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कविता संग्रह >> कोई देख रहा है

कोई देख रहा है

हरभजन सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 578
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है हरभजन सिंह की उत्कृष्ट कविता का संग्रह...

Koi Dekh Raha Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पंजाबी के अग्रणी कवियों में सर्वमान्य डॉ. हरभजन सिंह की कविताएँ आदर्श और यथार्थ,तथ्य और विचार के बीच निरन्तर चल रहे तनाव-एक बैचेनी को व्यंजित करती हैं। उनकी कविताओं की खामोशी में अन्तहीन शोर और वक्तृत्व में अन्तहीन खामोशी बजती रहती है, जिसकी अनुगूँज पाठक को बहुत-कुछ सोचने-समझने के लिए मजबूर करती है।हरभजन सिंह के इस संग्रह की कविताओं में भी समाज के कमजोर तबकों के शोषण और निर्मम अत्याचार के विरूद्ध उनका कवि-स्वर मुखरित हुआ है। एक दार्शनिक एवं चिन्तक होने के नाते उनकी इन कविताओं में साधन और साध्य की पवित्रता का विशुद्ध आग्रह है, एक रहस्यात्मकता हैं, उलझे हुए प्रतीक हैं। शब्दों में गुँथी हुई कविता और कविता में गुँथे हुए शब्द, जब परत-दर-परत खुलते हैं तो हर परत एक नया अर्थ दे जाती है। प्रस्तुत संग्रह में एक लम्बी कविता माथा दीये वाली के अतिरिक्त उनकी बारह अन्य कविताओं का रूपान्तर है।

भूमिका


पता नहीं मैने पहली बार कविता कब लिखी थी। हाँ,इतना जरूर जानता हूँ कि लिखे जाने से पहले वह कविता अलिखित रूप में कहीं-न-कहीं मौजूद थी। मेरी कविता कागजों पर उतरने से पहले किसी बीहड़ में बिखरी चीख थी। यह वीराना या सन्नाटा कभी मुझे जंगल प्रतीत होता,तो कभी रेगिस्तान,कभी-कभी गाँव के बाहर गुम हो चुकी खाक और कभी शहरों की बेतरतीब बदशक्ल भीड़, जिसमें कोई भी आदमी बड़ी सहजता से गुम हो सकता है. मेरी कविताएँ जंगल,रेगिस्तान,खाक और भीड़ में भटकते किसी एकाकी अन्वेषण की प्राप्ति हैं।

सबसे पहले जंगल।
मेरा जन्म मेरे गाँव से बहुत दूर एक जंगल की सीमा पर हुआ था। जंगल के पास घर मेरी कल्पना की धरती पर गड़ा हुआ है,जरूरत पड़ने पर जहाँ से मैं कोई चमचमाता सिक्का,कोई अशर्फी कोई मोहर निकाल लेता हूँ। यह अकूत खजाना सिर्फ मेरे लिए है और मेरे साथ ही खत्म होगा। मेरे समकालीन और पूर्वकालीन कवियों के पास भी इसी तरह के अनूठे खजाने होंगे जिनका उपयोग सिर्फ वही कर सकते हैं। इन्हीं खजानों के कारण ही हर कवि की कविता का रूप दूसरे की कविता से अलग होता है।

यह जंगल भी बड़ा अनूठा है। यह आम जंगल जैसा नहीं है,यह एक खोया हुआ जंगल है जो सिर्फ मेरी कल्पना में एक तस्वीर की तरह लटका रह सकता है,एक भूली-बिसरी याद की तरह बस सकता है। इसकी सीमा पर एक घर था,जिसमें मेरा जन्म हुआ। यह मुझसे खोया हुआ मगर मेरी कल्पना में लटकता हुआ घर है। मेरे आलोचक कहते हैं कि मैं रोमानी स्वभाव का कवि हूँ। मैंने उनके इस कथन पर कभी शक नहीं किया। वे यह बात मजाक में कहते हैं। मैं इसे अपने जीवन में सत्य के रूप में स्वीकारता रहा हूँ। रोमानी कवि अपनी ही दुनियाँ में खोये रहते हैं। मेरा जंगल और मेरा जन्म-घर मुझसे बहुत दूर हैं मगर उँगली में चुभी फाँस की तरह मेरे बहुत ही करीब बल्कि मेरे अन्दर ही झिलमिलाते रहते हैं। मैने या मेरे परिवार के किसी सदस्य ने वह घर बेचा नहीं,मगर उस पर अपना अधिकार छोड़ा भी नहीं। किसी कारणवश एक बार उससे बिछुड़ने के बाद उस ओर लौटने का मौका कभी नहीं मिला। दरअसल मेरी दौलत वह है जो मुझसे बिछुड़ गयी और यथार्थ की कोख से निकलकर मानस-योनि में जा पहुँची। मैंने कुछ भी नया सृजित नहीं किया,सिर्फ अपनी खोयी हुई वास्तविकता को मानसिकता में बदलता हुआ उसे शब्दों के रूप में कागजों पर उतारता रहा हूँ।

