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टुकड़ा-टुकड़ा यथार्थ

महावीर रवांल्टा

प्रकाशक : लिट्रेसी हाऊस प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5607
आईएसबीएन :81-88435-02-3

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह...

Tukada Tukada Yatharth

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘टुकड़ा टुकड़ा यथार्थ’ महावीर रवांल्टा की डेढ़ दर्जन कहानियों का संग्रह है जिनमें मानव-मन की विकृतियों, जटिलताओं और आशा-आकांक्षाओं का सूक्ष्मता व सहजता से वर्णन हुआ है। ये कहानियाँ हिंदी कथा जगत् में अपना एक अलग स्थान बनाती हैं।
प्रस्तुत कहानियों में आत्मद्रोह, जमीन तलाशते रिश्तों की चरमराहट, संस्कारों व जीवन-मूल्यों की तलाश को आसानी से देखा जा सकता है। गाँव व शहर से समान रूप से जुड़ी इन कहानियों के अधिकतर पात्र निम्न व मध्यम वर्गीय हैं। कई कहानियों में पर्वतीय अंचल के रिवाज व संस्कार समाए हुए हैं जो उन्हें पठनीय बनाते हैं।

दाखिला


उम्र के चालीस बसंत पार कर चुकने के बाद माया का मन अब भी बीस के आस-पास फिरता है। पंद्रह वर्ष की छोटी सी उम्र में अपना विवाह हो जाने के बाद से उसने समय को काफी देख भोग लिया है। पाँच बच्चों को जन्मा जो अब बेल की तरह बढ़ते जा रहे हैं। बेटा राजू और बेटी पिंकी तो अच्छे बुरे वक्त उसे समझाते भी हैं। सब कुछ बदल जाए लेकिन समस्याएँ जहाँ की तहाँ रहती हैं-दूब घास की तरह। एक को उखाड़ो तो दूसरी जड़ पकड़ लेती है। उसके गोरे चेहरे का रंग फीका नहीं पड़ा है अलबत्ता झुर्रियाँ जरूर पड़ गई हैं। आँखों के नीचे कुछ कालापन नजर आता है। दाँतों में पहले की तरह की चमक है लेकिन एक दूसरे से छितर गए हैं।

बीस साल पहले पहाड़ में अपना घर छोड़ वह पति के साथ शहर में आई थी। गाँव छोड़ने का दुःख था लेकिन मन में शहर देखने का उल्लास भी था। ‘‘शहर में ठाठ करेगी’’ गाँव की औरतें उसके भाग्य को सराहती हुई अपने अपने भाग्य को कोसतीं कि ऐसा अवसर उन्हें क्यों न मिला। जिनको मिला वे जा चुकी हैं। कई बाहर जाकर वहीं बस चुके हैं। फौजी लोगों के परिवार गाँव में रहते हैं क्योंकि उनके साथ दिक्कत यह है कि आदमी का कोई एक ठिकाना नहीं, बिस्तर बाँधे इधर-उधर भागते रहते हैं।

बन-ठनकर शहर पहुँची तो उसके चेहरे पर खुशी की जगह उदासी थी। दमघोंटू मकान। न गाँव की तरह का ठंडा पानी और न हवा। पान सिंह दिन में बैंक की अपनी ड्यूटी पर चला जाता और वह बिल्कुल अकेली रह जाती। उस समय अकेलापन मकड़ी के जाले की तरह उसके चारों ओर उतरने लगता।
धीरे-धीरे शहर में मन लगने लगा। बच्चों का जन्म हुआ। गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ बढ़ती गईं। पिंकी का जन्म होने पर उन्होंने ‘हम दो हमारे दो’ पर चलने का निश्चय कर लिया था लेकिन...‘‘क्यों न यहीं शहर में बस लें’’ माया सीधी-सादी औरत ठहरी इसलिए झट से पति की हाँ में हाँ मिला दी। मकान बना समय बीतने लगा। मोनी चंचल निखिल न चाहते हुए भी बच्चों की लाइन। आखिर माया ने ही अपना ऑपरेशन कराया।

