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साहब बीबी गुलाम

विमल मित्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :408
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5801
आईएसबीएन :9788126708994

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कलकत्ता शहर के बसने, बढ़ने और फैलने का दिलचस्प आख्यान

Sahab Bibi Gulam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस उपन्यास के रूप में बँगला कथाकार विमल मित्र ने एक ऐसी कृति प्रस्तुत की है जो अपने आप में कथाशिल्प का स्थापत्य है। इसमें कलकत्ता की बहुरंगी अतीत को उसके विकासशील वर्तमान से जोड़ने का एक सुंदर और कलात्मक प्रयोग किया गया है।

इस कृति में कथाकार ने उन राजा-रईसों के वैभव-विलास और अमोद-प्रमोद का चित्रण किया है जो कभी आलीशान महलों में बड़ी शान-ओ-शौकत से रहा करते थे। साथ ही उनके निरीह सेवकों और गुलामों की विवशता का भी हृदयस्पर्शी चित्रण है जो दिन-रात उनकी सेवा में लगे रहते हैं। सामंती परिवार का वह भीतरी परिवेश इसमें पूरे प्रभाव के साथ उभरा है जिसमें अपरिमित सुखों के बीच अलग-अलग तरह के दुख पालते रहते हैं। पूरी कथा ओवरसीयर भूतनाथ की जुबानी सामने आती है जो वतर्मान का संवाहक होकर भी अतीत की यादों में खोया रहता है। अंतःपुरवासिनी ‘छोटी बहू’ उसके ही मन पर नहीं, पाठकों के मन पर भी छायी रहती है।

पूर्वाभास

इधर बहूबाज़ार स्ट्रीट और उधर सेन्ट्रल एवेन्यू। बीच की साँप जैसी आँखी- बाँकी गली आज तक इन दो राजपथों को मिलाने का काम करती रही है। अब वैसा मुमकिन न रहा शायद। लगता है, रातों-रात यह बनमाली सरकार लेने गायब हो गई। इतनी पुरानी गली। इसी के पश्चिम गोविन्दपुर और सूतानटी के समय से वनमाली सरकार के पुरखे राज कर गए थे। कहावत-सी चल पड़ी थी, उमीचाँद की दाढ़ी और वनमाली सरकार की ‘बाड़ी’। रोब-दाब और बहार, शायद दोनों ही एक सी थी, उस ज़माने में सद्गोप वनमाली लरकार को ईस्ट इंडिया कम्पनी से पटने की दीवानी मिली थी और कलकत्ते में मिला था कम्पनी के मातहत व्यापार करने का अधिकार। बहुत-बहुत पहले की हैं ये बातें। तब की जो कुम्हार टोली थी, उसमें उन्होंने लाट साहब के मुकाबले का एक मकान बनवाया।

उनकी देखादेखी निमतल्ले में एक मकान बनवाया, उस समय के दूसरे एक बड़े आदमी मधुर सेन ने। मगर कहाँ नवमाली का मकान और कहाँ वह ! कोई मुकाबला नहीं। उसके बाद कहाँ तो गया कुम्हारटोली का वह मकान, कहाँ गए ख़ुद वनमाली सरकार और कहाँ गए मथुर सेन ! सच ही, हैरान रह जाना पड़ता है। वे आरमेनियन सौदागर कहाँ चले गए, जो सूत और नूटी का व्यापार करते थे ! और कहाँ गए जॉब चार्नक के उत्तराधिकारी अंग्रेज़ जिन्होंने पुर्तगीज़ के डर से कालीकट से भागकर सूचानटी में पनाह ली थी, और बाद में जिन्होंने कालीकट की नकल पर सूतानटी का नाम रखा था कैलकटा। आज तो सिर्फ़ कम्पनी के सिरिश्ते के काग़जात, पुराने कागज-पत्तर में मुश्किल से ढूँढ़कर निकालना पड़ता है सूतानटी का नाम। फिर भी वनमाली सरकार इतने दिनों तक उस गली में साँस रोके जिन्दा जो रह सके, सो महज कलकत्ता कारपोरेशन की गफलत से। अब वह भी गया। गोविन्दराम, अमीचाँद, हुजरीमल, नकूधर, जगत् सेठ और माथुर सेन के साथ अब इतिहास के पन्नों में एक बारगी खो गए वनमाली सरकार भी। आधा तो सेन्ट्रल अवेन्यू बनते वक्त पहले ही जा चुका था, रहा-सहा आधा भी खत्म !

