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भारतीय कविताएँ 1985

बालस्वरूप राही

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :262
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5673
आईएसबीएन :0000000

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वर्ष 1985 में सभी भाषाओं की पाँच-पाँच कविताओं का संकलन...

Bhhartiya Kavitayein 1985 a hindi book by Balswaroop Rahi - भारतीय कविताएँ 1985 - बालस्वरूप राही

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रति वर्ष स्फुट रूप से स्थायी महत्त्व की कई रचनाएँ प्रकाशित होती हैं और सामान्य रचानाओं की भीड़ में खो जाती हैं। यदा-कदा चर्चित होती हैं, रेखांकित भी होती हैं, किन्तु एक स्थान पर सहेजी नहीं जातीं। अन्य भाषाओं की उपलब्धियों से साक्षात्कार तो दुर्लभ ही है, हम अपनी ही भाषा की सर्वोत्त्म रचनाओं से अपरिचित रह जाते हैं। परिचय होता भी है तो बस क्षण मात्र के लिए। यों हम सभी न्यूनाधिक यह अनुभव और स्वीकार करते हैं कि भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचे जाने पर भी कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में एक मुख्य धारा में सम्पृक्त है। भाषा विशेष के साहित्य के सही मूल्यांकन एवं सच्चे आस्वाद के लिए उसे समग्र भारतीय साहित्य के परिदृश्य में रख कर देखा जाना नितान्त आवश्यक एवं वांछनीय है।

‘भारतीय कविताएँ : 1985’ सभी भाषाओं की पाँच-पाँच प्रतिनिधि कविताओं की महत्त्वपूर्ण चयनिका है। चुनाव केवल उन्हीं रचनाओं से किया गया है जो लिखी चाहे कभी भी गयी हों, पुस्तक, पत्र-पत्रिका, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि के माध्यम से पहली बार सन् 1985 में ही प्रकाश में आयीं। इनसे 1985 की विशिष्ट कविताएँ एक ही स्थान पर उपलब्ध एवं सुरक्षित हो सकेंगी और समकालीन भारतीय कविता के प्रति जिज्ञासु कव्य-प्रेमियों को इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।
हमें पूरा विश्वास है कि ‘भारतीय कविताएँ : 1983’ और ‘भारतीय कविताएँ : 1984’ के समान ही इस चयनिका को भी आप समकालीन भारतीय कविता को समझने और परखने की दृष्टि से उपयोगी पायेंगे।


प्रस्तुत प्रयास



परिकल्पना



अपनी स्थापना से ही भारतीय ज्ञानपीठ का लक्ष्य भारतीय साहित्य के संवर्धन में योगदान रहा है। अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए वह प्रारम्भ से ही त्रि-आयामी प्रयास करता आ रहा है। एक ओर तो वह जटिल किन्तु विश्वसनीय मूल्यांकन–प्रणाली द्वारा भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित-पुरस्कृत करता है, ताकि साहित्य को समर्पित अग्रणी भारतीय रचनाकारों को अधिकतम मान-सम्मान एवं राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और उनकी शीर्ष कृतियाँ अन्य रचनाकारों के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करें। और दूसरी ओर वह समग्र समकालीन भारतीय साहित्य में से कालजयी रचनाओं का चयन कर उन्हें, प्रायः हिन्दी के माध्यम से, वृहत्तर प्रबुद्ध पाठ-समुदाय तक ले जाता है, ताकि एक भाषा का सर्वोत्कृष्ट साहित्य दूसरी भाषा तक पहुँचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों एवं सजग पाठकों के मध्य तादात्म्य स्थापित हो और परस्पर-प्रतिक्रिया हो। तीसरी ओर वह संवेदनशील, संभावनावान, उदीयमान रचनाकारों की सशक्त कृतियाँ प्रकाशित कर उन्हें उनका दाय प्राप्त कराने में सक्रिय सहयोग करता है।