जंगल की सीमा पर टिका मेरा घर मेरे सिर पर आड़ की तरह टिका रहता तो मेरे लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता था मगर मुझसे बिछुड़कर वह मेरे लिए ऐश्वर्यपूर्ण हो गया। अपने घर से बिछुड़कर मैं दूसरों के घरों में भटकता रहा। प्राप्ति की कुरूपता और अप्राप्त की सुन्दरता के मिलन-बिन्दु पर मेरे सृजन का निवास है। जब मैने पहली बार ‘सुन्दर’ की परिभाषा पढ़ी तो मेरा बिछुड़ा हुआ घर बड़ी शिद्दत के साथ मेरे जेहन में उभरा था,जगमगाती मीनार की तरह। विद्वानों ने मुझे बताया कि श्रृंगार उपयोगिता से बिछुड़ा हुआ अनुभव है। जो व्यक्ति उपयोग के नुक्ते भर टिका रहता है वह सौन्दर्य की दौलत से वंचित रह जाता है। सुन्दरता उपयोगिता की विरोधी नहीं बल्कि उससे अलग हो गयी सत्ता है। मुझसे बिछुड़ा वास्तविक घर मेरे लिए स्वर्ग बन गया। पुस्तकों में सुन्दरता की परिभाषाएँ पढ़ने से पहले ही सौन्दर्य का वह रूप मेरी अन्तरात्मा में विराजमान हो गया था। उपयोगिता की मजबूरी से मुक्त होकर ही सौन्दर्य का दर्शन होता है। उनमें से एक को छोड़कर ही दूसरे के साथ धर्म निभाया जा सकता है। यह फैसला मुझे नहीं करना पड़ा। यह स्वयं ही हो गया।मेरे कवि होने का फैसला तो उसी दिन हो गया था जिस दिन मैं असम के जंगल के किनारे बसे अपने घर को छोड़कर पंजाब आ गया और वास्तविकता का यह टुकड़ा किसी रंगीन चित्र की तरह मेरे मानस-पटल पर अंकित हो गया।

यह मेरी कविता का ही नहीं,मेरे जीवन का भी प्रतिमान बन गया। मैं अपने उन मित्रों से खुद-ब-खुद दूर होता चला जाता हूँ जो मेरे लिए उपयोगी होने में समर्थ हो जाते है। यह मेरी मनःस्थिति की कार्यशैली है कि समर्थवान मित्रों को मैं अपने करीब नहीं आने देता। वे मेरी खामोशी में उत्तेजना की तरह बसते हैं। मैं हमेशा परोपकारियों के प्यार-दुलार से बचता रहा हूँ। मुझे दान में मिली चीज से एलर्जी है।

मेरी काव्य-प्रकाशन के पहले पड़ाव पर ही मुझे श्रृंगारवादी कवि कहा जाने लगा। मेरे लिए यह विश्लेषण भी ताने की तरह तजबीज हुआ। मगर था बहुत ही दुरुस्त। वास्तविकता और उपयोगिता की मांग करनेवाले सर्जकों-विचारकों को श्रृंगारिकता अपने विरुद्ध बेप्रतीति का ठप्पा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है जैसे कोई किसी के पैरों के नीचे से ठोस जमीन खींच रहा हो और उसे अकेला हवा में लटकने के लिए मजबूर कर रहा हो। मैने इस विश्लेषण को खुशी-खुशी स्वीकार किया। बल्कि मैं श्रृंगार के विशेष अध्ययन की ओर आकृष्ट हुआ। पहले यह मेरा अचेत अनुभव था,धीरे-धीरे यह मेरे सचेत अनुभव का मुद्दा बन गया। काव्य-रचना उपयोगी व श्रृंगार की पहल-दूज के क्रम को बदलते का साहस है रचना के साथ-साथ घटित होता विचारों का कार्य। इनमें से कुछ भी उठाकर रखा नहीं जाता। उपयोगिता वास्तविकता अपने स्थान पर टिकी रहती है,सिर्फ कवि श्रृंगार को वास्तविकता से पहले अपना लेता है। कविता उस कुरूपता के विरुद्ध बेप्रतीति का मुद्दा है जो वास्तविकता का अभिन्न अंग है। सदाचार,प्रगति और क्रान्ति-सब अपने-अपने में श्रृंगार के अलग-अलग रूप है। जो व्यक्ति वास्तविकता से परे स्वप्न की दुनिया में विवरण नहीं करता है,उसको श्रृंगार का कोई अनुभव नहीं होता।

वास्तविकता और श्रृंगार जैसा ही रिश्ता मैने कविता और काव्य में बनाया हुआ है। मात्र पंक्तियाँ जोड़ते रहने में मुझे दिलचस्पी नहीं, मेरी अभिरूचि तो काव्य-सृजन में रही है। मेरे तन-मन में बसा उन्मुत्त आलोचक मन ही मुझे बताता रहता है कि मेरी कविता में काव्यात्मकता आयी है या नहीं। मेरी प्राथमिकता काव्य के लिए है। जो कुछ भी काव्य से हटकर है उसका त्याग करते हुए मुझे संकोच नहीं होता है मेरे अस्वीकृत अस्तित्व के टुकड़े मेरे स्वीकृत अस्तित्व के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं। मेरा काव्य-सृजन हमेशा क्रियाशील है,अपने में से बहुत कुछ त्याग कर अपनी ही नजर में स्वीकार योग्य बनने के लिए। कुछ इसी प्रकार अलगाव मुझे लेखक और कर्ता के बीच महसूस होता है। लेखक को पीछे छोड़कर कर्ता तक पहुँचना बस यही मेरी काव्य-सृजन की दिशा और लक्ष्य है।

