लोगों की राय

उपन्यास >> नाजायज

नाजायज

सलाम आजाद

प्रकाशक : डॉल्फिन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :84
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5911
आईएसबीएन :978-81-88588-19

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

48 पाठक हैं

प्रस्तुत है सलाम आजाद का उत्कृष्ट कहानीसंग्रह....

Najayaj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय मुसलमानों की परवर्ती पीढ़ी, जिसकी आबादी बांग्लादेश की कुल जनसंख्या के लगभग दुगनी है, कैसे अपना जीवन जी रही है ? ख़ास तौर पर भारत की मुस्लिम महिलाएं, जो शरा के कानून की चक्की में हर पल पिसती रहती हैं, क्योंकि भारत के मुस्लिम नेताओं ने शरीयत से जुड़े कानून और मुस्लिम पर्सनल लाँ बोर्ड के बहाने इस देश की मुस्लिम महिलाओं को मध्य युग के घुप्प अँधेरे में बंद कर रखा है।

लगातार तीन वर्ष तक दिल्ली में निर्वासित जीवनयापन के दौरान इन मुस्लिम महिलाओं के प्रति इस घोर अमानवीय और शरा कानून की दुहाई देकर मुल्लाओं द्वारा ढाए गये इन ज़ुल्मों को सलाम आज़ाद ने बहुत नज़दीक से देखा है। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, केरल, पश्चिम बंग, और कश्मीर के साथ अन्याय प्रदेशों में इस भयावहता को महसूस किया है। उन्होंने यह भी पाया है कि इस्लाम के नाम पर इन तमाम इलाकों की मुस्लिम महिलाएँ पुरुषशासित समाज-व्यवस्था द्वारा कितनी विषय वंचनाओं और यंत्रणाओं की शिकार हैं। पति के क्रोध और उतेजना के चलते स्त्री को तलाक़ कहने पर इस्लाम और मानवाधिकारवादी इस तलाक़ के समय स्त्री यदि गर्भवती हो जन्म-ग्रहण के बाद उस संतान को वैध माना जाता है। उस समय निष्कलंक मानव शिशु को ‘नाजायज़’ ठहराया जाता है।
भारत के मुसलमानों को केन्द्र में रखकर इस समस्या पर छिटपुट लेखादि अवश्य प्रकाशित हुए हैं, लेकिन अपनी आँखों देखकर और ‘फील्ड वर्क’ को आधार बनाकर ‘नाजायज़’ जैसे विषय पर एक पूरी पुस्तक लिखने की परिकल्पना पहली बार बाँग्लादेश के इस लेखक के द्वारा हुई है।

नाजायज़


बाईस दिन पहले लतीफुन्निसा ने ख़ुदकुशी कर ली। उसका शौहर फैजुल हक़ लतीफुन की कब्र के सामने खड़े होकर तीन बार अलहम्दुलिल्लाह कहकर, तीन बार कुल शूरा और ग्यारह बार दरुद शरीफ़ पढकर, अपने दोनों हाथ उठाकर बीवी की मगफिरत की दुआएं करता रहा।

सुना है, ख़ुदकुशी करने पर बहिश्त नसीब नहीं होती। दोज़ख में भी जगह नहीं मिलती। ख़ुदकुशी करने वाले की आत्मा बहिश्त और दोज़ख़, स्वर्ग और नरक के बीचोबीच रख दी जाती है। फैज़ुल ने यह धर्मग्रन्थों में पढ़ा था। मोनाजत के वक़्त उसने बीवी की स्वर्ग-प्राप्ति के लिए, आकुल–व्याकुल मुद्रा में अल्लाह से दुआएँ माँगीं। फैजुल हक़ की आँखें आँसुओं में डूब गईं। उसके गालों पर लगातार आँसू ढुलकते रहे। मोनाजत के दौरान जो बातें उसकी जुबान पर नहीं आ सकीं, वह उसकी रुलाई और सिसकियों में गुम हो गई। यह रुलाई क्या सिर्फ बीवी की पाप मुक्ति के लिए ही थी ?

