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भारत के अमर क्रांतिकारी तांत्या टोपे

भवान सिंह राणा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :130
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5630
आईएसबीएन :81-288-1705-1

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अमर क्रांतिकारी की अमर गाथा...

Bharat Ke Amar Krantikari Tantya Tope a hindi book by - भारत के अमर क्रांतिकारी तांत्या टोपे - भवान सिंह राणा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मानव समाज के विभिन्न-क्षेत्रों के सभी मनुष्यों के विचार एक समान नहीं होते हैं—स्वतन्त्र भारत के निर्माण के विए भारत-माता के कितने शूरवीरों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था, उन्हीं महान शूरवीरों में ‘वीरवर तांत्या टोपे’ का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य है। ‘वीर तांत्या टोपे’ महान देशभक्त, कुशल सेना नायक, धर्मनिष्ठ, क्रांतिकारी, हिन्दू-मुस्लिम एकता के स्तंभ थे-वे भारत मां की आजादी के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे और देश की आजादी के लिए उन्होंने अनेकों प्रकार के कष्ट सहन किए परन्तु अपने मार्ग से विचलित न हुए और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए फांसी पर झूल गए। इस पुस्तक में अमर शहीद, महान क्रांतिकारी वीरवर तांत्या टोपे का पूरा विवरण प्रस्तुत है।

दो शब्द

सन् 1857 के भारत के प्रथम ‘स्वाधीनता संग्राम’ का नाम लेते ही पेशवा नानासाहब, महारानी लक्ष्मीबाई, मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर, तांत्या टोपे आदि वीरों का स्मरण हो जाता है। इन वीरों ने भारत की स्वाधीनता का जो स्वप्न देखा था, वह उस समय प्रबल पराक्रमी ब्रिटिश सत्ता द्वारा कुचल दिया गया। व्यक्ति को कुचला जा सकता है, एक बार उसकी आवाज दबाई जा सकती है, किन्तु विचार नष्ट नहीं किया जा सकता। इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने भारत की भावी पीढ़ियों को स्वाधीनता का विचार दिया था, जो उस समय क्रान्ति के विफल हो जाने पर नष्ट नहीं हुआ। इसी विचार की अन्तिम परिणति सन् 1947 में भारत की स्वाधीनता के रूप में सामने आई। इस विचार के प्रणेताओं में वीरवर तांत्या टोपे का नाम अनन्यतम है।
उनका जन्म येवला महाराष्ट्र में हुआ, किन्तु पेशवाई के समाप्त होने पर उनके बाल्यकाल में ही उनका पूरा परिवार पदच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ बिठूर आ गया था। बाजीराव द्वितीय की मृत्यु होने पर उसके दत्तकपुत्र पेशवा नानासाहब को पेंशन बन्द कर दी गई। इससे वह अंग्रेजों के प्रबल शत्रु बन गए। उन्होंने भारतीय नरेशों से सम्पर्क स्थापित किया और क्रान्ति के सूत्रधार बने। तांत्या टोपे स्वयं को सदा उनका सेवक बताते रहे, किन्तु इस क्रान्ति में उनकी जो भूमिका रही, उसे क्रान्ति के किसी भी अन्य सेवापति की भूमिका से कम नहीं कहा जा सकता। सत्य तो यह है कि क्रान्ति के विफल हो जाने पर भी वह संघर्ष करते रहे।
ग्वालियर में पराजय के बाद विद्रोहियों का वहां से पलायन प्रत्यक्ष रूप में क्रान्ति की इतिश्री थी। इसके बाद उस समय मध्य भारत की सेना का केवल एक ही कार्य रह गया था-वीरवर तांत्या टोपे का पीछा करना। सेना के चार-चार पांच-पांच दल विभिन्न दिशाओं से उनके पीछे पड़े थे, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। अपने उस भीषण यायावरीय जीवन में भी वह (तांत्या) अंगेजों को लोहे के चने चबवाते रहे। अन्त में एक मित्रद्रोही के विश्वासघात के कारण उन्हें बन्दी बना लिया गया और फांसी दे दी गई। प्रचलित इतिहास यही मानता है, किन्तु कुछ विद्वानों का यह मत भी है कि तांत्या टोपे के जीवन की रक्षा के लिए उनके नाम पर किसी अन्य देशभक्त ने अपना बलिदान कर दिया।
निःसन्देह तांत्या टोपे एक महान सेनापति थे। उनकी महानता को भारतीयों ने ही नहीं अपितु अनेक निष्पक्ष अंग्रेज इतिहासकारों ने भी स्वीकार किया है। श्रीमती हेनरी ड्यूबले ने लिखा है-"उन्होंने जो अत्याचार किए, उनके लिए भले ही हम उनसे घृणा करें, किन्तु सेनानायकत्व के गुणों और योग्यताओं के कारण हम उनका आदर किए बिना नहीं रह सकते।"

