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सती तथा अन्य कहानियाँ

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारत ज्ञान विज्ञान प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5804
आईएसबीएन :00000

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पतिता, कुलटा, पीड़ित दहबी-कुचली और प्रताड़ित नारी की पीड़ा को अपनी रचनाओं में स्वर देने वाले साहित्यकार शरत्चन्द्र की कृति।

Sati Tayha Anya Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यदि एक ऐसे साहित्यकार का नाम लेने को कहा जाए जिसे अखिल भारतीय स्तर पर कथाकार के रूप में सबसे अधिक ख्याति व सम्मान मिला हो-तो एक नाम जो ज़बान पर सहज ही आ जाता है, वह है शरतचन्द्र !

शरतचन्द्र यथार्थवाद को लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे। बंगला साहित्य में यह लगभग नई चीज थी। उन्होंने अपने लोकप्रिय उपन्यासों एवं कहानियों में सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया, पिटी-पिटाई लीक से हटकर सोचने को बाध्य किया।
शरत् की प्रतिभा उपन्यासों के साथ-साथ उनकी कहानियों में भी देखने योग्य है। उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों में भी मध्यवर्गीय समाज का यथार्थ चित्र अंकित है। शरत् बाबू प्रेम कुशल चितेरे थे। उनकी कहानियों में प्रेम एवं स्त्री-पुरुष संबंधों का सशक्त चित्रण हुआ है। इनकी कुछेक कहानियों तो कला की दृष्टि से बहुत ही मार्मिक है।

ये कहानियों शरत् के हृदय की सम्पूर्ण भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। अपने बालपन के संस्मरण वह अपने संपर्क में आये मित्र व अन्य जन के जीवन से उन्होंने कहानियां उठाई हैं। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ये कहानियां हमारे जीवन का एक हिस्सा है।

दो शब्द

महात्मा गांधी ने कहा था—‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ विश्वविख्यात बांगला कथाशिल्पी शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय ने गांधी जी के उपरोक्त कथन को अपने साहित्य में अक्षरशः उतारा था। उन्होंने पतिता, कुलटा, पीड़ित दहबी-कुचली और प्रताड़ित नारी की पीड़ा को अपनी रचनाओं में स्वर दिया।
नारियों के प्रति शरतचन्द्र के मन में बहुत सम्मान था वे नारी हृदय के सच्चे पारखी थे। उनकी कहानियों में स्त्री के रहस्यमय चरित्र, उसकी कोमल भावनाओं दमित इच्छाओं, अपूर्ण आशाओं, अतृप्त आकांक्षाओं, उसके छोटे-छोटे सपनों, छोटी-बड़ी मन की उलझनों और उसकी महती महत्त्वकांक्षाओं का जैसा सूक्ष्म, सच्चा और मनोवैज्ञानिक चित्रण-विश्लेषण हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

शरतचन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य नारी के उत्थान से पतन और पतन से उत्थान की करुण कथाओं से भरा पड़ा है। शरतचन्द्र अपनी कहानियों में केवल पीडित-प्रताड़ित नारी की पतनगाथा नहीं गाते, सिर्फ उसके पतिता और कुलटा हो जाने की कथा नहीं कहते, उसके स्नेह, त्याग, बलिदान ममता और प्रेम की पावन-कथा भी सुनाते हैं उनकी कहानियों में नारी के नीचतम और महानतम दोनों रूपों के एक साथ दर्शन होते हैं। नारी के अधोपतन की कथा कहते-कहते जब शरतचन्द्र हठात् उसी नारी के उदात्त और उज्ज्वल चरित्र को उद्घाटित करते हैं, तो पाठक सन्न रह जाता है। उसने मन में यह प्रश्न कहीं गहरे घर कर जाता है कि एक ही स्त्री के दो रूप कैसे हो सकते हैं और वह यह नहीं समझ पाता कि आखिर वह नारी के किस रूप को स्वीकार करे। नारी ह्रदय की गांठों और गुत्थियों को जिस कुशलता से शरतचन्द्र अपनी कहानियों में खोलते हैं, नारी का जो बहुरूप उनकी रचनाओं में सामने आता है, वैसी झलक विश्व-साहित्य में कहीं नहीं मिलता।

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की सम्पूर्ण कहानियां दो मोटी जिल्दों में उपलब्ध हैं। शरतचन्द्र जैसे अमर कथाकार की सम्पूर्ण कहानियों को पढ़ने का सौभाग्य हर कोई प्राप्त करना चाहता है। पर आर्थिक दृष्टि से हर एक पाठक के लिए यह संभव नहीं होता कि वह एक मुश्त मोटी रकम खर्च करके शरतचन्द्र की सम्पूर्ण कहानियां खरीदकर पढ़ सके। यदि किसी लेखक की सम्पूर्ण कहानियों में से कुछ चुनी हुई कहानियां अपेक्षाकृत पतली और अल्पमोली जिल्द में प्रकाशित की जाती हैं, तो ऐसे संग्रह को खरीदकर पढ़ पाना पाठकों के लिए सहज हो जाता है। इसी दृष्टि से शरतचन्द्र की चुनी हुई कुछ बेहतरीन कहानियों का यह संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है।