जंगल के किनारे बसा और मुझसे बिछुड़ा घर मेरे लिए एक मिथक लोक वैदिक हकीकत है। यह घर ही नहीं,इस घर के सदस्य भी धीरे-धीरे मुझसे बिछुड़ते चले गये और मेरे पास रह गये उनके चित्र और उनके साथ जुड़े मिथक और लोक-कथाएँ। यह भी यथार्थ की कोख से निकलकर मानस-योनि में जाने जैसा अनुभव था मेरा।

मेरी रचनाओं के मिथकीय लोकवैदिक आधारों की ओर मेरे किसी आलोचक का ध्यान नहीं गया। यह भी अच्छा ही हुआ। यह शायद स्वाभाविक भी था क्योंकि यह सिर्फ मेरी मनोवृत्ति से संबंधित है-मेरा खजाना-जिसका सिर्फ मैं ही उपयोग करता हूँ। जब कोई कहता है कि हमारे लोकवेद के प्रतिमान हमसे छूटते जा रहे हैं और यह हमारा कर्तव्य है कि हम इन्हें सँभाल कर रखें,तो मुझे अपने अस्तित्व की चेतना का अहसास होता है। बाहर का ‘खो चुका’ बहुत कुछ मैने अन्दर सहेज कर रखा हुआ है। मुझसे बिछुड़ गयी ’चीजें’ मेरे ‘व्यक्तित्व’ का अंग बन गयीं। इसी जादुई रूपान्तर से गुजरकर मैं और मेरा काव्य वह सब बने है जो कुछ भी ‘हम’ हैं। दुनिया का लोकवेद कोई बाह्यमुखी सत्ता है जिसका रंग दिन-ब-दिन फीका पड़ता जा हा है,लोकवेद के शोधकर्ता जिसके धुँधलाये हुए रूप को ही सँभालने के लिए क्रियाशील हैं। मेरा लोकवेद अन्तर्मुखी है जिसका रंग दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। मै इसको सँभालता नहीं,इसका उपयोग करता हूँ।

मेरे अन्दर बसे मिथकीय लोकवेद में से बहुत-सा अंश मेरी माँ से सम्बन्धित है। ईश्वर भी एक मिथकीय उल्लेख है। इसका रूप पुल्लिंग है इसलिए हमारी लोक-वैदिक परम्परा के अनुसार इसका वास हमारे बाहर ही है। संकट के समय हम दुहाई देकर स्वयं उसे सहायता के लिए बुलाते हैं। मेरे मिथकीय ईश्वर के नाक-नक्श मेरी माँ जैसे ही हैं और वह हमेशा मेरे अन्दर विद्यमान रहता है। संकट के समय उसे आवाज देकर बुलाने की मुझे आवश्यकता नहीं पड़ती।

माँ तुम्हारी खातिर
माँ तुम पर कुर्बान
माँ तुम्हारे योगी
माँ तुधवन्ती

जब जब तुझे भूख सताये
पराया निवाला तुझसे माँगा न जाये
चुपचाप चिनगारी चमचमाये
तब तब हाजिर
माँ दूधवन्ती

देश के मौसम जिस पल काले तीखे
राह न रास्ता कोई दीखे
कहीं न कोई दिया जलाये
तब तब जलती
माँ सुधवन्ती

मेरे अन्दर बोलती माँ ने मेरी समूची जीवन-प्रक्रिया को अनूठे रंग में रंगा हुआ है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि पराजित व्यक्ति ही सक्रिय हो सकता है। खोया हुआ व्यक्ति ही प्रेम कर सकता है। अपनी उपलब्धियों के साथ जुड़े रहना लोभ है,प्रेम नहीं। प्रामाणिक प्रेमी वही होता है जो खोये हुए की खोज में निरन्तर जुटा रहता है। कभी-कभी मैं अपने इस विश्वास की त्रुटियों पर भी विचार करता हूँ मगर यह मेरे अस्तित्व का लोकवैदिक आधार है और इसे आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता। चूँकि मेरे अन्तरंग प्रियजन मेरे मन में निवास करते हैं इसलिए मैं अधिकतर अपने आप में खोया रहता हूँ। अपने आप से बातें करते-करते ही काव्य रचा करता हूँ। कभी-कभी मेरे साथ चलता हुआ व्यक्ति तंग आ जाता है क्योंकि मैं उसकी साकार उपस्थिति से बेखबर अपने मन में बसे निराकार की आवाज सुन रहा होता हूँ। मैं न तो बेवजह खीजते मित्रों से परेशान होता हूँ और न ही अपनी कविता के बुरा-भला कहनेवाले आलोचकों से। अपनी इच्छानुसार जीने तथा रचने की कीमत मुझे चुकानी पड़ी है जो मैं खुशी-खुशी चुकाता भी रहा हूँ।

दरअसल,मेरी रचना-प्रक्रिया का यह अन्दाज कुछ अनोखा जरूर है। ईश्वर के पिता और माता दोनों रूप हमारी परम्परा के अंग है। मैने इनमें से किसी का भी त्याग नहीं किया है,सिर्फ इनके क्रम में परिवर्तन किया है। मैने ईश्वर के पिता-माता क्रम को माता-पिता क्रम में बदला है। मैने अपनी स्वीकृत परम्परा पास-दूर क्रम को दूर-पास क्रम में बाँधा है। मैंने तो अपनी परम्परा की विशिष्ट रचनाओं में से अपनी इच्छानुसार कुछ नया गढ़ा है।

