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यात्रिक

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5978
आईएसबीएन :81-8361-172-5

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प्रस्तुत है पुस्तक यात्रिक...

Yatrik

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कथाकार और उपन्यासकार के रूप में शिवानी की लेखनी ने स्तरीयता और लोकप्रियता की खाई को पाटते हुए एक नई जमीन बनाई थी जहाँ हर वर्ग और हर रुचि के पाठक सहज भाव से विचरण कर सकते थे। उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और सम्बन्धगत भावनाओं की इतने बारीक और महीन ढंग से पुनर्रचना की कि वे अपने समय में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में एक होकर रही।

 कहानी, उपन्यास के अलावा शिवानी ने संस्मरण और रेखाचित्र आदि विधाओं में भी बराबर लेखन किया। अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों को उन्होंने करीब से देखा, कभी लेखन की निगाह से तो कभी मनुष्य की निगाह से, और इस तरह उनके भरे-पूरे चित्रों को शब्दों में उकेरा और कलाकृति बना दिया।

‘जालक’ शिवानी के अंतर्दृष्टिपूर्ण संस्मरणों का संग्रह है जिसमें उन्होंने अपने परिचय के दायरे में आए विभिन्न लोगों और घटनाओं के बहाने से अपनी संवेदना और अनुभवों को स्वर दिया है।
आशा है, शिवानी के कथा-साहित्य के पाठकों को उनकी ये रचनाएं भी पसंद आएँगी।   

चरैवेति


 मॉस्को के प्रशस्त हवाई अड्डे पर हमारा ऐरोफ्लोट उतरा, तो सूर्य मध्य गगन में था। यह हवाई अड्डा एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अड्डा है, यहाँ से नित्य एक-एक घंटे में चार-चार हजार हवाई यात्रियों का आवागमन होता है। प्रत्येक सप्ताह 15 उड़ाने इस शेरी मेटिथो अड्डे से उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका की ओर प्रस्थान करती हैं, 32 अफ्रीका एवं दक्षिणी-पूर्वी अफ्रीका को, 65 यूरोपीय देशों को एवं अन्य 80 उड़ाने विभिन्न देशों को जाती रहती हैं। ऐसी चहल-पहल मैंने अन्य किसी हवाई अडडे पर नहीं देखी। 300 यात्रियों को एकसाथ गोद में भर उड़ानेवाली एयरबस और विभिन्न देशों के प्रतीक्षारत अचल वायुयानों को देख, सहज ही में अनुमान लगाया जा सकता है कि अड्डा कितना विशाल है। इसकी तुलना में हमारे देश का अंतर्राष्ट्रीय अड्डा किसी बालक के खिलौने-सा ही प्रतीत होता है।

एक क्षण को उस वायुयान संकुल हवाई अड्डे की अस्वाभाविक निस्तब्धता देख भय-सा लगा। कहीं हमें लेने कोई नहीं आया तो ? मास्को हवाई अड्डे में किसी मेजबान का सहारा न हो, तो आगंतुक को अनेक कठिनाएयों से जूझना पड़ता है। यह चेतावनी भारत ही में मिल गई थी। हमारा तीन सदस्यीय नन्हा-सा डेलिगेशन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 125 वीं जन्म तिथि में भाग लेने के लिए मास्को गया था, विश्वभारती के कुलपति डॉ. निमाई साधन बोस, गुरुदेव की विशेष स्नेह भाजना बँगला की प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी देवी और मैं। मैत्रेयी देवी बहुत वर्ष पूर्व भी मास्को आ चुकी थीं।

