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अमृतवाणी

स्वामी वागीश्वरानन्द

प्रकाशक : स्वामी ब्रह्मस्थानन्द प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :307
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5888
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है श्रीरामकृष्णदेव के उपदेशों का बृहत् संग्रह

Amritvani a hindi book by Swami Vagishwranand - अमृतवाणी - स्वामी वागीश्वरानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

‘अमृतवाणी’ यह पुस्तक पाठकों के हाथ में देते हुए हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है।
प्रस्तुत पुस्तक श्रीरामकृष्ण मठ, मद्रास से प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक ‘Sayings of Sri Ramakrishna’ का हिन्दी अनुवाद है। परन्तु यह शब्दश: अनुवाद नहीं है; अनुवाद करते समय केवल अंग्रेजी पुस्तक पर ही पूर्णतया निर्भर न रह अनुवादक ने कतिपय ग्रन्थों में इतस्तत: बिखरी हुई, श्रीरामकृष्णदेव की मूल बँगला उक्तियों की भी यथासंभव सहायता ली है। पाठकों की सुविधा के लिए पुस्तक के प्रारम्भ में श्रीरामकृष्णदेव की संत्रिप्त जीवनी भी स्वतन्त्र रूप में दी गयी है।

धर्मभूमि भारत का आध्यात्मिक इतिहास इस बात का प्रमाण है कि जब जब भारत के आध्यात्मिक जीवन पर जड़वादरूपी संकट आया तब भगवान ने नरदेह धारण कर अवतीर्ण हो उसे उबारा। पूर्व पूर्व युगों की अपेक्षा वर्तमान युग का संकट अधिक भयंकर था, क्योंकि वह केवल साधारण भोगवाद नहीं था, यह तो वैज्ञानिक जड़वाद था जो अतिद्रुत गति से असंख्य नर-नारियों के अन्तस्तल में पैठता हुआ उनके हृदय के श्रद्धा-विश्वास को समूल नष्ट करने पर तुला था। इसके आकर्षक मोहजाल में फँसकर भारतवासी त्याग पर अधिष्ठित अपने सनातन घर्ममार्ग से दूर चले जा रहे थे। मानव-जाति को हम महान संकट से बचाने के लिए सनातन धर्म की पुन:प्रतिष्ठा इस रूप में करनी थी जिससे वैज्ञानिक मनोभावयुक्त आधुनिक मानव उसकी प्रक्रिया को सरलता से समझ सके और अपना सके।

इस कार्य की पूर्ति के लिए भगवान श्रीरामकृष्णदेव का आविर्भाव हुआ था। उन्होंने अपने दिव्य जीवन द्वारा भारत की सुप्त आध्यात्मिक शक्ति को पुन: जागृत किया। न केवल हिन्दी धर्म को पुनरुज्जीवित कर उन्होंने सम्पूर्ण संसार की धर्मग्लानि को दूर किया तथा भ्रान्त, अशान्त, अतृप्त जगद्वासियों को अमृतत्व का सन्धान देकर धन्य किया। भगवान श्रीरामकृष्ण सभी धर्मों के जीवन्त विग्रह थे; सनातन सत्य की अभिनव अभिव्यक्ति थे। वे अत्यन्त सरल और मनोहर भाषा में उपदेश देते थे तथा उनमें उनकी शक्ति भरी होती थी। इसलिए श्रोता के मन पर उनका विलक्षण प्रभाव पड़ता। उन उपदेशों को सुनते हुए श्रोता के मन से तत्काल सारा संशय, द्वन्द्व, अविश्वास दूर हो जाता और उसे हृदय में श्रद्धा का संतार होता। इस प्रकार अपने अलौकिक उपदेशों द्वारा उन्होंने अगणित नर-नारियों को दिव्य जीवन का मार्ग बताया।
हमें विश्वास है, उनके इन अमृतमय उपदेशों के अनुशीलन से पाठकों का सर्वांगीण कल्याण होगा।

प्रकाशक

श्रीरामकृष्णदेव की संक्षिप्त जीवनी


युगावतार का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के अन्तर्गत कामारपुकुर ग्राम में, एक निर्धन परन्तु धर्मनिष्ठ ब्राह्यण परिवार में, बुद्धवार दि. 17 फरवरी 1836 को हुआ था।
पिता निष्ठावान् एवं सदाचारसम्पन्न ब्राह्मण थे। वे रघुवीर के उपासक थे। उनकी पत्नी चन्द्रामणि देवी भी स्नेह, सरलता और दयालुता की मूर्ति थीं। सन् 1835 ई. में खुदिरामजी गयाधाम गये हुए थे। वहाँ एक दिन उन्होंने एक दिव्य स्वप्न देखा जिसमें भगवान् गदाधर विष्णु उनसे कह रहे थे, ‘‘खुदिराम, मैं तेरी भक्ति से बड़ संतुष्ट हूँ। मैं तेरे घर पुत्ररूप से अवतीर्ण हो तेरी सेवा ग्रहण करूँगा।’’ इधर, जिस समय खुदिराम गयाराम गये हुए थे, उस समय कामारपुकुर में चन्द्रादेवी को भी कुछ दिव्य दर्शन एवं अनुभूतियाँ प्राप्त हुईं। एक दिन वे युगियों के शिवमन्दिर के सामने खड़ी थीं। इतने में उन्हें लगा मानो शिव जी के अंग से एक उज्ज्वल ज्योति निकली और तरंग के रूप में तीव्र वेग से बढ़ती हुई उसके उदर में प्रविष्ट हो गयी। वे मूर्छित हो गिर पड़ी परन्तु शीघ्र ही उन्हें प्रतीत होने लगा कि उनके उदर में गर्भसंचार हुआ है। धर्मग्रन्थों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि अवतारों के जन्म से पूर्व उनके माता-पिता को दिव्य दर्शनादि हुआ करते थे।

