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विराज बहू

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5734
आईएसबीएन :81-85830-32-0

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स्वामि-भक्ति का पाठ पढ़ाकर पुरुष ने नारी को अपने हाथ का खिलौना बना लिया। विराज भी ऐसे ही वातावरण में पली थी।

Viraj bahu

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

स्वामि-भक्ति का पाठ पढ़ाकर पुरुष ने नारी को अपने हाथ का खिलौना बना लिया। विराज भी ऐसे ही वातावरण में पली थी। उसने अपने पति को ही सर्वस्व मान लिया था उसने स्वयं दु:ख बर्दाश्त किया, परन्तु पति को सुखी रखने की हर तरह से चेष्टा की।
लेकिन इस सबके बदले में उसे मिला क्या ?
लांछना और मार।
तीस दिन की भूखी-प्यासी-बुखार से चूर विराज, अपने पति नीलांबर के लिए बरसात की अंधेरी रात में भीगती हुई, चावल की भीख मांगने गयी।
.....और नीलांबर ने उसके सतीत्व पर संदेह किया, उसे लांछना दी।...

विराज का स्वाभिमान जाग उठा। पति की गोद में सिर रखकर मरने की साध करने वाली विराज, अपने सर्वस्व को छोड़कर चल दी....और जब उसे अपना अन्त समय दिखाई दिया, तो फिर वह पति के समीप पहुंचने को तड़प उठी।
उस सती-साधवी को पति का समीप्य मिला अवश्य-लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी- पति-सुख कुछ समय को पुन: प्राप्त कर बारम्बार पद-धूलि माथे से लगाकर विराज अपने विराज अपने सारे दु:खों को भूल गयीं। अन्तिम क्षण अपने पति से कहती गयी- ‘मेरी देह शुद्ध है, निष्पाप है ! अब मैं चलती हूं-जाकर तुम्हारी राह देखती रहूंगी !’
बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के ‘विराज बोउ’ का हिन्दी अनुवाद है यह विराज बहू !.......

-अनुवादक

विराज बहू


नीलांबर और पीतांबर नाम के दो भाई हुगली जिले के सप्तग्राम में रहते थे। मुर्दे जलाने, कीर्तन करने, ढोल बजाने और गांजा पीने में नीलांबर जैसा आदमी उस ओर कोई नहीं था। उसके लंबे और गोरे बदन में असाधारण शक्ति थी। परोपकार करने के लिए वह गाँव में जितना मशहूर था, अपने गंवारूपन के लिए उतना ही बदनाम था। किन्तु छोटा भाई बिल्कुल दूसरी तरह का आदमी था। वह था दुबला-पतला और नाटे कद का। किसी के घर मरने की खबर सुनते ही शाम के बाद उनका शरीर कुछ अजीब-सा होने लगता था। वह अपने भाई जैसा मूर्ख नहीं था और गंवारूपन को पास नहीं फटकने देता था। तड़के ही खा-पीकर बगल में बस्ता दबाकर घर से निकल जाता और हुगली की कचहरी के पश्चिम की तरफ एक आम के पेड़ के नीचे आसन जमा देता। दरख्वास्तें लिखकर दिनभर में जो कमाता, उसे शाम होते ही घर आकर बक्स में बन्द कर देता था। रात को भी बार-बार उसकी जांच कराकर ही सोता था।

चण्डीमण्डप के एक ओर बैठा हुआ नीलांबर आज सवेरे तमाखू पी रहा था। इसी समय उसकी अविवाहित बहिन धीरे-से आकर उसके पीछे घुटने टेककर बैठ गयी और उसकी पीठ में मुंह छिपाकर रोने लगी। हुक्का नीलांबर ने दीवार के सहारे रख दिया और एक हाथ अन्दाज से बहिन के सिर पर रखकर प्यार से कहा- ‘सवेरे-सवेरे रो क्यों रही है बहिन ?’
हरिमती ने मुंह रगड़कर भाई की पीठ पर आँसू पोतकर कहा-
भाभी ने मेरे गाल मल दिए और कानी कहकर गाली दी है !’
नीलांबर हंसने लगा- ‘वाह, तुम्हें कानी कहती है ? ऐसी सुन्दर दो आंखें रहने पर भी जो कानी कहे, वही कानी है ! परन्तु तुम्हारा गाल क्यों मल दिया ?’
हरिमती ने रोते-रोते कहा- ‘ऐसे ही !’