मैंने कहा न, मुझे याद नहीं मैने पहली कविता कौन-सी और कब लिखी थी। जिन कवियों ने पहली ही कोशिश में पूरी-पूरी कविता लिख डाली,उस कतार में खड़े होने का सौभाग्य मेरा नहीं है। मैं तो पहले पहल छोटी-छोटी पंक्तियाँ,आधी-अधूरी कविताएँ गुनगुनाता रहा। वह भी अपनी नहीं,दूसरों की सुनी-सुनायी। फिर धीरे-धीरे उन पंक्तियों के साथ-साथ अपनी तुकबन्दी जोड़ता रहा। मेरी कविता मुझे लोक-कविता से पनपती प्रतीत होती। अनजाने में कोई पंक्ति किसी के मुँह से सुनकर मैं अपनी कोई लय पकड़ लेता और कई-कई दिन तक उसे पीसता चबाता रहता। आस-पास के लोगों ने धीरे-धीरे यह महसूस किया कि मैं तुकबन्दियाँ करता हूँ। एक घटना याद आ रही है। हमारे घर के बिल्कुल सामने एक गुरद्वारा था। एक दिन वहाँ भाटों का एक जत्था आया हुआ था जिसने मिथकों पर आधारित एक प्रसंग सुनाया। सिक्ख पंजाब से इधर-उधर फैल गये थे और उनके बगैर मुगल नवाबों का मन लगता नहीं था। अपने मनोरंजन के लिए उसने भाटों से सिक्खों की नकल उतरवाने का फैसला किया। उस नकल की पहली पंक्ति जो उन भाटों ने सुनायी वह थीः

ओहना पा हँकारीआँ जी कच्छाँ
हथ फड़ लईआँ तेगाँ नँगीआँ ने

उसके बाद उन्होंने जो भी कहा,वह न तो मुझे आज याद है और न ही मैं उन दिनों समझ सका था। दुनिया के साथ मेरा रिश्ता आधी-अधूरी समझ वाला है। बहुत-सी बातें मैं आधी-अधूरी ही समझता हूँ। मै उन सुधी व्यक्तियों की अक्ल पर दंग रह जाता हूँ जो सब कुछ पूरे-का-पूरा समझ लेते हैं। अधिकतर मैं खुद ही बेखबर हो जाता हूँ और कई बार वक्ताओं,गायकों के बोल भी एक-दूसरे में इसी तरह गड्ड-मड्ड हो जाते कि कुछ भी मेरे पल्ले नहीं पड़ता। खैर ! मैं भाट सिक्खों की एक ही पंक्ति और धुन पर मोहित हो गया। इसका एक कारण तो ‘हँकारी कच्छों’ की व्याख्या थी जो भाट जत्थे के जत्थेदार ने की। ‘हकारीआँ’ सरदारों का खास शब्द है जिसका अर्थ है ‘फटी हुई’। इस व्याख्या को सुनकर सारी संगत हँस पड़ी। यह पंक्ति मेरे लिए अनेकार्थक रचना बन गयी। यह प्रसंग सिक्ख इतिहास का लोकवैदिक रूप था। हकारिआं-लोकवैदिक बोल भाट-लोकनाटक के अभिनेता,पंजाबी छन्द-बेंत और भाटों में प्रचलित उसकी धुन,यह सब मुझे एक ही समय संयुक्त रूप मैं प्राप्त हुआ और मेरे अवचेतन मन में सहजता से उतर गया। इस तरह के उपादान आकलन करने योग्य मैं बहुत वाद में हो पाया। कई दिन,बल्कि कई हफ्ते यहीं पंक्ति मै हर जगह गुनगुनाता रहा। कभी-कभी शब्द रहित धुन ही गुनगुना देता। बीच-बीच में भाटों की तरह बाहें फैलाकर अभिनय भी करता। लोक-गीत से प्राप्त इस पंक्ति में मेरी अपनी दूसरी पंक्ति कब जुडी यह भी अपने आप में दिलचस्प घटना है। एक बुजुर्ग व्यक्ति ने एक दिन बहला-फुसलाकर मुझे भाटों की नकल उतारनेवाला प्रसंग सुनाने के लिए राजी कर लिया। खाने-पीने का समय था। बैठक की खिड़की की ओर पीठकर मैंने प्रसंग शुरू किया। पंक्ति तो मुझे एक ही आती थी। आप ही मैं जत्था था और आप ही जत्थेदार। खुद ही गायक और खुद ही व्याख्याकार। मुँह से निकलती वार्ता को मैं कविता की तरह हेक लगाकर उच्चरित करता रहा। पता नहीं यह सिलसिला कितनी देर चलता रहा। खत्म हुआ जब कमरे के बाहर खिड़की में खड़ी औरतों में से एक की हँसी,छूट गयी ! मैं शर्मसार हो गया। शर्म के मारे मेरी जुबान पर ताला पड़ गया। इसको मैं कमोवेश अपनी पहली कविता रह सकता हूँ,जिसमें एक उधार ली हुई पंक्ति की नींव पर मैंने अपना काव्य-महल खड़ा कर लिया था।

आज जब उम्र समय के उस नुफ्ते से बहुत आगे निकल आयी है सोचता हूँ कि काव्य-संरचना के बीज तो मुझमें बचपन से ही थे। मैं दूसरे के मुँह से सुने बोलों को अपने सृजन का आधार बनाता रहा।