साहित्य राष्ट्रीय चेतना का सर्वप्रमुख संवाहक है। यदि किसी देश की सांस्कृतिक धड़कनों को समझना हो तो उसकी नब्ज—साहित्य पर हाथ रखना आवश्यक होता है। अन्य राष्ट्रों को ही नहीं, अपने राष्ट्र को भी हम प्रमुखतः अपने साहित्य के माध्यम से ही सही-सही पहचानते हैं। स्वराष्ट्र की आत्मा साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त होती है और साहित्य भाषा के माध्यम से मुखरित होता है। किन्तु हमारे लिए कठिनाई यह है कि भारतीय साहित्य एक या दो भाषाओं के माध्यम से तो मुखरित होता नहीं, अतः भाषा जो एक पथ है, सेतु है, वही व्यवधान बन जाती है। इस व्यवधान के अतिक्रमण में भारतीय ज्ञानपीठ निरन्तर सुधी पाठकों का सहायक रहा है। इस बार सोचा गया कि एक और नयी राह निकाली जाए, एक और नई दिशा का संधान हो। कालजयी शाश्वत रचनाओं तक ही सीमित क्यों रहा जाए ? जिन रचनाओं को अभी काल की कसौटी पर कसा जाना है, उन तक भी पहुँच क्यों न हो ? आज की धड़कने पहचानने के लिए आज का आमना-सामना आवश्यक है। जो सबसे ताजी है, आज की रचना है, वही तो वर्तमान को समझने में सबसे बड़ी सहायक बन सकती है। वही काल कालजयी सिद्ध होकर धरोहर भी बन सकती है।

प्रति वर्ष स्फुट रूप से स्थायी महत्त्व की कई रचनाएँ प्रकाशित होती हैं और सामान्य रचानाओं की भीड़ में खो जाती हैं। यदा-कदा चर्चित होती हैं, रेखांकित भी होती हैं, किन्तु एक स्थान पर सहेजी नहीं जातीं। अन्य भाषाओं की उपलब्धियों से साक्षात्कार तो दुर्लभ ही है, हम अपनी ही भाषा की सर्वोत्त्म रचनाओं से अपरिचित रह जाते हैं। परिचय होता भी है तो बस क्षण मात्र के लिए। यों हम सभी न्यूनाधिक यह अनुभव और स्वीकार करते हैं कि भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचे जाने पर भी कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में एक मुख्य धारा मे सम्पृक्त है। भाषा विशेष के साहित्य के सही मूल्यांकन एवं सच्चे आस्वाद के लिए उसे समग्र भारतीय साहित्य के परिदृश्य में रख कर देखा जाना नितान्त आवश्यक एवं वांछनीय है।

इसी भावना से हमने प्रेरित होकर यह निर्णय किया कि भारतीय ज्ञानपीठ प्रति वर्ष समस्त भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाली विधा विशेष की श्रेष्ठ रचनाओं को एक संकलन में एक साथ सँजोने का क्रम प्रारम्भ करे। निर्णय हुआ कि वार्षिक चयनिकाओं की इस श्रृंखला का प्रारंभ 1983 में प्रकाशित कविताओं और कहानियों की चयनिकाओं से हो। तय हुआ कि कविता-संकलन के लिए हर भाषा से पाँच कविताएँ चुनी जाएँ और इस प्रकार चयनिका में सभी भाषाओं की लगभग 75 कविताओं का समावेश हो। इससे वर्ष की विशिष्ट कविताएँ एक ही स्थान पर उपलब्ध एवं सुरक्षित हो सकेंगी और समकालीन भारतीय काव्य-धारा के प्रति जिज्ञासु काव्य-प्रेमियों को इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा।

सबसे बड़ी समस्या थी रचनाओं के चयन की। कोई एक तो सभी भाषाओं का जानकार होता नहीं। अतः इस योजना के क्रियान्वयन के लिए सोचा यह गया कि हर भाषा से रचना-चयन का दायित्व भाषा विशेष के ही किसी काव्य-मर्मज्ञ को सौंपा जाए जो कविताओं का चयन भी करे और चुनी हुई कविताओं के हिन्दी रूपान्तरों की प्रामाणिकता भी परख ले।
यहाँ हम यह स्पष्ट कर दें कि कविता-चयन मण्डल के हर सदस्य को हमने पूरी-पूरी स्वतन्त्रता दी है और अपनी पसन्द को कहीं भी आरोपित नहीं किया है। चुनाव के लिए पूरी-पूरी जिम्मेदारी, पूरी-पूरी जवाबदेही चयनकर्ता की ही है। हाँ, चयनकर्ता का चुनाव हमारा है और हमने यह पूरी सावधानी एवं दायित्व के साथ किया है। हर चयनकर्ता अपनी भाषा के साहित्य का विश्वसनीय मर्मज्ञ एवं अधिकारी विद्वान है। अनेक तो मूर्धन्य भारतीय सहित्यकारों अथवा साहित्य मनीषियों में गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। चयनिका को और अधिक परिपूर्ण एवं सार्थक बनाने तथा उसे सन्दर्भ-ग्रन्थ के रूप में और भी अधिक उपयोगी बनाने के लिए हमने सहयोगी साहित्यकारों के सचित्र परिचय का समावेश भी इसमें कर दिया है।
स्पष्ट ही है कि इस प्रकार का कोई भी चयन-निर्णय निर्विवाद नहीं हो सकता।

