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सात गीत वर्ष

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5790
आईएसबीएन :81-263-1050-2

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प्रस्तुत है कविता संग्रह

Saat Geeta Varshah

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


धर्मवीर भारती की सृजन श्रृंखला में सात गीत वर्ष का विशिष्ठ स्थान है। जिन महत्त्वपूर्ण कविताओं के कारण भारती ने नई काव्यधारा में अपना सुनिश्चित प्रतिष्ठित स्थान बनाया उनमें से अधिकतर कविताएं इसी संकलन में संग्रहीत हैं।
इस संकलन की कविताओं का रचनाकाल 1951 से 58 तक है। यही वह समय है जब हिन्दी काव्यधारा एक विलक्षण ऐतिहासिक मोड़ ले रही थी। उस सम कविता में व्यक्तिवादी या सामाजिक आग्रह की भूमिकाओं के बड़े भ्रमात्मक ढंग से उठाया जा रहा था। उसी दौरान प्रकाशित सात गीत वर्ष की इन कविताओं में नयेपन के साथ एक ताजगी भी थी। इनमें ताज़ा गहरा युग बोध, इतिहास की सामूहिकता और कर्तव्य की निजी पीड़ा के बीच के तनाव छटपटाहट तो थी ही, एक समाधान खोजने की आस्था भी थी।

साथ गीत वर्ष के काव्य-वैभव का एक और पक्ष भी है। धर्मवीर भारती की परिवर्ती कृतियों कनुप्रिया व अंधायुग में जो भाव—बोध परिपक्व रूप में आया, उसकी तैयारी इस संकलन की कविताओं में देखी जा सकती है। आज धर्मवीर भारती हिन्दी साहित्य परिदृश्य की एक ऐतिहासिक उपस्थिति हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ भारती साहित्य के विशाल पाठक वर्ग के लिए यह नया संस्करण सगर्व प्रस्तुत करता है।

भूमिका


भारती की सृजन श्रृंखला में सात गीत वर्ष का एक विशिष्ठ स्थान है। जिन महत्त्वपूर्ण कविताओं के कारण भारती ने नयी काव्यधारा में अपना सुनिश्चित प्रतिष्ठित स्थान बनाया उनमें से अधिकतर कविताएं इसी संकलन में संग्रहीत हैं।
इस संकलन की कविताओं का रचनाकाल 1951 से 58 तक है। यही वह समय है जब हिन्दी काव्यधारा एक विलक्षण ऐतिहासिक मोड़ ले रही थी। कविता के पररम्परागत पुराने उपादानों को छोड़कर नये उपादानों की तलाश हो रही थी, परम्परागत दृष्टिकोण के प्रति एक विद्रोह-सा उठ खड़ा हुआ था और भावुक गीतों में बौद्धिकता का अभाव महसूस हो किया जा रहा था। रस-सिद्धांत स्वयम् अब नई काव्य रचना के लिये उपयुक्त कसौटी रह गया है या नहीं, इस पर भी तीखी बहस शुरू हो गयी थी। पर पुरानी काव्य शैलियां फिर भी अवशिष्ट थीं। और दूसरी ओर वे काव्य रचनाएँ आ रही थीं जिनमें एक आभिजात्य बौद्धिकता थी लेकिन वे हृदय को नहीं छू पाती थीं, नयी कविता या उस समय प्रचलित शब्द प्रयोगवादी कविता को लेकर बड़े-बड़े दावे ज़रूर करती थीं।

कारण चाहे कुछ भी रहा हो पर यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा कि उस समय कविता में व्यक्तिवादी या सामाजिक आग्रह की भूमिकाओं को बड़े भ्रमात्मक ठढंग से उठाया गया। उस विवाद की व्याख्या करना हां आवश्यक नहीं। केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि इस विवाद से ऊपर उठ कर जो कविता प्रतिष्ठित हुई उसके नए स्वर ने मूल्यों की सापेक्ष स्थिति में व्यक्ति और समाज दोनों को थामने का प्रयास आरंभ कर दिया था।। उसका मुख्य प्रश्न, स्वयं भारती के शब्दों में, यह था कि ‘‘वे मूल्य कैसे पुनः स्थापित किये जायें जो व्यक्ति को इतना कायर और दुर्बल बनने से रोकें कि वह अपने सामाजिक दायित्व से पलायन कर आत्मरति में ही लीन रहे, या सामाजिक कल्याण के नाम पर आने वाले किसी भी अधिनायकवादी आतंक के सम्मुख समर्पण कर दे।’’ इसलिए इस कविता की आस्था मानव की मुक्ति, व्यक्ति और उसकी पीड़ी की मानवीयता पर थी। मानव की मुक्ति का मुख्य अभिप्रायः यह था कि वह अपनी सार्थकता खोज सके, अपना दायित्व खोज सके। उस समय केदार नाथ सिंह की एक कविता ‘‘फूल को हक दो’’ बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसमें उन्होंने बड़े सुन्दर प्रतीकात्मक ढंग से यह बात कही थी—


