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कहानी संग्रह >> विचारक

विचारक

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : नया साहित्य केन्द्र प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5752
आईएसबीएन :81-88285-12-9

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह

Vicharak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

त्याग

फाल्गुन की प्रथम पूर्णिमा में आम्रमंजरी की सुगन्ध को लिये नववसन्त ही हवा बह रही है। पुष्पकरिणी के किनारे एक पुराने लीची के पेड़ के घने पल्लवों के बीच से एक निद्राहीन अशांत पपीहे की पुकार मुखर्जी के घर के एक निद्राहीन शयनकक्ष में प्रवेश कर रही है। हेमन्त कुछ चंचल भाव से कभी अपनी पत्नी के बालों के एक गुच्छे को जूड़े से अलग कर अपनी उगली में लपेटता है, तो कभी उसके बालों को चूड़ी से बजाता हुआ ठुंग-ठुंग शब्द करता है, कभी उसके बालों को खीचकर स्थान बदलकर उसके मुंह पर लाकर डालता है। सन्ध्या समय निस्तब्ध फूल के पेड़ को सचेतन करने के लिए वायु जैसे कभी इस ओर कभी उस ओर थोड़ा-थोड़ा हिलती-डुलती है। हेमन्त का भी बहुत कुछ वैसा ही भाव है।

किन्तु, कुसुम सामने के चन्द्रालोक प्लावित असीम शून्य में दोनों नेत्रों को निमग्न कर स्थिर हो बैठी। पति की चंचलता उसको स्पर्श कर प्रवाहित हो लौटी जा रही है। अन्त में हेमन्त ने कुछ अधीर भाव से कुसुम के दोनों हाथों को हिलाते हुए कहा, ‘‘कुसुम तुम कहां हो ! तुम जैसे एक बड़ी दूरबीन लगाकर बहुत ध्यान से देखने पर बिन्दुमात्र दिखायी दोगी, इतने दूर जाकर पडी हो। मेरी इच्छा है, तुम आज मेरे कुछ अधिक पास आयो। देखो तो सही कैसी सुहानी रात है।’’
कुसुम ने शून्य से मुख फेर पति के मुख की ओर देखते हुए कहा, ‘‘यह चांदनी रात, यह वसन्त काल, सब इसी क्षण मित्था हो नष्ट-भ्रष्ट हो सकते हैं, ऐसा एक मंत्र मैं जानती हूँ।’’

हेमन्त ने कहा, ‘‘यदि जानती हो तो उच्चारित करने की आवश्यकता नहीं और अगर ऐसा कोई मंत्र जानती हो जिससे सप्ताह में तीन-चार रविवार आ जाएं या फिर रात शाम के पांच-साढे पांच तक ठहर जाए तो वह सुनने को मैं राजी हूँ।’’ कहते हुए कुसुम को थोड़ा और पास खीचने की कोशिश की। कुसुम उस आलिंगनपाश में न बँधती हुई बोली, ‘‘अपनी मृत्यु के समय तुम्हें जो कुछ बताने का सोचा था आज वह बताने की इच्छा हो रही है। आज जो मन में आ रहा है, तुम चाहे जितनी भी सजा क्यों न दो मैं उसे झेल लूँगी।’’

सजा के बारे में जयदेव का श्लोक सुनाकर हेमन्त मजाक करने की तैयारी में था। इतने में सुनायी दिया गुस्सैल चप्पल की चटाचट ध्वनि पास आ रही है। हेमन्त के पिता हरिहर मुखर्जी के कदमों की परिचित आहट। हेमन्त हड़बड़ाकर उठा।
हरिहरि कमरे के दरवाजे के पास आकर क्रोध में गरजते हुए बोला, ‘‘हेमन्त बहू को अभी इस घर से भगा दो।’’
हेमन्त ने पत्नी के मुख की ओर देखा, पत्नी ने कुछ भी विस्मय प्रकट नहीं किया। केवल दोनों हाथों के बीच वेदना से मुँह छिपाकर अपने सारे बल और इच्छा द्वारा अपने को विलीन करने की चेष्टा की। दक्षिण वायु के साथ पपीहे का स्वर कमरे में प्रवेश करने लगा, किसी के कानों में वह नहीं पड़ा। इतनी असीम सुन्दर पृथ्वी इतनी सहजता से ही यहाँ का सब कुछ बेसुरा हो जाता है।

