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उपन्यास >> समय से आगे

समय से आगे

सीताराम झा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5803
आईएसबीएन :81-267-0932-4

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रोचक और प्रभावी उपन्यास। उपन्यास का पहला ही वाक्य अद्भुत प्रकाश फैला देता है।

Samay Se Aage

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जीवन को सुव्यवस्थित, आकर्षक और रूचिकर बनाए रखने के लिए प्रयासपूर्वक सम्यक् परिवर्तन भी अवश्य करना पड़ता है। इसका अधिक प्रयोजन तब पड़ता है, जब राजनीति दिशाहीन बन जाती है, स्वार्थ और सत्ता के लिए लोग गलत साधनों को अपनाने लगते हैं। वैसी स्थिति में शान्ति-सुव्यवस्था तो रह ही नहीं जाती, उग्रवाद, आतंकवाद-जैसी अमानवीय प्रवृत्तियाँ भी नीति-च्युत राजनीति की कोख से ही जन्म लेती हैं। जब आयोग्य और अपराधी राजनीति में आ जाएँगे, तब कार्य संस्कृति निश्चित रूप से समाप्त हो जाएगी। भोगवादी कुप्रवृत्ति बढ़ेगी, सुविधा भोगियों की संख्या में वृद्धि होगी, मंत्रियों की भरमार हो जाएगी, दल-परिवर्तन महामारियों की तरह अपना प्रकोप दिखाएगा, समाज और देश में वसन्त आने के बदले सदा पतझड़ ही रहा करेगा।

डॉ. सीताराम झा "समय के आगे" उपन्यास जितना ही रोचक है, उतना ही प्रेरक और प्रभावक भी। इसमें विशाल एवं विस्तृत सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक-सासंकृतिक पट-भूमि पर समग्र मानव जीवन का अभूतपूर्व चित्रण किया गया है। वस्तुतः, जीवन के सभी पक्ष अपनी परिपूर्णता में व्यंजित हैं। मानव प्रेम एवं प्रकृति-प्रेम में समवाय सम्बन्ध दिखाते हुए प्रेम को नया विस्तार प्रदान किया गया है, जो जीवन में आशा का संचार करता है, विकास की नई दिशाओं के लिए नई दृष्टि प्रदान करता है- शोषण, उत्पीड़न, से युक्त होने तथा समस्त प्राणियों को निर्भय रहने का अमर संदेश देता है।

इस उपन्यास के कुछ पात्र-विभाकर, रंचना, नन्दिता, दिनेश, चलित्तर, सुराजीदास, अनुपम, आदि ऐसे हैं, जो धैर्य, साहस आत्मबल, उत्साह, दूरदृष्टि, कर्मठता, दक्षता, ईमानदारी आदि मानवीय गुणों का उत्कृष्ट परिचय देकर जीवन को सफल-सार्थक बनाते हैं। इसके विपरीत, वल्लरी, सौदामिनी, पुरन्दर जैसे पात्र वर्तमान जीवन के संघर्षपूर्ण दौर में आगे बढ़ने के लिए छटपटाते तो जरूर उन्हें न तो आधार भूमि की परख है और न ही मंजिल का पता। इसी से आगे बढ़ने की अमर्यादित इच्छा उनके वर्तमान को तो विनिष्ट कर देती है, गौरवपूर्ण अतीत से भी प्रेरणा लेने योग्य नहीं रहने देती। ऐसी स्थिति में प्रोज्जवल भविष्य के दर्शन का सुयोग कैसे मिल सकता है ?

उपन्यास का पहला ही वाक्य अद्भुत प्रकाश फैला देता है अतीत से भविष्य तक ‘व्यक्ति बहुत कुछ बन जाने की भाग-दौड़ में मनुष्य बनना ही भूल जाता है।’

डॉ. श्याम के इस उपन्यास में मानवीय संवेदना की अप्रतिम अभिव्यंजना है- निश्चल संवेदना की वह मार्मिक व्यंजना, जो मनुष्यता की अनिवार्य शर्त है, जिसके बिना जीवन नीरस और निरर्थक बन जाता है। सम्पूर्ण उपन्यास पढ़ जाने पर किसी को भी यह कहने में संकोच का अनुभव नहीं होगा कि ‘समय से आगे’ उपन्यास लेखक के क्षेत्र में नया प्रतिमान है।