इस कविता-चयन के सामने भी प्रश्नचिह्न लगाये जा सकते हैं और सम्भव है लगें भी। दो-चार नहीं, दर्जनों कविताएँ ऐसी होंगी जो अपनी भाषा में 1985 की उपलब्धि मानी जाएँ। किन्तु प्रतिनिधि रचनाओं की संख्या सीमित एवं सुनिश्चित रखना व्यवहारिक समझा गया-संकलन के आकार-नियन्त्रण के लिए भी और भी भाषाओं के प्रति समभाव की दृष्टि से भी। हमारे लिए सभी भाषाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। प्रतिनिधि रचनाएँ और भी हो सकती हैं या हो सकता है कि इनमें से किसी रचना को प्रतिनिधि माना ही न जाए। तब भी इतना तो है ही कि ये सर्वोत्कृष्ट हों या नहीं, इस संकलन के माध्यम से हम आज के भारतीय काव्य-साहित्य का चेहरा काफी कुछ पहचान सकते हैं। पूर्ण तो कुछ नहीं होता वृत्त के अतिरिक्त। पूर्ण सन्तोष भी दुर्लभ ही है। हमें पूरा विश्वास है कि यह संकलन एक झरोखे का काम करेगा और हम झाँक कर देख सकेंगे कि पड़ोसी आँगन में किस-किस प्रकार के फूल खिल रहे हैं और उनकी महक भी हम तक आ सकेगी।

दरकती राष्ट्रीय चेतना और चटखते एकात्मभाव के इस संकटपूर्ण समय में इस प्रकार के प्रयासों की प्रविष्ठ भूमिका हो सकती है। परिचय सौहार्द का पहली सीढ़ी है। अपनी भाषा से इतर साहित्य के साक्षात्कार से न केवल भारतीय साहित्य की समझ अधिक परिपक्व होती है, बल्कि हम अपनी भाषा के साहित्य की प्रासंगिकताओं को भी और बेहतर ढंग से समझते हैं। हमें प्रसन्नता है हमारे इस विनम्र प्रयास को आरम्भ से ही सभी दिशाओं से सहयोग एवं सराहना प्राप्त होती रही है। एक पत्रकार बन्धु ने तो इसे ‘राष्ट्र में स्वाधीनता के उपरान्त किया जाने वाला सर्वाधिक उल्लेखनीय साहित्यिक एकता आयोजन माना है। हमारा प्रयत्न होगा कि हम यह क्रम बनाए रख सकें। यदि प्रति वर्ष की साहित्य-उपलब्धियाँ इस प्रकार सुरक्षित की जा सकीं तो इस दशक की समाप्ति पर दशक के भारतीय साहित्य पर शोध करने वाले शोधार्थियों के लिए ये ग्रन्थ आधार-सामग्री के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध करेंगे।

भरतीय साहित्य मूल रूप में एक है अथवा एक मुख्य धारा से जुड़ा है—यह एक सत्य है या मात्र एक आह्लादकारी मिथक, इस आशय के विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर खोजने में इस प्रकार के ग्रन्थों की सार्थकता विवादित मानी जा सकती है।


यह चयनिका



सबसे पहले तो इसके लिए क्षमा-याचना कि प्रस्तुत चयनिका लाने में अनपेक्षित विलम्ब हुआ। इस सम्बन्ध में केवल क्षमा ही माँगी जा सकती है, आगे ऐसा नहीं होगा, यह कहना बड़ा कठिन है। अब यह भी कब तक दोहराये कि इस प्रकार के आयोजनों में इस प्रकार की देरी से बच पाना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। इस प्रकार के आयोजनों में सम्मिलित रहने वाले भुक्तभोगी हमारी कठनाइयों का अनुमान अधिक सरलता से लगा पायेंगे। बाकी सबसे तो फिर यही कहना होगा कि सहयोगियों के सक्रिय सहयोग के बावजूद हर बार सम्पूर्ण सामग्री जुटाने में कहीं, कोई न कोई कसर रह ही जाती है। कभी किसी भाषा की कविताओं के प्रामाणिक अनुवाद की समस्या सामने आ जाती है, कभी किसी कवि से अनुमति समय पर नहीं मिल पाती और कभी किसी के परिचय अथवा चित्र की प्रतीक्षा बनी रह जाती है। प्रारम्भिक दो चयनिकाओं में हमारी यह जिद रही है कि हम तब तक चयनिका प्रकाशित नहीं करेंगे जब तक कि प्रत्येक कवि का परिचय और चित्र प्राप्त न हो जाता। व्यवहारिकता के तकाजे ने हमारी जिद को तोड़ा तो नहीं, पर उसे कमजोर कर दिया है। श्री गोविन्दवल्लभ पन्त कहा करते थे—‘‘बेस्ट इज द ऐनिमी ऑव गुड।’’ (सबसे अच्छा अच्छे का बैरी है)। व्यवहारिकता के इसी दबाव के कारण हमें प्रस्तुत चयनिका में अन्यमनस्कतापूर्वक एक समझौता करना पड़ रहा है। हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद एक कवि का सचित्र परिचय नहीं मिल पाया। चयनिका का प्रकाशन और अधिक स्थगित करना संभव नहीं था, अतः हमें उसका लोभ संवरण करना पड़ रहा है।

