुहम्मद शाह तुगलक ने उसके स्वागत के लिए बनाया था। इस महल के गिर जाने से सुलतान गयासुद्दीन दबकर मर गया।’

इसी घटना को लेकर तुगलककालीन एक अन्य दरबारी इतिहासकार अब्दुल्लाह सिहरिंदी ‘तारीखे-मुबारकशाही’ में लिखता है....महल गीला था। गयासुद्दीन ने महल में दरबार किया और हुक्म दिया कि जो हाथी लखनौती के ध्वंश से प्राप्त हुए हैं, उन्हें एकसाथ दौड़ाया जाए। महल तो गीला था ही, पहाड़ जैसे डील-डौल के हाथियों के एक साथ दौड़ाये जाने के कारण हिला और गिर पड़ा। गयासुद्दीन एक अन्य आदमी के साथ महल के नीचे दब गया और शहीद हो गया।’
सिहरिंदी आगे यह भी लिखता है, ‘.....कहा जाता है कि इस स्थान पर हजरत निजामुद्दीन औलिया की बद्दुआ थी। औलिया ने सुलतान गयासुद्दीन के लखनौती जाते समय कहा था, ‘दिल्ली दूर है।’ जब गयासुद्दीन विजय कर लौटा और अफगानपुर पहुंचा तो उसने कहा, ‘दुश्मन के सीने को कुचलकर लौट आया हूं।’ जब यह बात हजरत औलिया को बताई गई तो उन्होंने फिर वही बात दुहराई, ‘हनोज दिल्ली दूरअस्त’ यानी अभी दिल्ली तुझसे दूर है। यह घटना उसी महीने में घटी।’
इसी घटना को ‘तबकाते-अकबरी’ में इतिहासकार निजामुद्दीन अहमद इस तरह लिखता है, ‘तुगलकाबाद से तीन कोस दूर अफगानपुर के पास मुहम्मद शाह तुगलक अपने पिता के स्वागत के लिए मलिकों, अमीरों, तथा गणमान्य लोगों को लेकर सुलतान की सेवा में हाजिर हुआ। सुलतान उन लोगों के साथ बैठा और खास दस्तरखान बिछाया गया। जब वह खाना खाकर जल्दी उठ गया तो लोग समझे कि सुलतान जल्दी ही दिल्ली (तुगलकाबाद) रवाना होना चाहते हैं। अतः वे हाथ धोये बिना बाहर निकल आए। सुलतान हाथ धोने के लिए वहीं रह गया। इस बीच महल की छत गिर गई और वह दबकर मर गया।..कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि चूंकि महल नया-नया बना था, इसलिए हाथियों के दौड़ने से महल की जमीन बैठ गई और छत गिर पड़ी, लेकिन समझदार लोगों से यह छिपा नहीं कि महल के बनवाने से, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी, यह शक होता है कि मुहम्मद तुगलक ने अपने पिता की हत्या करने का निश्चय लिया होगा। ऐसा ज्ञात होता है कि ‘तारीखे-फीरोजशाही’ के लेखक जियाउद्दीन बरनी ने, चूंकि अपना इतिहास सुल्तान फीरोजशाह (मुहम्मद शाह तुगलक के उत्तराधिकारी) के राज्यकाल में लिखा था और सुलतान फीरोजशाह अपने पिता सुलतान मुहम्मद शाह का बड़ा भक्त था, अतः जियाउद्दीन बरनी ने उसका पक्ष लेते हुए यह बात नहीं लिखी। मैने- बहुत-से भरोसेमंद लोगों से बार-बार सुना है और यह बात प्रसिद्ध है कि चूंकि सुलतान गयासुद्दीन तुगलक हजरत शेख निजामुद्दीन से नाखुश था, उसने उनके पास संदेश भेज दिया था कि ‘जब मैं दिल्ली पहुंचू तो शेख शहर से चले जाएं।’ इसके जबाव में शेख ने कहा था, ‘अभी दिल्ली दूर है।’ यह वाक्य हिंदुस्तान में लोकोक्ति बन गया है। यह भी प्रसिद्ध है कि गयासुद्दीन का बेटा मुहम्मद शाह तुगलक शेख साहब का बड़ा भक्त था।’

