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हेडमास्टर तथा अन्य कहानियाँ

ताराशंकर वन्द्योपाध्याय

प्रकाशक : पुस्तक महल प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5821
आईएसबीएन :00000

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‘वह क्षण’, ‘कला कसरत’, ‘एक विचित्र लड़की’, ‘उपन्यास का उपद्रव’, ‘हेडमास्टर’, ‘विग्रह प्रतिष्ठा’, ‘मछली का कांटा’, ‘बाउल’ और ‘पद्म बहू’।

Hedmastar Tatha Anya Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

साहित्य में लेखकों के दो वर्ग होते हैं। पहले वर्ग में ऐसे लेखक होते हैं जो आते ही सफलता के सर्वोच्च शिखर पर बैठ जाते हैं। बांग्ला साहित्य में विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय ऐसे उदाहरण हैं। उनका पहला उपन्यास ‘पथेर पांचाली’ ही उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास साबित हुआ। बाद में उन्होंने ढेरों उच्चकोटि की कहानियां, उपन्यास आदि लिखे लेकिन शायद अपनी बाद की लिखी हुई किसी भी कृति को अपनी सर्वप्रथम कृति से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं बना पाये।

दूसरे वर्ग के लेखकों की शुरूआती रचनाएं सामान्य ही होती हैं। उनकी प्रतिभा को लोगों की नजरों में आने के लिए दीर्घकालीन कठोर-साधाना की जरूरत पड़ती है। ताराशंकर इसी वर्ग के लेखक थे। उनकी पहली दौर की लिखी काफी रचनाएँ औसत दर्जे की हैं। लंबे समय तक काफी कुछ देखने-परखने के बाद, व्यर्थता की काफी ग्लानि और निराशा पार करके उन्होंने अपने लेखन की धाक जमायी थी। अपराजित आत्मविश्वास और ईश्वर-भक्ति ने उन्हें सफलता के शिखर पर पहुंचाया।

अपनी अभिव्यक्ति के उचित माध्यम की तलाश में भी उन्हें कम भटकना नहीं पड़ा। उन्होंने पहले कविताएं लिखीं, फिर नाटक और सबसे अंत में कथा-साहित्य लिखा। कहानियां और उपन्यास ही ताराशंकर को अपनी बात कहने के उपयुक्त माध्यम नजर आये।

ताराशंकर का साहित्यिक जीवन आठ वर्ष की उम्र में कविताओं से प्रारम्भ हुआ। तदुपरांत उन्होंने नाट्य-लेखन में रुचि दिखायी। उनकी नियमित साहित्य-साधना 28 वर्ष की उम्र में लामपुर से प्रकाशित ‘पूर्णिमा’ मासिक पत्रिका से शुरू हुई। कविता, कहानी, आलोचना, सम्पादकीय के रूप में इस पत्रिका की ज्यादातर सामग्री उन्ही की लिखी हुई होती थी। पूर्णिमा में ही ताराशंकर की पहली उल्लेखनीय कहानी ‘प्रवाह का तिनका’ प्रकाशित हुई थी।

कुछ दिन बाद ही ताराशंकर ने ‘रसकली’ नामक कहानी लिखी और ‘प्रवासी’ पत्रिका को प्रकाशनार्थ भेज दी। कई महीनों तक बार-बार पत्र लिखने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। आखिरकार ताराशंकर खुद ‘प्रवासी’ ऑफिस में उपस्थित हुए। जैसा अमूमन होता है, नये लेखक की रचना बिना पढ़े ही सम्पादकीय विभाग ने वापस लौटा दी। उस अस्वीकृत रचना को लेकर ताराशंकर पैदल ही मध्य कलकत्ता से दक्षिण कलकत्ता अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे। उस दिन उनकी आंखें कई बार भर आई थीं। एक बार उन्होंने सोचा कि साहित्य साधना की इच्छा को तिलांजलि देकर गंगा नहाकर घर लौट जायें एवं शांत गृहस्थ की तरह अपना जीवन खेती-खलिहानी करते हुए गुजार दें।

साहित्य क्षेत्र में अपने पराजय की बात सोचकर उनका चित्त व्यथित होने लगता था। सौभाग्य से एक दिन डाकघर में उन्हें एक पत्रिका नजर आ गई। उस पत्रिका का नाम था ‘कल्लोल’। ताराशंकर ने कल्लोल का पता नोट कर लिया और उसी पते पर उन्होंने ‘रसकली’ कहानी भेज दी। जल्दी ही उन्हें कहानी के स्वीकृत होने की सूचना मिली। उत्साहित करने वाले पवित्र गंगोपाध्याय ने लिखा, ‘आप इतने दिनों तक मौन क्यों बैठे हुए थे ?’ महानगरी के साहित्य क्षेत्र में ताराशंकर की वह पहली स्वीकृति थी।

