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खामोश इमारत

कुलभूषण दीप

प्रकाशक : हरबंश लाल एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5831
आईएसबीएन :00000

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सामाजिक उपन्यास...

Khamosh Imarat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ख़ामोश इमारत

1

रात गहरा गयी थी। हवाओं में मीठी-मीठी ठण्ड घुल-मिल गयी थी। खुली खिड़की से हवा के हल्के-हल्के झोंके आते, जिस्म से टकराते और रोमांचित कर आगे बढ़ जाते। ‘ब्लड बैंक’ में आज कोई विशेष काम नहीं था। जो था, उसे निपटा आया था। सामने मेज़ पर एक मोटी किताब औंधी पड़ी थी, उसे उठाने को भी मन नहीं कर रहा था। रेडियो धीमे स्वर में बज रहा था। मेरे अज़ीज़ शायर का नग़्मा संगीत और आवाज़ का जादू बिखेर रहा था। हल्की-हल्की सोज़-भरी धुन और इसमें तलत की आवाज़ ने समां बाँध रखा था, मानो हर लफ़्ज मेरे ही दिल को चीरता हुआ निकल रहा था। जैसे-जैसे नग़्मा खत्म हो रहा था मेरी उदासी बढ़ती जा रही थी। मैं उठ खड़ा हुआ, खड़की से बाहर झाँकने लगा कि तभी तलत ने नग़्में की आख़िरी लाइनें गुनगुनायीं :


आज तेरी महफिल से उठे
कल दुनिया से उठ जाएँगे
किसको खबर थी, किसको पता था
ऐसे भी दिन आएँगे।
जीना भी मुश्किल होगा
और मरने भी न पाएँगे।


रेडियो बन्द कर मैं खिड़की के पास आ खड़ा हुआ। सामने इमारत खामोश खड़ी थी, बेहद लम्बे-लम्बे सफ़ेदे के दरख्त सिर झुकाए खड़े थे, मायूस-से कारीडोर सुनसान पड़े थे। कभी-कभार इक्का-दुक्का आदमी आ जा रहे थे। चाँद बहुत पीला था बिलकुल ऐसा जैसे कोई ‘ऐनीमिक’ चेहरा होता है। टिमटिमाते सितारे बोझिल पलकों में आँसुओं की तरह झलक रहे थे। जब दिल उदास होता है तो सब-कुछ उदास और बेरौनक लगता है। ऐसे ही सब कुछ फीका-फीका बोझिल-सा लग रहा था।

‘मियाँ आनन्द, क्यों हरदम उदासियों से चिपके रहते हो ? ज़िन्दगी में जो लम्हा तुमने उदासी में खो दिया समझो, उसका कत्ल किया.....।’ ज़ेहन में कौंध गये उमेश के ये शब्द और सामने दीवार पर उभर आया उमेश का जादुई चुम्बकीय चेहरा, तरोताज़ा चेहरा। लगा, अभी कोई ‘जोक’ सुनायेगा और कहेगा—‘अमाँ यार आनन्द, जब पहली बार किसी इन्सान के दिमाग़ में कोई ‘जोक’ आया होगा, तब वह साला तो हँस-हँसकर ही पागल हो गया होगा।’

मेरे होंठों पर भी एक मुस्कुराहट रेंग आयी, मगर उदास-उदास-सी। उमेश की यादों ने घरे लिया मुझे। उमेश ज़िन्दादिली का दूसरा नाम है। काश ! उमेश यहाँ होता तो एक पल भी उदास न रहने देता मुझे। काश, मेरे ही पंख होते तो मैं इसी क्षण उमेश के पास पहुँच जाता। मैं सोचता रहा, जब थक गया तो वापस अपनी कुर्सी पर आ बैठा। अभी बैठा ही था कि कमरे का दरवा़ज़ा खुला, सामने दीदी खड़ी थीं। थका-थका चेहरा, बिखरे-बिखरे बाल, कन्धे पर खामोश पड़ा स्टेथोस्कोप।

