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धर्मशाले की एक रात

लक्ष्मीकान्त वर्मा

प्रकाशक : इतिहास शोध-संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5586
आईएसबीएन :81-8071-063-7

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प्रस्तुत है कहानियों का संग्रह धर्मशाले की एक रात

Alka

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

धर्मशाले की एक रात

सूरज की रोशनी उन तंग गलियों में नहीं पहुँच पाती, जहाँ रक्त, मांसाधारी मनुष्य के पुतलों के पिचके पीले गालों, शुष्क उरोजों, पीले गन्दे दाँतों का मोल भाव होता है। कोई कहेगा चाँदी के टुकड़े कोई सोने का, कोई गहना, कोई शराब की बोतल के साथ सब्ज परियों का नाच देखना चाहेगा और कोई अपनें पायरियों से सड़े गंध भरे दाँतों की पीव उस रूप के ऊपर थूक देगा और कहेगा- ‘‘तुम मुझे सबसे प्रिय हो।’’ तब जी में यह आते हुए कि ऐसे व्यक्ति को कसकर थप्पड़ क्यों न लगा दूँ। वह नारी मात्र कहेगी- ‘‘और आप मुझे’’ ठीक उसी समय पान को बीड़ों के साथ कुछ टुकड़े चमकेंगे, आँखें चमकेंगी, हृदय में क्षण भर के लिए गुदगुदी-सी होगी....और आत्मा की दबी हुई आवाज कहीं कोने में पड़ी कराह भी उठेगी।
आत्मा-
मनुष्य ने भी ढोंग किया है। इंसान को जिंदा रहने के लिए इस आत्मा के ढोंग की भी क्या जरूरत। वह तो बिना इस ढोंग के भी रह सकता है, पर गुलाम को कोई शासक चाहिए, चाहे वह आत्मा हो या मोह। चाहे वह भगवान हो या शैतान – और फिर आत्मा का क्या कहना ? वह तो गिरते हुए मनुष्य को उठा ही नहीं सकती।
रात-रात जहाँ गाना पड़ता है – केवल इसलिए कि समाज का अभिशाप है कि उसका उद्धार हो ही नहीं सकता। जैसे कबड़े से अनाज बीन-बीनकर खाने वाले व्यक्ति को अपने पूर्व जन्म का पाप भोगना पड़ता है, वैसे ही समाज के इस वर्ग को अपने पूर्वजों की की हुई भूल का अभिशाप केवल इसलिए ढोना पड़ता है, क्योंकि उनके पास कोई और चारा नहीं है। और फिर औरत का अभिशाप।
मनुष्य तो शायद पचासों पाप के पश्चात् फिर भी अपने धर्म को संगत बता सकता है, पर स्त्री को अभिशाप उठाना ही है....अपने पापों को मनुष्य ने वेश्याओं के रूप में उसी प्रकार से पाल रखा है, जैसे दर्द के डर से कोई रोगी अपने फोड़ों को बचाए रखता है; पर न तो वह अपने फोड़ों को चीर सकता है – न तो नारी जाति के इस वर्ग विशेष में नारीत्व की मात्रा ही रहने देता है और न वह उसमें पतन ही आने देता है जिससे नारीत्व और पुरुषत्व से परे कोई तीसरी शक्ति ही बन सके। जब से शायद इंसान में धोखे की आदत की शुरुआत हुई तभी से उसने अपने सड़े-गले गंदे फोड़ों को भी अपनाना शुरु किया है, उसके बने रहने में भी आनंद समझने लगा है और कब तक वह उससे चिपका रहेगा, यह भी नहीं कहा जा सकता।

