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कविता संग्रह >> श्रीराधा

श्रीराधा

रमाकान्त रथ

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5768
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है कविता संग्रह...

Shri Radha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

व्यक्ति का मन उसके जीवन काल के परे कुछ नहीं सोचता और यदि वह प्रेम करने का निर्णय लेता है तो वह अपने जीवन तथा जीवन काल के बाहर इसे प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता, जीवन के बाहर न तो कोइ काल होता और न स्थान इसलिए अपने समय को व्यर्थ के कामों में नहीं गंवाया जा सकता, यद्यपि समय अक्षय है पर किसी भी ऐसे कार्य के लिए जो इस प्रेम का अंश नहीं है, व्यक्ति जानता है कि संबंध शाश्वत रूप से बने नहीं रह सकते और उन्हें संतोष-जनक ढंग से पुनर्व्यवस्थित करने के लिए पर्याप्त समय नहीं होगा, इसलिए उसमें अपने प्रेमी को समझने तथा उसे क्षमा करने की क्षमता भी अधिक होती है।

मैं किसी ऐसी चिड़चिड़ी राधा की कल्पना नहीं कर सकता जो कृष्ण को वृंदावन छोड़ने के लिए, उस पर निष्ठा रखने के लिए, तथा उसके प्रति उदासीन रहने के लिए चिड़चिड़ाती हो और उसके प्रति प्रेम को मान्यता दिलवाने या उसके साथ रहने के उपाय ढूंढ़ने के लिए उससे कहती हो, ऐसा कोई आचरण उसके लिए अप्रासंगिक है, प्रारंभ से ही वह ऐसी कोई आशा नहीं पाले रखती : कुंठित होकर निराश होने की भी उसके लिए कोई संभावना नहीं है, अगर वह निराश हो सकती है तो केवल इसलिए, कि कृष्ण को जिस सहानुभूति तथा संवेदना की आवश्यकता थी, वह उसे न दे सकी, न दे पाने की पीड़ा कुछ लोगों के लिए न ले पाने की पीड़ा से बड़ी होती है।   

प्रस्तुति


भारतीय ज्ञानपीठ विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य मनीषियों और लेखकों की कृतियों के हिन्दी अनुवाद के प्रकाशन में विशेष रूप से सक्रिय है। प्रत्येक साहित्यिक विधा के अग्रणी लेखकों की कृतियां या संकलनों को सुनियोजित ढंग से हिन्दी जगत् को समर्पित करने का कार्य प्रगति पर है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत हाल ही में प्रकाशित पुस्तकों का जो स्वागत हुआ है उसके लिए हम साहित्य-मर्मज्ञों और पाठकों के अत्यन्त आभारी हैं। इससे हमारी योजना को बल मिला है और हमको प्रोत्साहन।

भारतीय कवि श्रृंखला में उड़िया के गौरव ग्रंथ ‘श्रीराधा’ के हिन्दी रूपांतर का प्रकाशन हमारे लिए बड़ी प्रसन्नता की बात है। रमाकांत रथ आधुनिक उड़िया के शीर्षस्थ कवियों में से हैं और ‘श्रीराधा’ उनकी अत्यन्त चर्चित कृति। साहित्य-अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित ‘सप्तम ऋतु’ की कविता की भाव-प्रवणता और गहने अभिव्यक्ति यहां और भी गाढ़ी हो गई है। हिन्दी में इस पुस्तक के लाने का माध्यम मैं बना इससे मुझे विशेष संतोष इसलिए भी है कि रमाकांत मेरे पुराने मित्र हैं।

इस कृति का अनुवाद कार्य बहुत सरल नहीं था। श्रीनिवास उद्गाता और राजेन्द्र मिश्र ने इसके लिए जो परिश्रम किया है उसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूं। साथ ही इसका रूप संवारने और अनुवाद को मूल कविता की गरिमा के अनुरूप बनाने में मृणाल पाण्डे ने सहायता की है। मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि बिना उनके सहयोग के इस अनूठी कृति का हिन्दी पाठकों तक पहुंचना कठिन होता। ज्ञानपीठ के मेरे अपने सहयोगियों ने सदा की भांति अत्यधिक परिश्रम किया है; नेमिचन्द्र जैन, चक्रेश, जैन व साधु पाण्डे के प्रति मैं कृतज्ञ हूं।
इस पुस्तक की सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा व मुद्रण के लिए एक बार फिर शकुन प्रिंटर्स के अम्बुज जैन और कलाकार पुष्पकणा मुखर्जी का आभारी हूं।