शहर में रहते हुए उसे अपनी सादगी और गँवारूपन को ऐसे छोड़ना पड़ा था जैसे साँप अपनी केंचुली छोड़ता है। पाँच बच्चे और मुँह फाड़ महँगाई का दानव। मर्दों को पाई-पाई बचाने की ललक नहीं होती। घर के खर्चे दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। कभी बिजली का बिल आ जाता है, कभी पानी का। कभी घर का टी.वी. खराब हो जाता है कभी पंखा, कूलर। एक दिन निखिल पड़ोसी के घर फ्रिज में जमी आइसक्रीम खा आया तो घर में घुसकर फ्रिज की रट लगाने लगा। आखिर पाँचों बच्चों ने मिल फ्रिज खरीदवाकर ही साँस ली।

पान सिंह कमाता था लेकिन बैंक की अच्छी नौकरी और अपने स्टेटस को लेकर उसने कोई एडजस्टमेन्ट नहीं रखा। देर रात को वह लड़खड़ाते कदमों के साथ बड़बड़ाते हुए गली में कदम रखता तो वह अपने भाग्य को कोसती। वह आकर घर की कुंडी खड़खड़ाता, इतने में मुहल्ले के सारे लोग जमा हो जाते। फिर तो यह रोज की बात होने लगी। वह उसे समझाती लेकिन समझाने का असर न पड़ता। चिकने घड़े से पानी फिसल जाता। ‘‘परदेस है, नशे के हाल में तुम्हें कोई मार-मूर दे तो..?’’ वह समझाने का यत्न करती तो पान सिंह उल्टा उसी को गालियाँ रसीद करने लगता। बच्चे पापा की दशा देख सन्न रह जाते। समझाना व्यर्थ। पुचकारने के बहाने बच्चों को पापा की ओर से टॉफियाँ और थोड़े बहुत पैसे जरूर मिल जाते।
शहर में समस्या एक हो तो पहाड़ों में पहाड़ हैं लेकिन जहाँ भी पहुँचों समस्याओं के पहाड़ कहीं पीछा नहीं छोड़ते। पान सिंह ठहरा मस्त आदमी। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, विवाह सबकी चिंता जैसे माया की अकेली चिंता हो गई है। शहर में रहकर बच्चों को पढ़ा न पाए तो उनका भविष्य ही चौपट होगा फिर गाँव-बिरादरी में कौन सा मुँह लेकर जाएँगे। लड़कियों की शादी के लिए एक मोटी रकम पास में होनी चाहिए। लड़-झगड़कर वह पान सिंह की तनख्वाह अपने हाथ में कर लेती फिर महीना अपने ही ढंग से चलाने की कोशिश करती। कहते हैं गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों पर चलती है लेकिन उसे लगता यह तो तीन पहियों पर चलती है-पति, पत्नी और बच्चे। बच्चों की भी अपनी भागीदारी होती है। बच्चे बड़े हो गए हैं लेकिन...उनके कहने पर ही पान सिंह उनके लिए कपड़े, कॉपी किताब खरीद लाता है वरना लाख चिल्लाने पर भी उसके कानों पर जूँ तक न रेंगती थी।

पाँच बच्चे हैं इसलिए आए साल उनके दाखिले की समस्या सामने आ जाती है। पाँचवीं तक तो किसी स्कूल में पढ़ा लें। आगे दाखिला गर्वनमेंट कॉलेज में पाने के लिए बहुत हाथ-पैर मारने पड़ते हैं, स्मरण होते ही हाथ-पैर फूलने लगते हैं। इंटर कॉलेज में पान सिंह राजू को दाखिला दिलाने ले गया था। प्रिंसिपल ने दाखिला देने से इनकार कर दिया तो चुपचाप लौट आया। माया को आस-पड़ोस की महिलाओं ने बताया था कि आज के जमाने में सीधेपन से काम नहीं निलकता, कुछ सोर्स सिफारिश जुगाड़ जान पहचान हो तो..यही बात उसने पान सिंह से कही तो वह उल्टा ही बिफर पड़ा था-‘‘लड़का थर्ड डिवीजन में पास हुआ है और सिफारिश की बात करती है, ये मुझसे न होगा।’’
‘‘तो मैं ही जाकर देखूँगी’’ पति का हठ देखकर उसने निर्णय लिया था। मालूम हुआ उनके गाँव के पास के ही जोशी जी जिले के किसी महकमे में उच्चाधिकारी हैं क्यों न उन्हीं से...। जाकर मिली। फोन पर वार्तालाप हुआ। अगले दिन राजू को दाखिला मिल गया। सिर का बोझ हल्का हुआ।