कुछ दिनों की बात है, मैं धर्मशाले में समय बिता रहा था और उसी में एक वेश्या भी बैठी हुई थी। आस-पास की सभी बैठी हुई स्त्रियों से वह कुछ विचित्र थी, उसमें न तो लज्जा की वह मात्रा थी जिससे यह कहा जा सके कि वह साधारण स्त्री है और न वह विचित्र विलक्षणता ही थी, जिससे यह समझा जा सके कि वह साधारण से असाधारण है। वह प्रत्येक व्यक्ति की ओर देखती और शायद उसकी आँखें बराबर इस बात की दावत देतीं कि मेरा मोल आँको। वह बोलती तो इस गर्व के साथ, जैसे उन सब स्त्रियों से अधिक अनुभवी और शिक्षित है – जैसे वह जीवन का प्रतीक है और बाकी सब स्त्रियाँ भेड़-बकरियाँ हैं। कभी-कभी सिगरेट जलाकर गुनगुनाती और फिर अपने पास बैठे काली मुछों वाले सज्जन से कुछ बातें करती थी। मैंने पहले सुनने की कोशिश तो नहीं की, लेकिन फिर कानों में आवाज आई-
‘‘तो क्या हुआ उसका ?’’

‘‘होगा क्या, उन गुंडों ने उसे मार डाला।’’
‘‘उसे मारना ही चाहिए था’’ – केवल इतना वाक्य कहकर वह स्त्री चुपचाप बाहर की ओर देखने लगी। थोड़ी देर के बाद बोली- ‘‘पैसे के लिए जान देना तो बेवकूफी है....पर पैसे के लिए जान लेना अक्लमंदी।’’
‘‘लेकिन कौन ऐसा है जो पैसे के लिए जान न दे ? आखिर...को पैसे की क्या जरूरत थी.....को इस बुढ़ापे में पैसे की क्या जरूरत थी ? उसका क्या कहना...?’’

मैं बार-बार उस व्यक्ति की ओर देख रहा था। लंबी-काली मूँछ, लाल आँखें बीड़ा पाते-पाते जब कभी वह उधर मुँह करता, तो गालों तक लटकते हुए काले धूल से भरे बालों के बीच लगी हुई सोने की कीलें चमक उठतीं।
वह वेश्या कह रही थी – ‘‘लोग हम ही को बुरा कहते हैं...पर यह नहीं जानते कि यौवन के जिस रूप पर सैकड़ों मरनेवाले होते हैं, वही बुढ़ापे में मुँह पर थूकने भी नहीं आते....फिर हम न पैसों पर मरें, तो मरे कौन।’’
रह-रहकर उसी स्त्री को खाँसी आती थी, फिर भी वह सिगरेट पीना बंद नहीं कर रही थी। उसकी खाँसी से यह साफ पता चलता कि उसका दिल और सीने का हिस्सा पोपला हो चुका है। कभी-कभी खाँसते-खाँसते उसकी आँखें लाल हो जातीं, पर वह कहती जा रही थी-
‘‘लोग पैसों से खेलते हैं, पैसों का व्यापार करते हैं, पर हम तो अपने शरीर का व्यापार करते हैं, ....फिर भी बहुत सस्ते में....।’’
थोड़ी देर के लिए मैं चुप हो गया। फिर जितने शब्द मेरे कानों में पड़े थे, वह सब सत्य मालूम पड़ते थे। धीरे-धीरे मेरी सहानुभूति उस वेश्या की ओर बढ़ती जी रही थी, पर न जाने क्यों उसके सामीप्य से मेरी आत्मा विद्रोह कर रही थी। उसको भी मालूम था कि मैं उसकी बातों को बड़ी गौर से सुन रहा हूँ और शायद इसीलिए वह और जोर से मेरी ओर देखकर कह रही थी-
‘‘लोग जानते हैं, बारह साल जेल काटने के बाद मैं सीधी हो गई हूँ। पर याद रहे कि मैं पहले से भी कठोर हो गई हूँ....मैंने जेल में जेलर से लेकर मामूली वार्डर तक से व्यवहार किया है और मैंने पाया वही जो जेल के बाहर की जिंदगी है – यह देखो – यह देखो... यह....।’’

