लोगों की राय

विवेकानन्द साहित्य >> अग्निमन्त्र

अग्निमन्त्र

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :239
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5919
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

442 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक अग्निमन्त्र...

Agnimantra a hindi book by Swami Vivekanand - अग्निमन्त्र - स्वामी विवेकानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

(प्रथम संस्करण)
‘‘अग्निमन्त्र’’- स्वामी विवेकानन्दजी के कुछ चुने हुए पत्रों का यह नया प्रकाशन पाठकों के सम्मुख रखते हुए हमें अत्यधिक आनन्द हो रहा है।
पाठकगण स्वामी विवेकानन्दजी की ‘‘पत्रावली’’ से पूर्वपरिचित हैं ही। प्रस्तुत अग्निमन्त्र ग्रन्थ में हम पत्रावली से कुछ ऐसे पत्र समाविष्ट कर रहे हैं जो स्वामीजी ने अपने गुरुभाइयों, शिष्यों तथा मित्रों को लिखे हैं। इन सभी में हमें स्वामीजी का वास्तविक अंतरंग दर्शन होता है। इस संग्रह को हम स्वामीजी द्वारा रचित पंचम योग कह सकते हैं। इसमें सभी योगों का समन्वय हैं, तथा इसे जीवन में उतारने हेतु स्वामीजी अपनी अग्नि-प्रदीप्त वाणी से हमें आह्नान करते हैं।

स्वामी विवेकानन्द के रूप में कौनसी महाशक्ति इस धरातल पर अवतीर्ण हुई थी इसकी कुछ कल्पना हमें इन पत्रों से प्राप्त होती है। उनका सार्वजनीन प्रेम, उनकी गहन आध्यात्मिकता तथा अत्यन्त उच्च कोटी का देशप्रेम इन्हीं पत्रों में दृष्टिगोचर होता है। उनके जीवन में हमें ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं, जिनके चिन्तन-मनन से हम हमारा दैनंदिन जीवन सुचारू रूप से व्यतीत कर सकते हैं।

आज इस नवयुग में स्वामी विवेकानन्दजी के विचार ही एकमात्र आशा का प्रदीप है, जिसके आलोक में भारतवर्ष तथा भारतवासी अपनी खोयी हुई विरासत पुन: प्राप्त कर सकते हैं।
हमें विश्वास है की हमारे युवक इस ग्रन्थ का हार्दिक स्वागत करेंगे। स्वामी विवेकानन्द इन्हीं युवकों से-भारत के नौजवान बालक-बालिकाओं से-भारत के पुनर्जागरण की अपेक्षा करते हैं। स्वामी विवेकानन्दजी के प्रस्तुत विचार सभी के लिये मार्गदर्शक तथा प्रेरणादायी सिद्ध हों यही हम उनसे प्रार्थना करते हैं।

प्रकाशक

नागपुर
दिनांक: 1.6.2002

अग्निमन्त्र


(स्वामी विवेकानन्द के चुने हुए पत्र)


(1)
(श्री यज्ञेश्वर भट्टाचार्य को लिखित)

इलाहाबाद, 5 जनवरी, 1890

प्रिय फकीर,5 जनवरी, 1890

एक बात मैं तुमसे कहना चाहती हूँ; इसका सदा तुम ध्यान रखना कि मेरे साथ तुम लोगों का पुन: साक्षात्कार नहीं भी हो सकता है। नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त:करण पूर्णतया शुद्ध रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो-अपने प्राणों के लिए भी कभी न डरो। धार्मिक मत-मतान्तरों को लेकर व्यर्थ में माथापच्ची न करना। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरुष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते-यहाँ तक कि कभी वे अपने मन में भी पापचिन्ता का उदय नहीं होने देते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो।

स्वयं मनुष्य बनो तथा राम इत्यादि को भी, जो कि खासकर तुम्हारी ही देखभाल में हैं, साहसी, नीतिपरायणता तथा दूसरों के प्रति सहानुभूतिशील बनाने की चेष्टा करो। बच्चों, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है, इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरपन, पाप, असत् आचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाकी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी। राम को कभी नाटक देखने के लिए या अन्य ऐसे किसी प्रकार के खेल-तमाशे में, जिससे चित्त की दुर्बलता बढ़ती हो, स्वयं न ले जाना या जाने न देना।

तुम्हारा,
नरेन्द्रनाथ

2 (श्रीयुत लाला गोविन्द सहाय को लिखित)