इसी कारण पर्सी ब्राउन स्टैर्ण्डिग ने भी लिखा है-"तांत्या टोपे विद्रोहियों में सर्वाधिक बुद्धिमान थे। यदि उन्हीं के समान कुछ अन्य व्यक्ति हुए होते तो, भारत में अंग्रेजों की सत्ता समाप्त हो जाती। उनमें एक महान सेनापति के सभी गुण विद्यमान थे और योजना बनाने, प्रबन्ध करने, नियन्त्रण करने तथा एकाग्रता की विलक्षण क्षमता थी। उनका सर्वाधिक विशिष्ट गुण यह था कि वह पराजय से कभी हतोत्साहित नहीं होते थे।"
वीरवर तांत्या टोपे की इस जीवनी को लिखने में श्रीयुत श्रीनिवास बालाजी हर्डीकर की पुस्तक तांत्या टोपे श्री दत्तात्रेय बलवन्त पारसनीस की पुस्तक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई श्री विनायक दामोदर सावरकर रचित 1857 का स्वतन्त्रता संग्राम तथा प्रसिद्ध इतिहासकार गोविन्द सखाराम सरदेसाई लिखित मराठों का नवीन इतिहास से सहायता ली गई है। इन सभी लेखकों के प्रति मैं अपनी विनम्र कृतज्ञता व्यक्त करता हूं।

लेखक


प्रारम्भिक जीवन



सिंह का वन में न तो राज्यभिषेक किया जाता है और न ही कोई अन्य संस्कार। वह स्वयं अपने पराक्रम से मृगेन्द्र बन जाता है। इसी प्रकार वीरवर तांत्या टोपे न तो किसी राजकुल की सन्तान थे और न ही किसी संभ्रान्त परिवार से सम्बद्ध थे, फिर भी अपने अप्रतिम पराक्रम से वह सन् 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम महारथी बने। उनका नाम लेते ही इस संग्राम के एक पराक्रमी अत्यन्त उत्साही एवं चतुर सेनापति का बिम्ब अनायास ही मानस में साकार हो उठता है। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रसंग में जहाँ पेशवा नानासाहब और वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की चर्चा होती है, वहीं वीरवर तांत्या टोपे का भी उल्लेख होता है। इस वीर की चर्चा किए बिना इस संग्राम का इतिहास अपूर्ण ही कहा जाएगा। निःसन्देह वीरवर तांत्या टोपे भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के एक अप्रतिम नायक हैं।


वंश परम्परा एवं जन्म



महाराष्ट्र के जिला नासिक में येवला नामक एक गांव है। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इसी येवला गांव में एक देशस्थ ब्राह्मण त्रिंबक भट रहते थे। महाराष्ट्र में पुरोहित का कार्य करने वाले ब्राह्मण के नाम के आगे भट शब्द लिखा जाता है। इस प्रकार तांत्या टोपे एक कुलीन देशस्थ ब्राह्मण थे। अतः इंग्लैण्ड के समाचार पत्रों का उनके लिए ‘तांत्या टोपे उच्च कुल का पुरुष नहीं है’ लिखना नितान्त अनुचित है (इसकी चर्चा आगे की जाएगी) यह त्रिंबक भट्ट ही हमारे चरित्र नायक के पितामह थे जो इसी गांव के सरदार विंचूरकर के यहां पुरोहित का कार्य करते थे। इनके पुत्र पाण्डुरंग भट वंदों एवं स्मृतियों के प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्हें धार्मिक कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञान था।