एक तो लम्बी उड़ान की थकान, उस पर वार्धक्य की क्लान्ति ने हवाई अड्डे पर किसी को न देख बुरी तरह झुँझला दिया था- ‘‘यह भी क्या ? इतनी दूर से हमें बुलाया गया और लेने कोई भी नहीं आया, यह कैसा आतिथ्य है ?’’ हमने उन्हें धैर्य बँधाया ऐसा नहीं हो सकता। कोई न कोई अवश्य आया होगा, किन्तु उन्हें धैर्य बँधाने पर भी हम मन-ही-मन निराश हो चले थे। स्वच्छ-सुघड़ हवाई अड्डे के भीतर गए। तो एक से एक कठोर मुखमुद्राधारी द्वारपालों से अकेले ही जूझना पड़ा। किसी कक्ष में स्वयं प्रविष्ट हों, तो सामान बाहर धरें। कहीं सामान भीतर, तो हम बाहर ! बार-बार पासपोर्ट से हमारे चेहरे मिलाए जा रहे थे और फिर किस पासपोर्ट का चेहरा, पासपोर्टधारी के चेहरे से आज तक मिला है ? सबसे  कठिन अग्निपरीक्षा थी, जब अन्तिम द्वार से हमारा गमन हुआ, न जाने कितने फॉर्म भरवाए गए, कितनी कैफियतें माँगी गईं, फिर तन और मन से थके हम तीनों बिना भीख मिले भिखारियों-से दाता के द्वार पर खड़े थे कि एक दुबली-पतली आकर्षक युवती भागती-भागती आई। हमारी साड़ियाँ देख वह समझ गई कि हम कौन हैं ! बार-बार क्षमायचना में दोहरी होकर मरियम ने विशुद्ध हिन्दी में कहा, ‘‘दोष हमारा नहीं है। आप लोगों की उड़ान का टेलेक्स हमें अभी मिला। आप लोग बाहर चलिए मैं अभी क्लियर कराके आती हूँ।’’

बाहर हमारा दुभाषिया आर्काडी हमारी प्रतीक्षा कर रहा था।  दुबला-पतला सुनहरे बाल, गोरा-भभूका चेहरा। हमें देखते ही वह खिसियानी-सी हँसी हँसा। आर्काडी बँलगा के कवि जीवनानंददास पर शोध-कार्य कर रहा है एवं विशुद्ध बँगला बोलता है। देख हमें प्रसन्नता हुई, चलो डूबते को तिनके का सहारा तो मिला। चूंकी हम तीनों बँगला बोलते थे, इसी से हमें आर्काडी दुभाषिये के रूप में दिया गया था।

रूस में पग धरते ही जो पहली विशेषता हमें लगी थी, वह थी वहां के स्वस्थ चेहरे और स्वस्थ सड़कें। सड़के क्या थीं, किसी प्रशस्त शुष्क महानदी का चौड़ा पाट। एक साथ सौ कारें भी अलग-बगल चलें तो न टकराएं। न भीड़ न कलरव, गुमसुम सहमी ठीक जैसे  किसी जवान सद्यः विवाहिता को सहसा वैधव्य ने डस लिया है। उस दिन ईश्वर कृपा से मौसम बेहद सुहावना था, गुलाबी धूप और चारों ओर गहन हरीतिमा।

धीरे-धीरे हमने शहर में प्रवेश किया, तो उच्च सौंधो का स्थापत्य देख दंग रह गए। दर्शनीय भवन, ठोस स्तम्भ, सोने की पतरी से मढ़े गुम्बद, लगता था कई दर्शनीय मसजिदें कतार दर कतार खड़ी हैं। क्या यह भारत से बन्दी बनाकर लाए तैमूर के कारीगरों का चमत्कार था ? और फिर उस सूर्य की प्रखर किरणों को इन पर सर्चलाइटी घेरा, सूर्य भी कैसा, जिसके अक्लान्त सप्ताश्व रात के दो बजे तक गगनांगन में स्वच्छन्द विचरण करते रहते थे। धीरे-धीरे इस अद्भुत स्थापत्य की अनेक परतें खुलती चली गईं। रूसी ग्रैंड   ड्यूक्स का ऐननसिएशन कैथीड्रल, इस कला के पीछे निःसन्देह युगों का इतिहास है। रूसी भवनों के इन कलात्मक गुम्बदों को देखकर लगा, रूसी क्रान्तद्रष्टाओं ने रूप के असंख्य रहस्यों को देखा था, किन्तु इनका देखा गया प्रत्येक रहस्य ज्यामितिक रहा होगा। छेनी का यह त्रुटिहीन सन्तुलन ही इन गोल गुम्बदों में कहीं वर्तुल, कहीं आयत और कहीं त्रिभुजाकारों में  उभर आँखों को बरबस बाँध लेता है। मुझे बार-बार लग रहा था कि कला का यह तराजू में तुला सन्तुलन रूसी मन की उस कठोर अनुशासनप्रियता का ही प्रमाण है, जो खाने-पीने सांस लेने की भाँति उसके जीवन का एक अंग बन गई है। वैसे कलामर्मज्ञों के अनुसार, सही सन्तुलन होने की अनिवार्यता, कला के लिए कोई माने नहीं रखती, कला सन्तुलन उसे वैज्ञानिकता भले ही प्रदान करें। उसे किसी पैमाने में बाँधना उसे सुन्दर नहीं बनाता। यही कारण है भारतीय कला को भी कभी पाश्चात्य कलाविदों ने उपहास में उड़ाने की चेष्ठा की थी, किन्तु आज वे उसी की व्यंजना शक्ति का लोहा मानते हैं। रूसी स्थापत्य में पैमाने की यह महत्ता प्रत्येक गुम्बद में स्पष्ट होकर निखरी है।