वह इशारा करके बताती जा रही थी – ‘‘जेल में भी मेरे गालों पर हत्यारे मनुष्यों के लंबे दाँत के दाग अब भी हैं...जानते हो मैं इन जख्मों से कितना परेशान रहती थी....पर जिंदगी में इनको लेकर रोने की फुर्सत कहाँ है ? जानते हो समाज कहता है – रोते हुए, हँसने की कोशिश करो तब तो जिन्दा रह सकते हो, नहीं तो रोते-रोते मर जाओगे।
पास से मीनारी पानदान से उसने दो बाड़े पान लगवाए....और गालों के जबड़ों में उन्हें दबाते हुए फिर बोली-
‘‘तुम भी तो मेरे भाई हो....बोलो, तुम अपनी बहन की इस मुसीबत में क्या हाथ बँटा सकते हो ?’’
उसकी निकली हुई-सी आँखें मेरे अंदर चुभती ही जाती थीं और कफ के खाँ-खाँ से सारा धर्मशाला गूँज रहा था। उसकी कर्कश ध्वनि से जैसे सारी छत ही फटी पड़ रही थी। अपने सब्ज दुपट्टे को ओढ़ते हुए उसने फिर कहना शुरू किया-
‘‘और फिर उनका पता नहीं चला न !’’

‘‘पता’’ – वह पुरुष आवेश में कह रहा था, ‘‘उसका पता है क्यों नहीं, पर वह रुपए वाला है न। उसकी कौन जानेगा, वह अपनी सब बुराइयों को छिपा सकता है.....।’’
‘‘एक बार....’’ वह वेश्या कहती जा रही थी, ‘‘एक बार अगर वह मेरे चंगुल में आ जावे तो जानते हो, मेरी तपेदिक की बीमारी भी शांत हो जावेगी। मतलब उसकी दवा के लिए रुपए की कमी नहीं रहेगी।’’
रात को बारह बजे के करीब सिनेमा का दूसरा शो देखकर मैं लौटा। धर्मशाले में यह दूसरा दिन था। जाड़े की रात होने की वजह से केवल कुत्तों के भौंकने की आवाज ही कान में आ रही थी। मैं चुपचाप अपने कमरे की चारपाई पर पड़ा रहा। पास वाले कमरे में यह आवाजें दीवारों से छिनकर आ रही थीं-
‘‘अब क्या सोचा है तुमने।’’
‘‘यही कि पुरानी जिंदगी फिर से शुरू करूँ...तुम कहोगे कि मैं बूढ़ी हो चली हूँ, पर यह याद रखना कि उस बूढ़े शरीर से भी वासना की प्यास मिट सकती है.....।’’ मेरी आँखों की कडुवाहट दूर हो गई। कंबल से मुँह निकालकर मैं जरा गौर से सुनने लगा-
‘‘मुझे तपेदिक की बीमारी है इसलिए जेल वालों ने भी छोड़ दिया है...। पर उन बेवकूफों के दिमाग में यह नहीं आया कि आखिर मैं करूँगी क्या ? एक खून किया था, उसके बदले में जन्म-भर के लिए सजा मिली थी। पर अब मैं न जाने कितने खून करूँगी और कोई भी सजा देने वाला नहीं होगा।’’
‘‘उस्ताद से क्या हुआ.....अब मैं रूप का व्यापार करूँगी, संगीत का नहीं; क्योंकि संगीत को समझने वाले दुनिया में नहीं हैं, रूप को समझने वाले अधिक हैं।’’

