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कंचनतारा - 1

धर्मसिंह चौहान

प्रकाशक : अनुरोध प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5836
आईएसबीएन :81-88135-24-0

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प्रस्तुत है एक नारी के बलिदान की यशोगाथा पर आधारित उपन्यास........

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Kanchan Tara (1)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत उपन्यास ‘कंचनतारा’ नैतिक संस्कारों में पली-बढ़ी एक ऐसी युवती की कहानी है; संघर्ष-गाथा है जो मात्र अपने दैहिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उस समय तक सबका पालन करती रहती है, जब तक उसके ज्ञान चक्षु नहीं खुल जाते। शरीर-प्राप्ति का वास्तविक अर्थ समझते ही वह ऐसी नयी राह पकड़ लेती है जिस पर अग्रसर होकर उसे सच्चे साथी मिलते हैं; स्वाभाविक संवेदनाओं की तरल तरंगें मिलती हैं और परिपक्व संगति, अव्यक्त पीड़ा, संबंधों की अभिशप्त दरिद्रता तथा अपनों की अनूठी निकटता और मिलता है जीवन-मूल्यों का स्नेहिल परिप्रेक्ष्य....और इन सबके प्राप्त होते ही वह सदा-सदा के लिए अमरत्व को प्राप्त कर लेती है। उसकी योगगाथा उस धरती की नहीं अपितु सम्पूर्ण वसुधा के कण-कण में व्याप्त हो जाती है। विश्वास है, लेखक के पूर्व प्रकाशित अन्य उपन्यासों की तरह ही इसका भी पाठकों द्वारा भरपूर स्वागत होगा।

दो शब्द


विभिन्न स्वरूपों में प्रतिष्ठित नारी आँगन की बहुवर्णित महिमा से लेकर देवत्व के गुणों तक महामण्डित है। इसकी बृहत क्षमताओं का विस्तार सौम्यता, शालीनता एवं कोमलता का अनुपम प्रारूप बनकर कण-कण में व्याप्त है। कहीं इसमें वसुन्धरा-सी धैर्यशक्ति के दर्शन होते हैं तो कहीं यह शीतल-निर्मल सरिता-जैसी निर्बाध रूप में बहती चली जा रही है, कहीं पर्वत-सदृश्य अटल है तो कहीं पत्नी के रूप में अर्धांगिनी बनकर सपाट बिछी हुई प्रतीत होती है। कहना होगा। सहस्त्रों युगों से यह पावन विभूति सद्यःसाहचर्य तथा जननस्त्रोत का श्रेष्ठमत प्रतीक बनकर इतिहास के दृश्य-अदृश्य पन्नों पर सघन रूप में निहित है।

मानवी भावनाओं का सुनियोजित आदर करने वाली, अनेकानेक मधुर सम्बन्धों का एक साथ निर्वाह करने वाली, प्रेम-वात्सल्य की समग्र एवं प्रेरक-प्रतीक, जगत-श्रृंखला का स्निग्ध सम्पर्क, स्वजन से सहज रूप में एकाकार होनेवाली, अनुभूतियों से पूर्ण तथा सांसारिक ध्रुवों की सत्य-सटीक परिभाषित अनुप्रेरणा आज के वैज्ञानिक-युग में यदि दीन-हीन बना दी गई है तो इसका कारण कोई अभिशाप नहीं बल्कि मनुष्य की क्षुद्र विकृति है जिसके वशीभूत होकर वह नारी के गौरवमय तथा चिरसंचित उपलब्धियों को एक किनारे करके उसे निर्जल-जर्जर बना देने की राहों में अग्रसर रहता है और प्रतिबिम्बों का कोहरा जमाकर उसकी अक्षत-निरापद गरिमा को धूमिल करने का दुष्प्रयत्न करता रहता है जबकि सृष्टि के अंन्तिम क्षणों तक नारी-प्रतिष्ठा सुभाषित प्रमाणों के साथ अविजित-अक्षुण्ण रहेगी क्योंकि नर किसी न किसी नारी के गर्भ की ही उत्पत्ति है।