जिम्मेदारी इम्प्रूवमेंट-ट्रस्ट को सौंपी गई। गली में घुसते ही पछाँही भड़भूँजे का तोठा-मिट्टी की दीवार, टिन का छौनी। होली के महीना-भर पहले से ही डाँझों की झनकार के साथ ‘रामा हो रामा’ की गूँज। उसके बाद नाक की सीध में पूरब को बढ़िए। ज़रा दूर जाकर बाएँ, फिर दाएँ को मुड़िए। सद्गोप वनमाली सरकार की अकल जैसी पेचीदी थी, वैसे ही उनके नाम की यह गली भी बेहतर ऐंठती हुई जाकर बहू बाजार में मिली है। गली में दाखिल होते ही लगता है, सामने की दीवार तक ही गई है यह। लेकिन हिम्मत बटोरकर बढ़ चलिए तो, बहुत मज़े हैं। कम ऊँचे मकानों के जो कमरे सड़क की तरफ़ पड़ते हैं, उनमें सजी-बनी दुकाने। मोड़ों पर ज्यादातर सोने चाँदी की दुकानें। बगल के एक-मंजिला मकान के चौंतरे पर ‘इंडिया टेलरिंग हॉल’। थोड़ी दूर चलकर बाएँ बाजू राष्ट्रीय झंडेवाला साइनबोर्ड—प्रभास बाबू का ‘पवित्र खादी भंडार’। उसके भी आगे गुरुपदो दे का ‘स्वदेशी बाज़ार’। जब वहाँ खरीददारों की बेहतर भीड़ हो जाती, तो लोगबाग पास के ‘सबुज संघ’ के दरवाजे तक पहुँच जाते। कभी-कभी सबुज संघ’ के दरवाज़े तक पहुँच जाते।

कभी-कभी सबुज संघ क रोशनी और सजावट से जीवन्त हो उठता। कोई मौका-भर मिल जाना चाहिए। फिर मोहल्लेवालों को नींद कहाँ नसीब ! सुबह से शाम तक ‘सबुज संघ’ की जय-जयकार के सिवा दुनिया में और घटना ही नहीं घटती कोई। लोग दफ्तर नहीं जाते, हाट-बाज़ार नहीं जाते, सोते नहीं खाते नहीं, बस सबुज संघ और सबुज संघ। उसके बाद ही पड़ता है ज्योतिषावर्ण श्रीमन् अन्त भट्टाचार्य की ‘श्रीमहाकाली आश्रम’, जहाँ इस घोर कलाकाल के मिलावट के जमाने में भी एक असली नवाग्रह कवच सिर्फ़ तेरह रुपये साढ़े पन्द्रह आने में मिलता है—डाक महसूल अलग। सत्, त्रेता, द्वापर—वतर्मान, भूत भविष्यत्—इस त्रिकालदर्शी राजज्योतिषी का बनाया हुआ वशीकरण, बगलामुखी और धनदा कवच इंगलैंट, अमरीका, अफ्रीका, चीन, जापान, मलाया, सिंगापुर जैसे सुदूर देशों तक जाता है। श्री श्रमहाकाली आश्रम की अन्यायन्य विशेषताएँ लाल, नीली और पीली स्याही से विस्तारपूर्वक साइनबोर्ड पर लिखी हुई हैं। इसके बाद उस टिनवाले मकान के सामने छज्जे के नीचे है वाँछा की पकौड़ी की दुकान। अगल-बगल के चार-पाँच मोहल्लों में उसी पकौड़ी की शोहरत है। तीन पुश्त से दुकान। वाँछा अब नहीं रहा। उसका बेटा अधर।