विचारों का साम्य न होने पर भी नये लेखकों के लिए ‘कल्लोल’ का द्वार हमेशा खुला रहता था। आगे के दो वर्षो तक ‘कल्लोल’ में ताराशंकर की कई कहानियां प्रकाशित हुईं। फिर ‘कालि-कलम’, ‘उपासना’ और ‘उत्तरा’ पत्रिकाओं में भी उन्होंने लिखा। ‘श्मशान के पथ पर’ नामक कहानी ‘उपासना’ पत्रिका में छपी थी।

ताराशंकर ने लिखा है कि उनके साहित्य-जीवन का पहला अध्याय अवहेलना और अवज्ञा का काल था। उनकी पुत्री का देहांत आठ वर्ष की उम्र में ही हो गया। कन्या वियोग से शोकाकुल कथाशिल्पी ने इस बार ‘संध्यामणि’ कहानी लिखी। सजनीकांत द्वारा संपादित ‘बंगश्री’ पत्रिका में पहले अंक में यह कहानी ‘श्मशान घाट’ नाम से छपी थी। ‘संध्यामणि’ के पहले ताराशंकर अठारह-उन्नीस कहानियां लिख चुके थे, जिनमें ‘रसकली’, ‘राईकमल’ और ‘मालाचंदन’ जैसी कहानियां भी थीं। लेकिन ‘संध्यामणि’ ऐसी पहली कहानी थी जिसे बांग्ला साहित्य में सिर्फ ताराशंकर ही लिख सकते थे।
‘संध्यामणि’ छपने के बाद अंतरंग साहित्यकारों के बीच इसकी व्यापक चर्चा हुई। इसके बाद ‘भारतवर्ष’ में छपी ‘डाईनीर बांशी’ (डाईन की बांसुरी) और ‘बंगश्री’ में प्रकाशित दूसरी कहानी ‘मेला’ ने ताराशंकर को कथाकारों की पहली पंक्ति में ला बिठाया।

ताराशंकर ने अपनी साहित्य जीवन की बातों में जिस अपमान की घटना का जिक्र किया है। वह ‘देश’ पत्रिका के दफ्तर में घटा था। यह सन् 1934 की बात है। उसके पहले ‘देश’ के शारदीय विशेषांक में उनकी बहुचर्चित कहानी ‘नारी और नागिनी’ छप चुकी थी। ‘देश’ के प्रभात गांगुली ने ‘नारी और नागिनी’ की बेहद प्रशंसा की थी। गांगुली महाशय मूड़ी आदमी थी। मिजाज ठीक रहता तो बेहद दिलदरिया थे और अगर मिजाज बिगड़ता तो चीखते-चिल्लाते हुए इस तरह इनकार करते थे कि लेखक को बहुत अपमानजनक लगता। ताराशंकर की ‘मुसाफिरखाना’ जैसी कहानी उन्हें पसन्द आयी। वे उसे लौटाते हुए बोले, ‘यह (अर्थात् ‘देश’ पत्रिका) कोई डस्टबिन नहीं है।’

ताराशंकर की स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बन गयी थी कि कोई उन्हें खारिज नहीं कर सकता था। यदा-कदा आलोचना करते हुए कोई कहता, ‘कहानियां अच्छी लिखते हैं, शैली में अच्छी होती है। लेकिन कहानियां, बड़ी स्थूल होती हैं। उनमें सूक्ष्मता का अभाव है।’ जिज्ञासु ताराशंकर ने इस पर कविगुरु रवीन्द्रनाथ की राय जाननी चाही। उत्तर में रवीन्द्रनाथ ने लिखा, ‘तुम्हारी रचनाओं को स्थूल दृष्टि कहकर जिसने बदनाम किया, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि तुम्हारी रचनाओं में बड़ा सूक्ष्म स्पर्श होता है और तुम्हारी कलम से वास्तविकता सच बनकर नजर आती है, जिसमें यथार्थ को कोई नुकसान नहीं पहुंचता। कहानी लिखते वक्त कहानी न लिखने को ही जो लोग बहादुरी समझते हैं तुम ऐसे लोगों के दल में शामिल नहीं हो, यह देखकर मैं बहुत खुश हूं। रचना में यथार्थ की रक्षा करना ही सबसे कठिन होता है।’