‘अरे दीदी, आप इस वक्त !’ मैं चौंक उठा था।
‘हाँ जी, मैं ही हूँ ! नहीं आना चाहिए था क्या ?’
‘अरे-रे, क्या कह रही हो दीदी ! मेरा यह मतलब नहीं था, मतलब कि आज आपकी ‘नाईट’ तो नहीं थी !’
‘ओ मिस्टर मतलबी, अब छोड़ो भी अपने मतलब को। कोई चाय-काफ़ी पिलाओ, बहुत थकी हूँ। बहुत कॉम्पलीकेटिड ऑप्रेशन था।’ स्टैथो एक तरफ़ पटकते हुए दीदी बोलीं और सच ही दीदी के चेहरे से स्पष्ट था कि वह बहुत थकी हुई हैं। आँखें बन्द, चेहरे पर मोहक मुस्कुराहट....।
मैं काफ़ी बनाने रिफ्रेशमेंट रूम में चला गया।
कॉफ़ी के प्याले मेज़ पर रखते ही दीदी की आँखें खुलीं। बोलीं- ‘क्या बात है मिस्टर रिसर्च स्कॉलर, बहुत उदास नज़र आ रहे हो ?’
‘कोई बात नहीं, बस यूँ ही...’ मुझसे कोई जवाब न बन पड़ा।
‘यूँ ही क्या...हर घड़ी यूँ ही मुँह लटकाए रहते हो। अच्छा है, तुम्हें कहीं वार्ड में नहीं जाना पड़ता है; नहीं तो तुम्हारी यह शक्ल देखकर मरीज़ वैसे ही अधमरा हो जाये। भई, खुश रहा करो। क्या हर वक्त अपनी उदासी की नुमाइश लगाये रहते हो !’
मैं चुपचाप कॉफ़ी सिप करता रहा।
कोई मेरे कमरे में दाखिल हुआ और उसने रिक्विज़िशन फ़ार्म मेरे हाथों में थमा दिया। ब्लड सैम्पल और फ़ार्म लेकर मैं लैब में गया। ग्रुपिंग की तो काँप गया। ग्रुप था ‘ओ.वी.ई.’ और सामने टँगा स्टाक बोर्ड नकार रहा था। एक भी यूनिट नहीं था स्टॉक में ओ.वी.ई. फ़ार्म पर साफ़ लिखा था ‘चार यूनिट तुरन्त भिजवाइये !’—दस्तखत थे डॉक्टर नारंग के। भीतर-ही-भीतर सिहर गया था मैं ।
‘यह मरीज़ आपका क्या लगता है ?’ मैंने फ़ार्म लाने वाले से पूछा।
‘जी, मेरा भाई है।’

‘आप भी ग्रुपिंग कराइए, शायद आपको खून देना पड़े।’
‘खून...मगर डॉ. साहब तो कह रहे थे, खून कहीं से मिल जायेगा !’
‘जी, मिल तो जायेगा जब आप देंगे। और कौन है आपके साथ ?’
‘इस वक्त तो मैं ही हूँ और मैं तो खुद बीमार हूँ।’ कुछ पल खामोश खड़ा रहने के बाद वह बोला, ‘मैं अभी आता हूँ।’ और वह चला गया। दीदी अभी तक पलकें मूँदे बैठी थीं। मैं भी आकर बैठ गया।
‘दीदी, आप घर जाकर आराम करें।’
‘हूँ...बस, अभी जा ही रही हूँ।’ उनींदे-से स्वर में जवाब दिया दीदी ने। फिर खामोशी छा गयी।

‘आपको डॉक्टर साहब ने बुलाया है।’ वह व्यक्ति फिर आ गया था।
‘आप बैठें। दीदी, मैं अभी आता हूँ।’
मैं उसके साथ डॉक्टर नारंग के पास गया। अभिवादन किया, मगर कोई जवाब नहीं...।
‘आपने ब्लड क्यों नहीं दिया इन्हें ?’ गुस्से-भरी आवाज़ सुनकर सन्न रह गया मैं।
‘सर ! ओ-वी-ई की तो एक भी यूनिट इस वक्त स्टॉक में नहीं।’
‘क्या मतलब ? क्यों नहीं है ? किस लिए खोल रखा है ब्लड बैंक ? क्या करते रहते हो तुम लोग ?....एक भी यूनिट नहीं है...मैं कहता हूँ, अभी जाओ और किसी तरह इन्तज़ाम करो खून का।’ गुस्से से काँपने लगे थे डॉक्टर नारंग। उनका चेहरा तो तपे ताँबे-सा हो गया था।

मैं सिर झुकाए लौट आया। मेरी उदासी और गहरा गयी। कदम उठना मुश्किल हो गया। कुर्सी पर बैठकर हुक्म चला लेना कितना आसान है ? कोई किसी की मुश्किल क्यों नहीं समझता ? एक तो कोई खून देनेवाला है नहीं और बैंक में एक यूनिट भी नहीं। रात के दो बज रहे हैं....एमरजैंसी पैनल से भी किसे बुलाया जाय...? तभी मेरी सोच में वह चेहरा घूम गया जिसे खून चाहिए था। ऐसा मालूम पड़ा, मानो वह गिड़गिड़ा रहा हो। मगर डॉक्टर नारंग का चेहरा याद आते ही कड़वाहट-सी घुल गयी मुँह में और ज़ायका कसैला हो गया। सोचें और गहरी हो गयीं। मैं वापस अपने कमरे तक आ पहुँचा था। मेरा लटका हुआ चेहरा देखते ही सुधा दीदी ने सवाल किया—