मुखड़े ही नहीं,कई बार कविताओं के बीच की पंक्तियाँ भी मैं ज्यों-की-त्यों उपयोग कर लेता हूँ। मुझे लगता है मेरा बचपन आज भी मेरे अंग-संग चला जा रहा है। जैसे बच्चे के पास इधर-उधर से प्रवचन पहुँचते है और वह उन्हें अपना बनाकर बोलने लगता है। इसी प्रकार इधर-उधर से प्राप्त प्रवचन मेरी बड़ी उम् में भी मेरे पास पहुँचते हैं और मेरे मन में बैठकर कविता का रूप ले लेते हैं। मुझे याद आ रहा है कि किस्सा अँग्रेजी भाषा के एक प्राध्यापक का-जिसके एक आलेख पर टिप्पणी करने की मूर्खता मैं कर बैठा। उसने मेरे बारे में एक लम्बा-चौड़ा लेख लिखा और अपने सारे पर्चे में उसने मेरी काव्य-रचना में त्रुटि निकाली कि मैं कविता की तुकबन्दी के लिए पंक्तियाँ यहाँ-वहाँ से उठाकर काम चलाता हूँ। उसने यह लेख सम्भवतः मुझे नीचा दिखाने के लिए लिखा था लेकिन मुझे उस लेख में सच की झलक दिखाई दी। किसी भी सम्याचार में काव्य का महाप्रवचन दरिया की तरह निरन्तर बहता रहा है और कवि उसमें ‘चिड़िया चोंच भरकर लेगी’ की तरह थोड़ा-बहुत पीते-पिलाते रहते हैं। इस दरिया में हमेशा बहुत कुछ ऐसा पड़ा रहता है जिसे किसी और कवि की कविता में खूबसूरत पंक्ति बनकर टिकना होता है। यह सम्याचारक तत्व ही कविता को काव्य बनने में सहायक होते थे। काव्य के तत्त्व सम्याचार के अन्दर विद्यमान होते हैं,किसी भी कवि के जन्म लेने से पहले। पानी के दरिया और प्रवचन के दरिया में फर्क सिर्फ इतना ही है कि काव्य-प्रवचन छोटी-मोटी कई धाराओं के रूप में जिस-जिस के मन में बहते हैं उनकी ही मिट्टी में रंगकर बाहर प्रकट होते हैं। इसीलिए तो मैं बार-बार कहता रहा हूँ कि कविता आसमान से नहीं उतरती। काव्य-रचना समाज के हर व्यक्ति को सहज ही प्राप्त होती है। चाहे किसी काव्य-रचना की मुखमुद्रा में कवि के व्यक्तित्व की झलक मिले,मगर है वह सम्याचार के साझे प्रवचनों की झलक। इसी को मैं लोक-काव्य में से वैयक्तिक कविता का उदय होना कहता हूँ।

मेरे इर्द-गिर्द मेरी माँ मिथकों तथा मेरी बहन लोकगीतों का अकूत खजाना थी। यह वर्गीकरण तो नाम के लिए ही है,दोनों एक-दूसरे में रचे-बसे दरिया थे। श्वेत-श्याम जल के गंगा-जमुनी संगम में मैंने थोड़ी देर स्नान किया जिसका प्रभाव आज भी मेरे मन पर बना हुआ है। ‘‘माँ मुझे अमृतसर लगता प्यारा’’ मिलकर गाती थी जिसमें अक्सर परिवार के दूसरे सदस्य भी शामिल हो जाते थे। मैने इस तरह के कई लोकगीत लोक कविताएं,कहानियाँ दादी-माँ-बहन सभी को समूहगान के रूप में गाते हुए भी कई बार सुना। मेरा बचपन बहुत छोटा है। बचपन में सुने गीतों में से कुछ याद हैं,मगर,वे बहुत दूर तक मेरे साथ चलते रहे,अपनी-अपनी धुनों के साथ-साथ।