यथार्थ लेखन के इस दुरुह मार्ग पर ताराशंकर की जययात्रा बिना किसी रोक-टोक के निरंतर आगे बढ़ती ही गयी।
ताराशंकर के रचनाकार के केन्द्रीय वृत्तभूमि में देहात का ब्राह्मण समाज था। लेकिन उनके जीवन बोध ने धीरे-धीरे फैलते हुए सामान्यजन को अपने दायरे में लिया। रवीन्द्रनाथ ने सबसे पहले अपनी कहानियों में गांव-देहात के क्षुद्र मनुष्य को स्थान दिया था। लघु प्राण, मामूली कथा, छोटी-छोटी दु:ख की बातें, जो बेहद सहज और सरल हैं। जिनका जीवन है, उनको लेकर कवि गुरु ने अपनी छोटी कहानियों की मंजूषा सजाकर बांग्ला साहित्य में कहानियों की प्राण-प्रतिष्ठा की। शरत् साहित्य में मुख्यत: देहातों के मध्यवित्त समाज को ही प्राथमिकता दी गयी है।

ताराशंकर ने समाज के दीन-हीन अछूट स्तर के लोगों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के लोगों को अपनाकर अपने रचनालोक को पूर्णता प्रदान की। इस दृष्टि से ताराशंकर सम्पूर्ण समाज के जीवन-बोध के सर्वप्रथम कलाकार हैं। उनकी कहानियों में अपने समय का परिवेश उजागर हुआ है। माटी से बने मानव जीवन को ही उन्होंने आविष्कृत किया। इसी दृष्टि से उनके साहित्य को आंचलिक विशेषताएं नजर आयेंगी ही। इसी दृष्टि से यथार्थ जीवन पर जो भी लिखा जाए वहीं आंचलिक है। लेकिन अपने समय और परिवेश की विशेषताओं को ग्रहण करके जो साहित्य चिरंतन मानव-सत्य को उजागर करता है उस साहित्य को आंचलिक कहकर उसे संकीर्ण बनाना उचित नहीं होगा। ताराशंकर के साहित्य का व्यक्ति अपनी आदिम प्रवृत्ति, युगों से संचित संस्कार और वंशानुगत आजीविका ढोने वाला परिचित इन्सान है। इसीलिए ताराशंकर बंगला के सार्वभौमिक जीवन-शिल्पी हैं।

ताराशंकर की कहानियों की मुख्य विशेषता है समाज के अज्ञात कुलशील क्षुद्र समझे जानेवाले लोगों के प्रति उनकी गहरी संवेदना और अंतरंगता। भारतीय मानव समाज के आदि स्तर के जो निर्माता थे, परवर्ती काल के आर्य सभ्यता के प्रसार और प्रतिष्ठा के फलस्वरूप वे लोग समाज की सीमारेखा के बाहर अवज्ञात और अवहेलित होकर पड़ रहे; शिक्षित और सभ्यताभिमानी तथा अपने को ऊँचा समझने वाले लोगों ने जिसकी ओर मुंह उठाकर नहीं देखा, ताराशंकर उन्हीं पतितों-अवहेलितों के कथाकार थे।
‘हेडमास्टर तथा अन्य कहानियां’ कथा-संग्रह में ताराशंकर की चुनिंदा कहानियों को सम्मिलिति किया गया है। ‘वह क्षण’, ‘कला कसरत’, ‘एक विचित्र लड़की’, ‘उपन्यास का उपद्रव’, ‘हेडमास्टर’, ‘विग्रह प्रतिष्ठा’, ‘मछली का कांटा’, ‘बाउल’ और ‘पद्म बहू’ ये सभी कहानियां उनके बेहतर कथा-शिल्पी का नमूना हैं और इन कहानियों में मानवीय जीवन के विविध रूप सामने आते हैं।

वंश परम्परा और अपनी देश काल की परिस्थितियों की दृष्टि से भी ताराशंकर सार्वभौम मानव मुक्ति के महान शिल्पी हैं। मनुष्य की जैविकता उसे पशु स्तर तक ले जाती है। युग-युग से संचित अंध-संस्कार एवं असंयत प्रवृत्ति के वशीभूत होकर वह अमानुष बन जाता है। ताराशंकर ने रचना की सर्वोपरी दृष्टि और लेखक की संवेदनशील सहभागिता के जरिये लोगों के प्रतिदिन के स्खलन-पतन तथा उनके दोषों को महसूस किया था। मानवतावाद के ज्योतिर्मय प्रकाश में मनुष्य की अमानुषिकता का असली चेहरा दिखना ही उनके रचनाकार का दायित्व रहा है।


