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उपन्यास >> रजाकार

रजाकार

किशोरीलाल व्यास

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5732
आईएसबीएन :81-214-0134-8

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लेखक का ऐसा रोमांचक ऐतिहासिक उपन्यास, जिसमें आम जनता के दुख-दर्दों का जहां मार्मिक चित्रण है, वहां जुल्म ढाने वाले रज़ाकारों की क्रूरताओं का दिल दहलाने वाला बखान भी...

Rajakar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

हैदराबाद में आज भी किसी ‘रजा़कार’ कहने का अर्थ उसे गाली देना है। ‘रजा़कार’ का  शाब्दिक अर्थः स्वयंसेवक। लेकिन ऐतिहासिक कारणों से इस शब्द   का इतना अवमूल्यन हो चुका है कि यह शब्द धर्माध नृशंस अत्याचारी के रूप में रूढ़ हो गया।

उत्तर भारत की जनता भारत विभाजन के रक्तरंजित इतिहास मात्र से परिचित है। धर्म के नाम पर मानवीय क्रूरता की यह दारुण गाथा इतिहास में अपना सानी नहीं रखती। दोनों ओर से विस्थापित निहत्थे, असहाय जनसमूहों को बीच रास्तों में काट डाला गया। बूढ़ों, बच्चों व स्त्रियों तक को नहीं बख्शा गया। खचाखच भरी रेलगाड़ियां काट डाली गयीं। रक्तरंजित, मुर्दों को ढोती गाड़ियां दो विभाजित मुल्कों के बीच दौड़ रही थीं, जिन पर लिखा था : खून बहाना हमसे सीखो’।
धर्मांधों ने खू़ब रक्त बहाया। विभाजित घायल धरती मानव रक्त से सुर्ख हो गयी। मानव इतिहास की सबसे क्रूरतम त्रासदी हिंदी, पंजाबी, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी़ भी बनीं। इस घटना को हुए अर्द्ध सदी गुजर गयी लेकिन लाखों लोगों के दिलों पर लगे घाव आज भी ताजा है। कई बड़े बूढ़े मर खप गये और मानवीय कूरता की अवर्णनीय घटनाओं को अपने आगोश में छिपाये इस दुनिया से कूच कर गये। कुछ अभी जिंदा हैं।

मेरी ही कॉलोनी की एक बूढी पंजाबी माता जी ने एक दिन सुबकते हुए कहा, ‘‘बेटा, कैसे भूल सकती हूं वह नजारा ? रोज मेरी आंखों के सामने घूम जाती है सारी घटना, जब आततायी दरिंदों से बचने के लिए मेरी तीन जवान लाडलियों ने-उफनती सतलुज नदी में, पुल पर से, एक के बाद एक मेरी आंखों के सामने छलांग लगा दी। मैं सिर्फ़ देखती रह गयी...आज बरसों बाद भी देख रही हूं-अलविदा कहती...हाथ हिलाती मेरी लाडलियां...’’

इतिहास के टूटे दर्पण की बारीक़ किरिचें न जाने कितने दिलों में चुभ कर उन्हें लहूलुहान करती हैं, पर इन किरिचों को न निकाला जा सकता है, न इनको आपस में जोड़ कर टुकड़ा-टुकड़ा इतिहास रचा जा सकता है। जिजीविषा का बुलडोजर सब को कुचलता आगे बढ़ जाता है, और भुला दी जाती हैं इतिहास की क्रूरता त्रासदियां। बड़ी गगन चुंबी अट्टालिकाएं फिर खड़ी हो जाती हैं और चमचमाती सड़कों पर फिर दौड़नें लगती हैं आदमी की दुर्दम्य आकांक्षा की गाड़ियां...इतिहास पीछे मुड़ कर नहीं देखता, लेकिन इतिहास के खंडहरों में सोये पड़े भूतों को जगाने की जरूरत कभी किसी कलाकार को पड़ जाती है। वह छोटे-छोटे जले हुए धागों को समेट कर एक कृति विनिर्मित करता है और उसमें प्राण प्रतिष्ठा करता है...भूतकाल के भूत को जगाता है। ऐसा ही एक नम्र प्रयास है यह उपन्यास ‘रज़ाकार।’

अविभाजित भारत के रजवाड़ों में सबसे बड़ा राज्य था आसिफज़ाही ने। इसी वंश के अंतिम बादशाह निज़ाम मीर उस्मान अली द्वारा शासित हैदराबाद। तेलंगाना के आठ (करीमनगर, अदिलाबाद, निज़ामाबाद, मेदक, महबूबनगर, नलगोंडा, वारंगल व खम्माम) महाराष्ट्र के पांच (औरंगाबाद, नादेड़, उस्मानाबाद, परभणी व बीड), कर्नाटक के तीन (गुलबर्गा, रायचूर व बीदर)-कुल सोलह जिलों से मिल कर बना था हैदराबाद राज्य।