उस वेश्या की बातचीत से यह साफ पता चलता था कि वह प्रतिहिंसात्मक रूप में समाज के अपवादों का बदला लेना चाहती है। यही नहीं, उसकी हर बातचीत में एक ऐसा कठोरपन था जिसे शायद वह अपने जीवन का एक अंग बना चुकी थी। उसे मौत प्रिय थी और जिंदगी से वह ऊब चुकी थी। उसके आस-पास का वातावरण उसे खाए जा रहा था। उसके प्रत्येक शब्द में समाज के हल के प्रति बगावत थी। रात में कभी-कभी सुनाई पड़ता-
‘‘मैं यह मानती हूँ, मेरे रोग से समाज के न जाने कितने लोग बिना मौत के मरेंगे; पर बदला मैं लूँगी समाज से नहीं, समाज के व्यक्तियों से।’’
फिर वही भयानक खाँसी। रात को जब कभी भी नींद खुलती, तो पता चलता, ऊपर छत की ओर से दिक के कीड़े मुझे निगलने को आते जा रहे हैं। मैं सहमकर उठ बैठता। तभी कान में फिर यह शब्द गूँज उठते-
‘‘तुम अब भी जग रही हो।’’

‘‘हाँ, मेरा गला सूख रहा है, जरा पानी दोगे ?’’
सुराही से पानी के गिरने की आवाज सुनाई पड़ती और फिर सारा कमरा शांत-सा मालूम पड़ता। रात-भर मैं सो नहीं सका। वास्तव में मेरे दिमाग में रह-रहकर यही बात गूँजती रही – ऐसे व्यक्तियों के जीवन का क्या हल समाज के पास है ? सोचता – देश के नवयुवकों को चाहिए कि इन वेश्याओं से विवाह कर-करके समाज के इस कोढ़ को दूर करने की कोशिश करें। पर फिर ध्यान हो आता है कि जिस वातावरण में यह अपना जीवन बिता रही है, उसके संस्कार से इन्हे छुटकारा मिलना नामुमकिन है....उनके जीवन में उदारता होना असंभव है, विशाल दृष्टिकोण का हो सकना कठिन होगा और इस प्रकार से राष्ट्र की आने वाली संतान निकम्मी होगी मगर समाज को इस प्रश्न पर कोई न कोई जवाब निकालना जरूरी है। क्या राज्य द्वारा इनको आश्रय नहीं दिया जा सकता ?

पर इस प्रतिबंध से भी तो संस्कारों में परिवर्तन आना असंभव है। वर्षों के संस्कार आसानी से नहीं बदलते। किसी पत्थर पर पड़े हुए दागों को मिटाने के लिए उस दाग की बराबर गहराई तक पत्थर काट देना पड़ेगा, नहीं तो उसमें उस चिकनाहट का आना असंभव होगा जिसके बगैर शायद वह अंत भी न मिट सके।
तो क्या इनको एक कतार में खड़ा करके गोली का निशाना बना देना ही एक हल हो सकता है ?
रात बारीपन के साथ-साथ खिसकती जाती थी और मेरा दिमाग उसी हलचल को लिए अस्त-व्यस्त था। खाँसी को गति में कोई भी परिवर्तन नहीं था। प्यास की आवाज वैसी ही सुनाई पड़ती थी और कभी-कभी उन भाई-बहन की बात चलती जाती थी।

‘‘तो तुम्हें जेल मे कोई तकलीफ नहीं हुई ?’’
‘‘नहीं, पर जेल में मैंने एक चीज सीखी है और वह है रूप का व्यापार। मैंने जेल में उन बेकसूर लोगों पर वह कोड़े लगवाए हैं जो यह समझते थे कि अपने चरित्र-बल पर दूसरों की चरित्रहीनता का मजाक उड़ा सकते हैं... मैंने जेल में ऐसी हत्याएँ की हैं जिनको सुपरिन्टेंडेंट ने केवल यह कहकर छोड़ दिया था – कि इसे हैजा हो गया था...आज मैं गाना भूल गई हूँ। पर शरीर की संगीत को मैं आज भी जानती हूँ, मैंने पीना भी सीखा है...’’
‘‘तुमने दवा की बात भी कहीं की।’’
‘‘नहीं, वह इसलिए कि मैं स्वयं मरने के लिए तैयार थी ही, पर उनके साथ-साथ जेलर भी कब्र तैयार करके मरना चाहती थी।’’

