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दुर्योधन के रहते क्या कभी महाभारत रुका है

के.बी.यादव

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5644
आईएसबीएन :81-88388-60-2

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प्रस्तुत काव्य समाज और राजनीति का दर्पण है....

Duryodhan Ke Rahte Kya Kabhi Mahabharat Ruka Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

परिचय हमारा ऐसा कुछ खास नहीं है, जिससे आपको परिचित कराने में मुझे कोई वजन का बोध हो, लेकिन प्रस्तुत पुस्तक का रचनाकार होने के कारण यह औपचारिकता पूरी की जानी है। इसलिए अपने होने के सम्बन्ध में यह बताना चाहूँगा कि मेरा जन्म बिहार प्रान्त के नवादा जिला अन्तर्गत एक छोटे से गांव सिकरिया में बीसवीं सदी के एक बसन्त माह के जिस किसी अज्ञात साल में भी हुआ, किन्तु आजाद भारत में हुआ। पढ़ाई-लिखाई अपने ही गांव के एक मौलवी साहब के मख़तब से श्रीगणेश कर मैंने मैट्रिक की परीक्षा उच्च विद्यालय अकबरपुर तथा एम.ए. अंग्रेजी और हिन्दी की परीक्षा क्रमशः पटना विश्विद्यालय और रांची विश्वविद्यालय, झारखंड से पास की।

शिक्षा समाप्ति के उपरांत से रांची विश्वविद्यालय के अधीन रा.ल.सि.या महाविद्यालय, रांची झारखंड में कार्यरत हूँ। मेरी समझ है कि वह व्यक्ति जो प्रखर राजनीतिक बौद्धिकता और प्रभावकारी ईमानदारी से भरा हो, उसे ही विधानसभा और संसद के लिए चुना जाना चाहिए। फलतः मैं अध्यापन के साथ राजनीति भी करता हूं।
जन-जन की शान्ति, प्रगति और राष्ट्र का गौरव हमारी रचना का एकलव्ययी लक्ष्य है। ऐसी आशा है आगे भी बेहतर कृतियाँ जो आपको प्रिय होंगी दे सकूंगा।


निवेदक
प्रो. के.बी यादव ‘शान्तिमित्र’

प्रकाशकीय


प्रो. के.बी. यादव एक बेदाग छवि वाले राजनीतिज्ञ हैं, जिसके कारण ये शिक्षामित्र जैसा गौरवशाली पद संभाल चुके हैं। हर सत्तावादी पार्टी की हमेशा यह इच्छा रही है कि कोई भी मंत्रालय चाहे किसी को भी दे, लेकिन शिक्षा मंत्रालय केवल उसको ही दिया जाए जो नेता संस्कारवान, ईमानदार, देश के प्रति समर्पित और महान देशभक्त हो, क्योंकि शिक्षामंत्री का दायित्व शिक्षकों का मार्गदर्शन करना होता है और शिक्षक उन बच्चों के गुरु होते हैं, जो देश के भावी भविष्य हैं, जिनके कंधों पर कल राष्ट्र का भार होगा, इसलिए भारतीय राजनीति में इस पद के साथ कभी समझौता नहीं किया गया। भारतीय राजनीति की इन्हीं मूलभूत विशेषताओं को देखते हुए प्रो के.बी. यादव का किसी समय शिक्षामंत्री के पद को गौरवान्वित करना निःसंन्देह हम सब भारतीयों के लिए गौरव की बात है और इच्छा है कि आगे भी इन्हें ऐसा कुछ ऐसा ही दायित्व मिले, ताकि मार्गदर्शक ये बनकर देशहित के लिए कुछ कर सकें।

यह काव्यांजलि निःसंदेह राजनीति और समाज का दर्पण है। खुद नेता होते हुए भी उन्होंने आज के नेताओं के चरित्र को इसमें झलकाया है, यह क्या कम बात है ? आशा है पाठकों को यह पुस्तक पसंद आयेगी। इसी आशा और विश्वास के साथ।

-प्रकाशक

चिंत्य


‘दुर्योधन के रहते क्या कभी महाभारत रुका है ?’— यह प्रश्न है कवि प्रो. के.बी. यादव ‘शान्तिमित्र’ का, इसी नाम के काव्य संकलन की पहली कविता में। प्रश्न तो यह है कश्मीर के विशेष संदर्भ में, पर यह हमारे आज के पूरे सामाजिक परिवेश के लिए सार्थक है। भ्रष्टाचार का महाभारत पूरे देश में सभी स्तरों पर चल रहा है। आज देश की स्थिति चिंत्य है—सामाजिक, आर्थिक विपन्नता, सर्वत्र व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण : ‘ऐ लोगो कैसे यकीन दिलाऊं/देश की हालत पे मैं शर्मसार हूं ?’ कवि प्रो. शान्तिमित्र आज की स्थिति पर शर्मसार हैं, उनमें विक्षोभ है, असंतोष है, आक्रोश है—वैसा ही जैसा आज जनसामान्य के मन में व्याप्त है। कवि ने एक प्रकार से परिवेश की विकृतियों के प्रति आम आदमी के ही भावों को वाणी दी है। अलंकृति के मोह से मुक्त ओज एवं प्रवाहपूर्ण शैली में व्यक्त ये भाव पाठकों को प्रभावित करेंगे, ऐसी आशा है।