इस राज्य पर दो राजवंशों ने शासन किया था-कुतुबशाही और आसिफजाही ने। इसी वंश का सातवां व अंतिम बादशाह था उस्मान अली, जो दुनिया का तीसरा सबसे धनवान आदमी था। इस राज्य की बानवे प्रतिशत जनता तेलुगु, कन्नड़ और मराठीभाषी हिंदू थी, केवल आठ प्रतिशत मुसलमान थे, जो अधिकांशतः शासक वर्ग था। हैदराबाद राज्य अपनी गंगा-जमुनी संस्कृति और भाईचारे के लिए एक मिसाल था। दक्कनी शायरी हो या तेलुगु कविता, खानपान, रहन-सहन हो या तीज त्योहार-कहीं कोई भेदभाव नहीं था। ईद, होली, दीवाली, मुहर्रम साथ- साथ होती थी। मुसलमान दिल खोल कर होली खेलते थे, दीवाली मनाते थे, तो हिंदू मुहर्रम के ताजि़यों में और ईद की खु़शियों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे। गांवों में समृद्धि थी, शहरों में सुख-शांति थी।

छठे निज़ाम मीर ‘महबूब’ थे। सूफी संत थे, पीर थे। हिंदू-मुसलमान उनकी दो आंखें थीं-दोनों बराबर। उनके छूने से कई बीमारियां दूर हो जातीं। रोज़ सुबह भीड़ लग जाती उनके दरबाजे आम में। रैयत अपने मालिक में अपने भगवान के दर्शन कर धन्य हो जाती। छतनार पीपल से थे मीर महबूब अली। 27 सितंबर, 1908 को मूसी नदी में आयी भयंकर बाढ़ में तीस हज़ार आदमी बह गये थे-
हजारों मवेशी, झोपड़ियां, घर ढोर-डंगर न जाने क्या क्या ! इस तबाही को देख कर मीर बहबूब अली बादशाह बच्चों की तरह रो पड़ा था। सच्चा वैष्णव था वह फ़कीर बादशाह। परायी पीड़ा को दिल की गहराइयों में महसूसने वाला। उसकी आंखों में प्यार था, दिल में मुहब्बत का दरिया बहता था और हाथों में करिश्मा।

सातवें निज़ाम ने उसी परंपरा को निभाया, लेकिन वक्त गुज़रते धर्मांधता की हवाएं बहने लगीं....मुल्ला-मौलवियों की ताकत बढ़ गयी और इस्लाम का उन्माद जागने लगा। बहादुर यार जंग से शुरू हुई यह दास्तान का़सिम रज़वी तक पहुंचते-पहुचते ख़तरनाक मोड़ पर आ गयी। लातूर का एक वकील क़ासिम रजवी हैदराबाद आता है और इस ज़मीन को अपने इरादों का महल खड़ा करने के काबिल पाता है...तुर्की के ख़िलाफ़त आंदोलन ने दुनिया के मुसलमानों को अपनी एक पहचान बनाने की राजनीतिक ताकत का अहसास दिला दिया...दुर्भाग्य से गांधी ने सुदूर देश में घटती ऐतिहासिक घटना को पूरा-पूरा समर्थन देते हुए इसके दूरगामी परिणामों को नजरंदाज़ कर दिया। ‘दारुल इस्लाम’ की प्रबल भावना मुल्ला-मौलवियों द्वारा मुसलमानों में फैलायी जाती रही। इसका दुष्परिणाम हुआ-एक ही राष्ट्र में अलगाववादी मनोवृत्ति का उद्रेक।

केरल में मोपलाओं ने जिस बड़े पैमाने पर हिंदुओं की हत्याएं की, तलवार के बल पर उन्हें जबरन मुसलमान बनाया, यह मध्ययुग की बात नहीं, बीसवीं, सदी के आरंभिक दशकों की दारुण दास्तान है। बंगाल और उत्तर प्रदेश भी कहां अछूते रहे ? फिर हैदराबाद तो मुसलमान बादशाहों द्वारा शासित ऐसा बड़ा राज्य था जिसकी अपनी रेलवे थी, डाक व्यवस्था थी, सिक्के थे...और अंग्रेजों की दोस्ती थी...अंग्रेजों, ने निज़ाम को हमेशा-हमेशा बादशाह बने रहने के सब्ज़बाग़ दिखाये थे। ऐसे में उदारवादी आसिफज़ाही राज में धीरे-धीरे धर्मांध इस्लामी हवाएं बहने लगीं।