वह बाजार से कंधे पर बड़ी-सी कंडी रखकर लौटती है तो लगता है जैसे कोई कंजरी आ रही हो मुहल्ले में। सात जनों के परिवार के लिए साग भाजी...कम नहीं आती। बच्चों को भेजो तो कम्बख्त दुकानदार मनचाहा रेट वसूल लेते हैं फिर थोड़ा-थोड़ा लाकर भी काम नहीं चलता। मंडी जाती है तो वहाँ बाजार से सस्ता मिल जाता है। औरत का सुलेमन होना जरूरी है। बूँद-बूँद कर घड़ा भरता है।

पिंकी, मोनी को गर्ल्स कॉलेज में दाखिला मिल चुका है और निखिल को ब्वाइज में। तीनों के दाखिले की प्रक्रिया एक सी रही दौड़ धूप जान पहचान। पिंकी का पहाड़ के ही देवशाली जी से करवा लिया था। निखिल और मोनी का भी ऐसी ही तिकड़म से दाखिला हुआ था। आवश्यकता अपने द्वार स्वयं खोल लेती है।
आजकल उसे राजू के दाखिले की चिंता घुन की तरह खाए जा रही थी। पिछले साल उसे टाइफाइड हो गया था इसलिए डिग्री कॉलेज में दाखिला नहीं ले पाया था। इस साल भी दाखिले के लिए परीक्षा ली गई थी लेकिन उन्हें समय पर मालूम नहीं हुआ। उसे राजू पर बहुत गु्स्सा आया था कि उसे अपनी ही सुध नहीं रहती। बाप ठहरा निरा लापरवाह। कुछ कहती है तो ऐसा जवाब मिलता है जैसे सपाट दीवार पर कोई कील ठोकी जा रही हो। राजू का दाखिला हो जाता तो वह आराम की नींद सोती। बात की बात में एक दिन दीवान ने उसे सलाह दी कि क्यों नहीं वह ए.डी.एम. साहब से मिल लेती। वह उनके ही पहाड़ का है, यह भला आदमी बताते हैं। सुनकर उसके मन में आशा का अंकुर फूटने लगा। डूबते को तिनके का सहारा दिखने लगा।

खड़गसिंह, ए.डी.एम. के नाम और ठेठ पहाड़ी में कही दीवान की बातें उसे सुनकर अच्छा लगा था। कहते हैं कि अपने इलाके का तो कुत्ता भी प्यारा लगने वाला ठहरा। माया के चेहरे पर सुबह की सूरज की किरणों की लालिमा-सी उतर आयी। उम्मीद पंख मारने लगी। अबकी बार वह दाखिले का वैतरणी को ए.डी.एम. साहब के सहारे पार कर लेगी, उसे विश्वास होने लगा था।
अगली सुबह वह नहा धोकर खड़गसिंह की कोठी पर पहुँची। लोहे का बड़ा-सा फाटक, वहाँ पर तैनात संतरी सामने बड़ा सा लॉन नरम हरी घास से ढका हुआ। लॉन में कुर्सियों बिछी हुईं। अर्दली ने बैठने को कहा तो वह लॉन पर बिछी कुर्सी पर बैठ गई। तेज चलने के बाद उसका शरीर पसीने में नहलाया हुआ सा लग रहा था। बैठने पर शरीर का पसीना सूखकर ठंडक देने लगा था। एक जमादारिन हाथ में टोकरा और बगल में झाड़ू दबाए एक नजर उस पर टिकाती हुई वहाँ से बाहर निकली। एक आदमी नन्हें पौधों को पानी दे रहा था। सकुचाई-सी कुर्सी पर बैठे हुए उसका मन हरी मुलायम मखमली घास पर बैठने का हो रहा था लेकिन यहाँ मन को मारना पड़ा था। बीच-बीच में पानी देने वाला आदमी उसे छुपी नजरों से घूरता।

कुछ देर इंतजार के बाद खड़गसिंह जी आए। गोरे चेहरे पर झलकता पहाड़ीपन। आँखों में मोटे फ्रेम का चश्मा। उसके अभिवादन का उत्तर देने के बाद पूछने लगे। ‘‘कहिए ?’’ तब माया ने घर, गाँव के अपने पूरे परिचय के साथ सारी समस्या हू-ब-हू उनके सामने रख दी थी।