प्रस्तावना

जीवन-सम्बन्धी जिज्ञासा कभी समाप्त नहीं होती, वह निरंतर चलती रहती है। इसलिए, ‘जिजीविषा’ के समय के आगे’ का आना अनिवार्य हो गया। वस्तुतः लेखन तभी लिखे जब वह लिखे बिना रह नहीं सके। अनुभूति की तीव्रता अभिव्यक्त के लिए अत्यन्त आतुर होकर ही साहित्य-सर्जना को सफल, सार्थक और सारस्वत बना पाती है। यहाँ निवेदन यहाँ निवेदन यह भी कर दूँ कि इस उपन्यास में व्यंजित घटनओं की तुलना व्यक्ति विशेष के जीवन की घटनाओं से न की जाए, क्योंकि ये घटनाएं औपन्यासिक हैं। वैश्विक परिदृश्य को ध्यान में रखकर लिखा गया है। पीछे कोई पछताएं नहीं कि मुझे भी ‘समय के आगे’ बढ़ने का असवर मिल गया रहता, तो आज जीवन का रूप भी कुछ और ही होता।


सीताराम झा ‘श्याम’


समय से आगे
एक



‘‘व्यक्ति बहुत-कुछ बन जाने की भागदौड़ में मनुष्य बनाना ही भूल जाता है।’’-विभाकर की मुस्कान भरी वाणी सुनकर बोलती बन्द हो गयी वल्लरी की। उसके अधरों की कृत्रिम लालिमा पल-भर में ही आकर्षणहीन लगने लगी।
देखते-ही-देखते सौदामिनीजी के चेहरे की चमक गायब हो गई। अचानक उनकी आँखों की ज्योति कम हो गई जैसे। अनुभव ऐसा किया, उन्होंने, जैसे बहुत पीछे की ओर ढकेल दिया हो किसी ने।

सुरेश भी झेंप-सा गया था सत्य के तेज को बर्दाश्त नहीं करने की शक्ति का अनुमान लगाकर। आत्मिक प्रकाश के सामने आडम्बर कैसे टिक सकता था भला ?

असल में देश-विदेश घूम लेने के बाद भी उन तीनों का विभाकर-जैसे प्रभावक व्यक्तित्व से कभी साक्षात्कार नहीं हुआ था। परिचय के समय भी नमस्कार का उत्तर नमस्कार में देकर ही चुप रह गया था वह। वल्लरी के दोबारा हाथ बढ़ाने पर भी विभाकर ने हाथ नहीं मिलाया उससे। और उसकी ओर उसने देखा तक नहीं।

सोचता रहा सुरेशः क्या कमी रह गई वल्लरी के सौन्दर्य-श्रृंगार में ? ‘सौन्दर्य किशोरी’ घोषित होने के अनन्तर विश्वसुन्दरी बनने की तैयारी में भी उसे इससे अधिक उभारा, निखारा और सजाया नहीं जा सकता ! विभाकर का वल्लरी की और आकृष्ट न होना उसके सौन्दर्य-प्रशिक्षण को भी चुनौती देनेवाला था जैसे।

सौदामिनीजी चाहकर भी आगे कुछ बोल नहीं पा रही थीं। बाईस वर्षीय विभाकर के सामने सिकुड़ती चली जा रही थीं वे, जबकि इक्कीस वर्ष की उनकी बेटी वल्लरी ही थी- विश्वसुन्दरी बनने की उत्कट इच्छा रखने वाली।

अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में ही पारिवारिक संस्कार के रूप में विभाकर ने जान लिया था कि बुराई से समझौता करना व्यक्तित्व के नष्ट होने का प्रधान कारण होता है। फिर वैसा प्रिय बोलना भी वह पसन्द नहीं करता, जिसमें समाज और संसार का अहित होता हो। सत्य-विहीन प्रिय कथन निष्प्राण होता है। और झूठ बोलना वाणी का भी अपमान ही करना है।

इसीलिए. वाकपटु विभाकर ने वल्लरी से बातें करने में विशेष रुचि नहीं दिखाई थी। वह जानता था कि बनावटी बोली की मिठास में अमृत के बदले विष-ही-विष सना रहता है। ढूँढ़ने से भी अमृत का लेश तक नहीं मिल सकता उसमें। चकमा देना संसार की सहज प्रवृति है- विशेषकर धनलोलुपों एवं रूपजीविनियों की पुरानी वृति रही है यह।
चकित रह गई थीं सौदामिनीजी विभाकर की सरलता देखकर। आकर्षण और प्रलोभन से भरा उनका तरकश खाली हो चुका था। पर, उस सुगम्भीर युवक पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ सका। इस्पात के स्तम्भ को मिट्टी के ढेलों से गिराना भले संभव हो जाए, सुदृश्य व्यक्तित्व को किसी भी उपाय से हिलाया-डुलाया तक नहीं जा सकता।

