लोगों की राय

कविता संग्रह >> शुक्रतारा

शुक्रतारा

मदन वात्स्यायन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5765
आईएसबीएन :81-263-1100-2

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

283 पाठक हैं

प्रस्तुत है कविता संग्रह

Shukratara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अज्ञेय द्वारा सम्मादित सप्तकों का महत्त्व निर्विवाद है। श्रेष्ठ प्रतिभा के धनी सप्तकों के ये कवि हिन्दी के प्रमुख रचनाकार के रूप में स्थापित हुए हैं। उन्हीं में एक हैं मदन वात्स्यायन जो तीसरे सप्तक के ऐसे कवि हैं जिनकी सृजन भंगिमा और विषयवस्तु एकदम अलग और अद्भुत है। पेशे से इंजीनियर थे इसलिए हम कह सकते हैं कि उनकी कविताओं में मशीनों की आवाज सुनाई पड़ती है; लेकिन उनके भीतर एक विद्रोह व्यक्ति भी था जो औद्योगिक पूंजीवाद का सशक्त विरोधी और निष्करुण नौकरीशाही की बुर्जुवा मनोवृत्ति से एक सर्जक के रूप में टक्कर लेता दिखाई पड़ता है।

मदन वात्स्यायन की कहानियों का एक तेवर इन सबसे भिन्न कोमलता और सौन्दर्य का है जो तीसरा सप्तक में प्रकाशित ऊषा सम्बन्धी कविताओं से दिखाई देना शुरू होता है और बाद की अनेक कविताओं में अपनी आकर्षक छटाओं में विद्यमान है।
तीसरा सप्तक के प्रकाशन के बाद मदन वात्स्यायन रचना के परिदृश्य में प्रायः दिखाई नहीं पड़े। बस उनकी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट प्रकाशित  होती रहीं। कभी उन्होंने अपना संग्रह प्रकाशित कराने में रुचि नहीं ली, फलस्वरूप उनके जीवनकाल में कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हो सका।

भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है कि वह एक महत्त्वपूर्ण लेकिन लगभग अगोचर कवि की कविताएं पहली बार पुस्तकाकार प्रकाशित कर अपना चिर -परिचित दायित्व निभा रहा है। पाठकों को यह ऐतिहासिक लेकिन सर्जनात्मक रूप से उत्कृष्ठ काव्य संग्रह प्रीतिकर लगेगा।  

भूमिका


अन्त तक स्थिर बलता वह एक अकेला
शुक्रतारा दीप



पिछली शताब्दी के कम चर्चित लेकिन एक महत्त्वपूर्ण  कवि रहे हैं मदन वात्स्यायन। जिसने भी ‘तीसरा  सप्तक’ में मदन वात्स्यायन की कविताएँ पढ़ी होंगी, वह उन्हें भूल नहीं सकता। सप्तक परिवार के कवियों में सबसे अलग संवेदना, खास शैली मुहावरे, अपने अंचल और भाषा के नये मिजाज के साथ नयी कविता की एक अलग इकाई। एक ऐसा कवि जिसके नगर बोध, कारखाने के जीवन, अस्तित्व-चिन्तन और औद्यौगिक सभ्यता के आतंक का अपना एक अलग अन्दाज है—प्रकृति के अनेक रंगों के साथ। कम चर्चित उन्हें मैं इसलिए कह रही हूँ क्योंकि अपने समय की महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखते हुए भी उनपर एक अलग लेख खोज पाना मुश्किल है। कहीं उद्वरणों  में या संक्षिप्त टिप्पणियों में आने को हम आना नहीं कहेंगे। कहीं यह अनेक खाँचों में बँटी आलोचना के पूर्वग्रहों से प्रतिशोध की कवि-मुद्रा तो नहीं ? एक कवि केवल कविता लिखकर ही अन्याय का विरोध नहीं करता।

 कई बार तो हशिये पर ढकेल दिये जाने के लिए खुद भी जिम्मेदार होता है और आहिस्ता-आहिस्ता लोगों की स्मृतियों के दायरे से बाहर होते जाना उसके स्वभाव में शामिल होता है। आजादी के बाद निराला, मुक्तिबोध, धूमिल आदि न जाने कितने प्रतिभा सम्पन्न कवियों को हाशिये पर खिसका दिया गया था। इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि उस समय आलोचक अपनी आँखों से कम और दूसरों की आँखों से ज्यादा देख रहे थे। यदि थोड़ी देर के लिए हम भी लें कि मदन वात्स्यायन ने कुल दस ही कविताएं लिखी हैं, तो इतने पर भी नयी कविता के इतिहास में उनकी एक जगह बनती है और वे बीसवीं सदी के महत्त्वपूर्ण कवियों में याद किये जा सकते हैं। ‘तीसरा सप्तक’ की कविताओं के सम्बन्ध में अज्ञेय ने कवि को लिखे 25 जून, 1956 के पत्र में चर्चा की है कि ‘संकलन अच्छा हुआ है, ‘दूसरा सप्तक’ से भी अच्छा।’