बहादुर यार जंग एक अदना सा पुलिस का सिपाही। दो बार हज कर आया और अपनी तेज़ तरार्र तक़रीरों के बलबूते पर मुसलमानों की ऐसी ताकत के रूप में उभरा, जिससे उस्मान अली बादशाह तक डरने लगा। फिर एक दिन कबाब की हड्डी की तरह उसे हमेशा-हमेशा के लिए रास्ते से हटा दिया गया। बहादुर यार जंग की जगह ली दुबले-पतले जोशीले नौजवान वकील क़ासिम रज़वी ने। उसने दस बरसों में तो हैदराबाद का माहौल ही बदल डाला। रजाकारों की प्राइवेट आर्मी खड़ी कर ली। यह संख्या देखते-देखते दो लाख तक पहुंच गयी। एक ख़ास वेशभूषा : खाकी निकर, ख़ाकी कमीज़, रूमी टोपी, हाथ में हथियार, कमर में लटकता जंबिया और खंज़र। सुबह ही शुरू हो जाती परेड बेग़म बाजार, चारमीनार, कोठी, नामपल्ली हिमायत नगर में। यूं कहें कि सारे शहर में लंबी-लंबी कतारें रज़ाकारों की परेड करती...गगनभेदी नारे लगातीं...निकलतीं तो हिंदुओं के दिल कांपने लगते। राह चलते किसी ब्राह्मण की चोटी खींची जाती, किसी दुकान या मकान पर पत्थर बरसाये जाते, मनचाही चीज़ उठा ली जाती...निरीह बहुसंख्य हिंदू देखते रह जाते। औरतों ने सड़कों पर निकलना बंद कर दिया था...मर्द भी सहमे-सहमे काम पर आते-जाते...चारों ओर आतंक का साया छाया हुआ था।

गांवों में तबलीग (धर्मांतरण) का बाज़ार गर्म था। माला, मादिमा....चमारों, हरिजनों को मार-मार कर मुसलमान बनाया जाता था। जो नहीं मानते, उन पर चोरी-डकैती के आरोप लगा कर पुलिस उन्हें पक़ड़ कर ले जाती। उनकी इतनी धुनाई होती कि कभी-कभी मर भी जाते। उनकी झोंपड़ियां जला दी जातीं...घर की औरतों को नंगा कर के पीटा जाता...उन्हें उठा कर ले जाया जाता। अत्याचारों के इस डर से बड़ी संख्या में हरिजन मुसलमान बन रहे थे। मुस्लिम बनने के बाद उनको दो फायदे हो रहे थे-पुलिस का संरक्षण और रज़ाकार बन कर लूटपाट का अवसर। उनकी ग़रीबी बेरोज़गारी और मुफ़लिसी दूर हो जाती...और जो ऊंचे कुल वाले व्यापारी, जमींदार के कारिदे, माली पटेल, पुलिस पटेल उनको जूतों के बराबर समझते, दिन भर बेगारी कराते और जूते मारते, उन्हीं पर ये नये मुसलमान अपना रोब झाड़ते...रातों-रात सारा माहौल बदल जाता। ये हरिजन अकसर सोचते, धर्म को लेकर क्या उसे चाटना है ? जिस धर्म ने हमें नाली का सूअर और गली का कुत्ता समझ कर हमेशा मारा-पीटा और दुत्कारा उस धर्म से चिपटे रहने से क्या फायदा ?

जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें सताया, लूटा मारा, पीटा, उन्हीं को लूटने का अवसर भी इन्हें मिल रहा था।

बड़ी संख्या में हरिजनों का खत्ना होता, उन्हें गाय का गोश्त खिलाया जाता, उन्हें कलमा पढ़ाया जाता और उनका नये सिरे से नामकरण संस्कार होता-करीमुल्ला, रहमत अली, इद्रीस, रफअत आदि। दूसरे दिन से ही ये हरिजन रजारों में शामिल हो जाते डंडे, चाक, जंबिये, दुरांती ले कर। शाम तक लूट का काफी माल ले आते। खू़ब खाते-पीते और मौज-मस्ती मनाते। नया धर्म शासक का धर्म था, पुलिस और सरकारी अमले उनके साथ थे, फिर डर काहे का ? सदियों से सोया हुआ उनका प्रतिकार भंयकर रूप ले कर प्रकट होने लगा था।

इधर क़ासिम रज़वी ने उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल से बड़ी संख्या में मुसलमानों को बुला कर हैदराबाद में बसाया। उसकी मंशा यही थी कि हैदराबाद में मुसलमानों की संख्या आधी हो जाये, बस। फिर तो इन काफ़िरों से वे निपट लेंगे।
पढ़े-लिखे मुसलमानों के कान खड़े हुए...सरकारी महकमों में हलचल हुई...निज़ाम भी सोचने को मज़बूर हुआ...मुल्की गौरमुल्की का मसला उठा। स्थानीय अमीर, उमरा, नवाब, जमींदार, जडागीदार और अमला इस बात को लेकर चिंतित हो उठे कि उनकी जगह नौकरियों में बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमान भर जायेंगे।

