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स्वतंत्रता आंदोलन के गीत

देवेश चन्द्र

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :70
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5773
आईएसबीएन :81-237-3563-4

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प्रस्तुत हैं स्वतंत्रता आंदोलन के गीत

Swatantrata Aandolan Ke Git-

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

यह ‘स्वतंत्रता’ क्या वस्तु है ? क्या यह कोई विशिष्ट स्थिति है ? क्या इसका संबंध केवल आर्थिक समृद्धि से होता है ? क्या इसमें किसी आत्मिक सुख की उपलब्धि नहीं होती ? क्या यह ‘स्वच्छंदता’ की स्थिति है जिसमें न कोई शासक होता है न कोई शासित। ‘स्वाधीनता’, ‘स्वराज्य’ और ‘सुराज’ क्या हैं ? ‘गीत’ और ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ में क्या संबंध है ? स्वतंत्रता आंदोलन कब से शुरू हुआ माना जाए ?

डा. ताराचन्द्र ने अंतिम प्रश्न का समाधान कुछ इस तरह किया है कि यदि यह इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना से शुरू माना जाए तो यह संस्था भी किसी राष्ट्रीय भावना का परिणाम थी जो पहले से वर्तमान थी। इस भावना का जन्म कब हुआ ? क्या यह 1857 की यज्ञ-आहुति से जन्मी ? या इससे भी पहले से विद्यमान थी ? राममोहन राय कौन थे ? क्या वह अंग्रेजी साम्राज्य के प्रभाव से नहीं उपजे ? डा. ताराचन्द्र का निष्कर्ष यह रहा कि इस प्रभाव को आंकने के लिए हमें और पीछे जाना पड़ेगा।

भारत के निवासियों के लिए स्वतंत्रता कोई नवीन वस्तु नहीं रही है। सुंदरलाल की पुस्तक ‘ भारत में अंग्रेजी राज’ में अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर द्वारा 8 जून 1857 को जारी एलान का उद्धरण मिलता है जिसमें भारतीयों का आह्वान करते हुए कहा गया है-
‘‘हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों उठो। भाइयों, उठो ! खुदा ने जितनी बरकतें इनसान को अता की हैं, उनमें सबसे कीमती बरकत ‘आजादी’ है। क्या वह जालिम नाकस, जिसने धोखा दे-देकर यह बरकत हमसे छीन ली है, हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा ?...नहीं, नहीं। फिरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का प्याला लबरेज हो चुका है।

‘‘इसलिए मैं फिर अपने तमाम हिंदी भाइयों से कहता हूं, ‘उठो और ईश्वर के बताए हुए इस परम कर्तव्य को पूरा करने के लिए मैदाने जंग में कूद पड़ो’।’’
ये नए आक्रांता जहां भी गए वहां उन्होंने हमारे समृद्ध देश की समृद्धि और संस्कृति को उजाड़ने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इन्होंने वनवासियों तक को नहीं छोड़ा। समाज में ऐसा कोई वर्ग न बचा जिसे इन आक्रांताओं ने पीड़ित न किया हो। आर्थिक शोषण की यह प्रक्रिया प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में जारी रही है।
सन् 1857 के ‘स्वातंत्र्य समर’ के पहले न जाने कितने छोटे-बड़े समर भारत-भूमि पर जगह जगह इन अंग्रेजों के विरुद्ध भारतवासियों ने लड़े, इसका आकलन अभी भी अधूरा है। अंग्रेजों के विरुद्ध वनवासियों के स्वातंत्र्य संग्राम का कुछ लेखा ‘पाञ्चजन्य’ पत्र के ‘वीर वनवासी’ अंक में मिलता है।

सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ में ब्रिटिश इतिहासकार ट्रेवेलियन के वर्णन के आधार पर लिखा है कि दिल्ली के बादशाह के राजदरबार के एक प्रमुख कवि ने एक राष्ट्रगीत की रचना की थी जिससे कि वह समग्र हिंदुस्तान के कंठ से निनादित हो सके। इस राष्ट्रगीत के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं किंतु निर्णय अभी भी नहीं हो सका है। उर्दू के इतिहासकार श्री अली जवाद ज़ैदी का कहना है कि उर्दू में सबसे पहला राष्ट्रगीत मौलाना मोहम्द हुसैन ‘आजाद’ ने लिखा था जो मेरठ (उ.प्र.) में विद्रोह के तुरंत बाद उनके पिता मौलवी मोहम्मद बकर के ‘दिल्ली अखबार’ नामक पत्र में प्रकाशित भी हुआ था। मौलवी मोहम्मद बकर को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी और उनके पुत्र मोहम्मद हुसैन आजाद को अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए थे। डा. सुलेख चन्द्र शर्मा राजा रामनारायण मौजूं की चर्चा करते हैं जिन्होंने नवाब सिराजुद्दौला के शहीद होने पर निम्नलिखित शेर लिखा था-


ग़जालां तुम तो वाकिफ हो कहो मजनूं के मरने की,
दिवाना मर गया आखिर कि वीराने पर क्या गुजरी।

पद्माकर भट्ट (1753-1839) की निम्नलिखित पंक्तियां अत्यंत प्रसिद्ध हैं-



बांका तृप दौलत अलीजा महाराज कबौ,
सजि दल पकरि फिरंगिन दबावैगो।
दिल्ली दहपट्टि पटना हू को झपट्ट करि,
कबहूंक लत्ता कलकत्ता को उड़ावैगो।।

जिस देश के जन जन में स्वातंत्र्य की चेतना होती है, वह अत्याचारी नहीं होता। वहां के जनों को अपने अधीन करने के बाद उन्हें विशेष अपशब्द कहना आक्रांता अपना विशेष अधिकार समझता है। अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त ‘पिंडारी’ और ‘गुंडा’ शब्दों की भांति एक शब्द था-‘पांडे’। 1857 के स्वातंत्र्य समर के राना बेनी माधव बख्श सिंह, बलभद्र सिंह, कुंवर सिंह, दौलत राव सिंधिया और रानी लक्ष्मीबाई आदि असंख्य वीरों की वीरता संबंधी गीत आज भी जनता के कंठहार बने हुए हैं। श्री सावरकर ने अपने ग्रंथ में जबलपुर में गोंड़ जाति के राजा शंकर सिंह के पास मिले एक रेशमी बस्ते में प्रातःस्मरण की श्लोक पंक्ति का उल्लेख किया है जिसका वह प्रतिदिन पाठ करते थे। यह पंक्ति उन्हें मूल पंक्ति के अंग्रेजी अनुवाद के रूप में मिली। इसी प्रकार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो.बी.एम.सांख्यधर को 1924 में लंदन की एक न्यूज मैगजीन में प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद के रूप में ब्रज भाषा का एक गीत मिला जो किसी पिंडारी के शव में फेंटे में बंधा हुआ था। इस प्रकार 1857 और उससे पूर्व के स्वतंत्रता संग्राम के गीत खोज का विषय बन चुके हैं। और हमें ब्रिटिश इतिहासकारों पर निर्भर रहना पड़ रहा है।