‘‘एडमिशन हो जाएगा, चिंता न करें मैं प्रिंसिपल को लेटर लिख देता हूँ।’’ उन्होंने उसे चिट्ठी कुछ ही देर में पकड़ा दी थी और वह उसे लेकर मन ही मन अनेक बार उनका आभार व्यक्त करती हुई फाटक से बाहर निकली थी। चेहरे पर अप्रतिम प्रसन्नता थी। उसी दिन वह प्रिसिंपल को चिट्ठी दे आई और उसने चुपचाप रख ली। उसे लगा काम हो जाएगा। स्त्री मन अत्यधिक कोमल और वेगवान होता है। ‘‘काम हो जाएगा ए.डी.एम. साब अपने आदमी ठहरे। मैं वह जिससे भी मिलती उनकी सहृदयता और मृदु व्यवहार की प्रशंसा करती न थकती। परंतु उसकी उम्मीदों के पंख उस समय बुरी तरह नुच गए जब प्रिंसिपल चिट्ठी का जिक्र करते ही बरस पड़ा था-‘‘ए.डी.एम. होता क्या है हमारे लिए, रोज सैकड़ों लेटर्स आते हैं लोगों के, सब कंडीडेट्स को एडमिशन थोड़े मिल जाता है। अगर उन्हें सिफारिश ही करनी होती तो एक बार भी मुझसे कह दिया होता, पाँच-सात मुलाकातें हो चुकी हैं...’’ तमतमाया हुआ चेहरा लेकर वह प्रिंसिपल के कमरे से बाहर निकली थी कि अभी जाकर वह ए.डी.एम. से सारी शिकायत करेगी फिर देखेगी प्रिंसिपल कैसे रंग बदलता है। उसी समय ऑफिस पहुँची तो पता चला वे कहीं बाहर गए हैं। मन का गुबार मन में ही रह गया।

अगले दिन वह सुबह ही उनके आवास पर पहुँची। वही फाटक, लॉन और कुर्सियाँ। ‘‘कहिए ?’’ अभिवादन लेते हुए अनमने ढंग से व्यस्तता भरे अंदाज में खड़गसिंह ने सवाल किया था।
‘‘वो एडमिशन के लिए प्रिंसिपल साब ने मना कर दिया।’’ उसने अपनत्व की आस में कहा।
‘मना कर दिया तो मैं क्या करूँ ?’’ उनका स्वर कड़क व खुरदुरा था।
‘‘एक फोन ही...वो यहाँ तक कह रहे थे कि आप होते कौन हैं उनके लिए...’ उसका लहजा शिकायती था लेकिन किसी अपने के निरादर के कारण वह क्षोभग्रस्त थी।
‘‘ठीक कहा उसने, यहाँ तो कितने ही लोग आते हैं। मैंने लेटर लिख दिया था उससे ज्यादा नहीं हो सकता।’’ वे तमतमाए बोले।

‘‘पर...’’
‘‘अब मुझे आपसे बात नहीं करनी’’ कहते हुए वे कुर्सी छोड़कर भीतर चले गए और वह अपना ठगा सा चेहरा लेकर रह गई। कुछ दिन पहले यही खड़गसिंह कितनी आत्मीयता से बोल रहे थे जैसे अपना सगा-संबंधी हो। मन हुआ कि दरवाजा पीटकर कुछ बोले, ‘‘दो चार गालियाँ तो दे ही दे। मन की भड़ास तो निकल ही जाएगी। अपमान की आग कुछ तो ठंडी होगी। लेकिन फिर न जाने क्या सोचकर वह फाटक की ओर मुड़ी और उसे पार कर लेने के बाद उसने घृणा भरी नजर से एक बार कोठी को देखा और फिर आगे बढ़ती ही गई।


सच के आर-पार



चैती का मन बादल छँटे आकाश की तरह जितना साफ था। प्रसन्नता की परत उस पर उतनी ही गाढ़ी चढ़ गई थी। सुबह की सूरज की किरणों की तरह। गाँव में लड़कियाँ पंद्रह-सोलह की उम्र पार नहीं करतीं कि घरवालों को उनके विवाह की चिंता सताने लगती है। बाहर से विवाह के प्रस्ताव आने लगते हैं। अच्छा है दूसरी जगहों की तरह यहाँ पर पहल लड़की वालों की ओर से नहीं करनी पड़ती। लड़के वाले ही दस्तक देते हैं।
शाम ढलने के बाद अंधेरा अपनी झीनी-सी चादर वातावरण को ओढ़ाने के यत्न में था। घर के आस-पास खड़े पेड़ों पर बसेरा करने वाले पंछी न जाने कहां जा चुके थे। तभी घर में किसी के आगमन की आहट ने सभी को जैसे सहज कर दिया था। वे दोनों बहनें रसोई में चूल्हे से लगी ‘कोटी’ में एक दूसरे का कंधा पकड़कर बैठ गई थीं। उनसे छोटा परी बाहर जैसे आगंतुकों की अगवानी के लिए पहुँच गया था।