तीनों आगन्तुक परस्पर एक-दूसरे को देखने लगे थे। विभाकर को भी बात समझने में देर नहीं लगी। किसी का जी दुखाना तो उसका स्वभाव कभी रहा भी नहीं।–तब सच्ची बात बर्दाश्त करने की क्षमता कितने लोगों में होती है ? अपनी भारतीय परम्परा के अनुरूप अतिथि-सत्कार को महत्त्व देने के उद्देश्य से अपनी वाणी को पहले की अपेक्षा अधिक संयमित करते हुए विभाकर ने वल्लरी की माँ से कुछ कहना चाहा। विनम्रता व्यक्तित्व की सबसे बड़ी शोभा होती है। तभी तो महान व्यक्ति उसका कभी त्याग नहीं करते। सामान्य शिष्टाचार से कहीं अधिक शालीनता थी उसकी वाणी में ‘‘मेरी सेवा के योग्य कोई कार्य हो, तो अवश्य आज्ञा कीजिए।’’

बीच में उत्सुकता दिखाई सुरेश ने, क्योंकि सौदामिनीजी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थीं उस समय। उसे ऐसा लगा कि हम सब समय के आगे निकल चुके हैं, जबकि यह युवा अब भी पिछले जमाने को साथ लेकर चलना चाहता है। अपनी स्मरणशक्ति के ललाट पर उतारने की कोशिश करते हुए विभाकर ने विलक्षण व्यक्तित्व को घटाने के अभिप्राय से बोला वह,
‘‘शायद कभी मैंने आपको गाड़ी ढकेलते हुए देखा है !’’
विभाकर का चेहरा आन्तरिक प्रसन्नता से उद्दीप्त हो उठा। नई स्फूर्ति जैसे उसकी नस-नस में दौड़ गई। और सुरेश की ओर देखते हुए कहा उसनेः ‘‘मुझे बड़ी खुशी हुई उस दिन यह जानकर कि परमात्मा ने मेरे हाथों में इतना बल दिया है कि मैं मुसीबत में पड़ी हुई सवारी को ढकेलकर आगे बढ़ा सकूँ।’’-विभाकर की ओजस्वी वाणी ने वातावरण को ऐसा बना दिया, जैसे उत्साह के सरोवर में उल्लास का कमल खिल उठा हो। आचरण-प्रधान कथन अधिक आकर्षक और प्रभावक होता ही है।

घटना आज से साल भर पहले की है। उस दिन सवेरे से आकाश साफ था। तेज धूप की प्रतीक्षा सबको थी। घनघोर वर्षा के कारण एक सप्ताह से दिन का अपना कोई स्वरूप ही नहीं रह गया था। ऐसा लगता था, जैसे पूरब प्रभावहीन बना अपनी पहचान ही खोता जा रहा था। प्रकाश के अभाव में आधारविहीन अन्धकार की औकात भी बढ़ती हुई-सी जान पड़ने लगती है।

अचानक फिर बादल घिर आए। देखते-देखते चारों ओर अँधेरा छाने लगा जैसे देश के उज्ज्वल भविष्य को ढँकने के लिए विदेशी श्रण की भयंकर कालिमा द्रुतगति से फैलती जा रही है। यह प्रायः प्रकृति का प्रकोप ही था की माघ के महीने में सावन-भादों को सजानेवाली वर्षा हो रही थी। असमय की अतिवृष्टि से जन-जीवन उसी तरह अस्त-व्यस्त हो गया था जिस तरह उदार अर्थनीति देश को असमंजस में डाल दिया है। भीषण घन-गर्जन लोगों के मन को वैसे ही अस्थिर बना रहा था, जैसे अनिश्चित और अशान्त हो गया है अदूर्ददर्शी नेता की अनर्गल घोषणा से बना समाज एवं राष्ट्र का विभेदपूर्ण जीवन। निचली सड़कें तो नदियों-जैसी लगती थीं, जिन पर उतराते-बहते चले जा रहे दिखाई पड़ रहे थे कूड़ों के ढेर, जैसे अनुचित सुविधा से नकली सफलतावाले अयोग्य लोग इठला-इठलाकर चलने लगे हैं।

तीन घंटों तक हुई अनवरत वर्षा से ऊँची सड़कों पर भी पानी लग गया था। आनन्दपुरी जानेवाली सड़क पर थोड़ी दूर तक पानी का काफी जमाव था। राष्ट्रीय उच्च पथ से तेज चाल से आ रही हलके हरे रंग की एक नई मोटरगाड़ी गोलाम्बर पार कर उधर ही मुड़ चली थी। पानी के कारण पहले तो उसकी चाल कम हो गई और फिर बिलकुल रुक गई वह। बहुत ही शिष्ट दीख पड़ रहे एक अधेड़ उस गाड़ी से निकले अपनी गाड़ी को ढकेलकर आगे बढ़ाना चाहते थे। वे पर उस प्रयास में सफल नहीं हो पा रहे थे।