सिद्धनाथ कुमार

अनकहे शब्द


भारती की संतानो ! कैसे यकीन दिलाऊँ, देश के हालात पे शर्मसार हूँ
कैसे यकीन कराऊँ, देश की हालत बदलने को बेकरार हूँ !
काश ! तुम मेरे पास होते
शक्ति हमारी दूनी होती
काश ! तुम मेरे साथ होते
यकीन करें अनहोनी होती।

सच, आपके पास होने के लिए, आपको साथ लेने के लिए, यकीन करें मैं लिखता हूँ। नहीं कहता कि मैं कवि हूँ, किन्तु कुछ कह लेता हूँ। नहीं कहता कि मैं दार्शनिक हूँ, किन्तु कुछ देख लेता हूँ। फिर आप सामान्य से विशिष्ट जनों से कुछ सुनता हूँ, सीखता हूँ और पहले दिल पर, पश्चात कागज के टुकड़े पर लिखता हूँ।
पाठकों ! लिखता हूँ इसलिए कि मुझे मनुष्य की दूषित होती प्रकृति, समाज में पसरती नई-नई विकृति, विलुप्त होती संस्कृति देखकर दर्द होता है । गौर करें
हमारे निम्न शब्द-चित्र पर —

आज नीति और निष्ठा
प्रगति और प्रतिष्ठा
की करते जो बात
हौसले उनके पस्त हैं
डूब रही देश की कश्ती है
चूँकि मांझी देशद्रोही
और किनारे भी उन्हीं की बस्ती है।

भला ऐसे में भी कोई दिलवाला, दिमाग वाला चुपचाप जी सकता है ? शान्त बैठ सकता है ? यदि हम चुप बैठते हैं तो ‘उन्हीं’ की आबादी बढ़ती जाएगी, ‘उन्हीं’ की बस्ती बसती जाएगी और ऐसे में एक दिन कश्ती डूब जाएगी। ऐ सुधी जनो ! मैं लिखता हूँ इसलिए कि The body dies and decays but the name and fame earned through it stays. यह काया नश्वर है, मगर इसके मार्फत कमाई कीर्ति ठहर जाती है। और हां, कीर्ति तो तभी मिलेगी, यह मनुष्य तन तो तभी सार्थक होगा, जब हम दूसरों का कष्ट दूर कर सकें। अगर हम दूर न भी कर सकें, तो कुछ काम करने का प्रयास ही कर सकें। फलतः रचना और रहबरी की राह में मैं यह कहता हूं-

बोलकर, लिखकर, करकर या कभी मौन रहकर कर सकते हो
किसी व्यक्ति या व्यवस्था का विरोध या समर्थन
इनमें से यदि कोई भी
तेरी जिंदगी में नहीं किसी प्रकार है
तो धिक्कार तेरी महतारी को
तेरा जन्म लेना बेकार है !

चैतन्य लोगो ! एक बात कहूँ ? कौन कहता है कि आप कवि नहीं। अगर सीने में दिल है, तो उसमें कवि का एक कोना भी है। आइए गौर फरमाइये हमारी निम्नांकित पंक्तियों पर, जो हमें अब आदमी रह जाने पर शक करती हैं-

बलात्कार का चीत्कार सुन
हत्या का हाहाकार सुन
कोई हिलता नहीं,
लगता है दिमाग की जगह भी गुर्दा है
इन्सान नहीं, चलता-फिरता मुर्दा है
सोचता हूँ क्यां आज आदमी का दिल सो गया है ?
सोचता हूँ क्यों आज आदमी का अर्थ खो गया है ?
हमें तो लगता है
आज आदमी को कोई भयानक रोग हो गया है !

क्यूं दिल सो गया है ? क्यूँ आदमी का अर्थ खो गया है ? इसका जवाब यहाँ नहीं, लेकिन, आदमी को कोई भयानक रोग हो गया है’, निश्चय ही ये पंक्तियां व्यक्त करती है

माँ अब बच्चे को जन्म भर देगी
मगर दूध नहीं पिलाएगी
चूंकि इससे उसके सुंदर-सुडौल फिगर
मनोहर-मांसल काया की बनावट ही बिगड़ जाएगी।
फिर क्या से वह ‘पति-परमेश्वर’ को
अंगुली पर नचाएगी ?
राह चलते रोमियो को
ललचाएगी, लहकाएगी ?

