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भटके हुए लोग

हरचरन चावला

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5666
आईएसबीएन :81-237-3920-6

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उर्दू का प्रसिद्ध उपन्यास.....

Bhatake Hue Log a hindi book by Harcharan Chavla - भटके हुए लोग - हरचरन चावला

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू का प्रसिद्ध उपन्यास भटके हुए लोग श्रम और प्रतिभा का देशांतर पलायन और पलायित भारतीय के मन में देश की धरती के लिए उठती टीस का जीवंत चित्र प्रस्तुत करता है। देश से भागे हुए दो भारतीयों ‘सरन’ और ‘आसिम’; सांप्रदायिक दंगों की ज्वाला में अपना स्वजन-परिजन खो चुकी ‘मोना’ (पूर्व में और पश्चात में नईमा); एवं उसी दंगे में एक दुर्घटना की तरह ‘सरन’ से आ जुड़ी ‘उषा’ के संपूर्ण जीवन की भटकन और मिलन के बीच पूरे उपन्यास की कथा भारत में जर्मनी तक चलती रहती है। ‘सरन’ के जीवन का यौन-संघर्ष और यौनाचार, पुंसत्वहीन पतियों की कामदग्धा पत्नियों द्वारा कामतृप्ति हेतु ‘सरन’ को दिया गया संरक्षण, ‘बाबू बिहारी लाल’ की मानवीयता, सांप्रदायिक दंगों की त्रासदी, व्यापारिक धोखेबाजी, स्त्रियों की यौन विकृति- सब के सब यहां बड़े सहज ढंग से व्यक्त हुए हैं। आज हमारा देश जिस सांस्कृतिक-सामाजिक-धार्मिक संकटों से जूझ रहा है, ऐसे में यह उपन्यास मानवीय सौहार्द और देशप्रेम के लिए प्रेरित कर सकता है।

उन्हीं की बात



जो फिर भी अपने हैं, वे मुझे जगह-जगह मिले। चेहरे बदल-बदल कर मिले। तुम कहानीकार हो, हमारा जीवन भी यहां साक्षात कहानी है। वहां हमने औरत की पिंडली देखी और अपनी जिंदगी भर की तपस्या भंग कर ली। यहां औरत खुलकर सामने आती है तो सोचो, हमारी क्या हालत होती होगी ! हम नहीं कहते कि तुम हमारी कहानियों से लोगों को मानसिक यातना दो। तुम कहानीकार के रूप में यह करना भी नहीं चाहोगे, क्योंकि तुम दर्पण हो, जैसा देखते हो दिखा देते हो। मगर क्या हम तुम्हारे दर्पण में प्रतिबिंबित नहीं हो सकते ? हम जो मिट्टी की संतान हैं, मगर जिन्हें वर्षों अपनी मिट्टी के दर्शन नसीब नहीं होते। क्या तुम्हें, हममें कोई कहानी नजर नहीं आती ?

कहीं एक जगह इंतजार हुसैन ने लिखा है, ‘‘मैंने औरत को जितना देखा उतना ही लिखा है।’’ मैं भी यही कहता हूं। पात्रों, औरतों, परिस्थितियों और इस नए वातावरण को मैंने जितना देखा है, मैंने उतना ही लिखा है। अब इस जितने-जितने में जितना अंतर है, वह दूसरी जगहों और दूसरी प्रकार की नजरों के कारण है। मुझे इस समय दिल्ली में अपने घर में मेज पर पड़े दर्पण और उसे आकर देखने वाली चिड़िया की याद आ रही है, वह हर रोज दर्पण के सामने आकर बैठती थी, अपने प्रतिबिंब पर चोंचें मारती थी और मेरे पास पहुंच जाने पर भी अपने इश्क से बाज नहीं आती थी। मगर एक दिन जब वह दर्पण के पीछे पहुंच गई और दृश्य दूसरा देखा तो उस पर वास्तविकता प्रगट हो गई और वह प्रतिबिंबित इश्क से आजाद हो गई। जाने कब हम लोग भी झूठी शान-शौकत, मरीचिका और साए से आजाद होंगे, और वापस अपनी मिट्टी के बुलावे पर कान धर सकेंगे ! मगर एक मुश्किल भी है कि इंसान पास की वास्तविकता को हाथ लगाकर, परख और बरत कर देखना चाहता है और जब वह छाया सिद्ध होती है तो दिल यूं टूटता है कि उसे जोड़ना मुश्किल हो जाता है। फिर पलायन में शरण लेना पड़ता है। मरीचिका में कम से कम आस तो छुपी होती है।


ओस्लो (नार्वे)

