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नाटक-एकाँकी >> सीढ़ियाँ

सीढ़ियाँ

दया प्रकाश सिन्हा

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :83
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6009
आईएसबीएन :81-8143-771-6

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प्रस्तुत है नाटक सीढ़ियाँ...

Sirhiyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैसे तो नाटक का नायक सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढता लाँघता सलीम है किन्तु नाटक का वास्तविक नायक मुगल साम्राज्य के अन्तिम चरण में सामाजिक व्यवस्था के विघटन का वह युग है जिसमें भटके समाज के गिरते जीवन-मूल्यों के साथ जमाना अपनी दोशीजगी खो बैठता है। जहाँ वही सत्य हो जिसकी जय हो। सत्य और असत्य, आस्था पर अनास्था, प्रेम पर वासना, करुणा पर हिंसा और विश्वास पर घृणा की जीत युग-धर्म है। पतति समाज, भ्रष्ट अहल्कार विलासी हुक्मराँ—ऐसे बदरंग हैं जिनसे बनी है गुज़रे वक्त की यह तस्वीर। समय के साथ ये रंग न घुले, न उड़े। आज की तस्वीर में भी तो इन रंगों की झलक है, कहीं न कहीं। दर्शकों को यह रंग दिखाई पड़े, या न पड़े, वे इन्हें देखने की कोशिश भर करें बस इतना ही तो....सलीम उस युग का प्रतिनिधि है। आप भी यदि अपने चारों ओर नज़र डालें, तो ‘सलीम’ ही ‘सलीम’ दिखाई देंगे। प्रसिद्ध नाटककार दया प्रकाश सिन्हा की सशक्त लेखनी से प्रणीत एतिहासिक नाटक जो सम सामयिक भी है।


नाटककार की दृष्टि में



‘सीढ़ियाँ’ मेरे पिछले नाटकों से भिन्न हैं। मेरे प्रायः सभी नाटकों में आस्था की प्रतिष्छा है। ‘कथा एक कंस की’, ‘इतिहास चक्र’, ‘ओह अमेरिका’, ‘सादर आपका’, ‘मन के भँवर’, ‘मेरे भाई-मेरे दोस्त’, ‘अपने-अपने दाँव’ आदि नाटकों की जमीने अलग-अलग हैं। इनमें उठाये गये मुद्दे भी अलग हैं, कथानक भी भिन्न हैं।

हास्य-व्यंग्य, मिथक, इतिहास, जीवन के अलग-अलग पक्षों को स्पर्श करते इन तमाम नाटकों को जोड़ने वाला केवल एक सूत्र है—आस्था। मेरे व्यक्तिगत जीवन की अभिव्यक्ति इनमें हैं। कहीं मैं स्वयं हूँ इन नाटकों में। फिर मुझे कुछ ऐसे अनुभव हुए जिससे मेरे जीवन-मूल्यों की आधारशिला पर प्रहार हुआ। मुझे लगा, मेरे नाटक नक़ली हैं। वे मेरे आदर्शों के बोझ से दबे हैं। कोई रचना जब रचनाकार के व्यक्तित्व अनुभव के दायरे में से निकलकर, समाज के अनुभव से जुड़ती है, जब व्यक्ति का विस्तार समष्टि में होता है, तभी वह रचना कालजयी बनती है। इसलिए ‘सीढ़िया’ नाटक में नाटककार नहीं है। उसकी आस्था और आदर्श नहीं हैं। इसमें समाज है, वर्तमान है। इसमें नाटककार केवल आईना है।