नवजात बालक के अंगलक्षणादि अलौकिक थे। प्रख्यात ज्योतिषियों ने जन्मकालीन गणना द्वारा निश्चय किया कि नवजातक नवीन धर्ममार्ग का प्रवर्तन करते हुए नारायण-अंश-सम्भूत महापुरुष के रूप में ख्याति प्राप्त कर मानवसमाज का पूज्य होगा। गया के गदाधर की कृपा से यह पुत्र हुआ है ऐसा सोचकर खुदिराम ने उसका नाम ‘गदाधर’ रखा। बालक गदाधर अपनी मधुर बाललीलाओं द्वारा माता-पिता तथा समस्त ग्रामवासियों के हृदय को आनन्द देवे लगा। उसकी आकर्षण शक्ति अद्भुत थी। उसकी अपूर्व सरलता, एकाग्रता अलौकिक धारणाशक्ति एवं बुद्धिमत्ता को देख लोग दंग रह जाते।

बालक को समय आने पर गाँव की पाठशाला में भरती कर दिया गया। पढ़ना और लिखना तो उसने थोड़े समय में ही सीख लिया पर गणित के प्रति उसके मन में पहले से ही उदासीनता बनी रही। गदाधर का शरीर गठीला और प्रकृति नीरोग थी। उसकी वृत्ति सदा स्वतन्त्र और आनन्दपूर्ण थी। वह बड़ा साहसी और निडर था। वब समवयस्क मित्रों के साथ खेल-कूद, हास्य-विनोद, नृत्यु-गीत में मग्न रहा करता।

देवी-देवताओं की भावपूर्ण मूर्तियाँ गढ़ने और चित्र बनाने में उसकी कुशलता विलक्षण थी। रामायण-महाभारतादि की कथाएँ, भजन, कीर्तन, आदि को एक बार सुनते ही वह आत्मसात् कर लेता; धार्मिक नाटकों को केवल एक बार देखकर ही वह यथोचित हाव-भाव के साथ उनका सही अभिनय कर दिखाता।

अपने प्रेमपूर्ण निर्मल स्वभाव, मधुर भाषण, आनन्दमय वृत्ति के कारण वह सब का प्रिय था। उसका स्वाभाविक एकाग्र चित्त जब जिस वस्तु की ओर आकर्षित होता उस समय वह उसी में तल्लीन हो जाता, तब उसे अपनी देह की सुध नहीं रहती। छह-सात वर्ष की अवस्था में एक बार खेत की मेड़ पर से जाते समय काली घटाओं से घिरे आकाश में शुभ्र बगुलों की पंक्ति को उड़ते देख बालक समाधिमग्न हो गया था।

सात-आठ वर्ष की उम्र में गदाधर को पितृवियोग का दु:ख सहना पड़ा। पिता के प्रेम से वंचित हो बालक का मन अन्तर्मुख हो संसार के यथार्थस्वरूप का चिन्तन करने लगा। वैसे वह अधिकांश समय अपनी दुखियारी माता के साथ रहकर गृकार्यों में सहायता करते हुए उसके दु:ख को कम करने की कोशिश करता।

गाँव में समय-समय पर जब तीर्थयात्रा साधु-बैरागी कुछ दिनों के लिए डेरा डालते तो बालक गदाधर उन साधुओं के पास जाकर उनके आचरणों को गौर से देखता तथा उनकी छोटी-मोटी सेवा किया करता। वे साधु भी इस सुन्दर बालक के मधुर आचरण से प्रसन्न हो उसे भजन आदि सिखाते, कथाएँ सुनाते और प्रसाद भी देते।
इसी समय एक दिन गाँव की कुछ स्त्रियों के साथ देवी विशालाक्षी के मन्दिर में पूजा चढ़ाने जाते समय देवी-महिमा के गीत गाते गाते गदाधर को भावावस्था प्राप्त हो गयी और वह सुधबुध खो बैठा। काफी समय बाद देवी का नामगुणगान सुनते सुनते उसकी वाह्य चेतना लौटी और प्रकृतिप्रस्थ हुआ।

बालक का नवाँ वर्ष समाप्त होते देख माता ने उसके उपनयन का प्रबन्ध किया। गाँव की धनी लोहारिन का बालक गदाधर पर अत्यन्त स्नेह था। एक बार उसने बालक से कहा था कि जनेऊ के समय तू पहली भिक्षा मुझसे लेना और गदाधर ने यह स्वीकार किया था। उपनयनकाल निकट आते देख गदाधर ने यह बात बड़े भाई रामकुमार को बतायी। अब्राह्मण स्त्री का ब्राह्मण बालक की ‘भिक्षामाता’ बनना एक रूढिविरुद्ध बात होने के कारण रामकुमार आदि ने इसका कड़ा विरोध किया। परन्तु सत्य निष्ठ बालक को अपने दिये हुए वचन को पालना ही था। वह सत्यरक्षा के संकल्प पर अडिग रहा। अन्त में सब को उसी की बात माननी पड़ी।

उपनयन होने पर गदाधर को देवपूजा का अधिकार प्राप्त हो गया। अब वह अपना बहुत सा समय सन्ध्या-वन्दना, पूजा-ध्यान आदि में बिताने लगा। पवित्रहृदय बालक को कई दिव्य अनुभव आदि होने लगे।


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