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छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोक खेल

चंद्रशेखर चकोर

प्रकाशक : पुधव मंच प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5974
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक छत्तीसगढ़ के पारंपरिक लोक खेल .....

Chhattisgarh Ke Paramaparik Lok Khel

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लेखकीय

अबोध बच्चे ‘अ’ स्वर के साथ मुंह से ध्वनि प्रेषित करते हैं अर्थात् चिल्लाते हैं। साथ ही साथ हथेली को मुंह के पास बार-बार ले जाकर श्वांस में अवरोध पैदा करते हैं। जिससे उक्त ध्वनि खंडित होकर निकलती है। प्रेषक को खंडित ध्वनि से अभूतपूर्व आनंद की अनुभूति होती है। यह लोक खेल है जो एक ही श्वांस में पूर्ण हो जाता है। जिसे बार-बार दोहराया जाता है। उक्त लोक-खेल को किसी भी नाम से नहीं जाना जाता किन्तु परंपरा में आज भी जीवन्त है। सर्वदा जीवन्त रहेगा। इसे उद्भव काल का लोक खेल या प्रथम लोक खेलों में से एक माना जा सकता है। इसी तरह न जाने कितने लोक खेल हमारे जीवन में लुप्त हो चुके हैं। हम अपने आस-पास छोटे बच्चों को ऐसे व्यवहार करते हुए पाते हैं जो सामान्य से पृथक होते हैं। ऐसे व्यवहार को नकल या अनुकरण लोक खेल कह सकते हैं। जैसे गली में दही बेचने वाले या सब्जी बेचने वाले को देखकर घर के भीतर से वैसा ही व्यवहार करना। कभी बंदर सा उछलना तो कभी भालू सा लुढ़क जाना। कभी वाहन चलाते हुए भाव व्यक्त करना तो कभी पशु-पक्षियों जैसे ध्वनि प्रेषित करना।

वास्तव में बचपन का तात्पर्य ही खेल है। कानून बालश्रम के विरुद्ध ही नहीं बल्कि बाल खेल के समर्थन में भी होना चाहिए। किसी व्यक्ति का बचपन कितना गौरवपूर्ण सुखमय व स्वतंत्र रहा है इस बात पर निर्भर करता है कि वह कितना खेला है। किसी भी बच्चे के लिए परिवार को प्रथम पाठशाला कहा जाता है तो दूसरी पाठशाला लोक खेल को मानना अनुचित नहीं होगा, क्योंकि लोक खेलों में शिक्षा प्रदान करने वाली बातें हैं जैसे रंगों का ज्ञान चिकि-चिकि बाम्बे से, एकता का संदेश संखली से, लय-ताल की जानकारी अजला-बजला से, सामान्यतः हो जाती है। इसी तरह अनेकों खेल हैं। एक रंगकर्मी को जितने अभ्यास की अवश्यकता होती है वह सब लोक खेलों में निहित है।

मैंने 1988 से 2001 तक छत्तीसगढ़ में प्रचलित 100 से भी अधिक लोक खेलों का संग्रह किया। इस पुस्तक में लोक खेलों को उनके मौलिक नियम व शर्तों सहित सम्मिलित किया है। इनमें से अधिकांश खेल भारत देश की अन्य प्रान्तों व अंचलों में भी प्रचलित हैं। कहीं-कहीं नाम पृथक हैं तो कहीं कहीं स्वरूप में थोड़ी सी भिन्नता। जैसे ‘फुगड़ी’ को महाराष्ट्र में भी ‘फुगड़ी’ कहते हैं किन्तु छत्तीसगढ़ में प्रचलित ‘गोटा’ को बुन्देलखण्ड में ‘चपेटा’ के नाम से जाना जाता है। इस तरह इस पुस्तक में विभिन्न प्रान्तों व अंचलों के अनेकानेक लोक खेल सम्मिलित हो गये हैं।