‘सीढ़ियाँ’ नाटक मैंने चौदह वर्षों के अन्तराल के पश्चात् पूरा किया है। पूरे चौदह वर्षों के पश्चात। 1974 में ‘कथा एक कंस की’ लिखा था। 1976 में ‘सादर आपका’। फिर परिस्थितियों के सैलाब में कुछ ऐसा डूबा-उतराया कि लिख ही नहीं सका। यह नहीं कि लिखना नहीं चाहता था। लिखना चाहता था फिर भी नहीं लिख सका। ‘सीढ़िया’ का पहला आलेख 1986 में ही पूरी कर लिया था, जब मैं प्रशिक्षण के दौरान एक मास तक मसूरी में रहना पड़ा। फिर आगे गाड़ी नहीं बढ़ सकी। दो और दृश्य जोड़ने थे, एक-दो काटने और एक-दो घटाने थे। बस, इनमें चार साल लग गये। कुल मिलाकर चौदह वर्ष।
इस नाटक को पहले पूरा नहीं कर सका खेद है। किन्तु नाटक से मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ। इसलिए नहीं कि यह नाट्य-विधा के अन्तिम शब्द हैं, बल्कि इसलिए हिन्दी में रचे गये नाटकों में यह सबसे अलग है यह किसी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द नहीं घूमता और न किसी ऐतिहासिक घटना के।

‘सीढ़ियाँ’ का नायक वह काल-खण्ड है जो पात्रों के माध्यम से इस नाटक में स्थापित हैं। मुगल शासन के अन्तिम चरण में, साम्राज्य बिखराव के साथ सामाजिक विघटन का वह काल-खण्ड, जो समाज के गिरते जीवन मूल्यों के साथ अपनी दोशोज़गी (कौमार्य) खो बैठता है। जहाँ वहीं सत्य है, जिसकी जय हो। सत्य और असत्य, आस्था पर अनास्था, प्रेम पर वासना, करुणा पर हिंसा और विश्वास पर घृणा की जीत युग-धर्म है। पतति समाज, भ्रष्ट अहल्कार विलासी हुक्मराँ—ऐसे बदरंग हैं जिनसे बनी है गुज़रे वक्त की यह तस्वीर। समय के साथ ये रंग न घुले, न उड़े। वर्तमान की तस्वीर में भी तो इन रंगों की झलक है, कहीं-न-कहीं। नाटक के पाठक/दर्शक आज की तस्वीर में इस बीते कल की तसवीर के रंगों की झलक देख सकें, बस, इतना ही तो नाटक का उद्देश्य है..।

मैंने इस नाटक की परिकल्पना कुदसिया बेगम और जावेद की प्रेमकथा के रूप में की थी, किन्तु जब लिखने लगा, तो प्रेमकथा गौण हो गयी। वह युग उभर कर ऊपर आया जिसमें सामान्य स्त्री का प्रेम भी अवमूल्यित हो जाता है। वह एक सामान्य पुरुष। से नहीं, एक अपुरुष से प्रेम कर जीवन को परिणति देती है और सलीम का चरित्र, तस्वीर के बीच में आ गया, और गहरे शोख़ रंग उसमें भरने लगे। उसके सफलता के लिए सीढ़ियाँ लाँघना, हमको आज के समाज से एकदम जोड़ता है—शताब्दियों के अन्तराल के बीच सेतु-जैसा।

कुछ वर्षों पहले मैंने जोश मलिहाबादी की आत्मकथा ‘यादों की बारात’ पढ़ी थी। उसके एक प्रसंग में उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम का अश्लील, बाज़ारू गाली बकते हुए चित्रण किया है इसे पढ़कर मैं चकित रह गया। आहत हुआ। ऐसी गन्दी गालियाँ देना मध्यमवर्ग के लिए तो अकल्पनीय है। दिमाग़ में खिचड़ी पकती रही। सच ही यह मध्यम वर्ग के लिए अकल्पनीय है। किन्तु उस सामन्ती वर्ग के लिए नहीं। उस वर्ग के लिए कुछ भी अकल्पनीय नहीं है। तब लगा कि फ़िल्मों में राजा, बादशाह आदि का कलफ़ लगा, हर समय फूल सूँघता, संवाद बोलता चित्रण कितना बनावटी होता है। राजा-महाराजा भी तो अन्ततः मनुष्य ही होते हैं। उनमें मानवीय प्रवृत्तियाँ अच्छी-बुरी, ऊँची-नीची, उदात्त और ओछी उसी अनुपात में होती है, जिस अनुपात में सामान्य मनुष्य। बाहरी मुखौटा उतारकर जब वह अपने में होते हैं, किसी अन्य साधारण मनुष्य से भिन्न नहीं होते। इस परिप्रेक्ष्य में शहंशाह की मुखौटा विहीन महफ़िलें-याराँ, चुहल, विलास, सब स्वाभाविक ही हैं। विशेषकर तब, जब इसके लिए ऐतिहासिक साक्ष्य भी उपलब्ध हों। शहंशाह के शोख़ रंगों से बने चित्र से भिन्न, शहंशाह की ‘अप्रतिमा’ क्या स्वीकार की जायेगी ?