-हरचरन चावला


भूमिका



मियांवाली (अब पाकिस्तान) में 9 जून 1926 को जन्मे हरचरण चावला का सुदीर्घ और सुप्रतिष्ठित साहित्यक जीवन आधी सदी से अधिक का है। सन् 1948 में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई और आज तक अनेक उपन्यासों साहित उनकी 26 कृतियां छप चुकी हैं, इनमें कहानी संग्रह, अनुवाद, अपने संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत हैं। इनके लेखन का न केवल विभिन्न भारतीय भाषाओं में व्यापक अनुवाद हुआ, बल्कि अनेक यूरोपीय भाषाओं में भी इनकी कृतियाँ अनूदित हो चुकी हैं। इन्होंने स्वयं नार्वेजियन कथा साहित्य का हिन्दी एवं उर्दू में तथा भारतीय कथा साहित्य का नर्वेजियन भाषा में काफी अनुवाद किया है। इन्होंने अपनी स्वर्गीय पत्नी पूर्णिमा चावला द्वारा अनूदित हिन्दी कविताओं का भी संपादन एवं प्रकाशन किया है।

हरचरण चावला अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किए जा चुके हैं, जिनमें उल्लेखनीय है- उ.प्र. उर्दू अकादमी पुरस्कार, पश्चिम बंगाल, उर्दू अकादमी पुरस्कार, भाषा विभाग पंजाब का राजेन्द्र सिंह बेदी पुरस्कार और इन सब के अलावा ‘एंग्विश ऑव ए हॉर्स’ कहानी के लिए जलातेन क्लास (बलग़ारिया) शार्ट स्टोरी कम्पटीशन का प्रथम पुरस्कार। नार्वेजियन राइटर्स यूनियन, नार्वेजियन राइटर्स सेंटर, पेन क्लब (सभी ओस्लो स्थित) और पंजाबी राइटर्स कोआपरेटिव सोसायटी, नयी दिल्ली के ये सदस्य रहे हैं। इन्होंने नार्वे, स्वीडन और और मारीशस में अनेक साहित्य सम्मेलनों और संगोष्ठियों में भी भाग लिया है।

दरअसल हरचरण चावला का सफर तो उसी दिन शुरू हो गया था, जब ये पाकिस्तान से इधर आए थे। बाद में इन्होंने भारतीय रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर का पद स्वीकार किया और रिवाड़ी स्टेशन पर तैनात हुए। इसके बाद पीछे मुड़कर देखने का क्षण नहीं मिला। सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में अपनी नौकरी के कुछ वर्षों में इन्हें एक समृद्ध और वैविध्यपूर्ण भू-दृश्य को देखने का अवसर मिला, इसमें इन्होंने तरह-तरह के स्त्री-पुरुषों, पशु-पक्षियों और प्रकृति के विविध रूपों से साक्षात्कार किया। शारीरिक और मानसिक दोनों तौर पर ये उनसे गहरे जुड़े। ऐसा प्रतीत होता है कि ये जिस इलाके से गुजरे वह शुष्क और शायद बंजर भी था, लेकिन जहां तक मानवीय संबंधों और मानवीय स्वभाव और व्यवहार का सवाल था, वास्तव में वह समृद्ध नहीं उदार भी था। हरचरण चावला को भी स्नेह, प्यार के साथ-साथ टूटते संबंधों की पीड़ा और उसके फलस्वरूप जन्मा भावात्मक मोहभंग भी मिला।

विभाजन के समय पाकिस्तान से जब निकले, तब ये परिस्थितियों के मारे थे, जिन पर इनका कोई वश नहीं था, एक भागे शरणार्थी थे। छठे दशक के अंत-अंत में हरचरण चावला को लगा कि अब आगे रास्ता बंद है। ये आखिरी छोर तक पहुंच चुके थे, इनकी सृजनात्मकता को जैसे पंख लग गए थे। इन्होंने देशों, महाद्वीपों और भौगोलिक अवरोधों के पार पंख पसारे उड़ने का फैसला किया। इन उड़ानों में मानवीय अनुभव और सांस्कृतिक रूपों की शानदार विवधता से इनका संपर्क कराया। इनके भीतर मौजूद हेनरी जेम्स को आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी वैश्विक परिवर्तनों से गुजरते मानवीय स्वभाव को गहराई से जानने का अवसर मिला। वस्तुतः इनका समूचा लेखन मनुष्य की सोच, अज्ञात के लिए उसकी काल्पनिक उड़ान और नई जमीन तोड़ने की ललक के प्रति गहन जागरूकता से ही जन्मा है। उसमें संवाद के क्षण हैं और यहां-वहां संभवतः तृप्ति भी है। अस्तित्व की सच्चाई स्वयं अस्तित्व है।