माँगे अजनबियों को अपने सामने पाकर क्षणभर उन्हें पैनी नजरों से देखते रहे फिर चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाकर उनके अभिवादन पर सिर्फ इतना ही बोले-‘‘आओ, बैठो !’’ इससे बड़ी औपचारिकता और नहीं हो सकती थी। वे अपरिचित थे। जीवन काटते हुए उनकी लंबी उम्र निकल गई है लेकिन जिम्मेदारियों का बोझ अब तक उनके सिर नहीं पड़ा। बच्चों के विवाह, मकान का निर्माण गाँव की यही बातें हैं जिन्हें जिम्मेदारियाँ माना जाता है।
बरांडे में बिछे ‘काउंठ’ को थोड़ा सा भीत के सहारे सरकाकर उन्हें बैठने को कहा और उनके बैठने पर स्वयं वे नंगे ‘मेड़’ पर बैठ गए। बैठते ही वे उनकी उपस्थिति की पड़ताल को उद्यत हो रहे थे। दोनों में से एक युवा दूसरा अधेड़। युवक को देखकर लगा जरूर किसी खाते-पीते घर का होगा-सुशिक्षित। अधेड़ उम्र का व्यक्ति पढ़ा-लिखा तो नहीं शरीफ व खानदानी अवश्य दिखता था।

‘‘मैं पंचगाँव का शेरपाल और ये गंगेश, हमारा बेटा’’ अधेड़ ने अपने परिचय के साथ ही युवक का भी परिचय दिया। वे ‘‘अच्छ...छ...छा....’’ के सिवा और कुछ न बोल पाए थे लगता था अब भी असमंजस की स्थिति में हैं। मन पर चढ़ा अपहचान का कुहासा अब तक न छँटा था।
‘‘पंचगाँव में किस घर से ?’’ आकर्षक व्यक्तित्व वाले युवक की ओर दृष्टि टिकाते हुए माँगे ने पूछा था। क्यों न पूछते, घर आए लोगों से उनका परिचय और आने का प्रयोजन तो पूछा ही जाना चाहिए। यह कोई धृष्टता नहीं सभ्यता का ही अंग है। ‘‘राजे सिंह के, जो तहसीलदार हैं और मैं इसका चाचा।’’ शेरपाल ने फिर से अपने परिचय को पुख्ता किया। सुनकर उनका जिज्ञासा भाव कुछ तृप्त हुआ था और प्रयोजन के साथ विस्मय जुड़ने लगा था।
‘‘अच्छा राजे सिंह ! देखा था एक बार उनको बलकन यूँ कहूँ कि सालों पहले मिला था तहसील में, जमीन का दाखला खारिज कराने गया था। तब वो कानूनगो थे। आजकल कहाँ हैं ?’’ उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त की। मन बीते समय की मुलाकात से जाकर जुड़ गया।

राजे सिंह, कानूनगो। लंबा कद, छोटी-छोटी आँखें। गोरा भरा चेहरा। चेहरे पर उगी घनी मूँछें। अच्छा-खासा आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। बोलचाल में अपनी तरह की विशिष्टता जैसे राजपूत होने का ही दंभ हो। काफी मिन्नतों के बावजूद उनकी रिश्वत को उन्होंने स्वीकार नहीं किया था। वे बोले थे कि इन पैसों की घर को साग-सब्जी ले जाना। सारा परिवार मिल बैठकर खाएगा तब जो आनंद मिलेगा उस समय सच्चे मन से मेरे लिए जो दुआ करोगे वही मेरी रिश्वत होगी और खुदा न खास्ता मुझे ही जीवन में कभी तुम्हारी जरूरत पड़ी तो ?’’