हेमन्त ने बाहर लौटकर पत्नी से पूछा, ‘‘यह सच है क्या ?’’
पत्नी ने कहा सच है।’’
‘‘फिर इतने दिनों तक बताया क्यों नहीं ?’’
‘‘कई बार बताने की चेष्टा की पर बता न सकी। मैं बड़ी पापिन हूँ।’’
‘‘तो आज सब कुछ खोलकर बताओ।’’

कुसुम भी गम्भीर दृढ़ स्वर में सब कुछ बता गयी- कि कैसे अडिग कदमों से, धीर गति से, आग के बीच से चलती गई कितने दग्ध हो रही थी कोई न जान सका। सब कुछ सुनकर हेमन्त उठ गया।

कुसुम ने समझा जो पति चले गये उनको फिर लौटकर नहीं पा सकेगी। उसे कोई आश्चर्य नहीं हुआ; यह घटना भी जैसे अन्य दिनों की घटना की तरह ही अत्यन्त सहज रूप में उपस्थित हुई, मन में ऐसी ही एक शुष्क जड़ता का संचार हुआ; केवल पृथ्वी और प्रेम आद्यावन्त मिथ्या और शून्य से जान पड़े। यहाँ तक कि हेमन्त की अतीत की सारी प्रेम-वार्ताएं स्मरण का अत्यन्त नीरस कठिन निरानन्द हँसी का प्रखर धार-निष्ठुर कटार के समान उसके मन के एक छोर से दूसरे छोर तक एक दाग छोड़ गयी। शायद उसका विच्छेद ऐसा मर्मान्तक, जिसका मुहूर्त मात्र मिलन इतना घनानन्दमय, जो असीम अनन्त जैसा लगता है, जन्म-जन्मान्तर पर्यन्त जिसके अवसान की कल्पना नहीं की जा सकती-वह प्रेम यह है ! इतने जरा-से पर निर्भर ! समाज ने जैसे ही जरा-सा आघात किया वैसे ही असीम प्रेम चूर्ण हो मुट्ठी भर धूल में परिणत हो गया ! हेमन्त कम्पित स्वर में अभी कुछ ही पहले कानों में कह रहा था, ‘सुहावनी रात !’ वह रात तो अभी भी समाप्त नहीं हुई है; अभी भी वह पपीहा पुकार रहा है; दक्षिण वायु मसहरी हिलाती बही चली जा रही है, और ज्योत्स्ना, सुख श्रान्त सुप्त सुन्दरी के समान वातायनवर्ती के एक छोर पर निमग्न हो पड़ी सब मित्था है।’

दूसरे दिन प्रातः ही उनीदेंपन से बेसुध हेमन्त पागल की तरह प्यारीशंकर घोषाल के घर जा पहुँचा। प्यारीशंकर ने पूछा, ‘‘कहो जी क्या खबर है ?’’
हेमन्त भयानक आग-सा धधका और फिर जलते-जलते कंपते-कंपते बोला, ‘‘तुमने हमारी जाति भ्रष्ट की है, सर्वनाश किया है तुम्हें इसकी सजा भोगनी होगी’’-कहते-कहते उसका कंठ रुद्ध हो आया।
प्यारीशंकर थोड़ा हंसकर बोला, ‘‘और, तुम लोगों की मेरी जाति की रक्षा की है, मेरे समाज की रक्षा की है; मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा है ! मेरे प्रति तुम लोगों का बड़ा जतन, बड़ा प्रेम है।’’
हेमन्त की इच्छा हुई उसी क्षण प्यारीशंकर को ब्रह्म तेज द्वारा भस्म कर दे, किन्तु उस तेज में वह स्वयं ही जलने लगा, प्यारीशंकर अच्छा-खासा स्वस्थ नीरोग भाव से बैठा रहा।