अधर का बेटा अक्रूर अब दुकान पर बैठता है। अक्रूर कारीगर खासा है। मिट्टी के एक बर्तन में बेसन रखकर, बाएं हाथ से उसमें थोड़ा सा सोडा मिलाकर ऐसे ढंग से मिलाता है कि गरम तेल के कड़ाव में डालते ही पकौड़ियाँ फोले-सी फूल उठती हैं। हथकट्टा कलुआ सुबह ही आ बैठता है। उसका दुकान भी खुली न होती। जाड़े के दिनों में सुबह ही लोगों की भीड़ लग जाती; अक्रूर पकौड़ियां छान-छानकर टोकरी में रखता जाता। बाज़-बाज़ वक़्त टोकरी में रखने की भी नौबत न आती। जीभ में फफोला पड़ने की नौबत ! बारह बजे तक यही हाल। ऐसी और भी कितनी दुकानें बाईं तरफ। और, इस तरह यह टेढ़ी-मेढ़ी गली बहूबाज़ार स्ट्रीट से जा मिली है। दुकान-दुकान, जितनी जो कुछ भी है, सब बाई तरफ, लेकिन दाई तरफ ओर से छोर तक बस एक ही मकान; कबूतर के दरबों-से छोटे सँकरे कमरे।

किराएदारों की ठसाठस से कालनेमि के लंका-बँटवालेवाला हॉल ! तिल धरने की जगह नहीं। लोग कहा करते थे बड़ा महल। उस ज़माने में इधर उतना बड़ा मकान दूसरा था भी कहाँ ! बालू के पलस्तर पर चूने की पोताई से जब तक चल सका, चला, उसके बाद हॉल से बाहर के चार-पाँच कमरों में कायम हुआ था नेशनल स्कूल। एक कमरे में बहुत पहले से ही करघे बिठाए गए थे। तमाम घंटे-घंटे घड़ियालों की टन्-टन् की आवाज़ होती रहती थी। टिफ़िन के समय लेमनचूस और पापड़ी के फेरीवाले घंटी टुनटुनाकर लड़कों का ध्यान खींचा करते। कभी किसी दिन किसी किराएदार की बैठक में गाने-बजाने का समाँ। तानपूरे के अटूट सुर के साथ तबले पर कहरवा का रेला। ‘पिया आवत नहीं’ के साथ तबले के मीठे हाथ के तबले की तिहाई से मोहल्ला मात।

कभी-कभी ‘मियाँ का मल्लार’ के साथ तबले के मीठे ठेके से खिंचकर रास्ते पर रसिक लोग रुक जाया करते; उझक झाँकते खिड़की में से। कभी जो मालिक थे, भाग्य के फेरे से वही आज हो गए थे किराएदार। फिर भी बड़े महल के अन्दर कदम रखने की किसी की हिम्मत नहीं होती। फ्रॉक पहने कोई लड़की झपटकर कभी बाहर आ जाती और अक्रूर की दुकान से पकौड़े का दोना लेकर झटपट उसी दरबे में घुस जाती। कभी किसी राहगीर पर साग-भाजी के छिलके आ गिरते कोठे पर से, गोया फूल बरसते हों। वह बेचारा बेवकूफ की तरह ऊपर को निगाह उठाता, मगर कहाँ कोई ! एक तरफ की रसोई से मछली और प्याज की बू व्यंग्य-सी आती तो दूसरी से आती विजय की घोषणा-सी मांस और गरम मसाले की गन्ध। एक दरवाज़े पर आ लगी एक टैक्सी; औरतें सिनेमा जाएँगी। ठीक वक्त दूसरे दरवाजे़ पर आ लगी एक टुटही बग्गी, औरतें प्रसूती-सदन जाएँगी। जन्म-मरण संगम का यह लीला-विलास साठ, सत्तर, अस्सी, सौ साल पहले जाने कब से आभिजात्य के तेज़ प्रवाह में इस मोहल्ले में शुरू हुआ था, और इन कै सालों के अरसे में वह निहायत मध्यवित्त कगारे में बहने लगा।
हो चाहे मध्यवित्त—उस ज़माने की जोड़ी, चार घोड़े की गाड़ी, लैंडो, लैंडोलेट, फिटन और ब्रुहम न हो, न सही; बला से न रही पर्देदार पालकी, तशर की साड़ीवाली नौकरानी, या सुनहले-रुपहले कमरबन्द वाले चोबदार, डाकिया, हुक्कारबरदार और खानसामे; चालीस डांडोंवाली मयूरपंखी नाम की न ही हुई नसीब सवारी; नन्हीं मछली, प्याज, पोई का साग, माथे के ऊपर एक छत की छाँव और सूतिका से पूड़ित बहू तो थी। अब तो वह भी नदारद। अब खड़ा हो तो कहाँ ?

