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उपन्यास >> हँसली

हँसली

वीरेंद्र सिंह वर्मा

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :211
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5822
आईएसबीएन :81-85830-94-0

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घटनाएं तो सभी के जीवन में घटित होती हैं, कोई नवीनता नहीं; परंतु नायक-नायिका उनको किस रूप में ग्रहण करते हैं

Hansli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

मानव ने अपने जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक कथा-कहानी में अपनी रुचि का प्रदर्शन किया है। बचपन में यदि इन कथाओं का क्षेत्र तितलियों और परियों तक रहा है तो किशोरावस्था में राजकुमारों के शीशमहल और सात समुंदर पार सोती हुई राजकुमारी की खोज में आगे बढ़ा है। यौवन के उन्मेष पर वह वास्तविकता से समझौता नहीं कर पाया है और उसने अपने सुख-वैभव को रंगमय बनाने के लिए कल्पना का हाथ पकड़ा है; और उसी का परिणाम है हमारा कथा साहित्य। वृद्धावस्था में वह धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक स्तर पर जा पहुँचा है, जहाँ उसने जीवन में श्रेय को महत्व दिया और आवा-गमन के अनेक आख्यानों से मन की तुष्टि की है।

जीवन को समीपता से देखने का नाम ही उपन्यास है, जो हमें जीवन का दिग्दर्शन कराता है। यह न तो इतिहास की रचना है और न किसी विचारधारा, मत-मतांतर, धर्म अथवा राजनीति की विवेचना; और न ही प्रचार का मंच अथवा प्लेटफार्म। यह तो मात्र जीवन की अनुभूति, उसकी व्यथा-कथा, हर्षोल्लास, उसके रोने-धोने का एक दास्तावेज है, जो उसकी दुर्बलताओं, विवशताओं, साहस शक्ति एवं आशक्तियों को उजागर करता है। यह तो मानव जीवन के भाव, विचार आशा-निराशा एवं अभिलाषाओं का समग्र इतिहास है।

उपन्यास का मुख्य उद्देश्य है, पाठक के मन –मस्तिष्क के दुःख संताप एवं दुश्चिताओं का प्रक्षालन एवं सौंदर्य प्रसाधन, जिससे विहीन यह एक ऐसा ही उपक्रम होगा जैसे वायुयान द्वारा बद्रीविशाल की तीर्थयात्रा ! यात्रा का आनंद चतुर्दिक वातावरण की उपेक्षा करके नहीं उठाया जा सकता। वह तो एक मूर्ति मात्र में समष्टि की कल्पना का अंत होगा, उसका दर्शन नहीं। कोई भी साधना एकांकी होगी, यदि समष्टि में उसकी परिणति नहीं हो पाई है। अव्यक्त का चिंतन क्या व्यक्त की अवहेलना करके किया जा सकता है ? किसी भी तीर्थस्थल के दर्शन का साफल्य बिना रात्रि निवास के अपूर्ण है, जहाँ देव का रहस्यमयी अनुग्रह निशा की नीरवता में नीहार बनकर बरसता है। कथा हमारे जीवन की समष्टि का दर्शन है उसके चाक्षुष्य सौष्ठव की एक झलक। भाषा उस प्रतीति का एक साधन है।

जीवन का सौरस्य घटनाओं में नहीं, उसकी अनुभूति में है। घटनाएं तो सभी के जीवन में घटित होती हैं, कोई नवीनता नहीं; परंतु नायक-नायिका उनको किस रूप में ग्रहण करते हैं, उस भाव की अभिव्यक्ति ही कथा है, उपन्यास है। घटना इतनी मूल्यवान नहीं, जितना प्रभाव, उससे प्राप्त संदेश, जीवन पर उसकी छाप। अतः एक साधारण सी छोटी घटना को लेकर एक अच्छी कहानी, एक सुन्दर सा नाटक अथवा कथानक की विविधता, चरित्र की विचित्रता, संयोग का कौतूहल अथवा सौंदर्य का रोमांस। जो परम आवश्यक है वह उसकी अभिव्यक्ति का सौंदर्य।