कुछ वर्षों पूर्व गोवा गया था। वहां से तीस-चालीस किलोमीटर दूर एक छोटे कस्बे की रंगशाला देखने का अवसर मिला। रंगशाला की ईंटों की दीवारों पर प्लास्टर नहीं था। टीन की छत थी। लगभग सात-आठ सौ के बैठने की व्यवस्था थी। साथ ही रंगमंच भी इतना बड़ा था कि उस पर आसानी से कोई भी नाटक खेला जा सके। किन्तु जिसने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया, वह था एक लकड़ी का नोटिस-पट्ट जिस पर मराठी में लिखा था—‘फुल हाउस’। रसिक दर्शकों का धन्यवाद। इसको देखने से मुझे ज्ञात हुआ कि इस ख़स्ता-हाल रंगशाला में अभिमंचित नाटकों के लिए ख़रीददार देखने वालों की प्रायः इतनी भीड़ उमड़ती है कि टिकट समाप्त हो जाते हैं और आयोजकों को बार-बार ‘फुल हाउस’ का बोर्ड लगाना पड़ता है। इसलिए उन्होंने स्थायी रूप से इस आशय का बोर्ड ‘पेण्ट’ करवाकर रख लिया है। मेरे मन में टीस उठी। कब हिन्दी रंगमंच भी इतना लोक प्रिय होगा। कब हिन्दी रंग-आयोजक इसी प्रकार फुल-हाउस का बोर्ड पहले से ‘पेण्ट’ करवाकर रखेंगे ? क्या जन-सापेक्ष होने से मराठी रंगमंच का स्तर हिंदी रंग-प्रस्तुतियों से किसी प्रकार हीन है ? क्या जन-स्वीकार से अलंकृत रंगमंच के नाटककार और निर्देशन हिन्दी रंग-निर्देशकों और नाटककारों से निम्न स्तर के हैं ?

स्वतन्त्रता से पूर्व हिन्दी क्षेत्र में रंगमंच नाम-मात्र को ही था। और आज तैंतालिस वर्ष पश्चात् भी हिन्दी रंगमंच प्रायः उसी स्थिति में है। इसके लिए आज दूरदर्शन को दोष दिया जाता है। दूरदर्शन के ‘सीरियलों’ को दोष दिया जाता है। मंच कलाकार कब तक भूखे पेट रह सकते ? यह प्रश्न उठाया जाता है। लेकिन इसका उत्तर कौन देगा कि क्या कारण है कि चालीस वर्षों बाद भी हिन्दी समाज में अपनी जगह नहीं बना सका ? क्यों दर्शक निःशुल्क नाटक भी देखने नहीं जाते ? क्यों हिन्दी नाटकों के लिए प्रेक्षागृह खाली रहते हैं ? क्यों हिन्दी के कुछ तथाकथित प्रमुख नाट्यदल केवल लाखों रुपयों की सरकारी सहायता से चल रहे हैं ? क्यों वह सामान्यजन से कटे हैं ? क्यों उन्हें जन-स्वीकृति और जन-संरक्षण प्राप्त नहीं है ?
पिछले चालीस वर्षों का लेखा-जोखा जब लिया जायेगा, तब वह लोग कटघरे में खड़े किये जायेंगे, जिन्होंने हिन्दी रंगमंच को उस जगह पहुँचाया, जहाँ पर वह अब है। आज रंगमंच समाज के अनुभव का दस्तावेज न होकर पश्चिम की भौडी नक़ल का माध्यम बन गया है। यूरोप में ‘थियेटर ऑफ़ अब्सर्ड’ का बोल बाला है, तो हाँ भी उसकी नक़ल में ऊल-जलूल नाटक करना एक फैशन-सा बन गया है। यूरोप के एक निर्देशक द्वारा मनो-शारीरिक रंगमंच प्रारंभ हुआ। यहाँ के नगरों में भी रंगमंच पर सामूहिक कसरत प्रारम्भ हो गई। कोई आयातित ‘टोटल थियेटर’ लेकर उड़ चला : बेसुरे कण्ठों ने रंगमंच पर रेंकना शुरू किया तो दर्शक प्रेक्षागृह से बाहर ऐसे हो गये कि टिकट बेचने की परिपाटी ही समाप्त हो गयी। कौन खरीदेगा टिकट ? और क्यों खरीदे ?