उर्दू गद्य में चाहे कहानियां हो या उपन्यास, आज़ादी के पहले और बाद में भी, कुछ ऐसी विशिष्टाताएं हैं जो सहज पहचानी जा सकती हैं। उन्नीसवीं शती के तीसरे चौथे दशक में उनके साहित्य ने अर्थवान पूर्णता पाई। इनमें से कुछ के साहित्य की कथा-वस्तु सामाजिक सुधार अथवा गौरवमय अतीत की पुनर्स्थापना के इर्द-गिर्द घूमती रही। नज़ीर अहमद का दृष्टिकोण जहां सुधारवादी है वहां अब्दुल हलीम शरर मुस्लिम अतीत और मुस्लिम आदर्शों की बात करते हैं। इसी तरह राशिदुल खैरी का मुख्य सरोकार मुस्लिम नारी और उसकी समस्याओं से है। रतन नाथ सरशार और मिर्ज़ा हादी हुसैन रुसवा जैसे कुछ अन्य लोग हैं, जो मुस्लिम दृष्टिकोण वाले कथा साहित्य से परे जाते हैं। सरशार हास्य-व्यंग्य के साथ अपने समय के अवध की पुनर्रचना करते हैं। उनके खोजी और आज़ाद जैसे चरित्रों में एक विदूषक तत्व है। इसी तरह रुसवा उमराव जान अदा में रुसवा के पतोन्मुख अवध की भोगाशक्ति, जवांमर्दी आदि को साकार करते हैं। आग़ा शाइर मनोवैज्ञानिक ताने-बाने का उपन्यास रचते हैं। दूसरी ओर मिर्ज़ा मोहम्मद सईद अपने उपन्यास में व्यक्ति एवं समाज व्यवस्था के संघर्ष को सामने लाते हैं और इस क्रिया में पश्चिमी सभ्यता के कुछ उज्जवल पक्षों की खोज करते हैं।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत में औद्योगीकरण, बाहरी दुनिया में संपर्क, सन् 1917 की रूसी क्रांति और उसके फलस्वरूप जनजागरूकता कुछ ऐसे कारक हैं जिन्होंने एक नई संवेदनशील और यथार्थवाद के प्रति गहरी तीव्रता को देने के लिए अनुकूल वातावरण की रचना की।

बीसवीं शती के उर्दू उपन्यासों में प्रेमचन्द्र महानायक की तरह थे। उनके कथा-लेखन में जबरर्दस्त व्यापकता थी, साथ ही उनमें एक व्यापक अपील भी थी। वे सुधारवादी थे, दलितों के पैरोकार, गांधीवादी, विवेकानंद के प्रशंसक तथा प्राथमिक मार्क्सवादी, उदार मानवतावादी थे- एक ही व्यक्तित्व में सब समाहित था। अपने दीर्घ साहित्य जीवन में उन्होंने अपने लेखन में विशेषकर उपन्यासों में, जैसे चौगान-ए-हस्ती, मैदान-ए-अमल और गोदान में, अपने कलात्मकता और शिल्प नैपुण्य का परिचय दिया था। उनका निधन एक महान साहित्यकार का चिर-वियोग था। यद्यपि डॉ. युसुफ़ हुसैन ने सही कहा- सन् 1926 से 1936 तक का समय एक क्षीण समय था तथापि सुदर्शन, क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार, मजनूं गोरखपुरी, नियाज़ फ़तहपुरी और कुछ अन्य लोग उस समय भी साहित्य रचना में सक्रिय थे। उनका साहित्यिक योगदान भी कम नहीं, तथापि इन सबमें ‘लैला के ख़तूत और मजनूं की डायरी’ जैसी कृतियों के रूमानी एवं शैली प्रधान लेखक क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार अलग नज़र आते हैं। उनकी विशेषता है वर्णनात्मकता, जो डायरी एवं पत्रों के रचना विधान में अच्छी तरह प्रगट हुई है। वे अपने लेखन में अपने समय के पुरुष (और स्त्री की भी) की झलक देते हैं, ऐसे पुरुष की जो अपनी मानसिक शांति और सुरक्षात्मक सामाजिक ताक़तों का सहारा भी खो चुका है।

सन् 1917 की रूसी क्रांति के बाद संसार के लेखकों में मार्क्सवाद और समाजवादी आदर्शों के प्रति सहानुभूति का उदय हुआ। उर्दू भी इसका अपवाद नहीं रही। ‘अंगारे’ का प्रकाशन, प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का गठन और बाद में उसके प्रसारित घोषणा पत्र ने क्रांतिकारी विचारों के उदय एवं विकास के लिए अनुकूल वातावरण की सृष्टि की। विभाजन की पूर्व एवं बाद के वर्ष प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के शिखर के वर्ष के थे। क्रांतिकारी विचारों के साथ-साथ पश्चिमी साहित्य में किए जा रहे प्रयोगों के नए विचारों और उसके मिश्रित प्रस्फुटनों ने भी प्रेमचन्द्र के परवर्ती काल के भारतीय लेखकों को, जिनमें उर्दू लेखक भी शामिल थे, प्रभावित करना शुरू किया। सज्जाद ज़हीद ने अपनी उपन्यासिका ‘लंदन की एक रात’ में ऐसे विचारों एवं चेतना के प्रयोग-
धर्म प्रवाद-दोनों का समावेश किया।