मुझे लगता है उन दिनों हमारे घर में नहीं,सारे इलाके में लोकगीतों की प्रधानता थी। उन दिनों रेडियो नहीं था, टेलीविजन भी नहीं था,घरों में ग्रामोफोन भी आम नहीं था, मगर लोकगीतों से फिजा गूँजती थी। लाईआ मिठ्ठीआं शरत गंडेरीआं, मैं ता कट्ट कट् लाईयां ढेरीआं (शर्बत-सी मीठी गंडेरियाँ काट-काट कर लगा दी मैंने ढेरियाँ) गीत का यह मुखड़ा मैने राह चलते सुना और अपना बना लिया। इस गीत के बाकी मुखड़े मेरे सुनने में कभी नहीं आये,मगर इसकी धुन आज भी मेरे मन में बसी हुई है। आज यह कहना कठिन है कि इन गीतों की तरफ मैं इनकी धुनों के कारण प्रभावित होता हूँ या इनके अर्थों के कारण। मैने कई बार अपने आप से सवाल किया है-कविता क्या रचती है ? अपना अर्थ ? धुन ? या इससे हटकर कुछ और ? शायद समूचा सम्याचार ! मगर इतना मैं अवश्य कहूँगा कि कई बार कविता के शब्द मुझसे अलग हो जाते हैं। बोल बिखर जाते हैं। और धुन मेरे आस-पास मेरा जी बहलाने के लिए टिक जाती है। मैं समझता हूँ कि धुन कविता की व्याकरण है जिस पर कविता की रचना होती है। कई बार मैं दूर कहीं से आ रहे गीत की आवाज सुनता-सुनता एकमन और एकाग्रचित होकर ठहर जाता हूँ। बोलों के मुखड़े पहचाने नहीं जाते और धुन मुझे मन्त्रमुग्ध कर लेती।
कविता से जुड़ा मेरा पहला प्रभाव कुछ इस तरह का था। भाटों की बारें,गुरबाणी से जुड़ी लोक कथाएँ सूफी दरवेशों की कव्वालियाँ,भिखमंगों-फकीरों की खैरातें,बागियों की हेकड़ी-ये सब मुझे झिंझोड़ते रहे। इन्होंने मेरी मनोभूमि को नमी प्रदान की। कई बार मैं सुरताल में बँधी इनकी आवाजें भी सुनता रहा। थोड़े-बहुत बोल-समझ में आते और बाकी हवा में बिखर जाते। जो थोड़े-बहुत मुझ तक पहुँचते वह भी आधे-अधूरे। उनको पूरा करने की इच्छा कितनी-कितनी देर तक मेरे मन में बनी रहती। मेरी रचना-शैली का भी यही हाल है। रचना मैं ऐसे लिखता हूँ जैसे कहीं दूर से आ रही आवाज को सुन रहा हूँ। उसका कुछ हिस्सा मेरी समझ में आता है कुछ नहीं आता है। मैं आधी-अधूरी रचना को भी कई-कई दिन गुनगुनाता रहता हूँ। वह कभी पूरी हो जाती है और कभी आधी-अधूरी ही गुम हो जाती है। माएँ नी कि अंबरा च रहण वालीए सानू चन्न दी गराही दे दे। चाँदनी रात में कहीं दूर से चली आ रही आदम बोल-धुन का ही वरदान है। डाली पर लगे अकेले मगर खूबसूरत फूल की तरह पता नहीं कितने दिनों तक मेरे अंग-संग रही। इसकी दूसरी-तीसरी पंक्ति बनने तक मेरी सूझ परख में बहुत अन्तर आ चुका था। पहली पंक्ति के समय मैं बच्चा था और दूसरी के समय जवानी के रूप में मैं खोये बचपन को ढूँढ़ रहा था।

निर्दोष पुण्य कविता के लिए प्रेरणा बन जाता है। यह अनुभव आज भी मेरे काव्य-कर्म का अंग है। मेरे आलोचकों ने मेरे गीत-‘सो जा मेरे मालका वीरान होई रात’ को अक्सर सराहा है। हुआ यूँ कि सन् ’47 या 48’ की मीठी-मीठी रुत में मैं अपने घर की छत पर उनींदा लेटा था। चाँदनी रात थी। सामने घर में कुछ दिल्लीवाली औरतें ढोलक पर गीत गा रही थीं। ढोलक और इतनी सारी औरतों की आवाजों में गीत के बोल गुम हो गये थे। बहुत ध्यान लगाकर सुनने पर भी गीत के बोल समझ में नहीं आये। मेरा अपना अन्दाजा था कि ‘बरान होई रात’ इस मुखड़े के अन्तिम शब्द थे। भारत को आजादी का ऐलान भी आधी रात के समय ही हुआ था। किन घुमावदार राहों से गुजरते ‘बरान होई रात’,‘भारत की आजादी’ और आजादी से पहले के ‘फिरकू दंगे’ एक-दूसरे में रच-बस कर मेरे काव्य-सामर्थ्य के अभिन्न अंग बन गये,मैं नहीं जानता। और इसी तरह एक और गीत की रचना हुई। अपनी कविताओं को पढ़कर बड़ा आनन्द आता है। मगर मैं जानता हूँ ये रचनाएँ सिर्फ मेरी नहीं है। उनमें से बहुत-सा योगदान दूसरों का भी है,जिनमें से कुछ को मैं पहचानता हूँ और कुछ अभी तक अचेत और अपरिचित बने हुए हैं-
एक मिट्टी की ढेरी काया मेरी
मित्र बन्धु हवा की तरह आएँ
सब राहों की मिट्टी इकट्ठी कर लाएँ
कुछ देर बैठ पकड़ लें अपनी राहें
यह माटी की ढेरी कुछ बह जाएँ
यह माटी की ढेरी कुछ घट जाएँ
मेरे रोम-रोम में मेरे हम उम्र
मुझसे अपनी पहचानी न जाए।

मेरे अन्दर बसे मेरे समकालीन मुझसे चेतन कम हैं अत्तेजन अधिक। अधिकतर तो भारत के इतिहास की तरह मेरे अन्दर पिघलकर मेरा ही एक अंग बन गये। मुझे अपना अन्तर्मन भी अपने बाहर से कुछ अलग प्रतीत नहीं होता। दोनों में फर्क यही और इतना ही है कि मैं बहुत कुछ भूल जाता हूँ। भूलना मुझे अच्छा लगता है। भूलना भी याद रखने का एक अंग है। भूलना त्यागने योग्य का त्याग ही तो है। इस तरह अविस्मरणीय अधिक स्पष्ट रूप में याद रहता है। यही स्थिति मेरी कविता के विषय में है। मै अपनी इतनी कविताएँ भुला-बिसरा चुका हूँ कि उनके बारे में सोचकर भी हैरानी होती है। मगर मुझे कोई अफसोस नहीं है। कविताएँ यूँ धाराप्रवाह चली आती रहीं है कि मुझे भूली बिसरी कविताओं का गम नहीं। ‘चित्रकार तो आप बनाकर आप ही मिटा दे तस्वीरें’-यह कविता मैने किशोरावस्था में लिखी। किसी भूली बिसरी कविता की पंक्ति है। सारी कविता मिट गयी लेकिन एक पंक्ति जेहन में रोशन रह गयी। चढ़ती जवानी में लिखी कविताओं में से बहुत कुछ नष्ट हो चुका हो-परिपक्व उम्र की रुत में। उनके खँडहर आज भी कभी-कभी जेहन में उभरते हैं।