हेमन्त के टूटे कण्ड से पूछा, ‘‘मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ?’’
प्यारीशंकर ने कहा, ‘‘मैं पूछता हूँ मेरी इकलौती बेटी के शिवा मेरी कोई दूसरी संतान नहीं, मेरी उस कन्या ने तुम्हारे पिता के पास जाकर क्या अपराध किया था तुम तब छोटे थे, तुम शायद नहीं जानते-तो फिर उस घटना को मन लगाकर सुनों। अधीर न होना भैया, इसमें बड़ी उलझने हैं।’’

‘‘मेरे दामाद नवकान्त मेरी कन्या के गहने चुराकर जब विलायत भाग गये, तब तुम बच्चे ही थे। फिर पांच वर्ष बाद वह बैरिस्टर होकर देश लौट आये तो मुहल्ले में जो हल्ला मचा-शायद तुम्हें कुछ-कुछ याद हो। हो सकता है तुम नहीं भी जानते हो, उस समय तुम कलकत्ते के स्कूल में पढते थे। तुम्हारे पिता गाँव के मुखिया होकर बोले, ‘‘अगर कन्या को पतिग्रह में भेजने का इरादा हो तो फिर उस कन्या को घर वापस नहीं बुला सकोगे।’ मैंने उनके हाथ-पैर जोड़कर कहा, भैया, इस बार तुम क्षमा करो। मैं लड़के को गोबर खिलाकर प्रायश्चित करवाता हूँ। तुम लोग उसे जात में ले लो।’ तुम्हारे पिता किसी भी तरह राजी न हुए। मैं भी अपनी एकमात्र कन्या को छोड़ न सका। जात छोड़ी, देश छोड़ा, कलकत्ते में आकर घर बसाया। यहाँ आकर भी विपत्ति टली नहीं जब अपने भतीजे के विवाह की सारी तैयारी कर ली तब तुम्हारे बाप ने कन्या पक्ष को उत्तेजित कर विवाह तुड़वा दिया। मैंने भी प्रतीज्ञा की, यदि इसका बदला न लूं तो मैं ब्राह्मण का लड़का नहीं।-अब तुम थोड़ा बहुत समझ पाये होगे। लेकिन और जरा सब्र करो-सारी घटना सुनने पर खुश होगे-इसमें बड़ा रस है।

तुम कॉलेज, में पढते थे। तब तुम्हारे डेरे के बगल में ही विप्रदास चटर्जी का मकान था। बेचारे अब नहीं। चटर्जी बाबू के घर में कुसुम नाम की एक बाल विधवा अनाथ कायस्त कन्या आश्रिता थी। लड़की बड़ी सुन्दर थी-वृद्ध ब्राह्मण कॉलेज के जवान छोकरों की नजर से उसे बचा रखने के लिए कुछ चिन्ताग्रस्त हो रहे थे। लेकिन बूढ़े आदमी की आँखों में धूल झोकना एक लड़की के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं था। लड़की अक्सर छत पर कपड़ा सुखाने जाती और बिना छत पर गये शायद तुम्हें भी पाठ कंठस्थ न होता। दोनों छतों से तुम दोनों में परस्पर किसी प्रकार की बातचीत होती या नहीं यह तो तुम्हीं दोनों जानों, किन्तु लड़की के रंग-ढंग देखकर बूढ़े मन में भी सन्देश जगा क्योंकि घर के काम-काज में लगातार चूक होने लगी और तपस्वनी गौरी के समान दिन-दिन वह आहार निद्रा का त्याग करने लगी। कभी-कभी तो वह सन्ध्या समय बूढ़े के सामने ही बिना बात आँसू नहीं रोक पाती।’’

‘‘अन्त में बूढ़े ने यह आविष्कार किया कि छत पर तुम दोनों में मौके-बेमौके चुपचाप साक्षात्कार होता रहता है-यहां तक की कॉलेज न जाकर दोपहर में छत के ऊपर की परछत्ती की छाया तले, छत के कोने में तुम पुस्तक हाथ में लिए बैठे रहते; निर्जन में अध्ययन का अचानक तुममें इतना उत्साह जगा। विप्रदास जब मेरे पास परापर्शी के लिए आये मैंने कहा, ‘‘काका तुम तो बहुत दिनों से काशी जाने की सोच रहे हो-लड़की को मेरे पास रखकर तीर्थवास करने जाओ। मैं उसका दायित्व लेता हूँ।’’