पेशवा बाजीराव द्वितीय एक धर्म प्रेमी व्यक्ति थे, वह विद्वानों का बड़ा आदर करते थे। जब उन्हें पाण्डुरंग भट के वेदों एवं स्मृतियों के ज्ञान के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने पाण्डुरंग भट को अपने पास बुला लिया। फलतः वह पेशवा के साथ पूना में रहने लगे। पेशवा के सभी धार्मिक कार्य वही सम्पन्न करते थे।

उस समय बाल विवाहों का प्रचलन था। अतः पाण्डुरंग भट भी इसके अपवाद न रह सके। उनका विवाह अल्प अवस्था में ही हो गया था। उनकी पत्नी का नाम रुक्माबाई था। यही दम्पति वीरवर तांत्या टोपे के माता-पिता थे।
तांत्या टोपे का जन्म कब और किस तिथि को हुआ, इस विषय में निश्चिय रूप में कुछ भी ज्ञात नहीं है। इसके लिए केवल बाह्य प्रमाणों का ही आश्रय लिया जा सकता है। सन् 1858 में अंग्रेज सरकार ने तांत्या टोपे, नानासाहब आदि वीरों को बन्दी बनाने के लिए उनके समस्त विवरणों सहित एक सूची प्रकाशित की थी। इस सूची के अनुसार उस समय तांत्या टोपे की अवस्था 42 वर्ष थी। इससे तांत्या टोपे का जन्म वर्ष सन् 1816 में सिद्ध होता है। सन् 1859 में बन्दी बनाये जाने के बाद मुकदमे के समय तांत्या टोपे ने न्यायालय में जो बयान दिया था उसके अनुसार उस समय उनकी अवस्था 45 वर्ष थी। इससे उनका जन्म सन् 1814 में होना सिद्ध होता है। श्रीयुत श्रीनिवास हर्डीकर का भी यही मत है-
"कथित तांत्या टोपे ने 1859 में अपने मुकदमे में जो लिखित बयान अदालत के सामने दिया था, उसमें उन्होंने अपनी आयु प्रायः 46 वर्ष की कही थी। इस आधार के अनुसार तांत्या का जन्म सन् 1814 में होना चाहिए। इसी जन्म वर्ष की पुष्टि तांत्या के कुटुम्बियों द्वारा भी होती है। ब्रह्मावर्त में तांत्या के भतीजे नारायण लक्ष्मण तथा तांत्या की भतीजी गूंगूबाई रहती हैं। इनका कथन है कि उनके कुटुम्ब में सदा से यह बात कही जाती रही है कि जब पाण्डुरंग भट 1819 में बाजीराव पेशवा के साथ ब्रह्मावर्त आये थे, रामचन्द्र की आयु 4 वर्ष की थी तथा उनके छोटे भाई गंगाधर की आयु दो वर्ष की थी। टोपे कुटुम्ब के परम्परागत कथन से भी यही सिद्ध होता है कि तांत्या का जन्म सन् 1814 में ही हुआ था। अतएव इसी वर्ष को उनका जन्म वर्ष मान लेना उचित प्रतीत होता है।"
जन्म चाहे जब भी हुआ हो, इससे इस वीर के महान कार्यों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। महत्त्व उनके कार्यों का है, न कि जन्म वर्ष का, अतः इस विषय में विवाद निरर्थक ही कहा जाएगा।
वीरवर तांत्या टोपे अपने माता-पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। उनका मूल नाम रामचन्द्र था। उनके छोटे भाई गंगाधर उनसे दो वर्ष छोटे थे और उन्हें आदर से तांत्या कहते थे। छोटे भाई द्वारा दिया गया यह नाम ही कालान्तर में उनका वास्तविक नाम बन गया। उनके कुल का नाम येवलेकर था। फिर उन्हें टोपे पदवी कैसे मिली ? इस विषय में कहा जाता है कि बाद में जब तांत्या अपने माता-पिता सहित पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ बिठूर आ गए थे, तो एक बार पेशवा तांत्या के किसी वीरतापूर्ण कार्य से अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने रत्नों से जड़ी एक विशेष प्रकार की टोपी तांत्या को पुरस्कार स्वरूप भेंट की। टोपी सर्वथा नवीन शैली की थी। उसे तांत्या के सिर पर देख पेशवा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने तांत्या को ‘टोपी’ शब्द से सम्बोधित किया। तब से वह तांत्या टोपी (टोपे) कहे जाने लगे। बाद में उनके परिवार वालों का यही कुल नाम बन गया। तांत्या टोपे के चित्रों में यही टोपी दिखाई देती है।