इस पुस्तक के प्रकाशन में अनेक लोगों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग रहा है। मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। प्रमुखतः रमेशदत्त दुबे एवं चन्द्रशेखर व्यास जिन्होंने बौद्धिक स्तर पर मार्गदर्शन किये, शिव चन्द्राकर, घनश्याम वर्मा, गोविंद धनकर, मिथलेश निषाद, परमेश्वर कोसे, पुधव मंच तता नवां सुम्मत समिति, कान्दुल के सभी सदस्यों का विशेष सहयोग व मार्गदर्शन रहा है। इनका भी आभारी हूं जिनसे यह खेल प्राप्त हुएः— बुटईल-भारती परगनिहा (ग्राम चंडी), अजला बजला, जोड़उल, हुर्रा-बाघ—श्रीमती पुष्पलता वर्मा (ग्राम कान्दुल), डांडी पौहा, कोबी-नारायणलाल परमारःधमतरी, पोनी लुकउल-श्रीमती सावित्री वर्मा (ग्राम तान्दुल), बग्गा-चन्द्रशेखर व्यास (रायपुर), तरोईफूल-शिव चंद्राकर (ग्राम खौली)। आशा करता हूं, पाठकगण इस पुस्तक के साथ अपने बचपन एवं अपने लोक में लौटेंगे।

चन्द्रशेखर चकोर

भूमिका

अपने रायपुर प्रवास के दौरान, मित्रवर चन्द्रशेखर व्यास के सौजन्य से लोक के खेलों की पांडुलिपी देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। असमय वार्धक्य के लिए बुन्देली में एक कहावत है ‘रायगढ़े, जनम बूढ़े’ सो अपन तो कद-काठी में और लेखन में भी बूढ़े-टेढ़े रहे हैं। बचपन में खेलने का सुयोग भी ज्यादा नहीं मिला और न ही उस उम्र में बाल साहित्य ही लिख पाया, लेकिन मेरे बचपन के वे खेल जिनका अस्तित्व ही नहीं, अर्थ तक पूरी तरह विलोपित हो तुका है वे श्री चन्द्रशेखर चकोर-कान्दुल, रायपुर छत्तीसगढ़ की पांडुलिपी में पूरी तरह से सुरक्षित हैं। लोक ने अपनी रचना की सुरक्षा के लिए अभेद्य दीवालें खड़ी कर रखी हैं। एक तो उसकी वाचिक परम्परा होती है।

इसीलिए दीमक आदि लगने का कोई खतरा नहीं दूसरे-वह भाषिक अन्तर को छोड़कर, समूचे आर्यावर्त में एक सा लहराता है–जैसे छत्तीसगढ़ के खिलामार को यहां भित्ती, मोटा को चपेटा, चौसर को चौपड़ कहा जाता है श्री चकोर में शताधिक लोक खेलों का मात्र संकलन ही नहीं किया है वरन वे पिछले अनेक वर्षों से इनका सप्त दिवसीय आयोजन-प्रदर्शन भी करते रहे हैं—अपने उद्यम, अपने व्यय से। लोक खेल अपने प्रदर्शन में ही अपनी वास्तविक आत्मा का विस्तार और अपने उन्नयन का रास्ता पाते हैं इसी के साथ श्री चकोर ने इन खेलों का वैज्ञानिक, नियम सम्मत भी बनाया है—बिना उनकी मूल आत्मा से छेड़छाड़ किये। उनका यह कार्य ग्रीस, के ओलम्पिक खेलों का पुनरुद्धार जैसा है। काश-लोक के इन खेलों को ओलम्पिक जैसा आयोजन शुरू हो सके। खेल समय का अवकाश है और यह अवकास जीवन के खटराग से बचा हुआ समय नहीं है—उन्हीं के बीच होता है। लोक में बचपन की उम्र बहुत कम होती है।

बच्चे बचपन के अर्थ को ठीक से पहचान भी नहीं पाते कि वयस्क हो जाते हैं। लड़की ठीक से चलना-फिरना भी नहीं सीख पाती कि माँ उसे रसोई घर में रोटी पानी की शिक्षा देने लगती है। यहां भी लिंग भेद है, पुरुष का प्रभुत्व है। लड़के और लड़कियों के खेल अलग-अलग होते हैं जो लड़का, लड़कियों के साथ खेलता है अन्य लड़के उसे चिढ़ाते हैं-लड़कियों में लड़का खेले, पालने में झूला झूले’। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता है
‘झांसी की रानी’
‘नाना के संग खेली थी वह, नाना के संग पढ़ती थी’
लक्ष्मीबाई के पिता चिन्तित रहते थे कि लड़कों के खेल खेलने वाली इस लड़की का विवाह कैसे होगा ? बुन्देलखण्ड में लड़कियों के खेल नौरता और अक्षय तृतीया के खेलों में, लड़कों की हिस्सेदारी खेल को बिगाड़ने में होती है और यह दिलचस्प है कि यह खेल का एक हिस्सा होने के साथ ही, लोक सम्मत होता है। लोक में श्रावण मास सर्वाधिक खेलों का मौसम होता है। जब नदी पोखर और छत्तीसगढ़ में खेत जल से लबालब भर जाते हैं तो मनुष्य का उल्लास आंगन-खेत की नीम-आम की डाली में झूला बांध देता है। आसमान से ऊपर पैंग भरने की कामना के साथ वह गा उठता है। लड़कियाँ रस्सी कूदती हैं हाथों में मेहंदी रचाती हैं, पांव में महावर लगाती हैं, वर्षा मंगल मनाने के लिये नग-धड़ंग बच्चे गलियों में दौड़ पड़ते हैं—