आगे देखिये, परिवार जिसे सर्वोत्तम पाठशाला कहा जाता है, किस तरह टूट चुका है, बिखर चुका है-

बच्चों को अब लोरी सुनाने
नानी-दादी नहीं चाहिए
पितामह ? भीष्म पितामह की भी छोड़ो
अब तो ‘अभिमन्यु’ को
नाहि ‘सुभद्रा’ और न ‘अर्जुन’ चाहिए ।
चूँकि हम दो, हमारे दो
और किसी को मत रहने दो
की बेला है
‘सुपठित’ पुत्र की मत पूछो
वो तो इसका आरुणि चेला है

सुविज्ञ पाठकों ! हमारे पुरखों में उस व्यक्ति को आदमी कहलाने का पहला हक है, जिसने हमारी नग्नता को ढँकने की आवश्यकता समझी होगी और वह पहला सभ्य व्यक्ति हुआ होगा, जिसने छाल या पात से शरीर ढँकना प्रारंभ किया होगा। लेकिन वाह रे फैशन ! आज तो सभ्य जनों की टोली में नंगा दिखने की अजीब होड़ लगी है, गजब रोग घुसा है ! नंगे थे तो विकास करते, हम नगर आए। नगर से अब हम कहाँ जाएं ? क्या यह प्रश्न आपको मथता नहीं ? क्या दिवा क्या रैन, मैं तो बेचैन हूँ। ध्यान दें आगे की पंक्तियां क्या बोलती हैं—

युवतियों के बदन पर वस्त्र
आज जिस तरह रोज कम से कमतर
अर्थात् तंग हो रहा है
लगता है वस्त्र और बदन में भारी जंग हो रहा है।

यह सब देखकर एक प्रश्न कौंधता है-हम क्यों कहलाए थे ‘सोने की चिड़िया’ और ‘विश्व गुरु’ भी ? आज अमेरिका धनवान है, बलवान है, बुद्धिमान है, लेकिन यह दर्जा उसे क्यूँ नहीं ? कहां उसे धनी के साथ गुरु का शान-मान जगत् में प्राप्त है ? उसके क्रिया-कलाप को देखकर बरबस शेक्सपीयर की ये पंक्तियां स्मरण हो आती हैं:-

O, it is excellent
To have a giant’s strength
But it is tyrannous to use it like a gaint

अर्थात्, वाह ! यह कितनी शानदार बात है कि किसी में दैत्य की शक्ति हो, लेकिन यह कितनी बुरी बात है कि कोई इसे दैत्य-सा प्रयोग करे !
जाहिर है हमारी संस्कृति रही है समुचित सम्मान देने की, शरणागत् की प्राण देकर रक्षा करने की, धन-बल-विद्या में झुक जाने की, माता-पिता को देवतुल्य और गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा आसन देने की। हमारी संस्कृति की रही जो हमारे पूर्वजों ने यह कहा-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः।

जिस देश में नारी और गुरु का इतना ऊंचा स्थान रहा हो, वहां हम क्या हो गये हैं, नीचे की रचना में कुछ ही कह सकने में समर्थ हो रहा हूँ :-

सेंट पीटर्स स्कूल, दिल्ली के छात्रों ने
अपनी सम्माननीय शिक्षिका को
एक फार्म हाउस पर
‘सादर’ आमंत्रित कर
सामूहिक बलात्कार किया है
भोगवादी वृत्ति को अंगीकार कर
भविष्य में,
हम अपनों का सात्कार जिस प्रकार करेंगे
लड़कों ने,
उसे ही आज इस प्रकार किया है।
राष्ट्र-चिंतकों, मुल्क के सूरते हाल पर हमारी ये पंक्तियां भी ध्यातव्य हैं :-
खचाखच भरा मुल्क खजाना है
धन-धान्य से नहीं
विपदा-विकृति यहां नाना है।
‘सोने की चिड़िया’ के घर कंगाली का डेरा है
दुष्टता-दुष्कर्म नहीं
तो क्या ये हमारे भाग्य का फेरा है ?
घोटाला, हर धंधा काला यहाँ भयंकर शुरू है
चूंकि भारत अब इसी का विश्वगुरु है।

ऐ मादरे वतन हिन्दुस्तान के लोगों ! देश है तो हम हैं, तुम हो। देश नहीं तो हम नहीं, तुम नहीं हो ! आह ! थोड़ा रुककर सोचो तो धरती कितना देती है और बदले में क्या लेती है ? बस मान ही न ? विश्वास है, ऋषि वाल्मीकि ने धरित्रि की महत्ता को उद्घाटित करने हेतु ही निम्नांकित श्लोक श्रीराम के मुख से कहलवाया :-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।

फिर खुसरो ने भी सबकुछ समझकर ही कहा :-

हिन्द मेरा मौलिद, वो मादा, वो वतन !