पहली नवंबर 1857 से हमारे देश का शासन महारानी विक्टोरिया की घोषणा के बाद सीधे उनकी सरकार में चला गया। चूंकि बंगाल, ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक गतिविधियों के संचालन का केंद्र था, अतः भावी स्वतंत्रता आंदोलन का बीज भी यहीं से अंकुरित हुआ। बंकिमचन्द्र चटर्जी का ‘आनन्दमठ’ उपन्यास (1882) और उसमें भवानंद नामक संतान संन्यासी का गीत ‘वंदेमातरम्’ नवीन स्फूर्ति का प्रतीक बन गया जिसका महत्त्व किसी संस्था से कम नहीं रहा। क्या हमने ‘सनातन’ शब्द पर कभी विचार किया है ? ‘वंदेमातरम्’ गीत की पंक्ति ‘वंदेमातरम्’ उस झंडे के बीच में अंकित की गई जो सिस्टर निवेदिता ने 1905 में तैयार किया था। वह उनके द्वारा तैयार किए गए एक दूसरे झंडे में भी अंकित थी जो बंग-भंग विरोधी आंदोलन की पहली जयंती के अवसर पर 7 अगस्त, 1906 को पारसी बागान, कलकत्ता में फहराया गया था। यह पंक्ति उस झंडे में भी अंकित की गई जो मैडम कामा ने स्टटगार्ड में 22 अगस्त, 1907 को एक सभा में फहराया था। यहां यह उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता संग्राम के किसी भी गीत को यह गौरव नहीं मिला है जो इस गीत को मिला। उसकी यह पंक्ति तो स्वतंत्रता आंदोलन का बीज-मंत्र ही बन गई। इसके स्वर से ही अंग्रेज सरकार कांप उठती थी। यह गीत अथर्ववेद के ‘पृथिवी सूक्त’ का नवीन संस्करण था-‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’।

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बनी संस्थाओं ने उन भारतीयों में जो नए शासकों के प्रति मोहाविष्ट हो उनकी संस्कृति में बहकर अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे थे, आत्मगौरव की भावना को जीवित रखने में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन संस्थाओं में ब्रह्म समाज और आर्य समाज अग्रणी रहा। ब्रह्म समाज के संकीर्तनों और आर्य समाज की ‘प्रभात फेरियों’ ने जनता में स्फूर्ति पैदा कर दी। देश में पत्र-पत्रिकाएं भी शिक्षित जनता की मनोवृत्ति को प्रभावित करने का सशक्त साधन बन गईं।

स्वतंत्र होने की भावना ज्यों-ज्यों तीव्र होती गई त्यों-त्यों गीतों पर क्रांति का रंग चढ़ता गया। इसे कुचलने में ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके बाद के ब्रिटिश शासन की नई व्यवस्था में कोई तात्विक अंतर नहीं आया। बीसवीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास भी कम रोमांचकारी नहीं रहा। अंतर यह हुआ कि अब विशाल जनसमूह निहत्था था-‘रावण रथी विरथ रघुवीरा’। उसकी प्रेरणा का आधार ‘राम’ और ‘कृष्ण’ जैसी विभूतियां थीं। जब स्वतंत्र होने की भावना जन-जन में तरंगित होने लग गई तब सबेरे से लेकर रात तक जगह जगह पिकेटिंग होती, लोक-शैली में स्वतंत्रता के गीत गाए जाते जो पहले से तैयार किए हुए नहीं बल्कि हृदय के सहज उच्छ्वास होते थे। इन गीतों की न कहीं ‘खेती’ की गई न कहीं ‘योजनाएं’ बनाई गईं। न जाने कितने भजनोपदेशक स्वतंत्रता संग्राम से आ जुड़े। प्रभात फेरियां निकलतीं-जैसे ‘उठो सोने वालो सबेरा हुआ है, वतन के फकीरों का फेरा हुआ है’।

विवाहादि के अवसर पर गाए जाने वाले गीत भी राष्ट्रीय भावना से रंग उठे। जब छोटी-छोटी सस्ती पुस्तिकाएं छापकर इन गीतों का प्रचार होने लगा तब ब्रिटिश सरकार ने स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए जो अनेक उपाय किए उनमें प्रमुख था इंडियन प्रेस (इमरजेंसी पावर्स) एक्ट 1931 की धारा 19 के अधीन क्रांतिकारी साहित्य के प्रकाशन और प्रचार पर प्रतिबंध। यह प्रतिबंध पहले भी था लेकिन बाद में यह कानून बना दिया गया। जो गीत-पुस्तिकाएं आदि सरकार की नजरों से बच न सकीं उन्हें जब्त कर लिया गया। यह सामग्री देश-विदेश के अभिलेखागारों में दबी पड़ी है। इनके अलावा फिल्मी गीतों का भी योगदान रहा।