किशोरावस्था में न तो मुझे अपना ही होश था न ही अपनी रचनाओं को सँभालने की चिन्ता। मैं अव्यवस्थित आदमी हूँ। कुछ रचनाओं को मैं बहुत कीमती समझता रहा, और वे पन्ना-पन्ना होकर यूँ बिखऱ गयीं कि मैं उन बिखरी हुई रचनाओं को इकट्ठा करने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाया। मैं शायद कुछ ज्यादा ही आलसी हूँ अपनी रचनाओं को सँभालने के लिए जिस प्रकार के उद्यम की आवश्यकता होती है,उनके मूल्य-महत्व को समझते हुए भी,मैं उस ओर उत्साहित नहीं हो सका। इस शताब्दी के छठे दशक में मैंने एक रचना लिखी थी जिसका मैने कामचलाऊ सा नाम रखा था-‘साँप और पत्थर’। एक व्यक्ति के घर से निकलने की कहानी थी जिसे रास्ते में नायक का बुत मिलता है। बुत के गले में किसी ने सर्पिणी को जख्मी कर फूल की माला की तरह पहना दिया है। सर्पिणी पूरी तरह से मरी नहीं है। मरने से पहले की अवस्था में बेचैनी-से करवटें बदल रही है। पत्थर का बुत उसकी नरम देह की नरमाहट को महसूस करता है। पत्थर में प्राणों का संचार होता है और उसे अपने देश की खातिर अपने लड़ने-मरने की कहानी याद आ जाती है। दूसरों की खातिर लड़ने-मरने के लिए उसने निर्मोही होकर अपने प्रेम का त्याग किया था। उसको अब मोह के अधीन होकर याद आता है। उसके कुछ आधे-अधूरे टुकड़े अभी भी याद हैं जो मैने ‘निकसुक’ नामक संग्रह में दिये थे। इस लम्बी कविता के भिन्न-भिन्न अंश मैने अपनी डलहौजी यात्रा के दौरान एक-एक वर्ष के अन्तराल में लिखे थे। और फिर अध्यापन-जगत् में नये नक्श उभारने के शौक में सब कुछ भुला दिया। मेरे अपने ही घर में वह कभी मेरे फालतू कागजों के बोझ-तले दफन हो गयी और फिर कब और कैसे पुर्जा-पुर्जा गुम होते चले गये मै नहीं जानता। मुझे लगता है मैने स्वयं ही उन रचनाओं को सहेजने की कोशिश नहीं की। जितना भी जुबानी याद रहा कभी अकेले में गुनगुनाता रहा और कभी आसपास बन्धु-मित्रों को सुनाता रहा। अपनी ही रचनाओं के प्रति अपनी इस लापरवाही पर हँसी आती है। अपनी पहली रचना के प्रकाशन के समय भी मेरा ध्यान इस लम्बी काव्य रचना की ओर नहीं गया। इसमें से एक-आध टुकड़ा प्रकाशित करना मैने उचित नहीं समझा। अध्यापन,शोध तथा नयी काव्य-रचनाओं में मै इतनी बुरी तरह उलझा रहा कि बहुत कुछ पीछे छूटता चला गया। जेहन में बहुत पहले टिके शोख नक्शे धूल चाटते रहे तथा नये-नये शोखतर उभरते रहे।