समय पर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट का नोटिस जा धमका। वाँछा की पकौड़ी की दुकान में ज़ोरदार चर्चा चल पड़ी। चर्चा चल पड़ी इंडिया टेलरिंग हॉल में। गुरुपदो दे के ‘स्वदेशी वाज़ार’ के सामने, प्रभासबाबू के ‘पवित्र खादी भंडार’ के बाहर-भीतर। त्रिकालदर्शी श्रीमान् अनन्तरहरि भट्टाचार्य के श्रीमहाकाली आश्रम में ही आलोचना होने लगी। ज्योतिषावर्ण बोले अगले माह कर्क राशि में राहु का प्रवेश है; मामला बड़ा टेढ़ा है; देश पर राज-रोष...। महल में भी तरह-तरह की बातें होने लगीं। इससे तो भूकंप बेहतर था इससे सन् 1738 का आँधी-पानी, जिसमें गंगा का पानी चालीस फुट बढ़ गया था बढ़ा भी क्या था एक ही बार ! बड़े महल में जो बड़े-बूढ़े हैं, वे उन दिनों की बहात जानते हैं। उस समय तुम लोगों की पैदाइश नहीं हुई थी भाई और मेरा ही तब जन्म कहाँ हुआ था क्या, या मेरे दादा ही पैदा हुए थे ! यह देश आज का है ? कितनी सदी पहले की बात है जानें ! तब गंगा पद्मा से थोड़े ही मिलती थी। वह नदिया और त्रिवेणी होकर सागर में जाकर मिलती थी। चेतला के पास एक पतला पनाला बहते देखते हो न, आदिगंगा वही थी, लोग उसी को बूढ़ी गंगा कहते थे। बाद में जब कोसी गंगा से आ मिली तो धारा हट गई। भागीरथी की उसी गंगा को तुम लोग हुगली कहते हो ! हम लोग कहते हैं भागीरथी। तब किसे पता था हुगली का, और कौन जानता था कलकत्ता ! प्लिनि साहब के ज़माने से लोग तो सिर्फ़ सप्तग्राम के पास की नदी को ही देवी सुरेश्वरी गंगे कहते थे ! उसके बाद समय के चढ़ाव-उतार के अटूट नियम से जिस रोज़ सतगाँव का पतन हुआ, सामने आया हुगली; उसी रोज़ पुर्तगीजों की कृपा से भागीरथी का नाम हुआ हुगली।

किस्सा कहते हुए बूढ़े हाँफ उठते। कहते, पढ़ा नहीं ?
अजब शहर कलकत्ता
राँडी, बाड़ी, जोड़ी, झूठ बात बलबत्ता।
(यहाँ) जलते उपले, हँसते गोबर, बलिहारी एकता
बगुले-बिल्ली ब्रह्मगियानी, बदमाशी का लत्ता।
चूड़ामणि चौधरी अलीपुर के वकील थे। बोले—अरे भाई, किलिंग साहब ही तो लिख गए हैं—
Thus the midday halt of Charnoch-
more’s the pity
Grew a city
As the the fungus sprouts chaotic its bed
So it spread-
Chance-directed chance-erected, laid and
Built
One the silt—
Palace, byre, hovel, poverty and pride
Side by side;
And, above the packed and pestilential town
Death looked down