‘बरसो राम धड़ाके से बुढ़िया मर गई फांके से’
रक्षा बन्धन के त्यौहार के अवसर पर शादीशुदा औरतें अपने मायके के छूटे खिलौनों को याद करती हैं। लड़कियाँ गोटा खेलती है।
लोक तो भौतिक रूप से अधिकांशतः विपन्न ही होता है लिहाजा गरीबी-पिछड़ापन उसकी नियति सी बन गयी है। लेकिन इसकी क्षतिपूर्ति वह कला और संस्कृति की स्वायत्तता विविधता और अलग पहचान द्वारा अर्जित करता है। एक छत्तीसगढ़ी कहावत है —‘का नंगरा के नहाय का नंगरा के निचोय’। उसके बचपन के पास अधिक खिलौने नहीं होते लेकिन हर खेल में रचनात्मक ऊर्जा की अपार संभावना होती है। खिलौनों का अभाव उसे प्रकृति और अखिल ब्रह्माण्ड से जोड़ता है। वृक्ष की टहनी गिल्ली-डंडा बन जाता है, सरकेंडे की गाड़ी बन जाती है।

अधिसंख्य खेलों में खेल सामग्री की जरूरत ही नहीं होती, वे केवल हाथ-पांव से ही खेल लिये जाते हैं और कभी कभी तो इनकी भी जरूरत नहीं होती। चांद तारे उसके खिलौने, पेड़-पौधे उसके साथी, मनुष्येतर प्राणी उसके संगाती हो जाते हैं खेल के लिये समूह की भी जरूरत नहीं होती—अकेला भी खेल खेला जाता है और अगर एक साथी भी मिल गया तो भी खेल खेल लेता है लेकिन ऐसा नहीं कि वे खेल बिना नियम-कायदे के होते हैं। टीम सिलेक्ट करने के भी इनके नियम होते हैं और ‘दांय’ देने के भी अपने कायदे, खेल में चोटिल हो जाने पर झाड़ फूंक भी इनके पास होती है। इन खेलों के साथ अक्सर गीत भी होते हैं। अटपटे। वस्तुतः ये तीन भाषा और अर्थ के परे गीत होते हैं हर शब्द में एक लय-नाद होता है। मन में गूंजती यह लय और नाद गीत का अर्थ भाषा में नहीं खोलती, कविता के संसार में ले जाती है, जहां गाकर-नाचकर-खेलकूद आनन्द लिया जाता है। छायावाद के प्रथम उद्घोषक आचार्य मुकुटधर पांडे इन गीतों को ‘विश्व काव्य के पन्नों में अंकित कविता के जीवन चित्र मानते हैं, जिन्होंने उलट-पलटकर बच्चे आप ही आप प्रसन्न होते हैं। वस्तुतः ये गीत कवि नहीं, काव्य दृष्टि की उपज होते हैं। मैं इन्हें ‘राइम्स’ की तरह देखता हूं।

मुक्तिबोध की कविता के अनुसार—यह दुनिया खूब धुल-धूप भरा बच्चों के खेल का मैदान बने, लोक के खेलों का ओलम्पिक जैसा आयोजन हो सके इस कामना के साथ मैं श्री चकोर को साधुवाद देता हूं। रहीम का एक दोहा—
‘रहिमन अति सुख होत है बढ़त देख निज गोत,
ज्यों बड़री अंखियान को, निरख निरख सुख होत’।

अपनी लोक दृष्टि के चलते मैं भी चकोर की बिरादरी का हूं इसलिये उनके इस महत्त्वपूर्ण और परम आवश्यक काम से, मैं भी अपने को धन्य मानता हूं।

रमेश दत्त दुबे




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