‘‘विप्रदास तीर्थ चले गये। मैंने लड़की को श्रीपति चटर्जी के डेरे में रख उन्हें ही उसका पिता कहकर चला दिया। उसके बाद जो कुछ हुआ वह तो तुम तो जानते हो। तुम्हारे पास आद्यन्त सब बातें खोलकर बताने में बड़ा आनन्द मिला। यह जैसे एक कहानी के समान है। सब कुछ लिखकर एक किताब के रूप में छपवाऊंगा। लिखना मेरे वश में नहीं। सुना है मेरा भतीजा थोड़ा-बहुत लिखता है- उससे लिखवाने की इच्छा है। पर, यदि तुम दोनों मिलकर लिखो तो, सबसे उत्तम होगा, क्योंकि कहानी का उपसंहार मेरा अच्छी प्रकार जाना हुआ नहीं है।’’

हेमन्त ने प्यारीशंकर की अंतिम बातों पर विशेष कान नहीं दिया, कहा ‘‘कुसुम ने इस विवाह में कोई आपत्ति नहीं की।’’
प्यारी शंकर बोले, ‘‘आपत्ति की या नहीं-यह समझना बडा मुश्किल है। जानते ही हो भैया स्त्री का मन-जब ‘ना’ कहती है तब ‘हाँ’ समझना पड़ता है।’’ पहले तो इस नये घर में आकर कई दिनों तक तुम्हें न देख पाने के कारण जाने कैसी पागल-सी हो गयी थी। देखा, तुमने भी यहाँ का पता पा लिया लिया था; अक्सर किताब हाथों में लिए कॉलेज की यात्रा करते तुम यह भूल जाते और श्रीपत के डेरे में आकर न जाने क्या खोजते फिरते; ठीक प्रेसीडेन्सी कॉलेज का ही रास्ता खोजते हो ऐसा नहीं लगता था, क्योंकि भद्र व्यक्ति के घर की खिड़की के भीतर से केवल पंतगा और दीवानें युवक के हृदय का पथ मात्र था। देख-सुनकर मुझे बड़ा दुख हुआ था। देखा तुम्हारी पढ़ाई में बड़ा ही विघ्न हो रहा है और लड़की की हालत भी संकटजनक है।’’

‘‘एक दिन कुसुम को बुलाकर कहा, ‘‘बेटी मैं बूढ़ा आदमी हूँ मुझसे संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं- तुम जिसकी मन-ही-मन कामना करती हो, वह मैं जानता हूँ। लड़का भी बर्बाद होने जा रहा है मेरी इच्छा है कि तुम दोनों का मिलन हो जाए। सुनते ही कुसुम एक बारगी छाती फाड़कर रोने लगी और भागकर चली गयी।’’

‘‘ऐसा अक्सर बीच-बीच में शाम को श्रीपत के घर जाकर कुसुम को बुलाकर तुम्हारी बात चलाकर क्रमशः उसकी लज्जा को दूर किया। अन्त में प्रतिदिन धीरे-धीरे बात-विचार करते हुए उसे समझाया विवाह के अलावा और कोई रास्ता नहीं है इसके शिवा मिलन का दूसरा उपाय नहीं है कुसुम बोली कैसे होगा ?’’ तुम्हें कुलीन घर की लड़की बताकर चला दूँगा।’ बहुत वाद-विवाद के बाद उसने इस बारे में तुम्हारी राय क्या है- यह जानना चाहा। मैं बोला, ‘लड़के की उन्मत्त होने जैसी हालत दिख रही है उस पर से उसे यह गोलमाल वाली बातें सुनाने की क्या जरूरत है भला ? कार्य के अच्छी तरह निर्विघ्न, निश्चिन्त, निष्पन्न हो जाने पर ही सब ओर से सुखकर होगा। विशेष रूप से जब कभी इस बात के प्रकट होने की सम्भावना नहीं है तब तक बेचारी को अपनी ओर से जबर्दस्ती जीवन भर के लिए दुखी किये रहना है ?’’

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