अज़ीज़ अहमद, हयातुल्लाह अंसारी, कृष्ण चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, इसमत चग़ुताई, राजेन्द्र सिंह बेदी, मुमताज़ मुफ़्ती और बलवंत सिंह जैसे लेखक स्वाधीनता पूर्व के वर्षों में सामने आए और वे विभाजन के बाद भी अनेक वर्षों तक लिखते रहे। उनकी कथा-वस्तु में जनता की घोर दरिद्रता अज़ीज़ अहमद, कृष्ण चंदर शहरी और ग्रामीण परिवेश में स्त्री-पुरुष काम संबंधों की यथार्थ अभिव्यक्ति (अज़ीज़ अहमद, इसमत चग़ुताई, मुमताज़ मुफ़्ती, राजेन्द्र सिंह बेदी, बलवंत सिंह) और भारत की आज़ादी की लड़ाई की गाथा की रचना (हयातुल्लाह अंसारी, ख्वाजा अहमद अब्बास) का समावेश है। इस काल के लेखन में यथार्थ, रूमानियत, क्रांतिकारिता, उद्घोषणा और उदारतावाद का कहीं स्वतंत्र रूप से चित्रण हुआ है तो कहीं सब आपस में घुल-मिल गए हैं।

स्वाधीनता के उदय और उपमहाद्वीप के विभाजन ने भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए पेचीदगी, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक समस्याएं पैदा कीं, जो समय के साथ-साथ गंभीर रूप अख़्तियार करती गईं। स्वाधीनता के बाद उर्दू साहित्य का एक हिस्सा विभाजन, सांप्रदायिक दंगों और अपनी जमीन से उखाड़ फेंके गए पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान जाने वाले लोगों और एक अपरिचित भूमि पर अपनी जड़ें जमाने के प्रयत्नों के इर्द-गिर्द घूमता है। कृष्ण चंदर, सआदत हसन मन्टो (कहानियों में), कुर्रतुल ऐन हैदर, शौकत सिद्दीक़ी, ख़दीजा मसरूर, इन्तज़ार हुसैन, अब्दुल्लाह हुसैन, इन सभी ने अपने कथा-उपन्यास लेखन में भारत और पाकिस्तान के ऐसे लोगों की पीड़ा में सहभागिता की है। इनमें से कुछ ने यथार्थपरकता के साथ तो कुछ ने पौराणिक गाथाओं, रूपकों, को चित्रित किया है- जैसे कुर्रतुल ऐन हैदर, इंतजार हुसैन आदि।

हाल के वर्षों में संकटों के कारण अप्रवासन और नई भूमि खोजने के लिए आप्रवासन ने इस अस्थिर मानव की आज़ादी की समस्याओं को नए आयाम प्रदान किए हैं। तेजी से बढ़ते शहरीकरण, निहायत गरीबी, आर्थिक असमानता, रोजगार का अभाव, सामाजिक तथा सांप्रदायिक तनाव ने एक बहुत बड़ी आबादी को भौतिक, सामाजिक सुरक्षा और अर्थवान रोजगार की तालाश में भटकने के लिए विवश किया। शहरी केंद्रों, विशेषकर महानगरों की ओर प्रयाण ने जरूरत से ज्यादा आबादी बढ़ जाने की समस्याओं और उनसे जुड़ी तकलीफों को जन्म दिया। जिन्होंने विदेशी धरती पर जाने का साहस दिखाया, उन्होंने स्वयं को पहचान के एक सनातन संकट, मूल्यों के संघर्ष, अलग-थलग हो जाने की भावना और अपने जन्म-स्थल की अतीत स्मृति तथा वर्तमान निवास के गैर-दोस्ताना माहौल की पीड़ा में डूबा पाया। ऐसे वातावरण में अस्तित्व की तालाश भी उर्दू गल्प की हिस्सा रही है। कुर्रतुल ऐन हैदर, इंतज़ार हुसैन, सुरेन्द्र प्रकाश आदि कुछ उर्दू कहानीकारों और उपन्यासकारों ने अपनी कुछ खास कहानियों में या विभिन्न तत्वों से गढ़े गए बहुमुखी वर्णनों की अंतर्निहित धारा के रूप में ऐसी खोजें की हैं।


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