शायरी के अंग-संग जीना किसी जीते जागते मनुष्य के अंग-संग जीने का अनुभव है। दूर तक फैले जीवन में इतनी व्यस्तताएँ हैं कि कई बार अनजाने में अपने प्रिय बन्धु भी अपेक्षित रह जाते हैं। मेरा कुछ इसी तरह का रिश्ता कविता के साथ रहा है। मेरे जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा अध्यापन में गुजरा। जितनी देर मै विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहा, प्राथमिकता अध्यापन को ही मिली। उन दिनों अध्यापन का बुरा हाल था। अध्यापकों के लिए क्लासें छोड़ना मामूली बात थी। नियमित रूप से क्लास लेनेवाला अध्यापक नक्कू और खामख्वाह नाकारा समझा जाता था। जीवन में अव्यवस्थित मैं अपने अध्यापन कार्य में पता नहीं कैसे सुव्यवस्थित हो गया। पंजाबी अध्यापकों में काव्य-शास्त्र और साहित्य-समीक्षा की चेतना न के बराबर थी। एक नास्तिक में से आस्तिक का सृजन करना मैने अपना धर्म बना लिया। मैंने अपने व्याख्यानों पर भी काव्य-रचना की तरह मेहनत की। बल्कि उससे भी कहीं अधिक। अध्यापन को पुस्तक-परम्परा और मनुष्य-परम्परा दोनों के साथ जोडऩे का प्रयत्न किया। कविता की तरह अपने व्याख्यानों को लिखित सम्याचार के साथ जोड़ा एक समय ऐसा आया जब मैंने अपने हर लैक्चर को लिख लेना जरूरी समझा। मुझे किसी महिला लेखक का कथन याद आ रहा है। उसने कहा था कि लेखक तो हर समय गर्भवती स्त्री के समान होता है। गर्भवती स्त्री एक पल के लिए अपने गर्भ से छुट्टी नहीं ले सकती। उठते-बैठते सोते-जागते कार्य करते या आराम करते समय वह गर्भवती ही होती है। बस,मेरी हालत भी तब कुछ इसी प्रकार की थी। उन दिनों जब मैं अध्यापक था,मै घर-बाहर हर घड़ी अध्यापन और शोध में डूबा रहता। भीड़ में चलते बसों में सफर करते मैं शोधकर्ताओं को साहित्यिक नुक्ते समझाता। जब अकेला होता तो नये विषयों के बारे में सोचता। हर साल कोई नयी साहित्यिक दृष्टि पढ़ाने के लिए चुनता। कवि से भी कहीं अधिक एकाग्र था मेरा अध्यापक रूप। चौबीसों घण्टे,बारहों महीने मैं अटूट रूप से अध्यापन से जुड़ा हुआ था। अध्यापक का उसके विद्यार्थी जिस बेसब्री तथा आत्मसंयम से इन्तजार करते हैं श्रोता और पाठक कवि का इन्तजार कभी भी ऐसी उतावली से नहीं करते। कविताएँ तो मैंने कई बार आधी-अधूरी ही छोड़ी है। व्याख्याकार लेखन में यह सम्भव नहीं था। अध्यापन में निरन्तर तनावपूर्ण जीवन जीया है मैंने। जाहिर है अध्यापन-कार्य के प्रति मेरे निरन्तर और एकाग्र समर्पण का प्रभाव मेरी काव्य-रचना पर पड़ा। और कुछ वर्ष मैंने काव्य-रचना संसार से मुंह मोड़ लिया। कभी-कभी जब इस भूल का अहसास होता है,मन खिन्न हो उठता है। मगर मैं अपने अध्यापन-कार्य की स्वच्छता और प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए बड़ी-से-बड़ी कीमत चुकाने को तैयार था।

फिर भी मैं सिर्फ अध्यापक न बन सका। कविता की भी अपनी सूक्ष्म कार्यविधि है। वह परोक्ष रूप में निरन्तर मेरे अध्यापन को प्रभावित करती रही है। कविता ने मेरे अध्यापन,लेखन और प्रस्तुति के नक्शे सँवारे। कुछ लोग कहते थे कि कवि की तरह पढ़ाता हूँ। कुछ के अनुसार मेरी समीक्षा में कविता का रंग है। मैने कभी इस बात की गहराई में जाकर यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि मेरे समकालीन यह बात व्यंग्य से कह रहे हैं या मेरी तारीफ कर रहे हैं। मुझे उनकी इस बात में सच्चाई की झलक दिखाई देती थी,मेरे मन में कृतज्ञता का अहसास होता था। मैं चाहे अपनी कार्य-व्यस्तता के कारण कविता को पीठ दिखाता रहा,मगर कविता ने मेरा साथ कभी भी नहीं छोड़ा।

पूरी तरह से मुँह तो मैं भी न मोड़ सका। अध्यापन के महासागर में मेरे लिए कविता के छोटे-मोटे जजीरे या द्वीप आते रहे,जहाँ बैठकर मै कुछ घड़ी सुस्ता लेता था। बांग्ला देश का युद्ध और आपातकाल के दौरान ऐसे मौके भी आये जब मेरा मन अध्यापन-कार्य से उचाट हो जाता था और कविता मुझ पर हावी हो जाती थी। कुछ समय के लिए अध्यापकीय समीक्षा से मुक्ति मिल जाती और चुपचाप एकाग्रचित मेरी मानसिकता का कण-कण काव्य-सृजन को समर्पित हो जाता था। मेरी काव्य-यात्रा के ये छोटे-छोटे पड़ाव समय में बहुत छोटे मगर भावना में बहुत तीव्र थे। आम पाठकों को शिकायत थी कि मै एक ही साँस में बहुत सी कविताएँ लिख जाता हूँ। हो सकता है। मगर तब मेरा आन्तरिक प्रवाह इतना प्रबल होता है कि बाहरी शिकायत पर ध्यान देने का मौका ही नहीं मिलता। कुछ दिन काव्य-सृजना की संगति में बिताकर फिर अपने उन विद्यार्थियों का ख्याल आता जिनकी खातिर समीक्षा की ओर परावर्तित होना मैने अपना धर्म मान लिया था।
कुछ रचनाएँ लम्बे समय तक मेरे ख्यालों में रची-बसी होने के बावजूद आधी-अधूरी पड़ी रहती। उदाहरण के लिए 1982 में प्रकाशित ‘मत्था दीवे वाला (माथा दीये वाला)’ का पहला अंक लगभग दस वर्ष पहले अस्तित्व में आ चुका था। इसका नाम भी मैंने मन-ही-मन तजवीज कर लिया था-‘प्रश्न पिता’। तीन महीने बाद छः महीने बाद जब भी समय मिलता मैं एक आध घण्टे का समय निकाल कर खण्डित रचना का अखण्ड पाठ करता। इससे बहुत कुछ आगे लिखने की प्रेरणा जगती। नये-नये बिम्ब मानस में उभरते जो नयी सोच और नयी भावना को ज

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