उस वतन को, आज कुछ मुट्ठीभर लोग यतन से पतन की ओर ले जा रहे हैं और हम तमाशबीन बने हैं। एक ओर अपने नेता-ऑफिसर के भ्रष्ट आचरण के कारण आम आदमी त्रस्त हैं, पस्त है और दूसरी तरफ जेहादी आतंकियों को बल दे रहे पाकिस्तानी हुक्मरानों के कारण हमारा नगर-डगर, सीमान्त-प्रांत सब आक्रांत है, अशान्त है। यहाँ ये जेहादी दारुल हर्ब को दारुल इस्लाम (नापाक धरती को पाक धरती ?) बनाने में बम-बारूद वैसे ही छोड़ते रहते हैं, जैसे दीवाली में बच्चे पटाखे फोड़ते रहते हैं। बूढ़े, जवान, दूध मुहें बच्चे तक को ये आतंकी थोक भाव से ऐसे मारते हैं, जैसे कसाई, भेड़, बकरा, बकरी को काटते हैं और गर्व से कहते हैं-जेहाद कर रहे हैं। उनकी पशुता, बर्बरता को चित्रित करने के लिए शेक्सपीयर की निम्न पँक्तियां मुझे कुछ सक्षम दीखती हैं :-

As flies to the wanton boys, we are to the gods.
They kill us for their sports.

उद्दण्ड बालक के लिए जैसे तितली की जिंदगी है, प्राण हरने वाले देव के लिए वैसे ही हम हैं। वे महज क्रीड़ा के लिए हमें मारते हैं।
शर्म की बात है किसी धर्म के लिए, किन्तु जो कुर्सी के लिए इनका भी बचाव करते हैं, उन्हें क्या कहूं ! बेशर्म, बेहया, गद्दार कहना इनके लिए काफी नहीं। वस्तुतः ये समाज के कोढ़ हैं, कैंसर हैं, जिन्हें पहले मिटाना होगा, ठिकाने लगाना होगा, यकीन करें फिर ये जेहादी जल्द ही मिट जाएंगे।

ऐ सुधी पाठकों ! इन जेहादियों या इनके जैसा देशद्रोही कर्म करने वालों के पालक तथाकथित ये हमारे नेता, रहबर, पहरुए क्या हैं, क्या चाहते हैं इन्हें भली-भांति समझाने के लिए गौर करें आतंकी अफजल गुरु के मामले पर। अफजल हमारी संप्रभुता के सर्वोच्च मंदिर, संसद को विध्वंस करने का अहम साजिशकार है। परिणामतः सर्वोच्च न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई है। इस पर कांग्रेस के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद पूर्व मुख्मंत्री फारुख अब्दुल्ला, भारत के गृहमंत्री रह चुके मुफ्ती मोहम्मद सईद (अलगाववादी कश्मीर नेताओं की बात छोड़ दीजिए) की केंद्रीय सरकार से सिफारिश है कि अफजल की फांसी की सजी माफ कर दी जाए, नहीं तो कश्मीर और अशांत हो जाएगा और न्यायाधीशों का जीवन भी खतरे में पड़ जाएगा। इतना ही नहीं हमारे वामपंथियों का भी विचार इनके साथ ही नरमी बरतने वाला है।

एक और मामले पर गौर करें। विगत जुलाई 2006 में Series of Train blast कराकर सैकड़ों निर्दोंष यात्रियों की हत्या करने वाले या करवाने वाले संदिग्ध जनों की धरपकड़ करने पर सपा के एक मंत्री मो.याकूब ने कहा कि इसके विरोध में 50 लाख मुस्लिम युवक सड़क पर उतर जाएंगे, तो सरकार सोचे कि क्या अंजाम होगा ? इनके साथ कांग्रेसी केन्द्रीय मंत्री एआर अंतुले जो एक बार भ्रष्टाचार के आरोप के कारण मुख्यमंत्री पद गंवा चुके हैं, भी इस पूछताछ को मुस्मिलों को परेशान करने वाला काम मानते है कि ये जेहाद को परोक्ष समर्थन देकर ‘चीत भी मेरी पट भी मेरी’ कहावत को चरितार्थ करना चाहते हैं।


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