-Kipling

महल के इन नये मालिकों को उन दिनों की कहानी नहीं मालूम। वारेन हेस्टिंगस तो हम लोगों की तरह गुड़पूड़ी पिया करता था। सुनते हैं, न्योते की चिट्ठी में खासतौर से लिखा रहता था, ‘‘कृपा करके हुक्काबरदार के सिवा दूसरा नौकर साथ लाने का कष्ट न उठाएँ।’ और वह जॉब चार्नक ? बैठकखाने के उस बड़े बरगद के नीचे बैठकर हुक्का पीता था, अड्डा जमाता था और शाम होते ही चोर-डाकू के डर से बैरकपुर भाग जाता था। और तो और, एक बाह्म की बेटी से शादी ही कर ली ! सबको डिहि कलकत्ता, गोविन्दपुरम और सूतानटी में बसने का न्योता दे बैठा। एक दिन आ धमके पुर्तगीज़ अब उन्हें मुर्गीहाटा में देख पाओगे—आधा अंग्रेज, आधा पुर्तगीज़। नाम पड़ा था फिरंगी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के शुरु के किरानी वही लोग थे। आखिर में वही हुए जाकर अंग्रेज के चपरासी, खानसामा और उनकी बीवियाँ बनीं मेमों की आया। फिर आए आरमेनियन। उनमें से कुछ खुरासान, काबुल, कन्दहाल होकर दिल्ली आए थे। कोई-कोई आए गुज़रात, सूरत, बनारस, बिहार होकर। उसके बाद दिनों तक वे चुंचड़ा रहे। अन्त में आए कलकत्ता। उनके साथ आए ग्रीक, आए यहूदी, आए हिन्दू-मुसलमान...सब आए।

इस तरह बसा कलकत्ता। यह बात सन् 1960 की है।
देखते-ही-देखते पठान और मुगलों का ज़माना गुज़र गया। एक सुबह जब लोगों की आँखें खुलीं तो देखा, इन्द्रप्रस्थ और दिल्ली जाने कहाँ गुम हो गई। उसकी जगह सुन्दरवन की दलदल में एक और ही आख्योपन्यास ने सिर उठाया। जादू हो गया। कलकत्ता की बात में राज्य बनता है, राज्य बिगड़ता है। जिन्दगी में तरक्की के लिए हाँ आना पड़ता है। बीमारी से परेशानी हो तो यहाँ आना पड़ता है। पाप में गर्क होने के लिए यहाँ आना पड़ता है। महाराजा और भिखमंगा होने के लिए यहाँ आना पड़ता है। इसीलिए सूतानूटी पहुँचे रायान राजवल्लभ बहादुर। दीवान रामचरण और दीवान गंगागोविन्द सिंह पहुँचे। फिर पहुँचे वारेन हेस्टिंग के दीवान कान्त बाबू, ह्वीलर के दीवान गोविन्दराम मित्र, उमीचाँद और वनमाली सरकार,। सरकार, यानी जिनके नाम की गली में बैठकर हम बातें करते रहे हैं।

चूड़ामणि चौधरी को मुवक्किल नहीं जुटते। काले कोट पर काफ़ी कालिख़ पड़ चुकी है—समय की और उम्र की। हाथ में स्याही लगती थी कि कोट में पोंछ डालते; पता ही नहीं चलता। कचहरी जाते हैं। कीड़े जिन्हें चाट गए हैं, पुरखों की उन किताबों के पन्ने पलटते। भाई, तुम लोग तो खासे मज़े में हो। खाते-पीते और सिनेमा देखते हो। उन दिनों सिर उठाकर चौरंगी में चलने की मजाल भी थी किसी की ? बूट की ठोकर से बच जाओ तो पिता का पुण्य समझो। तब की कहूँ—साहब रास्ते जा रहा है। हाथ में है बेंत। दोनों तरफ के नेटिवों को मारता जा रहा है। गोया सब भेड़-बकरी हों। और गोरे पर नज़र पड़ी नहीं कि हम सत्ताईस हाथ दूर। विवेक कहाँ उनके। आखिर नेटिव क्या आदमी नहीं ? भैया, रेल के तीसरे दर्जे के डिब्बे में पाखाना नहीं था। नागपुर से आसनसोल तक आया, पेट दबाए। एक दाना मुँह में नहीं डाला, एक बूँद पानी नहीं, कहीं....

सो चाहे जो भी हो, इससे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट को नोटिस जारी करने में क्या रुकावट !
बड़े महल के छोटे मालिकों ने नोटिस लिया।
इधर नोटिस आया और उधर आ धमकी ज़ंजीर, कपास, सब्बल, छेनी, हथौड़ा, फावड़ा, डिनामाइट...कपली-मजूर, लोक-लश्कर। इस सबके साथ आया भूतनाथ ओवरसियर भूतनाथ; भूतनाथ चक्रवर्ती-मुकाम नदिया, गाँव फतेहपुर, डाकखाना गाजना।

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