माँगे निरुत्तर हो गए थे। दुनियादारी को देखते हुए माँगे को कानूनगो के व्यवहार पर अचरज हुआ था। सोचते, बिल्कुल सतयुगी इंसान जान पड़ता है। कलयुग में इस इंसान की रोजी-रोटी कैसे चल पाती होगी। वे ही क्या, राजे सिंह की समझ पर लोग खुसर-पुसर करते। उनका उपहास करते। कुछ लोगों ने उनका नाम ‘नमक का दरोगा’ रख छोड़ा था। वे आपस में उन्हें यही संबोधन देकर पुकारते थे। ऐरे-गैरे को समझाने के लिए वे प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ सुनाते थे जिसमें दरोगा अपनी ईमानदारी पर डटा रहता है। सुविधा के लिए कहानी को संक्षिप्त कर लिया गया था। ‘‘कलयुग में कुछ तो लोग हैं जो अपने ईमान के सहारे जिंदा हैं।’’ उन्होंने मन ही मन सोचा था पर बुरा कटता है ऐसे लोगों का जीवन, कोरी तनख्वाह से भला कहाँ गुजारा होता है !’ लोगों की सोच के साथ कुछ देर के लिए उनकी सोच भी शामिल हो जाती।
कई दिनों तक राजे सिंह उनके मन से नहीं गए। जो मिलता उसी से उनका किस्सा बयान करते-‘‘ऐसा भला मानस आज तक नहीं देखा।’’ उनके शब्दों में आश्चर्य होता, प्रशंसा होती। कुछ लोग उनकी बात सुनकर उकताहट महसूस करने लगे थे कि यहाँ-वहाँ गाने के लिए क्या यही बात रह गई है। इधर-उधर लोग दूसरे की बुराई करने में लगे रहते हैं या फिर आत्म-प्रशंसा में। प्रधान बच्ची सिंह ने उसकी सीधी सच्ची बात सुनकर बताया था कि राजे सिंह अच्छे खानदान के हैं। बहुत दिनों तक उनके पिता की मालगुजारी चली और अब भी गाँव के प्रधान हैं। घर संपन्न है इसलिए न खाने-पीने की कमी है और न ओढ़ने पहनने की। बहुत दिनों तक राजे सिंह का व्यक्तित्व उनका पीछा करता रहा फिर धीरे-धीरे वे उससे मुक्त होते गए।

आज बीते हुए समय का वही हिस्सा किसी सूत्र की तरह उनके सामने आ पड़ा था जैसे किसी उलझे हुए धागे के छोर मिल गए हों। राजे सिंह का बेटा, उनका भाई घर में थे। उनका आदर-भाव जागा। माँ-बाप के स्वभाव व कर्म से उनकी संतान के प्रति लोगों की दृष्टि के द्वार खुलते हैं। अतिथियों को पहले पानी पिला फिर चाय नाश्ता। नाश्ते के लिए नमकीन, बिस्कुट का इंतजाम परी ने ही दौड़कर गांव की दुकान से किया था।

जैसे-जैसे अँधेरा गाढ़ा होने लगा, बातचीत करते हुए आपस में उनके मन भी खुलने लगे। माँगे की पत्नी बुलाकी भी बातों में हिस्सेदारी करने लगी। लैम्प लेकर वे भीतर गए तब बाहर फैला हुआ सारा उजाला वहीं को सिमट गया था बरांडे में अँधेरा होने लगा और चाँदनी छिटकने पर आँगन से कुछ दूरी पर खड़े पेड़ों की परछाइयाँ उनसे कहीं सुडौल नजर आती थीं। दरवाजे और खिड़कियों से थोड़ा बहुत उजाला बाहर की ओर फैल रहा था। खाने-पीने के बाद अलग कमरे में उनके बीच हुए वार्तालाप में वही सब था जो लड़की देखने वालों के आने पर होता है। चैती भीत से कान सटाकर उनकी बात सुनने की कोशिश करती रही। सुनकर उसके मन में गुदगुदी हुई। तरह-तरह की कल्पनाएँ करती हुई वह मुस्कराने लगी लेकिन अपने घर से बिछोह की कल्पना पर वह उदास हो जाती। अंततः भावी सुख-सुविधाओं की कल्पना के आगे उदासी को भी हथियार डालने पड़ते। पानी देने के बहाने उसे कमरे में बुलाया गया और वह लजाती, सकुचाती हुई पहुँची थी। उन्होंने उसे देखा और बाद की उनकी बातों से लगा था कि वह उन्हें पसंद है।   


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