लहर को हक़ दो....वह कभी संग पुरवा के
कभी संग पछुआ के, इस तट पर भी आये...उस तट पर भी जाये
और किसी रेती पर सिर रखकर सो जाय।
नयी लहर के लिए।


उस समय ‘दिनकर’ ने इस स्थिति की व्याख्या करते हुए लिखा कि ‘साहित्य गलत दिशा में उड़ता उड़ता ऐसी जगह पहुंच गया है, जहां भाषा लाचार है तथा कहने योग्य कोई भाषा या विचार नहीं है। कल्याण शायद पीछे लौटने अथवा उसे ‘जन-पथ’ पर वापस आने में है, जिसे धर्मवीर भारती ने ‘प्रभु-पथ’ कहा है :


उस दिन मैं दूंगा तुम्हें शरण,
मैं जन-पथ हूं,
मैं प्रभु-पथ हूं, मैं हूं जीवन।
जिस क्षितिज-रेख पर पहुँच
व्यक्ति की राहें झूठी पड़ जाती हैं,
मैं उस सीमा के बाद पुनः उठने वाला
नूतन अथ हूं
मैं पभु-पथ हूं।
जिसमें हर अन्तर्द्वन्द्व, विरोध, विषमता का
हो जाता है, अन्त में, शमन।


सात गीत वर्ष की कविताओं को इस पृष्ठभूमि में देखना-समझना होगा। इन कविताओं में नयेपन के साथ एक ताज़गी भी थी। आडम्बर रहित सहज अभिव्यक्ति कितनी प्रखर होकर निखरी। ‘संक्रांति’, ‘अपराजित पीढ़ी का गीत’, ‘एक टूटा पहिया’, और ‘और ‘एक अवतार’ में इसके सुन्दर उदाहरण है। इस अभिव्यक्ति में एक ताजा गहरा युग बोध, इतिहास की सामूहिकता और कर्तव्य की निजी पीड़ा के बीच के तनाव की छटपटाहट है। लेकिन साथ ही इन कविताओं में एक समाधान खोजने की आस्था भी है। वास्तव में यह कविता की उस मानसिकता को उभारती है जो एक नयी भावभूमि निर्मित करके व्यक्ति और समाज के कृतिम विरोध का परिशमन कर सके।


भटके हुए व्यक्ति का संशय
इतिहासों का अन्धा निश्चय
ये दोनों जिसमें पा आश्रय
बन जायेंगे सार्थक समतल
ऐसे किसी अनागत पक्ष को
पावन माध्यम भर है मेरी
आकल प्रतिभा अर्पित रसना।


(गैरिक वाणी)


इस सभी कविताओं ने भारती के काव्य व्यक्तित्व को सतही प्रगतिवाद और दुर्बाध आत्मकेन्द्रित प्रयोगवाद से अलग अपनी एत विशिष्ठ प्रतिष्ठा दी।
सात गीत वर्ष के काव्य-वैभव का एक और पक्ष है। अन्यत्र मैंने काफी विस्तार से यह विश्लेषण किया है कि अपनी सृजन-यात्रा के प्रारंभिक चरण में भारती ने प्यार के शाश्वत और चिरंतन रूप को किस प्रकार से परिभाषित किया है। जबकि ठंडा लोहा के ‘पान फूल सा मदुल बदन’, धरती पर लहराती बरसात सी चाल’, ‘सूने खंडहर के आसपास मदभरी चांदनी-सी सुन्दरता’ में एक कैशोर्य सुलभ भावुक रूमानियत है, सात गीत वर्ष में इस प्रेम में एक प्रगाढ़ अंतरंग दैहिकता के साथ-साथ प्रेमानुभूति के गहरे आयाम विकसित होने लगे है। ‘नया रस’, ‘नवम्बर की दोपहर’, ‘केवल तन का रिश्ता’, ‘और ‘अर्ध स्वप्न का नृत्य’ से यह पक्ष स्पष्ट हो जायेगा। नए रस की व्याख्या कवि इस प्रकार करता है जिसमें श्रृंगार की आसक्ति नहीं, निर्वेद की वरक्ति नहीं, जब आकुल परिरम्भण की गाढ़ी तन्मयता के क्षण में भी ध्यान कहीं और चला जाता है लेकिन फिर भी कवि यह स्वीकारता है—


अन्दर ज़हरीले अजगर-जैसे प्रश्नचिह्न
एक-एक पसली को अकड़-अकड़ लेते है
फिर बेकाबू तन
इन पिछले फूलों की रसवन्ती आग बिना
चैन नहीं पाता है।

(नया रस)


मुझे तो लगता है कि उनकी परिवर्ती कृति कनुप्रिया में जो भाव-बोध परिपक्व रूप में आया उसकी बीजारोपण इस संकलन की इन्हीं प्रेम कविताओं में हुआ है। कनुप्रिया की सृजन-संगिनी को लीजिए—


यदि इस सारे सृजन, विनाश प्रवाह
और अविराम जीवन-प्रक्रिया का
अर्थ केवल तुम्हारी इच्छा है
तुम्हारा संकल्प
तो ज़रा यह तो बताओ मेरे इच्छामय,
कि तुम्हारी इस इच्छा का,
इस संकल्प का—
अर्थ कौन है ?