‘क्या बात हुई ?’ और इस वक्त दीदी का बोलना भी चुभ गया मुझे। मैं खामोश रहा कोई जवाब नहीं बन पाया मुझसे। भीतर-ही-भीतर कुलबुला रहा था मैं, खौल रहा था। हज़ार बार कहा है कि हर ग्रुप का कुछ-न-कुछ स्टॉक ज़रूर रहना चाहिए; मगर किसी के कान पर जूँ ही नहीं रेंगती। कुछ करो तो बेकार इल्जाम लो, बेकार बदनामी हासिल करो। जब ज़रूरत हो, तब भाग दौड़ करो। इन्तजाम न हो सके तो बदनामी...गालियाँ...आदमी करे तो क्या करे !
‘डॉक्टर साहब कह रहे हैं, खून जल्दी चाहिए।’ वह आदमी फिर आ गया।

‘मैं बन जाऊँ क्या ?’ मैं गुस्से से उबल पड़ा।
‘अरे भैया, यह क्या...?’ मुझे झटकते हुए दीदी बोली।
‘तुम खून क्यों नहीं देते ?’ मैंने चीखते हुए उस आदमी से कहा।
‘मैंने बताया न मैं स्वयं बीमार हूँ।’ बड़े सहज भाव से बोला। मुझे लगा डॉक्टर नारंग से मेरी बातचीत सुनकर वह और ज्यादा बल पा गया है।
‘क्या मैं अन्दर जा सकता हूँ ?’
नयी आवाज़ सुनकर मैं चौंक पड़ा।

‘आइए।’ किसी हद तक मैंने अपना रूखापन छिपाते हुए कहा।
‘सर, मैं खून देने आया हूँ। मेरा ग्रुप ओ.बी.ई. है। मैंने डॉक्टर नारंग से आपकी बात सुनी, सुनकर रोक नहीं सका खुद को।’
‘ओह....!’ मैंने एक गहरी साँस ली।
‘‘आप पहले मेरा खून ले लीजिए। मेरे दो तीन दोस्त और हैं जिनका ग्रुप ओ.बी.ई. है, मैं उन्हें भी ले आता हूँ।’
मेरा सिर झुकता चला गया।
‘क्या नाम है आपका ?’
‘जी, शरद राय।’ वह बड़ी नम्र आवाज़ में बोला।
‘अरे आप ही हैं मिस्टर शरद..जिन्हें मैडल मिला था छब्बीस जनवरी को।’
‘जी हाँ...।’
‘वाकई आप उसके हकदार हैं।’

कुछ देर के लिए खामोशी छा गयी। मिस्टर शरद राय का खून प्लास्टिक बैग में भरने लगा।
‘आइए मिस्टर शरद, आप कुछ रिफ्रेशमैंट ले लीजिए।’ शरद को उठाते हुए मैं बोला।
‘नहीं सर, पहले मैं अपने दोस्तों के ले आऊँ। तब सभी एक साथ ही चाय पी लेंगे।
शरद चला गया। मैं क्रास-मैच करने लगा।
‘भैया, आज आप मेरा भी ब्लड ले लीजिए।’ दीदी मेरे पीछे आ खड़ी हो गयीं।
मेरी निगाहें उठीं और फिर उस देवी के चरणों में झुक गयीं।
दीदी से बहस करना ठीक नहीं समझा मैंने, जानता हूँ मना करने पर भी नहीं मानेंगी।

सुर्ख लाल रंग का खून दीदी की बाजू से निकालकर प्लास्टिक के बैग में जमा हो रहा था। यह चंद औंस खून अभी किसी और जिस्म में दौड़ेगा और उसे नयी ज़िन्दगी देगा। कितना बड़ा दान है यह खून का दान और सामने दीवार पर टँगे वे शब्द—‘रक्तदान...जीवनदान’...मानो सचमुच ज़िंदगी पा गये थे।
नीडल बाजू से बाहर निकाल लिया मैंने। दीदी पलकें मूंदे गहरी सोच में खोई हुई थीं—ऐसा उनके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर था।
दो यूनिट ब्लड चपरासी के हाथ वार्ड में भिजवाकर मैं और दीदी अपने रूम में आ गये।
‘भैया, ये लोग इतना झूठ बोल लेते हैं ? दीदी ने बैठते ही सवाल किया।
‘दीदी, यह तो कुछ भी नहीं। अगर सिफारिश न लेकर आया होता तो यह आदमी इस बात से भी इन्कार कर देता कि मरीज़ इसका भाई है।’

‘मिस्टर रिसर्च स्कालर, तुम्हें इसमें भी रिसर्च करना चाहिए कि किस तरह लोगों को तैयार किया जाय कि वे अपने-आप खून देने आयें।’
इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, बाहर से डॉक्टर नारंग के गुर्राने की आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘तुम लोग यहाँ गप्प हाँक रहे हो, खून का इन्तज़ाम नहीं हुआ अब तक ?’


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