मैंने नाटक कभी फैशन के लिए नहीं लिखा। मैं जो हूँ, जो मेरा परिवेश है, जो मेरे अनुभव से आबद्ध हैं उसी को मैंने नितान्त ईमानदारी से नाटकों, मुहावरों से उतारने का प्रयत्न किया है। मेरा जन्म गाँव में नहीं हुआ, और न मैं गांव में पला-बढ़ा। इसलिए मैंने ‘गोबर’ जैसी किसी पात्र के पढ़ने का प्रयत्न नहीं किया, और न ‘गोदान’ जैसी किसी रचना की,। बिना ‘लमही’ के कोई प्रेमचंद नहीं बन सकता। कोशिश करके भी कोई रेणु नहीं बन सकता। मैंने सदैव अपनी सीमा को जाना है। बिरहा, कजरी, लाँगुरिया की मैंने साँस नहीं ली है, और न ये मेरे रक्त में घुले हैं। इसीलिए जब ‘फ़ोक-इस्टाइल’ नाटकों का चलन हुआ, तो मैं इनसे दूर ही रहा।

उन बेचारे शहरी निर्देशकों पर मुझे सदा ही तरस आया, जो बरिहा, कजरी, चैती, विदेशिया, रशिया, लाँगुरिया, खयाल, आल्हा, चार-वेद आदि में अन्तर न जानते हुए भी नाटक में कुछ गाना-बजाना डालकर समझ बैठते हैं कि उन्होंने नाटक को गाँवों में जोड़ दिया। ऐसी कृत्रिम दोगली प्रस्तुतियों में लोक-तत्त्वों के समावेश का स्वागत करता हूँ। इसके लिए आवश्यक है कि निदेशक की लोक-विधा में गहरी पकड़ हो, तब ही नाटक के साथ न्याय होगा—जैसे रतन थियम द्वारा ‘चक्रव्यूह’ नाटक से। लेकिन प्रयोग के लिए प्रयोग की प्रस्तुति जो पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में देखी गयी उसने हिन्दी रंगमंच का मर्सिया ही लिख दिया है मैं आशा करता हूँ कि विद्वान/समीक्षकों रंगकर्मी हिन्दी रंगान्दोलन के ह्रास्व के कारणों का विश्लेषण करेंगे और एक नयी शुरुआत करेंगे।

प्रकाशन से पूर्व यह नाटक लखनऊ की प्रसिद्ध नाट्य-संस्था ‘दर्पण’ द्वारा मंचस्थ किया गया था। मैंने स्वयं इसका निर्देशन किया था। किसी भी नाटक की ‘अग्नि परीक्षा’ उसका अभिमंचन है। मैं आश्वस्त हुआ, जब खचाखच भरे रवीन्द्रलय के क्षीण वातानुकूलन के पश्चात भी दर्शक उमस और गर्मी बर्दाश्त करते हुए, नाटक के अन्त तक बैठे रहे। नाटक के सफल अभिमंचन के पीछे डॉ. अनिल रस्तोगी, श्री के.वी. चन्द्र, श्री उर्मिल थपलियाल तथा श्री योगी का अमूल्य रचनात्मक-सान्निध्य मेरे लिए व्क्ततिगत उपलब्धि है। हिन्दी को समर्पित श्री विशन टण्डन (विशन भाई) लेखक ही नहीं, हिन्दी के संरक्षक भी हैं। उनके प्रति आभार प्रकट करके मैं उनके स्नेह से विमुक्त नहीं हो सकता।

दया प्रकाश सिन्हा





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