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विवेकानन्द साहित्य >> कर्मयोग

कर्मयोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5884
आईएसबीएन :00000

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स्वामी विवेकानन्द की सर्वाधिक चर्चित पुस्तक कर्मयोग...

Karamyog

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

(प्रथम संस्करण)

हिन्दी जनता के सम्मुख ‘कर्मयोग’ यह पुस्तक रखते हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। ‘कर्मयोग’ श्री स्वामी विवेकानन्द जी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इस पुस्तक में उनके जो व्याख्यान संकलित किए गये हैं, उनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य-जीवन को गढ़ना ही है। इन व्याख्याओं को पढ़ने से हमें ज्ञात होगा कि श्री स्वामीजी के विचार किस उच्च कोटि के तथा हमारे जीवन के लिए कितने उपयोगी रहे हैं। आज की परिस्थिति में संसार के लिए कर्मयोग का असली रूप समझ लेना बहुत आवश्यक है और विशेष कर भारतवर्ष के लिए। हम आशा करते हैं कि यह पुस्तक भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले सज्जनों के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी। आवश्यकता इतनी ही है कि इसके भावों एवं विचारों का मनन कर उन्हें कार्य रूप में परिणत किया जाए।

पं. डा. विद्याभास्करजी शु्क्ल, एम.एस.सी, पीएच.डी., प्रोफेसर, कॉलेज ऑफ साइन्स, नागपुर के प्रति हम परम कृतज्ञ हैं जिन्होंने इस पुस्तक का मूल अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया है। इस पुस्तक में मूल ग्रंथ का ओज, उसकी शैली तथा भाव ज्यों के त्यों रखे गए हैं।
हमें विश्वास है कि जनता को इस पुस्तक से विशेष लाभ होगा।

प्रकाशक

कर्मयोग

कर्म का चरित्र पर प्रभाव


कर्म शब्द ‘कृ’ धातु से निकला है; ‘कृ’ धातु का अर्थ है करना। जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ ‘कर्मफल’ भी होता है। दार्शनिक दृष्टि से यदि देखा जाय, तो इसका अर्थ कभी -कभी वे फल होते हैं, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते हैं। परंतु कर्मयोग में ‘कर्म’ शब्द से हमारा मतलब केवल ‘कार्य’ ही है। मानवजाति का चरम लक्ष्य ज्ञानलाभ है। प्राच्य दर्शनशास्त्र हमारे सम्मुख एकमात्र यही लक्ष्य रखता है। मनुष्य का अन्तिम ध्येय सुख नहीं वरन् ज्ञान है; क्योंकि सुख और आनन्द का तो एक न एक दिन अन्त हो ही जाता है। अतः यह मान लेना कि सुख ही चरम लक्ष्य है, मनुष्य की भारी भूल है।

संसार में सब दुःखों का मूल यही है कि मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं वरन् ज्ञान है, तथा सुख और दुःख दोनों ही महान् शिक्षक हैं, और जितनी शिक्षा उसे सुख से मिलती है, उतनी दुःख से भी। सुख और दुःख ज्यों- ज्यों आत्मा पर से होकर जाते रहते हैं, त्यों त्यों वे उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित करते जाते हैं। और इन चित्रों अथवा संस्कारों की समष्टि के फल को ही हम मानव का ‘चरित्र’ कहते हैं। यदि तुम किसी मनुष्य का चरित्र देखो, तो प्रतीत होगा कि वह उसका मानसिक प्रवृत्तियों एवं मानसिक झुकाव की समष्टि ही है। तुम यह भी देखोगे कि उसके चरित्रगठन में सुख और दुःख दोनों ही समान रूप से उपादानस्वरूप है। चरित्र को एक विशिष्ट ढाँचे में ढालने में अच्छाई और बुराई दोनों का समान अंश रहता है, और कभी -कभी तो दुःख सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता है। यदि हम संसार के महापुरुषों के चरित्र का अध्ययन करें, तो मैं कह सकता हूँ कि अधिकांश दशाओं में हम यही देखेंगे कि सुख की अपेक्षा दुःख ने तथा सम्पत्ति की अपेक्षा दारिद्रय ने ही उन्हें अधिक शिक्षा दी है एवं प्रशंसा की अपेक्षा निंदारूपी आघात ने ही उसकी अन्तःस्थ ज्ञानाग्नि को अधिक प्रस्फुरित किया है।