पूना से बिठूर



सन् 1712 में पेशवा माधवराव की मृत्यु के बाद मराठा राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। पेशवाई के लिए अनेक षड्यन्त्र और दुशचक्र प्रारम्भ हो गए। माधवराव की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नारायणराव पेशवा बना। कुछ ही समय में उसके चाचा राघोबा ने उसकी हत्या कर दी और स्वयं पेशवा बन बैठा। किन्तु मराठा सरदारों ने उसे अपना पेशवा नहीं माना। उन्होंने राघोबा को पदच्युत कर नारायणराव के पुत्र सवाई माधवराव को पेशवा की गद्दी पर बैठाया जो अभी बालक ही था। अतः बारह मराठा सरदारों की एक समिति ‘बारभाई’ शासन का संचालन करने लगी। इसे अंग्रेजों ने मराठा साम्राज्य में हस्तक्षेप करने का उपर्युक्त अवसर समझा, किन्तु उस समय उन्हें सफलता नहीं मिली। मराठों के दुर्भाग्य से सवाई माधवराव ने आत्महत्या कर ली। फलतः पेशवाई के लिए पुनः दुशचक्र होने लगे। राघोबा के तीन पुत्रों में अमृतराव दत्तक पुत्र था। शेष दो बाजीराव और चिमाजी आपा था। उस समय सबसे शक्तिशाली मराठा सरदार नाना फड़नवीस था। वह हत्यारे राघोबा के किसी भी पुत्र को पेशवा बनाने के पक्ष में नहीं था, किन्तु परिस्थितियां ऐसी बनी कि ऐसा करना अपरिहार्य हो गया। चिमाजी आपा भाइयों में सबसे छोटा था। नाना फड़नवीस ने एक चाल चली। स्वर्गीय पेशवा सवाई माधवराव की पत्नी ने चिमाची आपा को गोद ले लिया, अतः चिमाजी आपा पेशवा बन गए।
समय बदलते देर नहीं लगती, असामान्य परिस्थितियों के कारण नाना फड़नवीस को पूना से भागना पड़ा। बाजीराव के समर्थकों ने चिमाजी आपा को बन्दी बना लिया और बाजीराव द्वितीय पेशवा बन गया। बाजीराव द्वितीय अयोग्य शासक सिद्ध हुआ। उसके दुर्यव्यवहार से रुष्ट होकर मराठा सरदार यशवन्तराव होल्कर ने पूना पर आक्रमण कर दिया। पेशवा बाजीराव द्वितीय भागकर बसई बन्दरगाह में अंग्रेजों की शरण में चला गया। वहां उसने अंग्रेजों के साथ एक सन्धि की, इस सन्धि के अनुसार बाजीराव के राज्य की रक्षा का भार अंग्रेजों ने अपने ऊपर ले लिया। इसके बदले में पेशवा बाजीराव ने पूना में छः हजार अंग्रेजी सेना रखना स्वीकार कर लिया। इस सेना के व्यय के लिए उसने अपने राज्य का छब्बीस लाख रुपये वार्षिक आय का प्रदेश अंग्रेजों को देन भी स्वीकार कर लिया।
इस सन्धि के परिणामस्वरूप बाजीराव द्वितीय को पेशवा का पद पुनः प्राप्त हो गया, किन्तु इसके लिए अन्य मराठा सरदारों से परामर्श नहीं लिया गया था। अतः होल्कर, भोंसले आदि मराठा सरदार बाजीराव द्वितीय के विरोधी बन गए। ये सभी सरदार अंगेजों की सत्ता स्वीकार करने के सर्वथा विरोधी थे। अंग्रेजों ने इन सभी सरदारों को पेशवा का विरोध घोषित कर दिया। इससे मराठों की एकता को भारी धक्का लगा। धीरे-धीरे इन सभी विरोधी सरदारों को अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य होना पड़ा। सभी को अपने यहां अंगेजी रेजीडेण्ट और सेना रखनी पड़ी।

