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आनन्द की खोज

स्वामी ब्रह्मेशानन्द

प्रकाशक : अद्वैत आश्रम प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5887
आईएसबीएन :81-7505-257-4

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प्रत्येक मानव — मानव ही नहीं प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है

Anand Ki Khoj a hindi book by Swami Brahmeshanand -आनन्द की खोज - स्वामी ब्रह्मेशानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

प्रत्येक मानव — मानव ही नहीं प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, ऐसा सुख जिसका कभी अन्त न हो और जो दुःखों के साथ मिश्रित न हो। शास्त्र कहते हैं, अल्प में ऐसा सुख नहीं है। जो ‘भूमा’ अर्थात् अनन्त है उसमें ही ऐसा सुख है। ईश्वर ही वह ‘भूमा’ है। प्रत्येक जीव का असली स्वरूप ही वह ‘भूमा’ है। अतः ईश्वर को एवं आत्मस्वरूप को प्राप्त करना ही निरविच्छिन्न सुख प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। ‘आनन्द की खोज’ जागतिक, वैषयिक सुख नहीं, परन्तु ईश्वर अथवा आत्मस्वरूप की प्राप्ति हेतु लिखे लेखों का संकलन है।

रामकृष्ण मिशन के विद्वान संन्यासी स्वामी ब्रह्मेशानन्द (जो पहले ‘वेदान्त केसरी’ नामक अंग्रेजी मासिक पत्रिका के सम्पादक थे) के साधनोपयोगी कुछ लेख छपरा से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘विवेक शिखा’ में प्रकाशित हुए थे। तदनन्तर उनका एक संकलन ‘पथ और पाथेय’ नामक शीर्षक से सन् 1990 में श्रीरामकृष्ण-अद्भुतानन्द आश्रम, छपरा से छपा था। आध्यात्मिक जीवन में इस पुस्तक की उपादेयता को देखते हुए इन्हीं लेखों में से अधिकांश को, ग्रन्थकार ने कुछ और नये लेखों सहित यहाँ नये शीर्षक ‘आनन्द की खोज’ के तहत प्रकाशनार्थ प्रस्तुत किया है। ‘पथ और पाथेय’ से लेखों के पुन्रर्मुद्रण की अनुमति प्रदान करने के लिए हम श्रीरामकृष्ण मिशन, छपरा (पूर्वाकालीन श्रीरामकृष्ण-अद्भुतानन्द आश्रम) के आभारी हैं।

श्रीरामकृष्णदेव के एक प्रमुख शिष्य स्वामी ब्रह्मानन्दजी ने कहा है : ‘साधन-भजन के सम्बन्ध में एक ही नियम सभी के लिए लागू नहीं होता। किसी की किस ओर प्रवृत्ति (tendency) है अच्छी तरह से देख लेना चाहिए। किसी को उसके भाव से विपरीत उपदेश देने से उसका कोई उपकार तो नहीं होता उल्टे अपकार ही होता है।...साधन-भजन के सम्बन्ध में सामान्यरूप से दो-एक बातें छोड़ सबके सामने व्यक्ति विशेष से कुछ कहना ठीक नहीं।’ (ध्यान, धर्म और साधना, पन्ना 52-53) वर्तमान पुस्तक के ग्रन्थकार ने भी पुस्तक की प्रस्तावना में इस बात पर पाठकों की दृष्टि आकर्षित की है। इस विषय पर ध्यान रखते हुए इस पुस्तक के पठन से पाठकमण्डली अवश्य ही लाभान्वित होगी ऐसी हम आशा करते हैं।

प्रकाशक

प्रस्तावना

श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लिपिक मास्टर महाशय ने अपने गुरदेव श्रीरामकृष्ण से कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्न किये थे। उनमें एक प्रश्न था : ‘संसार में किस तरह रहना चाहिये ?’ यह एक ऐसा प्रश्न है जिसमें धनी-निर्धन, युवा –वृद्ध, बुद्धिमान –मूर्ख सभी की रुचि हो सकती है। सभी संसार में सुख-पूर्वक जीना चाहते हैं तथा अपनी रुचि तथा मानसिक गठन के अनुरूप इस प्रश्न का कोई न कोई उत्तर खोज निकालते हैं लेकिन यह निश्चित है कि अर्थ और काम चाहने वाले संसारी व्यक्ति के साथ मोक्षार्थी अथवा सन्त के इस प्रश्न के उत्तर एक से नहीं हो सकते। सामान्यतः किसी सन्त- महात्मा के पास इस तरह का प्रश्न लेकर नहीं जाया जाता। जब इस प्रश्न के सामान्य उत्तर एवं संसार में रहने की लौकिक प्रणालियाँ गलत एवं असफल सिद्ध होती हैं, तभी किसी सन्त के पास जाने की सोचता है।