‘ऐसे ही ? चलो, पूछे तो’- कहकर हरिमती का हाथ पकड़े नीलांबर अन्दर गए और पुकारा- ‘विराज बहू !’
बड़ी बहू का नाम है वृजरानी ! नौ साल की उम्र में ही उसकी शादी हुई थी। तब से सभी उसे विराज बहू कहते हैं। अब उसकी उम्र उन्नीस-बीस साल की होगी। सास के मरने के बाद से इस घर की मालकिन वही है। वृजरानी बहुत ही सुंदर है। चार-पांच साल पहले उसे एक लड़का हुआ था, जो दो-चार दिन बाद ही मर गया। तब से वह नि:संतान है। वह रसोई बना रही थी। पति की आवाज सुनकर बाहर निकली और भाई-बहिन को एक साथ देखकर जल उठी। कहा- ‘मुंहझौंसी, उल्टे शिकायत करने गयी थी ?’

नीलांबर ने कहा, ‘क्यों न करे ? तुमने झूठ-मूठ ही इसे कानी कह दिया ! किन्तु इसका गाल क्यों मल दिया ?’
विराज ने कहा- ‘इतनी बड़ी हो गयी और सोकर उठी तो न मुंह धोया, न कपड़ा बदला और जाकर बछड़ा खोलकर, मुंह बाए खड़ी-खड़ी देखती रही। एक बूँद भी दूध आज नहीं मिला ! इसने तो मार खाने का काम किया है !’
नीलांबर ने कहा- ‘नहीं, दूध लाने के लिए दासी को भेज देना चाहिए ! अच्छा बहिन, तुमने बछड़ा क्यों खोला ? यह तो तुम्हारा काम नहीं है !’

भाई के पीछे ही खड़ी हरिमती ने धीरे से कहा- ‘मैंने समझा कि दूध दुहा जा चुका है !’
‘फिर कभी ऐसा समझो तो दुरुस्त कर दूँगी !’-कहकर विराज चौके में जाने लगी कि नीलांबर ने हंसते हुए कहा- ‘इस अवस्था में, एक दिन तुमने भी मां का पाला हुआ तो तोता उड़ा दिया था। यह समझ कर कि पिंजड़े का तोता उड़ नहीं सकता है, तुमने पिंजड़े की खिड़की खोल दी थी। याद है न ?’

वह खड़ी हो गयी। हंसकर कहा- ‘याद है ! किन्तु, तब मैं इतनी बड़ी नहीं थी !’ और कहकर वह काम करने चली गयी। हरिमती ने कहा- ‘चलो दादा, बगीचे में चलकर देखे कि आम पक रहे हैं या नहीं !’
नीलांबर ने कहा- ‘चल !’

तब तक नौकर ने अन्दर आकर कहा- ‘नरायन बाबा बैठे हैं !’
नीलांबर झेप गया, धीरे-से कहा- ‘अभी से आकर बैठ गए ?’
विराज ने सुन लिया। जल्दी से बाहर आयी और चिल्लाकर कहा- ‘बाबा से कह दे, चले जायें !’ फिर पति को लक्ष्य करके कहा-

‘सवेरे से ही यह सब पीना अगर तुमने शुरू कर दिया, तो मैं सिर पटक कर प्राण दे दूँगी ! क्या कर रहे हो आजकल यह सब ?’ नीलांबर कुछ नहीं बोले, बहिन का हाथ पकड़कर चुपचाप बगीचे में चले गए।

बगीचे में एक तरफ- किसी मृतप्राय जीव की अन्तिम सांस की तरह, सरस्वती नदी की पतली धारा बहती थी। उसमें सेवार भरा पड़ा था। बीचबीच में, पानी के लिए गाँव वालों ने कुओं की तरह गड्ढ़े खोद रक्खे थे। उसके आस-पास सेवार से भरा हुआ छिछला पानी था। तेज धूप के कारण, स्वच्छ पानी के भीतर से वहीं की जमीन पर ढेरों सीप और घोंघे, मणियों की तरह चमक रहे थे। बहुत दिनों पहले, बरसात के पानी के तेज बहाव के कारण, पास ही के समाधि-स्तूप की दीवार से एक काला पत्थर टूटकर वहां जा गिरा था। रोज शोम को उस घर की बहुएं उस मृत आत्मा के लिए एक चिराग जलाकर, उसी पत्थर के सिरे पर रख जाती हैं। बहन का हाथ पकड़े हुए नीलांबर उसी पत्थर पर एक ओर आकर बैठ गया।



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