यदा-कदा नारी को सर्वसुलभ-भोग्या सरीखे अभद्र दृष्टान्त देकर मलिन करने की धृष्टता की गई है पुरुष भूल गए हैं कि इनको पूर्ण रूपेण पाने की उत्कण्ठा में समय-समय पर रक्त की अनगिनत नदियाँ भी बहाई गई हैं वस्तुतः कुछ लोग भले ही कुत्सित विचारों तथा घृणित उपकरणों का बेसुरा सहारा लेकर सर्वस्व को कंलकित करने का दुष्साहस करने लगे हैं परन्तु इस सत्य को कदापि अन्धकार में नहीं धकेला जा सकता है कि समस्त सृष्टि को सशक्त रूप में निर्मित एवं विकसित करने में सर्वाधिक सुदृढ़ भूमिका स्त्री-जाति की ही है। लता की भाँति अवलम्ब पर फलने-फूलने में बदनाम नारी अन्यान्य की जीवनचर्या का कितना विपुल स्तम्भ बनती है। इस कटु सत्य को विस्मृति कर देनेवाले ऐसे पूर्वाग्रही संकीर्णताओं से ग्रसित ही कहे जाएंगे।

रीतियों-कुरीतियों, रूढ़ियों औऱ परम्पराओं जैसी अगणित सामाजिक अदृश्य आधार के बल पर नारी को सदैव के लिए कुन्द बनाकर रख पाना अब नितान्त असम्भव है। भावनाओं में सतत बह जानेवाली सरलता नारी ने स्वार्थी मनुष्य की कुण्ठित लिप्साओं को भँलीभाँति पहचान लिया है। तभी तो आज यह पूरे आत्मविश्वास एवं आत्माभिमान के साथ विविध कर्मक्षेत्रों में उतर पड़ी है। नारीत्व की मर्यादा को अपराजित बनाए रखकर, कर्मयोग से अभिभूत कर देना उसमें अपना मूलमन्त्र बना लिया है और समर्पण के अर्थ परिवर्तित कर दिए हैं।

प्रस्तुत कृति (दो भागों में) संस्कारों में पली-बढ़ी ऐसी ही एक युवती की संघर्ष-गाथा है जो मात्र अपने दैहिक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उस समय तक सबका मूक पालन करती रहती है, जब तक उसके ज्ञान-चक्षु नहीं खुल जाते। काया-प्राप्ति का वास्तविक अर्थ समझते ही ऐसी नवीन राह पकड़ लेती है। जिस पर उसे सच्चे साथी मिलते हैं। और मिलती हैं, स्वाभाविक संवेदनाओं की तरल-मृदु लहरें, परिपक्व सहतचर्य, अव्यक्त पीड़ा सम्बन्धों की अभिशप्त दरिद्रता और अपनों की अनूठी निकटता तथा जीवन मूल्यों का शोभनीय पक्ष-विपक्ष..स्नेहिल परिप्रेक्ष्य और इन सबके प्राप्त होते ही सदा-सदा के लिए अमरत्व को प्राप्त कर लेती है। उसकी यशोगाथा उस धरती ही नहीं अपितु सम्पूर्ण वसुन्धरा के कण-कण में व्याप्त हो जाती है।


एक


हरदौली के दिखाई पड़ते ही दोनों कहारों की टूटती हिम्मत और उखड़ती, साँसों में मानों दम आ गया; पाँवों में नई शक्ति आ गई, क्षीण होती गति में हल्की सी तीव्रता सी आ गई। यही गाँव उनका गन्तव्य था। लक्ष्य के निकट आने पर आदमी के भीतर उत्साह और स्फूर्ति स्वयमेव आ जाती है। अतः कंकाल बने नग्न दीन बदन डोली को कन्धें पर उठाए सरपट चलने लगे थकान पर से हया हट गया। पसीने की बूंदे टप-टप पड़ रही थीं, परन्तु अब यह जरा-सी दूरी उनके मनोबल को परास्त न कर सकती थी।

कहार शक्ल-सूरत में पहाड़ी लगते थे। आयु भी मेहनत-मजदूरी करने की सीमा को लगभग लाँघ चुकी थी। शायद यह पेट की धधकती ज्वाला और सर पर रखे असीमित पारिवारिक दायित्वों का ही प्रताप था कि ठोकर लग जाने पर सँभलने की सामर्थ्य न होते हुए भी ऊबड़-खाबड़, दुर्गम पहाड़ी रास्तों में मीलों-मील तक एक-एक पग को साधकर चलने की आदत अभी तक उन्होंने रखी हुई थी, या फिर यह उनका दुर्भाग्य था जो ऐसा कठोर पेशा अपनाने पर उन्हें बाध्य होना पड़ा था। जवानी के उमंग-भरे दिनों में ऐसी मजबूरी भली लगती है लेकिन देह के दुर्बल-जर्जर हो जाने पर जब अपने ही बदन का वज़न भारी लगने लगता है, तब यह बहुत मँहगी होकर भी करनी पड़ जाती है। इसी कारण अभी वे अपने निश्चित स्थान पर पहुँचे भी न थे कि उन्हें लौटने की चिन्ता सताने लगी थी।