इसमें पत्नी वियोग की यांत्रणा का प्रकाश नहीं था ? कब्रिस्तान में जाकर मौत का ख़याल बहुत ज्यादा आता है, लेकिन फैजुल हक़ को आज भी यह सब याद नहीं आया, बल्कि वह तो अपने लिए भी मौत की दुआएं माँगने लगा। काश, उसकी भी मौत हो जाए तो बड़ी आसानी से अपनी लतीफुन से उसकी दोबारा भेंट हो जाएगी। अपनी बीवी से उसका दोबारा पुनर्मिलन होगा। फैज़ुल को लगा, ज़िंदा रहने की बजाय मौत ही बेहतर होगी; लेकिन महज चाहने भर से तो मौत को गले नहीं लगाया जा सकता। नहीं, यह संभव नहीं है। वैसे कभी-कभी न चाहते हुए भी मौत आकर डस लेती है। आत्महत्या तो स्वेच्छा से मौत को लगे लगाना है। मौत को ख़ुद दावत देकर उसकी छाती पर टूट पड़ना है। यूँ मौत को गले लगाना क्या महज़ बुज़दिली है या असीम साहसिकता है ? शायद वह दोनों ही है ! बुज़दिली भी और साहसिकता भी !

लतीफुन्निसा ने तो उसका सम्मान बचाने के लिए ख़ुदकुशी की थी। आत्मसम्मान से बड़ा और क्या है ? आत्मसम्मान के आगे मौत भी तुच्छ है, यह बात लतीफुन्निसा ने साबित कर दी। पश्चिम बंगाल के जिस अंचलों में मुसलमानों की संख्या ज़्यादा है, मुर्शिदाबाद उनमें से एक है। मुर्शिदाबाद में बेलेडांगा नामक जो थाना है, उसी मातहत एक गांव है-काज़ीशा ! लतीफुन्निसा इसी काज़ीशा में पैदा और बड़ी हुई थी। वैसे, बड़े होने में भी कई तरह के फ़र्क़ होते हैं। उसमें से कुछ परिवार की आर्थिक स्थिति निर्भर करता है, कुछ सामाजिक स्थिति पर और काफी कुछ धार्मिक विधि-निषेध में ही सीमाबद्ध रहता है। लतीफुन के बड़े होने के मामले में ये तीनों ही भूमिकाएं अहम रहीं। उसके अब्बा की माली हालत अच्छी नहीं थी। और सामाजिक स्थित भी निम्न स्तर की थी। उनके अनपढ़ अब्बा की एकमात्र संस्कृति थी-धर्म।

यह भी धर्मग्रन्थों में पढ़कर नहीं, मुल्ला-मौलवियों से सुन-सुनकर। उसने मुल्लाओं की ज़ुबानी ही सुना था कि बेटी को पांच साल की होते ही उसे ढांक-तोपकर रखना चाहिए पाँच वर्ष पार होते ही उसके अब्बा ने तरह-तरह के कपड़ों से उसे ढँक दिया। लतीफुन को इसका कोई मतलब समझ में नहीं आया। गांव के मज़हब में, ठीक ही तो नहीं, मस्जिद के बरामदे में, मस्जिद के इमाम साहब अभी उम्र के लड़के-लड़कियों को क़ायदा, सिफारा और क़ुरान पढ़ाते थे। लतीफुन्निसा को ख़ुद को कपडों में ढांक-तोपकर, साल दर साल धर्म-शिक्षा लेने जाना पड़ा। यह इनाम उसके अब्बा के गुरु थे। वे जो भी कहते थे, लतीफुन का अब्बा उस पर यकीन करके, उसी धर्म को मान लेता था।

उसकी नज़र में, इमाम धर्म के प्रतिनिधि थे; अल्लाह के प्रतिनिधि ! सिर्फ़ लतीफुन का अब्बा ही नहीं, काज़ीशा गाँव के प्रायः सभी बाशिंदे उस पर विश्वास करते थे। लेकिन लतीफुन ऐसा नहीं करती थी जिस दिन उसने कुरान पाठ पहली बार पूरा किया, वह बेहद खुश हुई थी। यह इमाम, जिसे सभी लोग ‘हज़ूर’ कहते थे, उसे बताशा देने के बहाने एक दिन मस्जिद के भीतर ले गया और उसके बदन के कपड़े हटाकर उसके सद्यः उभारों पर, यह ‘हुज़ूर’ हाथ फेरता रहा। सिर्फ़ हाथ ही नहीं, अपने होठों से भी छुआ था। मारे दहशत के लतीफुन की जुबान से एक शब्द भी निकला था। ‘हुज़ूर’ ने खुद ही अपनी इस करतूत के बारे में किसी से कुछ कहने को मना कर दिया था। लतीफुन ने आख़िरी दम तक यह बात किसी को नहीं बताई। निकाह के बाद, वह चाहकर भी यह बात फैज़ुल को नहीं बता सकी। उसने बताया क्यों नहीं ?’’ ‘हुज़ूर’ के डर से ? ‘हुजूर’ ने कहा था-‘यह बात अगर किसी को बताएगी, तो तेरी छाती में घाव हो जाएगा....सड़ जाएगी तू !’