इस संदर्भ में एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार फरिश्ता अपने इतिहास ‘तारीखे-फरिश्ता’ में लिखता है कि ‘जब मुहम्म्द शाह तुगलक भी अपने पिता के साथ भोजन कर रहा था, तो ऐसा कैसा जादू हुआ कि मुहम्मद शाह के बाहर आते ही छत गिर गई, जिसमें गयासुद्दीन के साथ पांच और लोग मारे गए।’ अतः फरिश्ता का मत है कि ‘इस मुहम्मद शाह का रचा षड्यंत्र नहीं माना जा सकता।’

इसी घटना पर एक और इतिहासकार हाजी मुहम्मद कंधारी का कहना है कि ‘यही बात ठीक मालूम होती है कि जिस समय गयासुद्दीन हाथ धो रहा था, एक बज्र आसमान से गिरा और छत को फाड़ता हुआ उसके सिर पर आ पड़ा।...इस बज्र के गिरने की बात को हजरत निजामुद्दीन औलिया के इस कथन से कि ‘अभी दिल्ली दूर है’ के रूप में उनकी बद्दुआ के साथ जोड़कर देखा जाता है।’

इस तरह हर इतिहासकार ने अपनी-अपनी तरह से इस घटना की व्याख्या की है, लेकिन अभी तक यह एक अनसुलझी पहेली ही है कि आखिर गयासुद्दीन मरा कैसे ? दरअसल, इतिहास क्या है ? कुछ घटनाएं और उनका लेखा-जोखा, जिसे हरेक इतिहासकार अपनी-अपनी दृष्टि अपनी प्रतिबद्धता स्थिति-परिस्थिति और अपने स्वार्थ के अनुरूप व्याख्यायित करता है—यह तथ्य गयासुद्दीन की मौत के प्रसंग से भली-भांति उजागर होता है।

ऐसा ही किस्सा हुमायूं द्वारा ईरान के साथ की गई गद्दारी को लेकर है। हुमायूं शेरशाह सूरी से पिटकर मारा-मारा फिर रहा था। बाबर अपने जीते-जी हुमायूं सहित चारों बेटों कामरान, मिर्जा अस्करी और हिंदाल के बीच अपने राज्य का बंटवारा कर गया था, लेकिन हुमायूं के बुरे दिनों में उसके भाई भी उसके दुश्मन हो गए। अतः ईरान के शाह तहमास्प ने उसे शरण दी। अपने लड़के मुराद मिर्जा के साथ चौदह हजार घुड़सवार सौनिक हुमायूं की मदद के लिए दिए, ताकि वह कंधार को जीत ले, जो कामरान और मिर्जा अस्करी के अधीन था।

कंधार जीतने के बाद हुमायूं ने वायदा खिलाफी की। वह एक दिन यकायक कंधार के किले में घुस पड़ा और ईरानी सैनिकों का कत्लेआम करा दिया। फिर सर्वेसर्वा बन बैठा इस सरासर गद्दारी को छिपाने के लिए अकबर के नौरत्नों में से एक अबुल फजल ने ‘आइने-अकबरी’ में लिख दिया कि हुमायूं ने ईरानियों को यह सजा दी कि वे जनता पर अत्याचार कर रहे थे। जबकि यह बिलकुल झूठ है, क्योंकि शर्त के अनुसार जब हुमायूं कंधार ईरानियों को दे चुका था तब फिर उसे जनता के साथ अन्याय या अत्याचार से क्या लेना-देना था ? और ईरानी फौजियों के कत्लेआम कराने का क्या मतलब था ? दरअसल, यह अबुल फजल द्वारा सचाई के साथ की गई छेड़छाड़ है।


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