‘शुक्रतारा’ में जितनी बड़ी संख्या में उनकी कविताएँ प्रकाशित की जा रही हैं, इसे देखकर लोग जरूर थोड़े चकित होंगे। ऐसा नहीं है कि ये सारी कविताएँ कवि के अध्ययन कक्ष में पड़ी थीं। जो यहाँ मिली भी, वे इस कदर बेतरतीब और फटी-पुरानी हालत में थी कि उन्हें सिलसिलेवार करीने से इकट्ठा करना बहुत आसान नहीं था। पत्रिकाओं से जुटाई गयी चीजें इशारा करती हैं कि मदन वात्स्यायन न केवल लिखते रहे हैं बल्कि उनकी कविताएं लगातार प्रकाशित भी होती रही हैं। ताज्जुब की बात है, न सिर्फ कविता बल्कि गद्य भी उन्होंने बेमिसाल लिखा है और कविता के सामान्तर वह लगातार प्रकाशित भी होता रहा है। उनकी कविताओं में अन्तर्वस्तु और संरचना के अनेक-अनेक सन्दर्भों और पहलुओं को जिन्होंने अपनी कविताओं में जगह दी है। सच तो यह है कि प्रेम और प्रकृति उनकी अधिकतर कविताओं की बुनावट में शामिल है।


‘पीठ अभी बने धोबिया का पाट मालिक यदि देख ले अभी
बाबा होंगे मालिक के द्वार-बहारे राह अकेले।’


जैसी कविताएँ बताती हैं कि उनकी कविताएँ आम आदमी की तरफदारी करती कविताएँ भी हैं। स्त्री-विमर्श के नजरिये से भी ‘झउआ के फूल’ जैसी कई कविताएँ हैं जो अनेक कोणों से नारी के शोषण को उजागर करती हैं।

यह बहुत कम लोगों को याद होगा कि मदन वात्स्यायन का असली नाम लक्ष्मीनिवास सिंह था। उनका जन्म बिहार के समस्तीपुर जिला के वीरसिंहपुर ग्राम में 4 मार्च, 1922 को हुआ था और वे सिकन्दरी के विशाल कारखाने में ‘टेक्नोलाजिस्ट’ के पद पर काम करते थे। आज के दौर में यह कोई नयी बात नहीं है, लेकिन लगभग पचास साल पहले जब उन्होंने लिखना शुरू किया होगा तब के लिए यह एक नयी बात थी-भाषा की संस्कृति से बाहर होने जैसी बात। इस तरह मदन वात्स्यायन को शायद हिन्दी का पहला इंजीनियर कवि माना जा सकता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सर्वोच्च श्रेणी में एम.एस.सी. और फिर इंग्लैण्ड में केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद उन्हें जिस तरह सिन्दरी कारखाने में ‘टेक्नोलाजिस्ट’ के पद पर काम करने को मजबूर होना पड़ा। इससे यह अन्दाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि वे वहाँ कितने ‘मिस फिट’ रहे होंगे। ऐसे में वहाँ की व्यवस्था और प्रबन्ध के प्रति आक्रोश का होना स्वाभाविक ही है। औद्यौगिक सभ्यता और शोषण को काफी नजदीक से देखने की वजह से वे बहुत सारे प्रगतिवादियों की तरह हवा में बातें नहीं कर रहे थे। मजदूरों पर, उनकी बदहाली पर, अफसरों पर, मजदूर नेता पर- उन्हें जैसा वे देख रहे थे, वैसा ही लिख रहे थेः


‘अफसरों से भरा सरकारी कारखाना
साँपों से भरी कोठरी है।
आँखें नहीं झपकतीं।
अफसरों से भरा सरकारी कारखाना
बबूल का घना वन है-
पाँव नहीं टसकते।’