धीरे-धीरे पेशवा बाजीराव के हाथ से समस्त सत्ता चली गई। वह नाममात्र को पेशवा रह गया और सत्ता की बागडोर अंग्रेज रेजीडेण्ट के हाथ में चली गई। पेशवा बाजीराव के लिए यह स्थिति असह्य हो गई। तो वह पुनः शक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा। अन्य मराठा सरदार भी अपमानजनक सन्धियों के कारण अंग्रेजों से क्षुब्ध थे। मराठा सम्राज्य को पुनःशक्तिशाली बनाने के प्रयत्न होने लगे।
मराठों की इस सक्रियता से अंग्रेज अपरिचित न रह सके। उन्होंने इस सबका कारण पेशवा पद को समझा, अतः वह इस पद को ही समाप्त करने का विचार करने लगे। इसके लिए उन्हें एक अच्छा बहाना भी मिल गया। पेशवा का पद वस्तुतः मराठा राज्य के राजा छत्रपति के प्रधानमन्त्री का पद था। इस पद की स्थापना छत्रपति शिवाजी ने की थी। आरम्भ में यह पद पैतृक या वंश परम्परागत नहीं था। बाद में छत्रपति शाहू के समय यह पद पैतृक बन गया था। इससे मराठा साम्राज्य की समस्त सत्ता पर पेशवाओं का अधिकार हो गया था राज्य के वास्तविक अधिकारी शिवाजी महाराज के वंशज नाममात्र के छत्रपति रह गए थे। अतः पेशवा को पुनः सक्रिय देख अंग्रेजों ने स्पष्ट कह दिया कि मराठा साम्राज्य का वास्तविक अधिकारी शिवाजी का उत्तराधिकारी सतारा का छत्रपति है, पेशवा उनका प्रधानमन्त्री है।
उस समय सतारा का छत्रपति प्रतापसिंह था। अंग्रेजों ने बड़ी कूटनीति से काम लिया। उन्होंने छत्रपति प्रतापसिंह से कहा कि यदि वह पेशवा का पक्ष त्याग दे तो, उसे मराठा राज्य का वास्तविक राजा मान लिया जाएगा। प्रतापसिंह ने अंग्रेजों की बात मान ली। उसकी स्वीकृति मिलते ही अंग्रेजों ने उसकी ओर से मराठा राज्य की भगवापताका लेकर बाजीराव पर आक्रामण कर दिया। इससे मराठा बड़ी दुविधा में पड़ गए। वे समझ नहीं पाए कि किसकी ओर से लड़ें ? पेशवा की ओर से अथवा छत्रपति की ओर से ? बाजीराव शत्रु का सामना नहीं कर सका और भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार पेशवाई सदा के लिए समाप्त हो गई।
पराजित पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों ने सन् 1818 में एक सन्धि द्वारा अपना पद छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। इस संधि के अनुसार उसे आठ लाख रुपए की वार्षिक पेंशन दे दी गई तथा परामर्श दिया गया कि वह महाराष्ट्र छोड़ दे और उत्तरी भारत में कहीं अपना निवास स्थान चुन ले। बाजीराव पदच्युत करने के बाद चिमाजी आपा के समक्ष छत्रपति का अधिकारहीन पेशवा बनने का प्रस्ताव रखा गया, किन्तु चिमाजी आपा ने इसे अस्वीकार कर दिया।
इस अपमानजनक सन्धि के बाद बाध्य होकर पदच्युत पेशवा बाजीराव को महाराष्ट्र छोड़ना पड़ा वह अपने परिवार और सेवकों सहित उत्तर भारत की ओर चल पड़ा। उसके हजारों पूर्व स्वामी भक्त सैनिक भी हाथी घोड़ों सहित उसके साथ चले पड़े। यह पूजा दल लेफ्टीनैण्ट लो की देख- रेख में चल रहा था। महाराष्ट्र से चलते समय पेशवा निश्चित नहीं कर पाया था कि उसे कहां रहना चाहिए, अतः पूना से चलने के बाद पहले वह अजमेर पहुंचा। वहां से मथुरा गया, जहां वह कुछ मास रुका।
बाजीराव जहां एक ओर विलासी, व्यसनी, कामुक और एक अयोग्य शासक था दूसरी ओर बड़ा धर्मपरायण व्यक्ति भी था। मथुरा आने पर उसने हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ काशी में रहने का विचार किया। काशी में पहले ही अनेक सत्ताच्चुत शासक रह रहे थे। अंग्रेज मन ही मन उनसे आशंकित रहते थे, अतः पेशवा जैसे शक्तिशाली सत्ताच्चुत शासक का वहां रहना अंग्रेजों द्वारा सुझाए गए स्थान बाजीराव को स्वीकार न थे। पर्याप्त विचार विमर्श के बाद बिठूर के नाम पर सहमति हो गई। बिठूर का पौराणिक नाम ब्रह्मावर्त है। अतः पवित्र तीर्थ होने के कारण पेशवा ने यहां रहना उचित समझा और यहां उस समय महाराष्ट्र के विद्वान ब्राह्मणों के परिवार भी रह रहे थे। ये ब्राह्मण परिवार पेशवा बाजीराव प्रथम के शासनकाल में यहां आकर बस गए थे।
फरवरी, 1819 में सत्ताच्युत पेशवा बाजीराव द्वितीय बिठूर पहुंचा। वहां उसने गंगा तट पर अपने एक भव्य भवन का निर्माण कराया। बाद में सत्तावान बीघा भूमि पर एक विशाल बाड़ा बनवाया गया। पहले भवन को पेशवा ने छोटा समझा, अतः वह पूरे वैभव के साथ इस बाड़े में रहने लगा। पुराना भवन उसने अपने सूबेदार रामचन्द्र को दे दिया। कूटनीति में चतुर अंग्रेजों ने यहां आने पर पेशवा बाजीराव द्वितीय को बिठूर तथा रमेल इन दो गांवों की जागीर दे दी। इतने बड़े मराठा राज्य का स्वामी रहा बाजीराव द्वितीय इन दो गांवों का जागीरदार बनकर रह गया। इस जागीर में उसे सभी प्रकार के अधिकार प्राप्त थे। बिठूर की कचहरियों आदि को अंग्रेज कानपुर ले गए।
बाजीराव द्वितीय के साथ पाण्डुरंग भट भी अपनी पत्नी तथा दोनों पुत्रों सहित बिठूर आ गए। इस प्रकार वीरवर तांत्या टोपे प्रायः चार वर्ष की अवस्था में ही बिठूर आ गए।