आज मास्को से साइबेरिया की ओर जाइए। तो एक दूसरा ही स्थापत्य देखने को मिलेगा- काठ के बने छोटे-छोटे मकान, नेपाल और तिब्बत की-सी ढालू नक्काशीदार छतें, द्वारों पर खिड़कियों के उभरे छज्जों पर काठ की अनुपम नक्काशी। कुछ मकान देखकर लगा, पहाड़ के ही किसी जनसंकुल मुहल्ले में खड़ी हूँ। एक बार मार्ग में ही कार रोककर हमारे मेजबान हमें ऐसा ही गुड़िया के घरौंदे-सा मकान दिखाने ले गए। मकान क्या था खिलौना था, जी में आ रहा था, हथेली में उठाकर धर लूँ। यह बहुत पुराना मकान है कभी शहर के एक प्रतिष्ठित जमींदार ने इसे समरकंद के कारीगरों से बनवाया था और बनते ही उन्हें मृत्युदंड दे दिया था जिसमें कोई दूसरा उनकी कला प्रियता को न पछाड़ सके। ऐसा तो अपने देश के इतिहास में भी कहीं पढ़ा था, जब किसी निरंकुश सम्राट् ने अपनी किसी सुन्दर इमारत के बनते ही कारीगरों के दोनों हाथ काटकर तत्काल विचित्र पुरस्कार दे दिया था।
 
मॉस्को को चारों ओर से बाँधती धीर मंथर गति से गर्भिणी सर्पिणी-सी रेंगती मॉस्कटी नदी उसका बहुत बड़ा आकर्षण है। बड़ी रात तक नदीं में तैरती  भ्रमणार्थी आनन्दी भीड़ से उफनती दीर्घदेही नौकाएँ दूर से गंगा में तैरते घृतदीपों-सी ही लगती हैं। एक दिन ऐसी ही नौका में बैठ हमने आधे शहर की परिक्रमा की तो रात के बारह बज गये थे। पर माथे के ऊपर सूर्य चमक रहा था। चाहे तो ढेर के ढेर  कपड़े धोकर उस धूप में सुखा लें। अनेक वर्तुलाकार पुलों से होकर हमारी नाव गुजरी, बड़ी अनिच्छा से हम एक घाट पर उतर गए। भूख से पेट की आँते कुलबुला रही थीं। पंद्रह दिन में एक दिन भी ढंग से खाना नहीं खाया था। निरामिषभोजियों के लिए मास्को में नित्य की एकादशी एक विविशता बन जाती है। अभी मैत्रेयी देवी का पत्र आया है, ‘‘भारत पहुँचकर जब दिल्ली-कलकत्ता की फलों की दुकानें देखीं, तो लगा हमारा देश कितना समृद्ध है।’’ रूस में तब फल और सब्जियाँ देखने को भी नहीं मिल रहीं थीं केवल साइबेरियन सैलड अर्थात कटा खीरा और सावर क्रीम, कभी-कभार नन्हा-सा एक टमाटर, चाहे  खा लो, चाहे अगूँठी में जड़ लो ! और फिर आइसक्रीम-डूबते को बस तिनके का सहारा रहता है।