फैज़ुल हक़ बच्चों के खिलौने, लड़कियों-औरतों के लिए रंग-बिरंगी चूड़ियाँ मेकअप के सस्ते-सस्ते सामान लेकर गाँव-गाँव चक्कर लगाता था। उसका अपना गांव नाज़िरपुर में था और वह ‘फेरीवाला फैज़ुल’ के नाम से जाना जाता था। वैसे, आसपास के जिन गाँवों में वह फेरी लगाता था, वहाँ कोई भी उसका नाम नहीं जानता था। उन सबके लिए वह सिर्फ ‘फेरीवाला’ था। फेरीवाले की न कोई जाति होती है, न धर्म। हिन्दू-मुसलमान, सभी घरों औरतें उसे अनायास ही अंदर बुला लेती थी। सभी औरतें उसी से सामान ख़रीदती थीं, लेकिन वे औरतें जितना ख़रीदती नहीं थीं, उससे ज्यादा उसे निहारती थीं। अलग-अलग उम्र की लड़कियां-औरतों से दर-दाम करनें में उसे भी बुरा नहीं लगता था, बल्कि काफी़ उत्साह से वह मोल-भाव में जुटा रहता था। काज़ीशा गाँव में वह महीने में एक बार जाता था। यह गाँव दूसरे थाने में पड़ता था, हालाँकि उसके गाँव से ज्यादा दूर नहीं था। कुल पांच किलोमीटर का रास्ता ! महीने में किस दिन, वह किस गांव में जाएगा, यह पहले से ही तय होता था। उन सब गाँवों की औरतें भी उसके आने का दिन जानती थीं। काज़ीशा गाँव जाने का निर्धारित दिन था, हर महीने की बाईस तारीख़।

इसी तरह किसी बाईस तारीख़ को उसने पहली बार लतीफुन्निसा को देखा था। गांव की अन्यान्य लड़कियों के साथ बैठी-बैठी वह मेकअप का सामान पंसद कर रही थी। वह काँच की चूड़ियों को खनखनाकर देख रही थी लेकिन वह उन्हें ख़रीदने की स्थिति में नहीं थी। हुजूर ने कहा था-‘काँच की चूड़िया पहनना हराम है। काँच की चूड़ियों की आवाज अगर कोई गैर मर्द सुन ले तो यह गुनाह होता है।’ इस मनाही के बावजूद भी लतीफुन के मन में तीखी चाह होती थी कि वह दर्जन भर चूड़ियाँ ख़रीद डाले वह पहनकर देखे तो सही, चूड़ियाँ कलाई में कैसी लगती हैं, मन में कैसा अहसास जगाती हैं ? लेकिन वह कभी ख़रीद नहीं पाई। रुपयों की कमी की वजह से नहीं, बल्कि ‘हुज़ूर’ के डर से ! अपने अब्बा के खौफ से ! वह चूड़ियों को डिला-डुलाकर देखती रही। उसके बाद उसने फैज़ुल को लौटा दीं। चूड़ियां हाथ में लेकर फैज़ुल की निगाहें एकदम उसके चेहरे पर गढ़ी रहीं।

वह अपनी निगाहें हटा नहीं पाया। लतीफुन एकदम लजा गई। उसने अपनी सस्ती साड़ी के आंचल से झट चेहरा ढँक लिया और अपने घर के अंदर चली गई। उस दिन फैजुल का कामकाज में मन नहीं लगा। वह घर लौट आया। उसके बाद भी वह रोज ही न जाने कितने घरों में जाता रहा, फेरी लगाता रहा, कितनी ही अलग-अलग उम्र और वर्ण की औरतों से बातें करता रहा, लेकिन लतीफुन से कोई बातचीत किए बिना ही उसके मन मे उसके लिए ख़ास अहसास जाग उठा था। वह खिंचाव कैसा था ? प्यार का ? फैजुल नहीं जानता था। लेकिन इससे पहले ऐसा खिंचाव किसी और के लिए उसने कभी नहीं महसूस किया।