अब, यह ज्ञान मनुष्य में अन्तर्निहित है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अन्दर ही है। हम जो कहते हैं कि मनुष्य ‘जानता’ है उसे ठीक ठीक मनोवैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करने पर हमें कहना चाहिए कि वह ‘अविष्कार करता है। मनुष्य जो कुछ सीखता है, वह वास्तव में ‘अविष्कार करना’ ही है। ‘अविष्कार’ का अर्थ है—मनुष्य का अपनी अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण हटा लेना। हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का अविष्कार किया। तो क्या वह अविष्कार कहीं एक कोनें में बैठा हुआ न्यूटन की प्रतीक्षा कर रहा था ? नहीं, वह उसके मन में ही था। जब समय आया तो उसने उसे ढूँढ़ निकाला। संसार ने जो ज्ञान लाभ किया है, वह मन से ही निकलता है। विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में ही विद्यमान है। बाह्य जगत् तो तुम्हें अपने मन को अध्ययन में लगाने के लिए उद्दीपक तथा सहायक मात्र है, पन्तु प्रत्येक समय तुम्हारे अध्ययन का विषय तुम्हारा मन ही है। सेव का गिरना न्यूटन के लिए उद्दीपक कारणस्वरूप हुआ और उसने अपने मन का अध्ययन किया। उसने अपने मन में पूर्व से स्थित भाव-शृंखला की कड़ियों को एक बार फिर से व्यवस्थित किया तथा उनमें एक नयी कड़ी का अविष्कार किया। उसी को हम गुरुत्वाकर्षण का नियम कहते हैं। यह न तो सेव में था और न पृथ्वी के केन्द्र में स्थिति किसी अन्य वस्तु में ही। अतएव समस्त ज्ञान, चाहे वह व्यवहारिक हो अथवा पारमार्थिक, मनुष्य के मन में ही निहित है। बहुधा यह प्रकाशित न होकर ढका रहता है। और जब आवरण धीरे-धीरे हटता जाता है, तो हम कहते हैं कि ‘हमें ज्ञान हो रहा है’।

ज्यों-ज्यों इस आविष्करण की क्रिया बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों हमारे ज्ञान की वृद्धि होता जाती है। जिस मनुष्य पर से यह आवरण उठता जा रहा है, वह अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक ज्ञानी है और जिस मनुष्य पर से यह आवरण तह-पर-तह पड़ा है, वह अज्ञानी है। जिस मनुष्य पर से यह आवरण बिलकुल चला जाता है, वह सर्वज्ञ पुरुष कहलाता है। अतीत में कितने ही सर्वज्ञ पुरुष हो चुके हैं और मेरा विश्वास है कि अब भी बहुत से होंगे तथा आगामी युगों में भी ऐसे असंख्य पुरुष जन्म लेंगे। जिस प्रकार एक चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि निहित रहती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान रहता है। उद्दीपक-कारण घर्षणस्वरूप ही इस ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है। ठीक ऐसा ही हमारे समस्त भावों और कार्यों के सम्बन्ध में भी है। यदि हम शान्त होकर स्वयं का अध्ययन करें, तो प्रतीत होगा कि हमारा हँसना-रोना, सुख –दुःख, हर्ष-विषाद, हमारी शुभकामनाएँ एवं शाप, स्तुति और निन्दा ये सब हमारे मन के ऊपर बहिर्जगत् के अनेक घात-प्रतिघात के फलस्वरूप उसकी अपनी शक्ति एवं ज्ञान को बाहर प्रकट करने के लिए जो मानसिक अथवा भौतिक घात उस पर पहुँचाये जाते हैं, वे ही कर्म है। यहाँ कर्म शब्द का उपयोग व्यापक रूप में लिया गाया है। इस प्रकार, हम सब प्रतिक्षण ही कर्म करते रहते हैं। मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ—यह कर्म है, तुम सुन रहे हो— यह भी कर्म है; हमारा साँस लेना चलना आदि भी कर्म है; जो कुछ हम करते हैं, वह शारीरिक हो अथवा मानसिक, सब कर्म ही है; और हमारे ऊपर वह अपना चिह्न अंकित कर जाता है।