इसी प्रसंग में यह भी कहना चाहूंगा कि ग्रीक पौराणिक पात्र प्रमथ्यु को नई व्याख्या देती हुई उनकी कृति ‘प्रमथ्यु गाथा’ में वही नाट्य चेतना और विद्रोह है जो उनकी कालजयी कृति अंधायुग में नए धरातल पर सम्प्रजित हुआ।
एक बात और। स्वयम् अपने कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में भारती स्वभाववश मौन रहे हैं। लेकिन सात गीत वर्ष की भूमिका में उन्होंने अपनी सृजन प्रक्रिया को जितने गहरे लेकिन सहज ढंग से परिभाषित किया है वह अपने में स्वयम् एक उपलब्धि है। वह भूमिका इस संस्करण में भी अविकल रूप से दी जा रही है। विश्वास है कि भारती का विशाल पाठक वर्ग इस संस्करण का उसी भाव से स्वागत करेगा।

अपने इस नये रूप में यह पुस्तक काफी समय बाद पुनः प्रकाशित हो रही है। इस पुस्तक के इतने सुन्दर और सुरुचिपूर्ण प्रकाशन का श्रेय गगन गिल को है। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति गहरे अपनत्व के साथ जिस लगन और परिश्रम से उन्होंने यह कार्य किया है उसके लिए उन्हें धन्यवाद देना या उनके प्रति आभार प्रगट करना मुझे बहुत हल्का लगता है। ज्ञानपीठ के मेरे सहयोगियों, विशेषकर श्री चक्रेश जैन, की तो सदा की भांति पूरी सहायता मिली है।



-बिशन टंडन


प्रथम संस्करण की भूमिका



क्षण


काव्य-सृजन का,
सच है कि सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु है—लेकिन शायद वही है जिसके बारे में स्वयं रचनाकार भी कठिनता से ही कुछ निश्चयपूर्वक कह सकता है। वैसे तो मन पर उस क्षण का स्वाद बहुत तीखा छूट जाता है लेकिन जब उसे प्रकट करने की चेष्टा करो तो लगता है कि यह तो न मालूम कितने जाने-अनजाने स्वादों का सम्मिलित स्वाद है जिसके संवेदन को ठीक-ठीक व्यक्त कर पाना असम्भव-सा ही है। एक हिचक मन में और होती है कि जो कुछ कहने-सुनने लायक था वह तो एक-एक बूँद काव्यकृति में उँड़ेलकर वह क्षीण रीत गया, अब अपनी याददाश्त में उसे फिर से सम्पुंजित करने की चेष्टा भी करें तो ऐसा न हो कि उसका आस-पास, परिस्थिति, समय, स्थान और आसंग तो वापस खोजे जा सकें—मगर उसका मर्म, उसका सारत्त्व छूट ही जाये।

कई बार समकालीन लेखन में भी रचना-प्रक्रिया के ऐसे सांगोपांग विवरण देखने को मिले हैं; पर उन्हें देखकर बहुधा यही भावना हुई है कि वे अजायबघर में रखे हुए जलपाखी है, खालमढ़े मृतरूप जिनमें रूप-रंग, आकार, पंजे, पंख सब जुटा दिये गये हैं किन्तु गायब है तो केवल उसकी उड़ान—पूर्णिमा की रात को चन्द्रमा और समुद्र के बीच उसकी आकुल आवेश-भरी उड़ान; और ग़ायब है उसकी अजीब-सी चीत्कार-भय वेदना, उल्लास, उन्मत्त वासना, विजय और आशंका से भरी हुई। अजायबघर का पाखी दूसरे दिन सुबह बालू पर छूट गया उसका अवशेष है—जलपाखी नहीं।

एक ओर यह दुस्तर कार्य और दूसरी ओर यह मेरा अजीब-सा मन जिसे उन्मुख करो पूरब की ओर तो भागेगा धुर पश्चिम की ओर। नियोजित करो अपने काव्य-सृजन के क्षणों को पुनः स्मरण करने को, तो अदबदाकर उसे वे क्षण याद आयेंगे जो मन पर जाने कब अपनी छाप छोड़ गये है लेकिन काव्य-सृजन से उनका दूर का लगाव भी नहीं है। विन्ध्य की एक पहाड़ी नदी में अँधेरे का स्नान, अपने पुराने घर के उखड़े पलस्तरवाली एक दीवार पर कल्पित बेडौल शक्लें, कोणार्क के रास्ते में फरद के लाल उत्तप्त नोकीले फूल, बीमार पत्नी का मुरझाया चेहरा, तैरते हुए मछलियों के झुण्ड और यह, और वह, और तमाम सब, लेकिन सब परस्पर असम्बद्ध, और रचना के क्षण से जिनका कोई दूर का सूत्र भी नहीं जुड़ता।
लेकिन इस सबों के बीच रह-रहकर मन एक स्मृति-चित्र पर बार-बार जा टिकता है, बहुत पुराना, लेकिन अब भी बिलकुल ताज़ा....


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