जैसाकि अज्ञेय ने भी मदन वात्स्यायन के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा थाः ‘बिहार के इस प्रतिभाशाली लेखक का हम स्वागत करते हैं। ‘शिफ्ट फोरमैन’ के रचयिता, जिन्होंने औद्योगिक रसायनशास्त्र की शिक्षा पायी है और जो.....के  कारखाने से सम्बद्ध हैं.....यन्त्र के निकट परिचय और यन्त्र के संचालक मानव का अदम्य विश्वास बोल रहा है। प्रगतिवाद जो नहीं कर पाये, वह उन्होंने किया है क्योंकि ‘शिफ्ट फोरमैन’ में किताबी मतदान या सिद्धान्त नहीं, निजी अनुभव बोलता है’ (प्रतीक, सितम्बर, 1951)।

साफ-साफ यह तय पाना जरा मुश्किल है कि उनकी विचारधारा क्या थी। वैसे व्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वन्त्रता चाहने वाले कवि के रूप में मदन वात्स्यायन की शिनाख्त की जा सकती है, लेकिन औद्योगिक पूँजीवाद से मुठभेड़ की शक्ल उनकी कविताओं में मौजूद है। ऐसी अधिकतर कविताएँ लम्बी हैं, नये शिल्प में जिनके बीच-बीच में गद्य की सुन्दर प्रस्तुति भी है। कारखाने के उपकरण, जैसे-मशीन, चिमनी, धुआँ, भोंपा, आदि का सुन्दर इस्तेमाल किया गया कविताओं में मानवीकरण के  जरिये किया गया है। मसलन !

‘सात रंग में बोला भैरव
शीश उठा के भोंपा बोला-भोंऽऽऽऽ।’


‘शुक्रतारा’- यह नाम अचानक ही इस संग्रह का नहीं दिया जा रहा है। इस शीर्षक की कविता में इनका बिम्ब एक नववधू के रूप में भी रखा गया है। मदन वात्स्यायन न केवल सप्तक परिवार के बल्कि समूची बीसवीं शताब्दी के काव्य परिदृश्य में अपने लिए एक जगह बनाते हैं। उसकी संवेदना के साथ-साथ अनुभूति की बुनावट और ताना-बाना भी उनका अपना है। कोई उन्हें किसी की नकल करने वाला नहीं कह सकता। शायद यही वजह है कि इनकी कविताओं का टोटल एप्रोच गिरिजाकुमार माथुर को अच्छा लगता है (21 मार्च, 1956 को कवि को लिखे पत्र में)। आसमान में पल-पल रंग बदलने के साथ ही जैसे शुक्रतारा बदल-बदलकर जगमगाता है कुछ इसी  तरह लगभग पाँच दशकों से अधिक की उनकी कविता-यात्रा में कई तरह के रंग हैं।

मदन वात्स्यायन मूल रूप से हिन्दी के कवि हैं, यह और बात है कि वे काफी अध्ययनशील कवि लगते हैं। अपने समय के बौद्धिक विश्व के एक समर्थ नागरिक के रूप में भी उनकी पहचान बनती है। ‘शुक्रतारा’ शीर्षक कविता अपने-आपमें एक प्रतीक भी है। इस कविता में एक पंक्ति  आती है-’ ‘है नेहरू एक वतन का प्यारा, सताये हुओं को है जिस पर भरोसा’ तो यह बात साफ उभरकर आती है कि आसमान के शुक्रतारा की तरह पृथ्वी पर जवाहरलाल नेहरू उनकी नजर में खास और महत्त्वपूर्ण रहे होंगे। नयी कविता में कुछ ऐसे थे जो लोहिया को नहीं, नेहरू को पसन्द किया करते थे। कोट के बटन के होल में लगा महकता गुलाब भले धूमिल के लिए  आलोचना का विषय रहा हो लेकिन खुद अज्ञेय ने अपनी जीवन में जिस एकमात्र अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन किया, वह नेहरू अभिनन्दन ग्रन्थ ही था।

इस संकलन की कविताएँ ऐसी कि उन्हें न तो एक दूसरे से पूरी तरह अलग करके देखा जा सकता है और न ही एक की मनःस्थिति को दूसरे की मनःस्थित का विस्तार कहा जा सकता है। सबके पीछे झाँकता हुआ कवि चेहरा है और उसकी विभिन्न मनःस्थितियाँ, फिर भी संग्रह के मिजाज को देखते हुए इसमें सबसे पहले मदन वात्स्यायन की प्रकृति-कविताओं को रखा गया है। इनकी प्रकृति–कविताओं में प्रकृति केन्द्रीय धुरी की तरह तो है लेकिन वही छोड़ कर सबकुछ नहीं नयी कविता छाया वाद के साथ-साथ प्रगतिवाद को भी छोड़कर अपना एक अलग रास्ता बनाना चाहती थी। लेकिन चाहने भर से साहित्य और कला के इतिहास में सबकुछ नहीं हो जाता। प्रकृति को लेकर एक खास तरह का मोह नये कवियों में देखा गया है और अभिव्यंजना में केदारनाथ सिंह ने बिम्ब-विधान पर खास जोर दिया ही था।