धीरे-धीरे उनकी जागीरें, उनका रुतबा भी छिन जायेगा। उनके बच्चे सड़कों पर आ जायेंगे, और फिर मुल्की आंदोलन ने जोर पकड़ा। उधर हिंदुओं, ईसाइयों, सिखों तथा अन्य समुदायों के भी कान खड़े हुए। जनता में असुक्षा की भावना बढ़ती गयी। भारत की आज़ादी की लड़ाई की हवाएं हैदराबाद की सीमाएं पार कर गांव तक फैलने लगीं। आर्यसमाज, हिंदू महासभा तथा अन्य संस्थाएं भी जाग उठीं। एक ओर स्वामी रामानंद तीर्थ के नेतृत्व में कांग्रेस का झंडा उठाये जन-जन जाग उठा, तो  दूसरी ओर किसानों मज़दूरों ने प्रशस्त संघर्ष द्वार शोषण पर आधारित जमींदारी प्रथा को उखाड़ फेंकने के लिए कमर कस ली। मुक्ति के लिए तिहरा संघर्ष आरंभ हो गया। आर्यसमाज के बलिदानी वीरों ने अनेक यातनाएं सहीं, जेल की हवा खायी और हजारों, वीरों ने बलिदान दिये। सच पूछा जाये तो आर्यसमाजी देशभक्तों ने हैदराबाद की ऊर्वर भूमि तैयार की। स्वाधीन। राष्ट्र को इन हुतात्माओं का सदैव ऋणी रहना चाहिए।

सन् 1946 से 1948 तक के दो वर्ष हैदराबाद राज्य के लिए बड़े उथल पुथल के रहे। सदियों से चली आ रही सांप्रदायिक सौहार्द की भावना छिन्न-भिन्न हो गयी। दुख की बात तो यह थी कि बाहर से आ कर धार्मिक उन्माद से ग्रस्त एक वकील क़ासिम रज़वी ने नब्बे प्रतिशत हिंदू प्रजा की इस रियासत को स्वतंत्र इस्लामी राष्ट्र में बदलने का सपना देखा, और इससे भी बड़ा सपना दिखाया इस राज्य के शासक उस्मान अली को, कि वे लोग हैदराबाद के आसिफज़ाही राज्य का परचम दिल्ली के लालकिले पर फहरा सकते हैं।

 जिस तरह जिन्ना की ज़िद ने सारे प्रजातांत्रिक और मानवीय मूल्यों को ताक पर रख कर ‘डायरेक्ट एक्शन’ के रूप में बर्बर शक्ति का आह्वान किया था और खून की नदियां बहा कर पाकिस्तान हासिल किया था, उसी तरह से तलवार और बंदूक के जोर पर आजा़द हैदराबाद राज्य की प्राप्ति की कामना को हवा दी गयी। इसके लिए उसने वे ही रास्ते अपनाये जो जिन्ना ने अपनाये थे; अर्थात् डराने और धमकियां देने और राज्य की बागडोर अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथों में ले लेने की। बहादुर यार जंग की मौत के बाद रज़ाकार संगठन करज़वी ने अपने हाथों में ले लिया-गांव-गांव से मुसलमानों की भर्ती कर, क़वायद करा कर, शस्त्रास्त्र चलाने का अभ्यास करा कर दो लाख धर्मांधों की एक सशक्त सेना खड़ी कर ली। और फिर क़ासिम रज़वी इतना शक्तिशाली हो गया कि उससे निजा़म भी डरने लगा।

उसका ‘मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन’ संगठन उत्तर भारत के ‘मुस्लिम लीग’ से कुछ कम नहीं था, जिसने पंजाब और नोआखली में क़त्लेआम रचाया था। जाने-माने गुंडे और हत्यारे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने रज़ाकार बन बैठे पुलिस और रज़ाकार एक ही थैली के चट्टे बट्टे थे। इसके बाद निज़ाम के राज्य में शहरों से ले कर कस्बों और गांवों तक रज़ाकारों ने सामान्य प्रजा पर जो अत्याचार किये, लूटपाट और हत्याएं कीं, स्त्रियों की अस्मतों को लूटा, घर जलाये और आतंक का वातावरण तैयार कर बड़ी संख्या में लोगों को पड़ोस के प्रांतों में भागने के लिए बाध्य किया, वह तो इतिहास की ही बात है।



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