नई दिल्ली
20 मई, 1990

बिशन टंडन
 निदेशक

1


अन्य सबु सकाळठूँ आजिर सकाळ
काहिँकि केजाणि लागे अलगा अलगा। ।
खरारे कि दु:साहस ! आजि पवनरे
अन्यमनस्कता याहा नुहें आगपरि।
सतेबा फेरिछि केउँ देशान्तरी प्रेमिक, रहुछि
आख पाख केउँठारे छदमबेश धरि।

कि वर्षा कि भयंकर धड़धड़ि कालि
रातिसारा ! पर्वताकाररे
पत्र फुल झड़िगले, मुँ निजकु निजे
प्राणपणे जाकि देलि, काळे बिजुळीर
झलमल् डाक बाजि यिब मो कानरे।

निजर नि:शद्व किम्बा अर्थहीन
शद्वमानंकर साम्राज्यर शेष मुहूर्तर
कालिर अंधार यदि रक्तस्नान होई युझिथिब,
तार य़ाहा नाम मात्र स्मृति अछि ताहा
केतेबेळ ने लिभि रहिब।



एक


अन्य सभी सुबहों से आज की सुबह
न धूप लगती है क्यों अलग-अलग।
धूप में यह कैसा दुस्साहस ! आज हवा में
अन्यमनस्कता जो नहीं है पहले-सी।
मानों लौटा हो कोई प्रवासी प्रेमी, रह रहा हो
आस-पास कहीं छदमवेश लिए।

कितनी बारिश कितनी भयंकर बिजलियों की कौंध थी कल
रात भर ! कैसे पर्वताकार थे बादल
फूल-पत्ते झड़ गए, मैंने स्वयं को स्वयं ही
जी-जान से दुबका लिया, कहीं बिजलियों की
झिलमिलाती पुकार न बज उठे मेरे कानों में !

अपने नि:शब्द अथवा अर्थहीन शब्दों के
साम्राज्य की अंतिम घड़ी में
कल का अंधेरा यदि रक्त से सना जूझ रहा होगा,
उसकी जो नाम मात्र स्मृति है वह
कब तक रहेगी बिन बुझे ?

आजिर सकाळ कहे नेइय़िब मोर
चेतना चैतन्य जन्म जन्मान्तर पाइँ।
से य़ेउँ भाबरे कहे मुँ पुनरावृत्ति
करिबाकु भाषा पाउनाहिँ।
किन्तु एबे दिशिलाणि अलगा अलगा
नई, नई सेपारिर बण,
केते दिन याएँ आउ न बदळि थिब
मों पाण्डुर गगन पवन ?

आगरू केबेत छाति
आजि परि धपधप हेउ नथिला, मुँ
कण जाणे, मो जीवनकाळ
बा य़मुना य़िबा बाट मोड़ाणिरे थिब
कि हिनस्ताय़ोग, किम्बा अन्य सबु संबन्ध उजाड़ि
देला भळि संबंध मो जरा मृत्यु व्याधि इत्यादिर
बाट हसिहसि आगळिब।

आज कि सुबह कहती है ले जाएगी मेरी
चेतना-चैतन्य जन्म-जन्मांतर के लिए।
वह जिस भाव से कहती है दोहराने को
मुझे भाषा नहीं मिलती।
किन्तु अब दिखने लगी है अलग-अलग-सी
नदी, नदी के उस पार के वन
कब तक भला न बदलता
मेरा पांडुर गगन-पवन ?
पहले तो कभी छाती
आज की तरह धकधक् नहीं करती थी, भला
मैं क्या जानूं, मेरे जीवनकाल
अथवा यमुना जाने की राह की मोड़ पर होगा
कैसा अपदस्थ होने का योग, अथवा अन्य सभी
संबंधों को उजाड़ डालने वाले संबंध
मेरी जरा, मृत्यु, व्याधि आदि की
राह हँसते हुए रोक लेंगे।


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