 ये दोनों ही खूबियाँ छायावादी कविता में भी मौजूद थीं। अन्तर्वस्तु में प्रकृति और अभिव्यंजना में बिम्ब की ओर रूझान नयी कविता में भी है, तो क्या इसी वजह से इसको छायावाद का प्रसार माना जाएगा ? केदारनाथ सिंह या मदन वात्स्यायन जैसे कवि इस तरह सोचने से मना करते हैं। मदन वात्साययन ने अपने समय के मनुष्य और प्रकृति से जुड़े विभिन्न संदर्भों को अपनी कविताओं में जगह दी है। छायावादी कवि औद्योगिक सभ्यता के आतंक से जूझने की जगह पलायन का रास्ता अख्तियार करते हैं, उनके यहाँ मानो प्रकृति मशीनों का विकल्प हो। नयी कविता में दोनों साथ-साथ हैं—समान्तर रूप से। एक दूसरे से मुठभेड़ करते, एक दूसरे को अपनी याद दिलाते हैं। औद्योगिक सभ्यता, मशीनों के मानव जीवन में बढ़ती दखलअन्दाजी, उनका वर्चस्व और पूँजीवादी हमले के साथ-साथ प्रकृति से इनकी मुठभेड़ इनकी कविताओं को नया आस्वाद देती है। मसलन :


‘भोंपा चीख उठा, मेरी भोर हो गयी
श्रीमती जी, जरा एक कप चाय बना दो।’

उनकी प्राकृतिक-कविताओं में ऊषा-स्तवन है, जो रोशनी की बेटी, आसमान की हरिणी और किरणों के केशवाली है, जो अपनी डूबती बायीं उँगलियों में फिर आने का इशारा लिये सरोवर में कूद जाती है। वसन्त और चन्द्रमा हैं, चन्द्रमा तो उनके यहाँ स्पृहणीय चन्द्रमा है। ‘जुगनू’ उनकी इस दृष्टि से अद्भुत कविता है, जो अपने छोटे आकार में ही अर्थ के अनेक सन्दर्भ खोलती है। छिपकली पर भी एक कविता है जो गजब की जादूगरनी है। मरुत एक वैदिक बिम्ब है, जिसका अपना आधुनिक रूप कविता में है। पूर्णिमा का उजाला तो अनेक कवितायों में देखा होगा लेकिन उनके अन्धकार को कारखाने की मशीनी संस्कृति के साथ मदन वात्स्यायन ही देख पाते हैं :

‘प्रकाश बढ़ रहा है,
कालिमा बढ़ रही है
घट रही चाँदनी, हम खो गये हैं दिशा।’


मदन वात्स्यायन ने कविताएँ तो ग्रीष्म और जाड़े की दुपहर पर भी लिखी हैं लेकिन सबसे ज्यादा कविताएँ वसन्त पर हैं— अनेक रंगों और रूपों में। इनमें एक असुर वसन्त भी है। इस हिसाब से वे पहले कवि हैं, जिन्होंने वसन्त को असुर कहा है :


‘आज आँगन में घास, कल सीढ़ियों पर छिपा लाल फूल
यहाँ कोंपल, वहाँ किसलय, कहीं कलियाँ
रोज नया नटखटपन, रोज नया गुल-
अरे यह वसन्त है, या ब्लित्स अखबार है !’


मदन वात्सयायन ने प्रकृति पर बहुत सारी कविताएँ लिखी हैं—अनेक कोणों से, लेकिन प्रकृति उनके यहाँ कामोबेस वैसे ही है, जैसे अज्ञेय और नरेश मेहता की कविताओं में—तेवर भले अलग हों। प्रकृति-कविताओं में भी उनका पक्ष मनुष्य है—चाहे वह अपने समय की राजनीति हो, सामाजिक यथार्थ हो या कारखाने की मशीनी संस्कृति से संवाद—सभी को वे गहरे रचनात्मक स्तर पर उठाते हैं :

‘आसमान तक फण काढ़ता है भाप का सफेद नाग बार-बार,
आसमान तक जलती है ज्लालाएँ जहर-सी
सर से पाँव तक थर-थर काँपता
कारखाने पागल-सा दिन-रात चिल्ला रहा है।’


प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book