इस संकलन के कुछ गीत उन गीतों के अतिरिक्त हैं, जो विभिन्न कवियों की कृतियों में मिलते हैं। साहित्यकों और नव-बुद्धिजीवियों की दृष्टि में ये गीत भले ही उनकी कसौटी पर खरे न उतरे समझे जाएं लेकिन इनका महत्व कुछ कम नहीं बल्कि कुछ अधिक ही है क्योंकि ये उस जनसमूह को मुग्ध किए रहते जो इनको गाता चलता था और जन-जन को स्फूर्त रखता था। इन गीतों के संबंध में विशेष बात यह है कि इनके रचयिताओं ने समाज के साथ समरस हो कर स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लिया था जब कि आज का लेखक कल्पना-लोक से निकल यथार्थ की धरती पर खड़ा हो कर जिंदगी की सच्चाई को नहीं देखता है।

अंतिम बात यह कि स्वतंत्रता आंदोलन के गीत केवल स्वतंत्रता आंदोलन की अवधि के ही गीत नहीं समझे जाने चाहिए। ये गीत हममें एक स्थायी भाव भरते हैं, यह स्थायी भाव है स्वदेश और आत्मगौरव की भावना। आशा है कि यह संकलन हममें इस भावना को स्फूर्त रखने में सहायक होगा। इसकी सार्थकता भी तभी है।

-देवेश चन्द्र

खूनी पर्चा


अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं, मर-मर अमर कहाऊंगा,
जब तक तुझको मिटा न लूंगा, चैन न किंचित पाऊंगा।
तुम हो जालिम दगाबाज, मक्कार, सितमगर, अय्यारे,
डाकू, चोर, गिरहकट, रहजन, जाहिल, कौमी गद्दारे,
खूंगर तोते चश्म, हरामी, नाबकार और बदकारे,
दोजख के कुत्ते खुदगर्जी, नीच जालिमों हत्यारे,
अब तेरी फरेबबाजी से रंच न दहशत खाऊंगा,
जब तक तुझको...।

तुम्हीं हिंद में बन सौदागर आए थे टुकड़े खाने,
मेरी दौलत देख देख के, लगे दिलों में ललचाने,
लगा फूट का पेड़ हिंद में अग्नी ईर्ष्या बरसाने,
राजाओं के मंत्री फोड़े, लगे फौज को भड़काने,
तेरी काली करतूतों का भंडा फोड़ कराऊंगा,
जब तक तुझको...।

हमें फरेबो जाल सिखा कर, भाई भाई लड़वाया,
सकल वस्तु पर कब्जा करके हमको ठेंगा दिखलाया,
चर्सा भर ले भूमि, भूमि भारत का चर्सा खिंचवाया,
बिन अपराध हमारे भाई को शूली पर चढ़वाया,
एक एक बलिवेदी पर अब लाखों शीश चढ़ाऊंगा,
जब तक तुझको....।

बंग-भंग कर, नन्द कुमार को किसने फांसी चढ़वाई,
किसने मारा खुदी राम और झांसी की लक्ष्मीबाई,
नाना जी की बेटी मैना किसने जिंदा जलवाई,
किसने मारा टिकेन्द्र जीत सिंह, पद्मनी, दुर्गाबाई,
अरे अधर्मी इन पापों का बदला अभी चखाऊंगा,
जब तक तुझको....।

किसने श्री रणजीत सिंह के बच्चों को कटवाया था,
शाह जफर के बेटों के सर काट उन्हें दिखलाया था,
अजनाले के कुएं में किसने भोले भाई तुपाया था,
अच्छन खां और शम्भु शुक्ल के सर रेती रेतवाया था,
इन करतूतों के बदले लंदन पर बम बरसाऊंगा,
जब तक तुझको....।