अगले महीने बाईस तारीख़ को फैजुल काज़ीशा की तरफ़ नहीं गया। इसी बीच बिचौलिया भेजकर लतीफुन के साथ उसकी शादी पक्की हो गई। कुछ दिनों बाद वह एक खूबसूरत-से रंग-बिरंगे सूटकेस में लतीफुन के लिए शादी का ‘लोआर्जिया’ भरकर काज़ीला पहुँचा और उसे अपनी बीवी बनाकर अपने घर में ले आया। लतीफुन के आते ही उसका मन गदगद हो उठा। समूचे घर में ‘अंजोर’ फैल गया। वह अपना दिल खोलकर खुद को बीवी पर लुटाने लगा। विवाह के बाद महीने भर वह फेरी लगाने नहीं गया। दिन-रात वह लतीफुन को निहारता रहता था।

देख-देखकर उसकी आँखें अघाती नहीं थीं, उसका मन नहीं भरता था। उन दिनों वह दोपहर देखता, न शाम, अपनी बावी के साथ कमरे में प्यार करने में डूबा रहता था। मुहल्ले की औरतें उसका दीवानापन देख-देखकर मुंह दबाकर हँसती रहती थीं। जो पिया-प्रेम की मोहताज थीं, उन औरतों ने मारे ईर्ष्या के मुंह फेर लिए। लेकिन फैजुल के सामने कोई अपनी जुबान खोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। गाँव में फैज़ुल काफी अक्खड़ और गवाँर भी कहा जाता था। लेकिन लतीफुन ने ही आखिरकार जुबान खोल दी। उसने सोचा, पति को अगर यूँ ही घर में रोक रखा तो, तो चूल्हा-चौका बन्द हो जाएगा। उसने फैज़ुल को दुबारा फेरी लगाने भेज दिया। पहले गांव-गाँव घूमते हुए फैजुल कभी थकता नहीं था। शायद पहले कभी अनमना महसूस नहीं करता था, लेकिन अब सूरज पश्चिम में ढकते ही वह अपनी लतीफुन के पास लौट आने का प्रबल खिचाव महसूस करने लगता और घर में आता। लतीफुन बनावटी गुस्सा दिखाती थी। इससे फैज़ुल को और बढ़ावा मिल जाता था।

उन दिनों लतीफुन की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी। उसे हर वक्त बुख़ार-सा महसूस होता था। गर्मी के मौसम का बुख़ार तन-बदन को तोड़ देता है। फैजुल को उसने अपनी बीमारी की ख़बर नहीं होने दी। उसे समझने भी नहीं दिया फैज़ुल को अगर पता चल जाता तो वह दिन भर उसके पास ही बैठा रहता और अपने कामकाज पर भी नहीं जाता। अगर वह फेरी लगाने नहीं गया, तो गृहस्थी का अभाव, तंगी और ज़ाहिर हो जाएगी उन दोनों की गृहस्थी शुरू हुए सात महीने हो गये थे। पहला पूरा महीना तो वह घर पर ही बैठा रहा। पिछले छह महीने में भी उसने कभी पूरे दिन फेरी नहीं लगाई। शादी से पहले तो वह सुबह से शाम तक फेरी लगाया करता था। अब तो उसे अपना रोजगार-पाती और बढ़ाना चाहिए, लेकिन बढ़ने की बजाय उसकी कमाई और कम हो गई।

अगर ऐसा ही चलता रहा, तो उसकी गृहस्थी में अभाव-मोहताज़ी उनकी चिर-संगी बन जाएगी। लतीफुन ऐसा नहीं होने देगी। वह अपने पति पर दबाव डालेगी, ज़ोर-जबर्दस्ती करेगी। वह उसे समझाएगी कि यह प्यार उसकी गृहस्थी को कमजोर बना रहा है। वह बुखार में तपती हुई लेटी-लेटी यही सब सोच रही थी। अचानक उसकी सोच में बाधा पड़ी। फैज़ुल उसे आवाज़ दे रहा था। फेरी लगाना छोड़कर वह भरी दोपहर में घर लौट आया था। आँगन में फेरी के सारे सामान को उतारकर वह पानी मांग रहा था। लतीफुन ने पहले से ही तय कर रखा था कि आज वह सख्ती से पेश आएगी, वरना उसका पति पहले की तरह फेरी नहीं लगा पाएगा। फैज़ुल पानी माँग रहा था और जब उसे पानी नहीं मिला, तो उसकी आवाज़ चढ़ गई। इस बार उसने अपनी बीवी को उसके नाम से आबाज दी और पानी लाने को कहा। बुखार में तपती हुई लतीफुन बिस्तर छोड़कर उठी और कमरे की चौखट पर आ खड़ी हुई।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book