आबू,
30 अप्रैल, 1891

प्रिय गोविन्द सहाय,

तुम्हारी शिवपूजा तो अच्छी तरह से चल रही होगी ? यदि नहीं तो करने का प्रयास करो। ‘‘तुम लोग पहले भगवान् के राज्य का अन्वेषण करो, ऐसा करने पर सब कुछ स्वत: ही प्राप्त कर सकोगे।’’1 भगवान् का अनुसरण करने पर धन सम्मान अपने आप मिल जायगा।.....दोनों कमाण्डर साहबों से मेरी आन्तरिक श्रद्धा निवेदन करना; उच्चपदाधिकारी होते हुए भी मुझ जैसे गरीब फकीर के साथ उन दोनों ने अत्यन्त सदय व्यवहार किया है। वत्स, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना इसमें ही समग्र धर्म निहित है। ‘‘जो केवलमात्र ‘प्रभु, प्रभु’ की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परमपिता की इच्छानुसार कार्य करता है।’’- वही धार्मिक है।2 अलवरनिवासी युवको, तुम लोग जितने भी हो, सभी योग्य हो और मैं आशा करता हूँ कि तुममें से अनेक व्यक्ति अविलम्ब ही समाज के भूषण तथा जन्मभूमि के कल्याण के कारण बन सकेंगे।

आशीर्वादक,
विवेकानन्द

पुनश्च:-यदि संसार की ओर से कभी-कभी तुमको थोड़ा-बहुत धक्का भी खाना पड़े तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुन: ठीक हो जायगी।
1. ‘‘Seek ye first kingdom of God and all good things will be added unto you.’’
2. ‘‘Not he that crieth ‘Lord’ ‘Lord’, but he that doeth the will of the Father.

(खेतड़ी-निवासी पण्डित शंकरलाल को लिखित)

बम्बई,
20 सितम्बर, 1892

प्रिय पण्डितजी महाराज, आपका कृपापत्र मुझे यथा समय मिला। न जाने क्यों मेरी इतनी अधिक प्रशंसा हो रही है। ईसा मसीह का कहना है कि ‘‘एक ईश्वर को छोड़कर कोई भला नहीं’’ (None is good, save one, that is God) बाकी सब उसके हाथ की कतपुतलीया (निमित्तमात्र) हैं। उस सर्वशक्तिमान की अथवा अधिकारी पुरुषों की जयजयकार हो, न कि मुझ अनधिकारी की। यह दास पुरस्कार के सर्वथा अरोग्य है (The servant is not worthy of the hire) और विशेषत: एक फकीर तो किसी प्रकार की प्रशंसा पाने का अधिकारी ही नहीं। क्या केवल अपना कर्त्तव्य पालन करने वाले सेवक की आप प्रशंसा करेंगे ?

अब दूसरी बात पर आता हूँ :-
हिन्दी मस्तिष्क का झुकाव सदा साधारण सत्य से विशेष सत्य की ओर कहा है, न कि विशेष सत्य से साधारण सत्य की ओर। अपने समस्त दर्शनों में हम सदैव किसी एक साधारण सिद्धान्त को लेकर बाल की खाल निकालने की प्रवृत्ति पाते हैं, फिर वह सिद्धान्त कितना ही भ्रमात्मक एवं बालकोचित क्यों न हो। इस सर्वमान्य सिद्धान्तों में कहाँ तक तथ्य है इस बात के खोजने या जानने की किसी में उत्कण्ठा नहीं। स्वतन्त्र विचार का हमारे यहाँ अभाव-सा रहा है। यही कारण है कि हमारे यहाँ पर्यवेक्षण (Observation) और सामान्यीकरण (Generalisation- विशेष विशेष सत्यों से एक साधारण सिद्धान्त में उपस्थित होना) प्रक्रिया के फलस्वरूप परिणामत: निर्मित होनेवाले विज्ञानों की इतनी कमी है। ऐसा क्यों हुआ ?

इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि यहाँ की जलवायु की भयंकर गर्मी हमें क्रियाशील होने की अपेक्षा आराम से बैठकर विचार करने के लिए लिए बाध्य करती है, और दूसरे यह कि पुरोहित-ब्राह्मण दूर देशों की यात्रा या समुद्रयात्रा न करते थे। दूर देश की यात्रा जल से या थल से करने वाले यहाँ थे तो अवश्य, पर वे प्राय: व्यापारी थे-अर्थात् वे लोग जिनका बुद्धिविकास पुरोहितों के अत्याचारों के कारण एवं स्वयं के धनलोभ के कारण रुद्ध हो गया था। अतः उनके पर्यवेक्षणों से मानवीय-ज्ञान का विस्तार न हो पाया, उलटे उसकी अवनति हो गयी है, क्योंकि उनके निरीक्षण इतने दोषयुक्त थे तथा विभिन्न देशों के उनके वर्णन इतने अयुक्तिपूर्ण और तोड़-मरोड़कर इतने विकृत बनाये गये थे कि उनके द्वारा असलियत तक पहुँचना असम्भव था।

इसलिए हम लोगों को विदेशों की यात्रा करनी चाहिए। यदि हम अपने को एक सुसंगठित राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि दूसरों देशों में किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चल रही है और साथ ही हमें मुक्त हृदय से दूसरे राष्ट्रों से विचारविनिमय करते रहना चाहिए। सब से बड़ी बात तो यह है कि हमें गरीबों पर अत्याचार करना एकदम बन्द कर देना चाहिए। किस हास्यापद दशा को हम पहुँच गये है ! यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है- वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो-तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोकटोक नहीं, ऐसा कोई नहीं जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे !

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book