घटनाचक्र का स्वयं में उतना अधिक महत्त्व नहीं, जितना उसके आधार पर उत्पन्न भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में है, जिनसे पात्रों के अनेक मनोभावों, द्वंद्व, संघर्षों को व्यक्त किया जा सके तथा उनके चरित्र का निरूपण किया जा सके। एक घटना के अनेक प्रतिफल हो सकते हैं। पात्रों के चरित्र का विकास इसी पर निर्भर करता है कि अमुक घटना का, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, उस पर क्या प्रभाव पड़ा है। हो सकता है, वह नायक की जीवन दिशा को ही बदल दे। उदाहरण के लिए सिद्धार्थ का जीवन यथेष्ट है। इस घटना के उल्लेख में भाषा तथा कल्पना का योगदान एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।

साहित्य समाज का दर्पण है। उपन्यासकार भी सामाजिक समस्याओं से कैसे अप्रवाहित रह सकता है। उसने तो सदा ही समाज को उसकी समस्याओं से अवगत कराया है। परंतु इन समस्याओं से समाधान की उससे उपेक्षा करना उचित नहीं है; क्योंकि न तो वह कोई धुंरधर विद्वान है, न राजनीतिज्ञ और न कोई धर्माचार्य। वह तो मात्र एक संवेदनशील लेखक है, जिसके पास एक स्पंदित हृदय एवं सुकुमार लेखनी है। उसके पास सभी तालों की ‘मास्टर की’ और सभी व्याधियों के लिए कोई ‘अमृत ओषधि’ कहाँ है, जो वह समाज की समस्याओं का समाधन कर दे। फिर भी वह जनसाधारण से अधिक महत्त्व रखता है; क्योंकि उसमें दर्शन की क्षमता विशेष है। न सही उसकी लेखनी में अधिक प्रभाव; फिर भी वह साधारण रूप में अपनी रचना में उन समस्याओं को उठा सकता है। और समाज के प्रबुद्ध वर्ग, सुधारक, विचारक एवं प्रचारक का ध्यान उस ओर आकर्षित कर सकता है और सुधार की दिशा में समाज को जाग्रत किया जा सकता है।

मेरा विचार है कि जीवन के परिपक्व अनुभव जब व्यक्ति की झोली में नहीं समाते तब वह उपन्यास लेखन की ओर प्रवृत्त होता है; सीकरों से परिपूर्ण श्यामल घटाएं ही जलधार बनकर बरसती हैं; हिमकणों से आपूरित मानसरोवर अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर पतति-पावक पयस्विनी बनी, धरा को शस्य-श्यामल बनाने, प्रवासोन्मुखी हो उठती है। एक अँगुली की पीड़ा को तो सहन किया जा सकता है, परंतु जब जीवन- संताप अपने संपूर्ण में उद्विग्न हो उठता है, तभी उपन्यास का जन्म होता है। यह उसकी बेबसी की व्यथा है। अनुभूति के प्रसव की विवशता जब तक उसके सम्मुख नहीं आती तब तक तो सभी रचनाएँ सयास ही कहलाएंगी-एक अपरिपक्व प्रसव, एक गर्भपात। परिपाक की यही पूर्णता तो उसे सौंदर्य प्रदान करती है तथा पठनीय बनाती है। प्रस्तुत रचना उसके हृदय से इसी प्रकार निःसृत हुई है जैसे सुमन दल से सौरव अथवा निशा के आँचल से नीहार कण।

लेखक की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के आवेश में, उसके माधुर्य की कल्पना में, सौरभ की मादकता में, लेखक गति की तीव्रता से और रूप के सम्मोहन से भ्रमित होने, शिल्प की विविधता के चक्रव्यूह में फँसने से मुझसे विरामादि चिन्ह—विशेष रूप से उद्धरण अथवा अवतरण – स्वेच्छा से नहीं, स्वतः ही इस प्रकार छूट गये हैं जैसे वसंतागमन से पूर्व आम्र की डालियों से पात, फलित होने से पूर्व सुमन की पंखुड़ियाँ और कैशोर्य से पूर्व बालिका के हाथों से गुड़िया, जिसका एहसास मुझे उस समय हुआ जब मैं इस कृति के समापन पर कल्पनाश्री के चरणों में आभार व्यक्त कर उसे बिदाई दे रहा था,.....आदि कारणों से और भी अनेक विसंगतियाँ इस रचना की झोली में सोती-जागती, अलसाई-उनींदी आपकी अन्वेषक दृष्टि को सहज ही मिल सकती हैं। फिर भी आदरणीय गुरुजनों और सुधी पाठकगणों से मेरी विनम्र प्रार्थना है कि वे विसंगतियों की इस प्रकार अनदेखी करने की कृपा करेंगे जैसे बालापराधों को गुरुजन।