मास्टर महाशय जब श्रीरामकृष्ण के पास आये थे, तब वे इसी प्रकार की असफलता का सामना कर चुके थे। और तब वे जीवन की पहेली का आध्यात्मिक हल खोजने की ओर मुड़े थे। इस बात का संकेत उनके द्वारा श्रीरामकृष्ण को पूछे गये प्रथम प्रश्न में और भी स्पष्ट रूप से प्रकट होता है : ‘ईश्वर में मन कैसे लगे ?’ इसी तरह से विशुद्ध अध्यात्म-विषयक प्रश्न सन्त-महात्माओं से किये जाते हैं। आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ भी इसी प्रकार की धार्मिक जिज्ञासाओं से होता है। और जब इस प्रश्न को संसार में जीवन-यापन विषयक प्रश्न के साथ संयुक्त कर दिया जाता है, तब यह जिज्ञासा अपने आप में एक समग्र जीवनदर्शन का रूप ले लेती है जिसमें जीवन के लौकिक और पारमार्थिक, आध्यात्मिक और व्यवहारिक दोनों पक्षों का समावेश होता है। श्रीरामकृष्ण इन दो प्रश्नों का उत्तर देते हैं, उसे हम समग्र आध्यात्मिक साधना का सार एवं सफल जीवन की कुंजी कह सकते हैं। विभिन्न अवसरों पर दिये उनके उत्तरों को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं ;

(1) भगवान् के चिन्तन में रुचि पैदा करने के उपाय।
(2) ध्यान विषयक निर्देश।
(3) संसार में रहने की कला।

श्रीरामकृष्ण ईश्वर के लिए व्याकुलता को अत्यधिक महत्त्व देते थे। यह व्याकुलता तभी तक संभव है जब ईश्वर से आन्तरिक तथा तीव्र रूप से हार्दिक प्रेम करें। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है, जब तक हम संसार के विषयों, वस्तुओं एवं व्यक्तियों से प्रति रखते हों। अतः श्रीरामकृष्ण सर्वप्रथम तीन कार्य करने का उपदेश देते हैं : (1) भगवान् के नाम गुण-गान, (2) साधु-संग और (3) नित्यानित्यविचार। इन तीनों का उद्देश्य एक ही है : मन में संसार के प्रति रुचि का त्याग कर भगवान् के प्रति रुचि पैदा करना। ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रीरामकृष्ण प्रारंभ में ही ध्यान की कोई विस्तृत विधि नहीं बताते। हाँ वे निर्जन में साधन; मन, वन और कोने में ध्यान; तथा अभ्यासयोग की बात अवश्य करते हैं, लेकिन उनका आग्रह मन रुचि परिवर्तन में अधिक है। इसका एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारण है।

भारतीय दर्शन के अनुसार हमारा जीवन पूर्वजन्मों के संस्कारों द्वारा परिचालित होता है। ये संस्कार वासनाओं को जन्म देते हैं एवं इन वासनाओं के द्वारा परिचालित होकर हम शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। सामान्यतः सांसारिक भोग-वासनाएँ ही प्रबल होती हैं, जो हमें स्थूल भोग-विषयों की ओर ले जाती हैं। इन वासनाओं को नष्ट किये बिना चित्त में उठ रही भोग-विषयक वृत्तियों को नियंत्रित करना असंभव है, और वासनाएँ संस्कारों के नाश के बिना समाप्त नहीं हो सकतीं। अतः ध्यान द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध के बदले अपने संस्कार समूहों को नष्ट करना या उन्हें शुभ संस्कारों में परिवर्तित करना कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हैं। अगर हम भगवच्चिन्तन विषयक शुभ संस्कारों का निर्माण कर सकें तो हमारा मन बड़ी आसानी से ईश्वर चिन्तन में लगने लग जायेगा। श्रीरामकृष्ण द्वारा समझाये गये उपायों का मुख्य उद्देश्य शुभ धार्मिक संस्कारों का निर्माण करना है।