कुछ क्षणों के बाद पानी की परवाह किए बिना एक सुघड़ महिला गाड़ी से बाहर निकलीं। अपने पति को सहयोग प्रदान करने की आतुरता उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। परन्तु, उनकी कोशिश के बावजूद गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी।

विभाकर को विज्ञान-भवन पहुँचने की जल्दी थी। वह तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए बस-पड़ाव की ओर चला जा रहा था। गोलम्बर के निकट जाने पर उसके पैर अनायास थम-से-गये। उसने अपनी कलाई घड़ी देखीः दिन के ठीक बारह बज रहे थे- छोटी-बड़ी सभी तीनों सुइयाँ एक ही स्थान पर मिली थीं। ऐसा लगता था। जैसे निरन्तर गतिशील रहनेवाला काल भी कभी-कभार अपनत्व के कारण पल-पल रुक जाना चाहता है, जबकि समय से आगे भागने की होड़ में मनुष्य आपत्ति-विपत्ति में पड़े व्यक्ति के लिए भी क्षण भर ठहरना आवश्यक नहीं समझ रहा।- यह देखकर भी मुख्य सड़क पर ही अधेड़ दम्पति अपनी विषम परिस्थिति से जूझते हुए बिलकुल असमर्थ होता जा रहा था।

आनन्दपुरी-मार्ग के आसपास से ही महानगरीय जीवन शुरू हो जाता है। महानगर में व्यक्ति का जीवन प्रायः सिमट जाता है। वहाँ का स्वार्थ-जन शिकंजा इतना कड़ा होता है कि उसमें अकृत्रिम परोपकार के लिए गुजांइश ही नहीं रह जाती। चाहे जैसे भी हो- आगे-आगे भाग निकलने की कोशिश न केवल वाहनों और सवारियों में दिखाई पड़ती है, वरन पैदल चलने वाले भी अपने आप से ही मतलब रखते नजर आते हैं।

सचमुच, महानगरों में हमेशा व्यस्तताओं की बाढ़ उमड़ी रहती है, जो आगे-आगे संवेदनाओं को बहा ले जाया करती है और पीछे-पीछे छोड़ती जाती है मरुस्थल की निस्सारता। यदि महानगरों की संख्या बढ़ती ही गई, तो सम्पूर्ण विश्व को विशाल एवं विस्तृत बालुकाराशि बनने से नहीं बचाया जा सकता। जीवन तभी सरस रह सकता है, जब तक उसे सहानुभूति की तरलता उपलब्ध है।

‘तेज’ बनने का ‘मुखौटा’ लगाकर समय से आगे भागने की नई परिभाषा में नैतिकतापूर्ण जीवन जीने, सही कदम उठाने और दूसरों के सम्बन्ध में भी सोचने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई गई है। आत्याधुनिक कहलाने की पहली पहचान जो बन गई है यह !

लगभग पैंतालिस मिनटों तक गाड़ी वहीं खड़ी रही – स्थावर-सी इस बीच न जाने कितनी गाड़ियाँ निकल गईं। उस सड़क से पैदल चलने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं थी। अनेक लोगों की नजरें पड़ीं उधर। कुछ लोग विपरीत परिस्थिति में पड़े उस दम्पत्ति को देखकर हँसे, कुछ मुस्कुराते हुए आगे निकल पड़े और कुछ उस गाड़ी के बिल्कुल नजदीक से गुजरते हुए कहकर आगे बढ़ गए कि ‘‘यह संसार है, ऐसी परिस्थितियाँ तो जब-तब उपस्थिति होती रहती हैं; परोपकार के नाम पर मनुष्य कितना समय किस-किस के लिए बर्बाद करता चले !’’

बात हवा में टाल देने की नहीं थी। यदि संवेदना और सहानुभूति का सबल सूत्र नहीं हो, तो जीवन में किसी भी प्रकार की संगति ही नहीं बैठाई जा सकती। अपनत्वविहीन जीवन इधर-उधर भटक कर आप ही नष्ट हो जाएगा- उसकी पहचान भला क्या बनेगी ! जब कोई शब्द समाज से अस्वीकृति होकर अपना अस्तित्व नहीं रख पाता, तब व्यक्ति समाज-निरपेक्ष होकर कैसे प्रभावी बन सकता है ? सहानुभूति के अभाव समाज सूखकर रेत बन जाएगा, जीवन वहाँ रह नहीं सकता।

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