वीरेन्द्रसिंह वर्मा

लेखक के द्वार पर

अभी-अभी भोर हुआ है और मेरे हाथ में चाय का प्याला है। तभी मैंने देखा कि कचरा उठाती और इधर –उधर आँखे दौड़ाती, मेरे निवास के द्वार से विमुख हुई लड़की आकर खडी़ हो गई है और मुझे ऐसा लगा जैसे वह साक्षात मेरे उपन्यास की नायिका है। यह अभी चौदह की तो नहीं तेरह के मध्य में खड़ी जीवन को झांकने का प्रयास कर रही है। वैसे पथ तो इसका बहुत कुछ निर्धारित हो चुका है, जिस पर इसे चलना है, परंतु इस सड़क से पॉलिथीन के थैले बीनती, मैले-गंदे कागज के टुकड़े-जिन्हें दुकान और न्यायालय जाते व्यक्तियों ने खाना खाकर फेंक दिया है- उठाती यह न जाने किधर मुड़ जाए, कोई नहीं जानता। यह इतना ही अनिश्चित है जितना गुलमोहर की डाली पर बैठा यह काग, अभी काँय-काँय, कें-कें करता बैठा तो हुआ है, पर न जाने किस प्रलोभन से, किस कारणवश, किस दिशा में उड़ जाए कौन जानता है ! तभी उसका हाथ आकर पकड़ लिया कलुआ ने-
‘‘दीखता नहीं ? कितना बड़ा प्लास्टिक का थैला पड़ा हुआ है उस सामने की दुकान के नीचे।’’

और तत्काल उस लकड़ी की आँखें, जो अभी तक रात्रि की नींद को भुला नहीं पाई थीं, दौड़कर जा पहुँचीं दुकान के नीचे। परंतु प्लास्टिक का इतना  बड़ा थैला देखकर, जिसका भार साधारण दस थैलों से भी ज्यादा होता, वह उस थैले को उठाने नहीं दौडी और न उसे देखा ललचाई हुई आँखों से, परंतु उसकी आँखें जम गईं कलुआ पर, जो अब भी दूर से ही उसे घूरकर देख रहा था। वह मन-ही-मन सोचने लगी-‘कलुआ मुझसे अधिक कागज बीनता है, फिर उसने उस प्लास्टिक को खुद क्यों नहीं उठाया और मुझे बतला दिया ?’ आज यह पहला अवसर नहीं, उसने कलुआ का यह व्यवहार पहले भी देखा है, जब दोनों में संघर्ष हुआ है और एक अखबार के टुकड़े के पीछे या प्लास्टिक की पतंग को लेकर। आज उसके मन में कुछ अधिक ही विद्रोह है। ‘वह क्या मुझपर दया दिखाता है?

 मैं क्या उससे किसी बात में कम हूँ ? मुझे भी तो ईश्वर ने सबल हाथ पैर दिए हैं। ढाई किलो प्लास्टिक मैं रोजाना बीनती हूँ। अभी चार दिन हुए मम्मी ने मुझे चार रुपये पचास पैसे की ये कितनी अच्छी हरी-हरी चूड़ियाँ पहनाई हैं। मुझे क्या वह अपने से पोच समझता है, जो बता देता है मुझे प्लास्टिक और खुद बीनता रह जाता है अखबारी कागज, जो प्लास्टिक के सामने ऐसे लगते हैं जैसे कोयल के आगे कौआ।’ लड़की के हृदय में स्वाभिमान ने अंगड़ाई ली। अपने आप ही अपने से अनेक उलटे-सीधे प्रश्न कर डाले, जिसका जवाब कहाँ था उसके पास। जीवन की पतली सी कच्ची दीवार पर खड़ी रही थी अपने सम्मुख छोटी सी दुनिया में, जिसमें अपने थे, पराए थे, चहल-पहल थी- सब अपने-अपने में व्यस्त थे। किसी को भी उससे कोई मतलब न था, कोई लेना-देना न था। वह प्लास्टिक की ओर नहीं दौड़ी और न उसके मन ने उसे उठाना चाहा। वह आज अपने प्रश्न पहलीबार रख देना चाहती थी कलुआ के सामने, उसके नम में गुबार जो भरा हुआ था पहले से। वह बरस पड़ी—


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