यह आइसक्रीम उनकी विशिष्टता है, कुछ-कुछ अपने लखनवी कुलफी नमेश का-सा स्वाद, फूल-सा हल्का और अत्यन्त स्वादिष्ट। जिह्वाग्र पर धरते ही पद्मपत्र पर धरी शिशिर बिन्दु-सा कंठ में लुढ़क जाता, उस पर परिवेशित करने से पूर्व एक रक्तिम सिरप प्रश्नचिन्ह-सा उभार दिया जाता, पर पूरे इक्कीस दिन जब नित्य यही खाना पड़ा, तो जी ऊब सा गया, पर वहां तो यही था कि खाओ तो कद्दू से न खाओ तो कद्दू से।

वैसे उनके कथनानुसार, उनके-से स्वादिष्ट केक कोई बना नहीं सकता, फूल-से हल्के केक की दर तह में विशुद्ध मधु, सिरप, मोटी आइसिंग, भले ही ऊपर की कशीदाकारी के बेलबूटों में कोई विशेष परिश्रम न किया गया हो, स्वाद में अतुलनीय। ‘‘कभी हमने यह केक पाक-निपुणता फ्रेंच लोगों से सीखी थी, पर अब इतने वर्षों में हमने उन्हें निश्चय ही पछाड़ दिया है।’’ एक दिन रवीन्द्रनुष्ठान में श्री कोटावस्की ने मुझे एक टुकड़ा थमाकर कहा, तो लगा कि उनकी गर्वोक्ति भित्तिहीन नहीं थी। रूसियों के मिष्टदन्त कुछ अधिक ही तीक्ष्ण हैं, केक हो या आइसक्रीम, प्रत्येक में मीठे की मात्रा इतनी अधिक रहती है कि एक छोटे-से टुकड़े से अधिक खाया नहीं जाता, किन्तु मैं नित्य ही कैफेटेरिया में ब्रेकफास्ट की प्रत्येक मेज पर इन मिष्ठान्नों का स्तूप सजा देखती, और पल-भर में साफ। शायद यही कारण है कि वहाँ कृशोदरी, क्षीणकटि की स्वामिनी महिलाएं कम ही देखने में आती हैं। जहाँ देखिए वहीं बिल्वस्तनी-गुरु नितम्बिनी-विराट्काया महिलाएँ किन्तु एक विशेषता देख आश्चर्य भी होता है। कैसी मेदबहुल देह क्यों न हो, उनकी किशोरी की-सी चपल फुर्ती देख दंग रह जाती, भारी शरीर उनकी कर्मठता को अलस नहीं बना पाता, चुस्त और बेहद फुर्तीली। रेस्तराँ की वेट्रेस हो या सड़क पर छोटी-मोटी दुकान लगा शीतल पेय, शहद, जैम बेचनेवाली बिसातिन, उनके पास सुरमण्डय के आकार का एक विचित्र कैलक्यूलेटर  रहता है, जिसमें बड़े-बड़े मन के तारों में ऐसे ही गुथें रहते हैं जैसे हमारे किंडरगार्डन स्कूली बच्चों को गिनती सिखाने वाले अड्डे में रहते हैं, उन्हीं मनकों को इधर-उधर करके न जाने रूसी गणित के किन किन सिद्धान्तों का पौना सवाया गिन के एक पल में बिल बनाकर थमा देती हैं। न चेहरे पर हँसी न ग्राहक के प्रति कौतुहल किन्तु एक प्रश्न पूछने में सदा सजग- ‘‘आपके पास रुबल हैं ? रुबली रुबली ?’’ अँगुलियों से इशारा कर वे भाषा न समझने पर भी आपको भली भाँति समझा देंगी कि रूबल नहीं हैं, तो  रुपया कहीं से प्रबन्ध कर आइए।

   

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