पंजाबी के वरिष्ठ विचारक एवं कवि डॉ. हरभजन सिंह ने हमारी इन मुश्किलों को बखूबी समझा है : ‘‘निश्चित ही आपके इस प्रयास की बहुमूल्य भूमिका है। भारतीय साहित्य की अस्मिता निश्चित करने में ऐसे संग्रहों का योगदान सन्देह का विषय नहीं। यह प्रयास निरन्तर बना रहना चाहिए। मैंने आपकी भूमिका देखी है। आपकी परिकल्पना स्तुत्य है। इसे व्यवहारिक रूप देने की राह में अपने ढंग की मुश्किलें हैं जिन्हें दूर करने का सरल उपाय कोई नहीं है। हमें अपनी समस्याओं के साथ ही जीना पड़ेगा।’’

वार्षिक चयनिकाओं की दूसरी कड़ी (भारतीय कविताएँ : 1984’) के प्रशासन के पश्चात् इस चयनिका-क्रम में साहित्यकारों और प्रबुद्ध पाठकों की रुचि भी बढ़ी है और उन्होंने हमारे इस आयोजन को उदारतापूर्वक पूरे देश की मानसिकता की अभिव्यक्ति, समकालीन चेतना की पहचान के लिए एक दस्तावेज, राष्ट्रीय प्रवृत्ति का एक अत्यधिक प्रतिनिधि ग्रन्थ आदि माना है। प्रस्तुत है कुछ उत्साहजनक प्रतिक्रियाएँ :


समीक्षकों के विचार


परिशिष्ट में, चयन-मण्डल की सूचियाँ भी हैं। कविताओं के रूपान्तरकारों का परिचय भी होना चाहिए था, जिसका अभाव खटकता है।
भारतीय भाषाओं की सर्वोत्कृष्ट सामयिक कविताओं को, हिन्दी माध्यम से राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार देना हिन्दी की जिम्मेदारी है। प्रतिवर्ष ऐसे संकलनों के प्रकाशन द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ अपने पूर्व-निर्दिष्ट लक्ष्य में एक और आयाम जोड़ रहा है। यह काम, बड़ी व्याप्ति में ‘अस्तित्वमान’ को छोटे पैमाने के नमूने में सुरक्षित करने का प्रयास होने से जटिल तो है ही। सर्वश्रेष्ठ का चयन, सम्भवतः निर्विवाद न हो परन्तु उसकी उपादेयता पर उँगली नहीं उठायी जा सकती।

डॉ. प्रयाग जोशी (प्रकर)


यह संकलन पूरे देश की मानसिकता की अभिव्यक्ति है। साहित्य और विशेष रूप से कविता के सामाजिक सरोकार को प्रमाणित करने के लिए यह एक अच्छा ग्रन्थ है। ई.सी.जी. में जिस प्रकार हमारे दिल की धड़कनों का एक रेखाचित्र अंकित हो जाता है, उसी प्रकार कविता में सामाजिक वातावरण से उत्पन्न संवेदनों का अंकन होता है। भारतीय समाज आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है, वे इस संकलन की कविताओं की पृष्ठभूमि प्रस्तुत करती है और उन्हें कथ्य भी प्रदान करती हैं।

-परशुराम विरही (नयी दुनिया)

सहयोगियों के उद्गार

> समकालीन चेतना की पहचान के लिए यह पुस्तक दस्तावेज है। आपका सम्पादकीय बहुत संतुलित है तथा बहुत से प्रश्नों का सही उत्तर देता है। फिर भी चयनकर्ता यदि अपनी रचना चुनने से बच सके तो अच्छा ही रहे।

डॉ. रामदरश मिश्र (हिन्दी)

यह सचमुच अद्भुत बात है। भारतीय साहित्य-जगत् के आपके प्रति अत्यधिक ऋणी है। आपकी प्रशंसा के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं।

-डॉ. रामलिंगम (तमिल)





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