मातृ- वियोग



तांत्या अपने पिता पाण्डुरंग भट, मां रुक्माबाई तथा छोटे भाई गंगाधर के साथ बिठूर आ गए थे। कुछ ही वर्ष बीते थे कि उनकी मां रुक्माबाई परलोक सिधार गई। बालक तांत्या के लिए यह एक भयंकर आघात था, किन्तु इस दैवीय विपत्ति के लिए कोई क्या कर सकता ? पेशवा बाजीराव ने अपने ही एक अन्य आश्रित जेजूरकर परिवार की कन्या मथुरा से पाण्डुरंग का दूसरा विवाह करा दिया। पाण्डुरंग ने विवाह के बाद मथुरा का नाम रुक्माबाई रख दिया किन्तु यह परिवर्तित नाम प्रसिद्धि न पा सका, क्योंकि मथुरा बिठूर की ही थी, अतः वह आगे भी मथुरा नाम से ही जानी गई।
बिठूर आने पर पाण्डुरंग पेशवा बाजीराव के धार्मिक विभाग के प्रधान बन गए। पेशवा ब्राह्मणों के लिए दाता था। उसकी पैंशन का एक बड़ा भाग इसी दान दक्षिणा में व्यय हो जाता था। धार्मिक विभाग के साथ ही पाण्डुरंग भट पेशवा के दान विभाग के भी अध्यक्ष थे। कहने कि आवश्यकता नहीं कि उन्हें पदच्चुत ही सही, पेशवा बाजीराव के दरबार में एक सम्मानजनक स्थान प्राप्त था।
मां की मृत्यु के बाद तांत्या विमाता मथुरा के संरक्षण में पहले बढ़ने लगे। लगता है, मथुरा उनसे बड़ा स्नेह रखती थी। (कहा जाता है कि बाद में तांत्या टोपे संन्यासी बन गए थे। जिस व्यक्ति को तांत्या टोपे के नाम पर फांसी पर लटकाया गया था वह वास्तविक तांत्या टोपे नहीं था। विमाता और पिता की मृत्यु के समय संन्यासी वेश में तांत्या टोपे उनसे मिलने आए थे। इसका उल्लेख आगे यथास्थान किया जाएगा।)