लचकते-लरज़ते कहारों ने डोली को लेकर जैसे ही गाँव में प्रवेश किया, गलियारों- खालिहानों में खेलते बच्चे उनके साथ हो लिए। उनके लिए देव की नव वधू भी खेल-तमाशा ही थी। नवीन वस्तु के प्रति बालकों की उस्तुकता सर्वविदित है। अतः बाल-समूह अविलम्ब डोली के आगे-पीछे चलने लगा। डोली आगे-आगे जा रही थी। लच्छू और बुद्धन के प्रंसग देवनाथ पीछे-पीछे आ रहा था। इस समय वह सहमा-सहमा चल रहा था। लोग-बाग उसके नवविवाह के बारे में न जाने अचानक क्या कह उठे-इसी आशंका से उसका चेहरा बुझ-सा गया था जबकि उसके अनन्य साथी लच्छू और बुद्धन सीना ताने चल रहे थे मानो कह रहे हों-गाँव वालों ! हमारा करिश्मा देखों शादी-ब्याह के मामले में मर्दों की उम्र अभी भी नहीं देखी जाती।

थोड़ी ही देर में यह ख़बर हरदौली के एक सिरे दूसरे सिरे तक पहुँच गई। जिसने भी सुना, सहज ही विश्वास न हुआ। देवनाथ के बारे में ऐसी धारणा गले न उतरती थी। ऐसी सज्जन प्रकृति कि कोई भोलेपन पर ऊँगली तक न उठा सकता था। मेहनत के नाम पर सफल किसान तथा अपने काम से काम। इसीलिए उसके खेतों में सदा तगड़ी फसल हुआ करती थी। परिश्रम करने में वह भी कृपणता न दिखाता था। दो आदमियों के बीच में अच्छी इज्ज्त थी। लोग बात की कद्र करते थे। अतः उसके बारे में ऐसी चर्चा सुनी तो सब हतप्रभ रह गए और हाथ का काम छोड़कर उसी के घर की ओर चल दिए।
कानों-कान खबर माधों चाची तक भी पहुँच गई थी। वह भी कभी इसी गाँव में शर्मीली दुल्हन बनकर आई थी। उस समय वह मुश्किल से चौदह-पन्द्रह वर्ष की किशोरी थी। देह पर यौवन की छटा थी। रूप से अत्यन्त सुंदर थी। बतीसी मोतियों के समान थी इसलिए जब वह अपनी स्वाभाविक उन्मुक्त हँसी में खिलखिलाती तो बिजली-सी चमक जाती थी। स्वर में माधुर्य था। अपनी विनोद भरी बातों से दूसरों को मुग्ध करने की कला में तब भी वह सिद्धहस्त थी। चाल में अजीब मस्ती थी। हँसी-ठिठोली में बेबाक, अग्रणी।

तब और अब मैं लगभग चालीस लम्बें सालों का अन्तर आ गया था। सन्तान जवान होकर अपनी-अपनी गृहस्थी में मग्न हो गई थी। किसी गृह कार्य की जिम्मेदारी नहीं थी। हर समय खाली-इधर उधर गप्प हाँकती फिरती थी अपने समय पर सन्तानोपत्ति में भी कमी न रखी थी। रंग-रूप से गोरी –चिकनी युवती मधुमति आज सारे गाँव में माधों चाची के नाम से विख्यात हो गई थी। दायित्वहीनता और आयु की लम्बी यात्रा के कारण शरीर भारी भरकम, बेढंगा और बेडौल होकर रह गया था। वय की चौधराहट के कारण आस-पडोंस की बहुबेटियों के ऊपर धाक जमाने की उसकी आदत बन गई थी। हवा में विचरते रहस्य को खींचकर पकड़ लेना तथा फिर उसे सजा-सँवारकर अपने तरीके से प्रस्तुत करने में उसने महारत हासिल कर ली थी। क्या मजाल कि गाँव की कोई छोटी-मोटी बात उससे बचकर निकल जाए।

उड़ती-उड़ती खबर मिलने पर ही वह तुरन्त अपनी गजगामिनी चाल से चल पड़ी। देवनाथ का घर वहां से अधिक दूर नहीं था। अतः इस दूरी को तय करने में आज उसे अधिक समय न लगा। वहाँ पहुँचकर देखा तो चर्चा की सत्यता का भी तत्काल पता चल गया। द्वार के बाहर ही डोली रखी हुई थी। अभी तक दुल्हन उसी में सिकु़ड़ी बैठी थी। डोली का चारों तरफ से नंगे-अधनंगे बालकों ने घेर लिया था। पास ही दो कहार बैठे सुस्ता रहे थे।

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