पेड़ इलाहाबाद चौक में अभी गवाही देते हैं,
खूनी दरवाजे दिल्ली के घूंट लहू पी लेते हैं,
नवाबों के ढहे दुर्ग, जो मन मसोस रो देते हैं,
गांव जलाये ये जितने लख आफताब रो लेते हैं,
उबल पड़ा है खून आज एक दम शासन पलटाऊंगा,
जब तक तुझको...।

अवध नवाबों के घर किसने रात में डाका डाला था,
वाजिद अली शाह के घर का किसने तोड़ा ताला था,
लोने सिंह रुहिया नरेश को किसने देश निकाला था,
कुंवर सिंह बरबेनी माधव राना का घर घाला था,
गाजी मौलाना के बदले तुझ पर गाज गिराऊंगा,
जब तक तुझको...।

किसने बाजी राव पेशवा गायब कहां कराया था,
बिन अपराध किसानों पर कस के गोले बरसाया था,
किला ढहाया चहलारी का राज पाल कटवाया था,
धुंध पंत तातिया हरी सिंह नलवा गर्द कराया था,
इन नर सिंहों के बदले पर नर सिंह रूप प्रगटाऊंगा,
जब तक तुझको...।

डाक्टरों से चिरंजन को जहर दिलाने वाला कौन ?
पंजाब केसरी के सर ऊपर लट्ठ चलाने वाला कौन ?
पितु के सम्मुख पुत्र रत्न की खाल खिंचाने वाला कौन ?
थूक थूक कर जमीं के ऊपर हमें चटाने वाला कौन ?
एक बूंद के बदले तेरा घट पर खून बहाऊंगा ?
जब तक तुझको...।

किसने हर दयाल, सावरकर अमरीका में घेरवाया है,
वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र से प्रिय भारत छोड़वाया है,
रास बिहारी, मानवेन्द्र और महेन्द्र सिंह को बंधवाया है,
अंडमान टापू में बंदी देशभक्त सब भेजवाया है,
अरे क्रूर ढोंगी के बच्चे तेरा वंश मिटाऊंगा,
जब तक तुझको....।

अमृतसर जलियान बाग का घाव भभकता सीने पर,
देशभक्त बलिदानों का अनुराग धधकता सीने पर,
गली नालियों का वह जिंदा रक्त उबलता सीने पर,
आंखों देखा जुल्म नक्श है क्रोध उछलता सीने पर,
दस हजार के बदले तेरे तीन करोड़ बहाऊंगा,
जब तक तुझको....।

-वंशीधर शुक्ल (1904-1980)

(मार्च 1928 में गणेश शंकर विद्यार्थी के आग्रह पर इस खूनी पर्चे की रचना हुई। पोस्टर के रूप में यह हमारे देश में बंटा। शासन अंत तक इसके रचयिता का पता न लगा सका। इसमें तीन छंद बाद में और जोड़े गए। पूरे गीत के लिए नरेशचन्द्र चतुर्वेदी व डा. उपेन्द्र संपादित ‘राष्ट्रीय कविताएं’ नामक कविता संग्रह देखें।)

उरुचे कामयाबी पर


उरुचे कामयाबी पर कभी हिंदोस्तां होगा।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशयां होगा।।
चखाएंगे मजा बरबादिये गुलशन का गुलचीं को।
बहार आ जायेगी उस दिन जब अपना बागवां होगा।।
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है।
सुना है आज मक़तब में हमारा इम्तिहां होगा।।
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हर्गिज।
न जाने बादे मुर्दन मैं कहां और तू कहां होगा ?
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।।
इलाही वो भी दिन होगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमां होगा।।

जगदम्बा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’
(1895-1956)

इनकी पुस्तक ‘मातृगीता’ भारत सरकार द्वारा जब्त की गई थी।

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