इस संग्रह में शरतचन्द्र की कुल पांच कहानियां संकलित की गई हैं। ‘दर्प-चूर्ण’, ‘अभागिनी का स्वर्ग’, ‘हरिलक्ष्मी’, ‘अनुपमा का प्रेम’, और ‘सती’ सभी कहानियां एक से बढ़कर एक हैं और लेखक के अद्भुत कथाशिल्प का नमूना हैं। एक जमाना था जब ये कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी थीं, तो पूरे भारत में तहलका मच गया था। पत्र-पत्रिकाओं में शरतचन्द्र की कोई कहानी छपते ही उनकी प्रचार संख्या बढ़ जाती है। आज भी इन कहानियों की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। शरत्चन्द्र की कालजयी कहानियां शताब्दियों तक आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।

-प्रकाशक

दर्प-चूर्ण


सन्ध्या के बाद इन्दुमती ने थोड़ा-सा साज-श्रृंगार करके पति के कमरे में प्रवेश करते हुए कहा, ‘‘क्या हो रहा है ?
नरेन्द्र एक मासिक पत्रिका पढ़ रहा था। उसने मुंह उठाकर बिना कुछ बोले-चाले थोडी देर तक स्त्री के चेहरे की तरफ देखते रहकर पत्रिका उसके हाथ में थमा दी।

इन्दु ने खुले हुए पन्ने पर निगाह दौड़ाकर भौंह सिकोड़ते हुए आश्चर्य प्रकट किया, ‘‘अरे, यह तो तुम्हारी ही कविता दिखती है ! अच्छा ही है, बैठे से बेगार भली ! देखूँ यह कौन-सी पत्रिका है ?
‘‘ ‘सारस्वती’ ? क्यों विशाल भारत, ने नहीं छापी ?’’
नरेन्द्र की सान्त दृष्टि व्यथा से म्लान हो गई।
इन्दु ने फिर प्रश्न किया, ‘‘विशाल भारत’ ने वापस कर दी ?’’
‘‘वहां भेजी ही नहीं।’’
‘‘एक दफे भेजकर देख क्यों नहीं लिया ? ‘विशाल भारत’ ‘सरस्वती’ नहीं है, वह अपनी जिम्मेदारी समझता है। इसीलिए मैं जिस-तिस पत्रिका को कभी नहीं पढ़ती।’’

जरा हंसकर इन्दु ने फिर कहा, ‘‘अच्छा, अपनी ही लिखी हुई चीज आप ही खूब जी लगाकर पढ़ा करते हो ! अच्छी बात है आज शनिवार है, मैं उस घर की ननदजी को लेकर सिनेमा देखने जा रही हूं। कमला सो गई है। काव्य से फुर्सत निकालकर जरा उस पर नजर रखना। मैं जाती हूं।’’
नरेन्द्र ने पत्रिका बन्द कर उसे टेबिल के एक किनारे रखते हुए कहा, ‘‘जाओ।’’
इन्दु जा रही थी, सहसा एक गहरी निःश्वास उसके कानों में पड़ते ही वह लौटकर बोल उठी, ‘‘अच्छा, मैं जब भी कुछ करना चाहती हूं, तुम इस तरह दीर्घ निःस्वास क्यों डाला करते हो, बताओ ? इतनी ही अगर तुम्हें दुःख की जलन है साफ-साफ मुंह खोलकर कहते क्यों नहीं जिससे मैं पिताजी को चिट्ठी लिखकर कोई उपाय करवा लूं ?’’
नरेन्द्र क्षणभर मुंह उठाकर इंदु की तरफ देखता रहा। मालूम हुआ जैसे वह कुछ कहेगा। किन्तु वह कुछ भी नहीं बोला। चुपचाप सिर नीचे करके रह गया।

नरेन्द्र की ममेरी बहन विमला इन्दु की सखी है। उस सड़क के मोड़ पर ही उसका मकान है। इन्दु ने गाड़ी खड़ी कराकर भीतर पहुंचने के साथ ही विस्मित और नाराज होकर कहा, ‘‘यह क्या बीबीजी, अभी कपड़े तक नहीं पहने ! तुम्हें खबर नहीं मिली थी क्या ?’’
विमला ने सलज्ज मुस्कराहट के साथ कहा, ‘‘मिल तो गई थी, पर जरा देरी होगी, भौजी। वे अभी-अभी जरा घूमने चले गए हैं। उनके बिना लौटे तो जा नहीं सकूंगी।’’
इन्दु मन ही मन बहुत नाराज हुई। जरा चुटकी लेती हुई बोली, ‘‘प्रभु की आज्ञा नहीं मिली मालूम होती है ?’’
विमला का सुन्दर मुखड़ा स्निग्ध मधुर मुस्कराहट से भर गया। उसने इस चुटकी का मानो अच्छी तरह उपभोग किया। बोली, ‘‘नहीं, दासी ने अभी अर्जी ही पेश नहीं की, पर भरोसा है कि पेश होने पर नामंजूर होगी।’’
इन्दु और भी नाराज हुई। प्रश्न किया, ‘‘तो पेश क्यों नहीं हुई ?’’