इसे दूसरे प्रकार से भी समझा जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मानव मन का दसवाँ हिस्सा ही मन संकल्प-विकल्पात्मक चेतन का मन निर्माण करता है, जबकि उसके नौ हिस्से अवचेतन मन का निर्माण करते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञानों का कथन है कि जाग्रतावस्था में हमारे द्वारा की जाने वाली शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ चेतन मन के द्वारा नहीं बल्कि अवचेतन मन के द्वारा परिचालित होती रहती है। ध्यान द्वारा चित्तवृत्ति-निरोध के प्रयास में हम केवल मन के दसवें हिस्से के नियंत्रण का ही प्रयास करते हैं। इस कार्य में हम बार-बार के अभ्यास के बाद भी असफल इसलिए होते हैं कि मन का नौ बटा दसवाँ अंश अर्थात् अचेतन मन विपरीत दिशा में कार्य करता रहता है। तात्पर्य यह है कि जब अचेतन मन का परिवर्तन न किया जाये तब तक मन का निरोध अथवा इच्छित दिशा में परिचालन असम्भव है। इसलिए श्रीरामकृष्ण पूर्वोक्त तीन उपायों को अत्यधिक महत्व देते हैं।

यह नियम है कि मन जिस बात को चाहता है, उस पर आसानी से एकाग्र हो जाता है। इसके विपरीत यह भी सत्य है कि जिस विषय पर मन को एकाग्र किया जाय, उसे वह धीरे-धीरे चाहने, प्रेम करने लगता है। प्रेम, आनन्द और एकाग्रता परस्पर सम्बन्धित हैं। भगवान् के नाम एवं गुणों का गान करने से भगवान् में अनायास ही रुचि पैदा हो जाती है,। उनकी लीलाओं से रूप, गुण एवं स्वरूप के चिन्तन से हमारे मन में भगवान् के प्रति प्रेम पैदा हो जाता है। ऐसे सन्तों के सत्संग से, जिन्होंने अपने जीवन में भगवच्चिन्नत की सार्थकता को प्रत्यक्ष किया है, हमारा मन ईश्वर चिन्तन एवं आध्यात्मिक जीवन की उपयोगिता तथा आवश्यकता के प्रति आश्वस्त हो जाता है। नित्यानित्य विचार अर्थात् ईश्वर ही सत्य हैं, तथा जगत असत्य एवं अनित्य है, यह सोचना। बार-बार इस तरह का विचार करने से यह बात अचेतन मन में गहरी बैठ जाती है। तब फिर चेतन मन संसार की ओर आकृष्ट नहीं होता।

अचेतन मन को रंगने का यह कार्य कोलाहलमय, विक्षेपोत्पादक सांसारिक वातावरण में संभव नहीं। अतः श्रीरामकृष्ण प्रारंभ में निर्जन में साधना का उपदेश देते हैं। उनके अनुसार निर्जन में ईश्वर चिन्तन करने से ज्ञान, वैराग्य, भक्ति का लाभ होता है। उनके बाद व्यक्ति संसार का नहीं होता, घर की चार-दिवारी के बीच रहता हुआ भी बद्ध नही होता। तात्पर्य यह है कि बिना साधना के सफल संसारी जीवन भी संभव नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ सांसारिक जीवन की समस्याओं को हल करने की दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।

श्रीरामकृष्ण ने जिस तीसरे प्रश्न का उत्तर अपने जीवन एवं उपदेशों के माध्यम से प्रदान किया है, वह है : ‘जीवन का उद्देश्य क्या है ?’ उद्देश्य या लक्ष्य के साथ उपाय, साधन, पथ और पाथेय, बाधाओं और कठिनाईयों के प्रश्न भी जुड़े हुए होते हैं। श्रीरामकृष्ण के अनुसार ईश्वर दर्शन ही जीवन का चरम लक्ष्य है तथा उसे प्राप्त करने के अनेक उपाय हो सकते हैं। और ईश्वर दर्शन ही चिर आनन्द प्राप्ति का एकमात्र उपाय हो सकते हैं। और ईश्वर दर्शन ही चिर आनन्द प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। ‘जितने मत उतने पथ’। प्रत्येक साधक को अपना निजि पथ स्वयं खोज निकालना पड़ता है।

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