-अनुवादक


वह क्षण



विमल को काली मंदिर से बाहर निकलते देखकर अमरेन्द्र विस्मय से स्तंभित हो गया। विमल जैसा नास्तिक, कालापहाड़ विमल काली मंदिर में ! बात क्या है ?
शराब की दुकान या वेश्यालय से किसी ख्यातिसंपत्र भले व्यक्ति को बाहर निकलते देखकर कोई परिचित व्यक्ति झट से उसका हाथ पकड़कर पूछता है, अरे श्रीमान जी ! यह क्या ? यह कहां ? इसके साथ ही कई बार अपनी भौंहें नचाकर जिस तरह व्यंग्य और कौतूहल के बाण सव्यसाची की तरह उस पर बरसाने लगता है, ठीक उसी तरह और वैसी ही भंगिमा में अमर के कीलावाड़ी के बगल वाली सड़क के मोड़ पर उसका हाथ पकड़कर पूछा, ‘अरे तू ? कहां गया था ?’
उसकी ओर देखकर विमल ने कहा, ‘अमर !’

‘लगता है पहचानने में तकलीफ हो रही है।’ अमर हंसा। विमल की दृष्टि वाकई कुछ अस्वाभाविक थी। कहा जाए आत्मलीन अवस्था में उसकी दृष्टि वाकई कुछ अस्वाभाविक थी। कहाँ जाए आत्मलीन अवस्था में उसकी दृष्टि अंतर्जगत से अलग होकर आकाश में उड़ने वाले गुब्बारे की तरह बेमतलब इधर-उधर डोल रही थी।
‘नहीं, अब पहचान लिया। हालांकि कुछ देर से पहचाना।’
‘लेकिन तुम यहां से निकल रहे हो ? काली मंदिर से ?’
‘हां।’

‘वही तो पूछ रहा हूं।’ दूसरे ही क्षण वह हंसते हुए बोला, ‘समझ गया। किसी के पीछे लगे हो शायद ! मतलब राह में नजर आ गयी किसी सुंदरी के। मंदिरों में हमेशा से ही यह खेल चलता आया है। ‘वही पुराना खेल।’ भक्ति की प्रवाहधारा के समानांतर एक धारा अमृत के साथ विष की तरह बहती रहती है। या कह सकते हो देवता के पुष्पगंध और चीनी के स्वाद के नेपथ्य में नाना रोगों के जीवाणुओं की तरह। विमल का ही कहना था, देवता के चरणामृत से किसी का कोई कल्याण हुआ भी है, पता नहीं, लेकिन लाखों लोगों का अकल्याण जरूर होता रहा है। हमेशा से ही लोग उसे पीकर रोग की चपेट में आ रहे हैं। किसी को टाइफाइड तो किसी को वैसिलरी डिसेन्ट्री; इसमें मुझे संदेह नहीं। वेश्याएं भी यहां देवदर्शनर्थितियों की भीड़ में शामिल होकर चली आती हैं। अपनी नजरों के तीर से जिसे आकर्षित कर सकती हैं, उसे अपने साथ लेकर चली जाती है। वह उनके पीछे-पीछे चलने लगता है।
विमल की समझ में यह बात नहीं आयी, ऐसा नहीं, लेकिन समझकर भी उसने गुस्सा नहीं किया। विमल के लिए दोनों की बातें अपवादजनक थीं। विमल न किसी मंदिर में जाता था, न वेश्याओं के मुहल्ले में। वह कहता, न मुझे स्वर्ग में जाने की इच्छा है, न नरक में। मैं इस मृत्यु लोक का वासी हूं- मरना नहीं चाहता मैं सुंदर भुवन में !

अमर देवताओं के इलाके में तो नहीं जाता था पर वेश्याओं के इलाके में जाने में उसे कोई आपत्ति नहीं थी। एम.ए. की पढ़ाई के दौरान ही साहित्यकार के रूप में अमर की ख्याति हो गयी थी और साहित्य के उपादान संग्रह के बहाने अच्छी-बुरी जगहों में जाने का उसे नशा चढ़ गया था। किसी से नजर मिलाने पर वह उसकी बगल से निकलकर गांजा मिला सिगरेट का कश लगाकर अपनी सर्द मानसिकता से मुक्त हो लेता था। मगर अब वह मैच्योर हो गया था-लेखक की दृष्टि से भी और उस दृष्टि से भी। विमल के साथ अमर का यही फर्क था। विमल को नशा पसंद नहीं था, ऐसी बात नहीं। बीच-बीच में वह शराब पीता था। होटल में बैठकर पीता। वह भी तय मात्रा में। शराब के अलावा वह और कोई नशा नहीं करता था। उसे ज्यादा नशा करने की आदत नहीं थी। मात्रा ज्यादा होते ही वह अस्वस्थ हो जाता था।
अपनी बात का जवाब न पाकर अमर ने कहा, ‘क्या हुआ ? कोई बात नहीं कर रहे हों ?’
‘क्या बात करूं ?’



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