‘‘तब हिम्मत नहीं पड़ी, भौजी, ऑफिस से आते ही बोले, ‘सिर में दर्द है’, इसलिए सेवा पानी-आनी पीकर जरा घूम-फिर आएं, तबीयत जरा खुश हो तब कहूंगी। अभी तो देर है। बैठो न भौजी, वे आते ही होंगे।’’
‘‘मालूम नहीं, कैसे तुम्हें हंसी आ रही है, बीबीजी, मैं तो ऐसा होने पर शरम के मारे मर जाती। अच्छा, महरीया-नौकर से कहकर नहीं चल सकतीं ?’’
विमला भय के साथ बोली, ‘‘बाप रे ! तब तो घर से ही निकाल बाहर कर देंगे, इस जन्म में फिर मुंह भी नहीं देखेंगे।’’
इन्दु ने क्रोध और आश्चर्य से आवाक् होकर कहा, ‘‘निकाल देंगे ! किस कानून से ? किस अधिकार से ? कहो भला !’’
विमला ने निहात स्वाभाविक भाव से जवाब दिया, ‘‘इसमें बाधा ही क्या है, भौजी ? वे मालिक हैं, मैं दासी हूं। यदि वे निकाल दें तो कौन उन्हें रोकेगा, बताओ ?’’

‘‘रोकेगा राजा। रोकेगा कानून। यह सब चूल्हे में जाए, बीबीजी, मगर तुम्हें अपने ही मुंह से अपने को दासी कबूल करने में शर्म नहीं मालूम होती। पति क्या कोई मुगल बादशाह है ? और स्त्री क्या उसकी खरीदी हुई लौंडी है जो अपने आपको इतनी हीन, इतनी तुच्छ समझकर गौरव का अनुभव कर रही हो ?’’
इन्दु के इस गुस्से को देखकर विमला को बड़ा मजा आया, बोली, ‘‘तुम्हारी ननदजी तो एक मूरख औरत ठहरी, भौजी इससे तो वह अपने पति की दासी कहने में अपना गौरव समझती है। पर मैं तुम्हीं से पूंछती हूं भौजी कि तुम जो इतनी बातें कर रही हो, सो तुम ही क्या घर से चली आई हो भईया से बिना हुकुम लिए ?’’

हुकुम ? क्यों ? किसलिए ? वे खुद कहीं जाते हैं, तब क्या हमारे हुकुम की अपेक्षा करते हैं ? मैं जा रही हूं, सिर्फ इतना ही उन्हें जता आई हूं।’’ पल भर चुप रहकर अकस्मात उद्दीप्त होकर फिर बोली, ‘‘पर यह मानती हूं कि मेरे जैसे गुणवान पति बहुत कम स्त्रियों को मिलते हैं। मेरी किसी भी इच्छा में वे बाधा नहीं डालते। लेकिन अगर ऐसा न भी होता, वे अगर बिलकुल अविवेकी होते तो भी तुमसे कहती हूं बीबीजी, मैं अपने सम्मान की रक्षा सोलहों आने कर सकती। तुम्हारी तरह इस बात को मैं कभी नहीं भूल सकती कि मैं उनकी संगिनी हूं, सबधर्मिणी हूं—खरीदी हुई दासी नहीं। जानती हो, बीबीजी, इसी तरह हमारे देश की तमाम औरतों ने मरदों के पैर तले सिर मुड़ाकर अपने को इतना तुच्छ बना लिया है। अब वे उनके हाथों का खिलौना बन गई हैं। अपने सम्मान की आप रक्षा न करने से अपने आप सम्मान कौन देता है, बीबीजी ? कोई नहीं।

मेरे तो ऐसे अच्छे पति हैं, तो भी मैं उन्हें इतना सोचने का मौका नहीं देती कि वे प्रभु हैं और मैं स्त्री होने से उनकी बांदी हूं। नारी देह में भी भगवान हैं, इस बात को मैं खुद भी नहीं भूलती, उन्हें भी नहीं भूलने देती।’’
विमला ने यह सुनकर चुपचाप एक गहरी सांस ले ली; परन्तु उसमें लज्जा या अनुशोचना कुछ भी प्रकट नहीं हुई बोली, ‘‘मैं तो जानती नहीं, भौजी कि आत्सम्मान वसूल करना क्या होता है। मैं तो सिर्फ उनके पैरों पर आत्म-विसर्जन कर देना ही समझती हूं। लो, वे आ भी गए। जरा बैठो, भौजी मैं जल्दी से हुकुम लेकर आती हूं।’’
इन्दु ने उसका मुस्कराना देख लिया। उसका सर्वांग मारे क्रोध के जलने लगा।

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