भाई- बहन एवं वंशज



अपनी मां से तांत्या टोपे दो ही भाई थे। स्वयं वह और छोटा भाई गंगाधर। पाण्डुरंग की द्वितीय पत्नी मथुरा से सात सन्तानों ने जन्म लिया, जिनमें छः पुत्र तथा एक पुत्र थी पुत्रों के नाम क्रमशः रघुनाथ, रामकृष्ण, लक्ष्मण, बैजनाथ, सदाशिव और विनायक थे तथा पुत्री का नाम दुर्गा था।
इस प्रकार वीरवर तांत्या टोपे नौ भाई बहन थे। इसी प्रसंग में उनके वंशजों का संक्षिप्त परिचय दे देना अप्रासंगिक न होगा।
जन्म महाराष्ट्र में होने पर भी तांत्या टोपे अपने बाल्यकाल में ही बिठूर आ गए थे। उनकी सौतेली माँ की सभी सन्तानों का जन्म बिठूर में ही हुआ। वीरवर तांत्या टोपे का यज्ञोपवीत संस्कार तथा विवाह भी यहीं हुआ। उनकी पत्नी का नाम जानकी था। सन् 1841 में उन्होंने एक पुत्री को जन्म दिया जिसका नाम मनोरमा रखा गया। पुत्री के जन्म के दो वर्ष बाद उन्हें एक पुत्र को जन्म देने का सौभाग्य हुआ। उनके इस पुत्र का नाम सखाराम था। पुत्री मनोरमा का विवाह वाराणसी के सड़सिंघे परिवार में हुआ था।

जब कानपुर की पराजय के बाद विद्रोहियों को भागना पड़ा तो तांत्या टोपे के परिवार ने भी बिठूर में रुकना सुरक्षित नहीं समझा, क्योंकि अंग्रेजों का उनके प्रति कुपित होना स्वाभाविक था। अतः उन्होंने किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाना उचित समझा। तांत्या टोपे की सौतेली मां मथुरा बड़ी चतुर और व्यवहारकुशल महिला थीं। उन्होंने बिठूर से भागते समय घर की मूल्यवान सामग्री को अपनी एक विश्वासपात्र नौकरानी के घर रख दिया। उस भीषण संक्रांति के समय में मूल्यवान सामग्री को किसी अनिश्चित स्थान पर ले जाना उचित नहीं था। उस नौकरानी ने वास्तव में सत्यपरायणता का परिचय दिया। शान्ति स्थापित होने पर जब यह परिवार बिठूर लौट आया तो उसने समस्त सामान लौटा दिया।
बिठूर छोड़ने के बाद तांत्या टोपे के पिता पाण्डुरंग भट अपने परिवार को लेकर जालौन के समीप चुर्खी चले गए थे। वहां उनके कोई सम्बन्धी रहते थे, उन्हीं के घर उन्होंने शरण ली। पूरा परिवार बिठूर से एक साथ नहीं भागा। उस समय तांत्या टोपे की पुत्री मनोरमा गर्भवती और आसन्न प्रसवा थी, अतः उसे उसकी मां और भाई के साथ पहले ही भेज दिया गया था। उसी संक्रान्ति के काल में मनोरमा ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम गोविन्द रखा गया।

जिस समय तांत्या कालपी में थे और अंग्रेज कालपी पर अधिकार करने की योजना बना ही रहे थे, उसी समय उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। इसीलिए कोंच के युद्ध के बाद उन्हें चुर्खी जाना पड़ा। इसके साथ ही वहां जाने का उनका एक अन्य उद्देश्य भी था। वह अपने परिवार को सावधान कर देना चाहते थे कि कालपी पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के बाद उनका (परिवार) वहां रहना उचित नहीं होगा।

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