कई कार्य ऐसे भी होते हैं, जो मानो अनेक छोटे-छोटे कार्मो में समष्टि है। उदाहरणार्थ, यदि हम समुद्र के किनारे खड़े हो और लहरों को किनारे से टकराते हुए सुनें, तो ऐसा मलूम होता है कि एक बड़ी भारी आवाज हो रही है। परन्तु हम जानते हैं कि एक बड़ी लहर असंख्य छोटी-छोटी लहरों से बनी है। और यद्यपि प्रत्येक छेटी लहर अपना शब्द करती है, परन्तु फिर भी वह हमें सुन नही पड़ता। पर ज्योंही ये सब शब्द आपस में मिलकर एक हो जाते हैं, त्योंही बड़ी आवाज सुनायी देती है। इसी प्रकार ह्द्दय की प्रत्येक धड़कन से कार्य हो रहा है। कई ऐसे कार्य होते हैं, जिनका हम अनुभव करते हैं; वे हमारे इन्द्रियग्राह्य हो जाते हैं, पर साथ ही वे अनेक छोटे-छोटे कार्यों की समष्टिस्वरूप हैं। यदि सचमुच किसी मनुष्य के चरित्र को जाँचना चाहते हैं, तो उसके बड़े कार्यों पर से उसकी जाँच मत करो। एक मूर्ख भी किसी विशेष अवसर पर बहादुर बन जाता है। मनुष्य के अत्यन्त साधारण कार्यों की जाँच करो, और असल में वे ही ऐसी बातें है, जिनसे तुम्हें महान् पुरुष के वास्तविक चरित्र का पता लग सकता है। आकस्मिक अवसर तो छोटे-से-छोटे मनुष्य को भी किसी-न-किसी प्रकार का बड़प्पन दे देते हैं। परन्तु वास्तव में बड़ा तो वही है, जिसका चरित्र सदैव और सब आस्थाओं में महान् रहता है।

मनुष्य का जिन सब शक्तियों के साथ सम्बन्ध आता है, उनमे से कर्मों की वह शक्ति सब से प्रबल है, जो मनुष्य के चरित्रगठन पर प्रभाव डालती है। मनुष्य तो मानों एक प्रकार का केन्द्र है, और वह संसार की समस्त शक्तियों को अपनी ओर खींच रही है, तथा इस केन्द्र में उन सारी शक्तियों को आपस में मिलाकर उन्हें फिर एक बड़ी तरंग के रूप में बाहर भेज रहा है। यह केन्द्र ही ‘प्रकृत मानव’ (आत्मा) है; यह सर्वशक्तिमान् तथा सर्वज्ञ है और समस्त विश्व को अपनी ओर खींच रहा है। भला-बुरा, सुख-दुःख सब उसकी ओर दौड़े जा रहे हैं, और जाकर उसके चारों ओर मानो लिपटे जा रहे हैं और वह उन सब में से चरित्र-रूपी महाशक्ति का गठन करके उसे बाहर भेज रहा है। जिस प्रकार किसी चीज को अपनी ओर खींच लेने की उसमें शक्ति है, उसी प्रकार उसे बाहर भेजने की भी है।


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