थोड़ी देर चारों ओर खामोशी छाई हुई थी। शायद वह वेश्या कुछ सोचने में लग गई थी, लेकिन थोड़े ही अंतर के बाद उसने कहा-
‘‘चलते समय यह विश्वास था कि जेलर मर जाएगा... और जिस दिन मैं सुनूँगी कि वह मर गया है तो शायद उस दिन मुझसे ज्यादा खुश और कोई व्यक्ति नहीं होगा....।’’
मैं ज्यों-ज्यों इन बातों को सुनता जाता था, त्यों-त्यों मेरी घबराहट भी बड़ती जाती थी। रात-भर न तो मैं सो सका और न वे दोनों....एक विराम के बाद उस स्त्री ने फिर पूछा-
‘‘लखनऊ में मकान तो होंगे नहीं....इसलिए अब अलग ही किराए पर मकान लेना पड़ेगा।’’
‘‘आयशा के यहाँ रहने में क्या हर्ज है ?’’
‘‘नहीं....आयशा खुद तो पागल है....’’
‘‘उसके पागलपन से तुम्हें क्या ?’’
‘‘क्यों... ?’’
‘‘यों ही मैं उस जिंदगी को पसंग नहीं करता। ....माँ के कहने से मैंने उसका साथ किया था, लेकिन अब मैं उनके साथ नहीं निभ सकेगी....।’’

‘‘तुमने खर्चा सोचा है ?’’
‘‘कैसा...?’’
‘‘यही....चालीस रुपया किराया, पच्चीस रुपए क्रीम- पाउडर, कपड़े, खाना, वगैरह... वगैरह....।’’
‘‘ठीक है, इंसान को मरने के लिए भी रुपए चाहिए....।’’
‘‘काश, मैं आज भी खूबसूरत होती....पर....कुछ भी हो, मैं आयशा के साथ नहीं रह सकती।’’
दोनों खामोश हो गए। सुबह हो चुकी थी....थोड़ी देर बाद मुझे जाना था....मैंने एक बार बाहर निकलकर उस कमरे की ओर देखा....सुबह पीले चेहरे....पर क्रीम-पाउडर की परतें जम रही थीं....और वह कह रही थी-
‘‘यह ड्रसिंग सेट जेलर ने दिया था....।’’


प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


परिवर्तन



आज कैलाश की पहली वर्षगाँठ थी। बिन्दु ने सारी तैयारी कर ली थी। सुबह से वह तीन बार स्टेशन हो आई थी। हर ट्रेन जैसे एक आकांक्षा को रौंदती हुई आती और चली जाती। भाभी शिकोहाबाद से नहीं आई थीं केवल एक ही ट्रेन बची थी। बिन्दु जाना चाहती थी, मैंने उसे रोक दिया था। क्या करता उस ठंडक और बारिश में कैलाश को लेकर। स्टेशन पर देखते ही भाभी बरस पड़तीं। बिन्दु को डाँट-फटकार पड़ती। मुझे भी खरी-खोटी सुननी पड़ती। बिन्दु को लेकर बिन्दु का जैसे कहीं मन ही न लगता था। वह बार-बार दरवाजे पर आती, झाँककर चली जाती और जब इस चौथी ट्रेन का भी समय बीत गया तब वह एकदम घबराई-सी मेरे पास आई। बोली – ‘‘भाभी नहीं आईं।’’ मैंने किताब बन्द करके उसकी ओर देखा। उसके दोनों नेत्र आँसू से भरे थे। वह  आवश्यकता से अधिक अद्विग्न थी। सांत्वना देने के लिए मैंने कहा – ‘‘नहीं आईं तो क्या हुआ। चलो, हम जन्मदिन मना लेंगे और तभी बिन्दु ने कहा – ‘‘लेकिन रामायण कौन पढ़ेगा...भाभी जैसी रामायण की चौपाइयों की लोरी मुझे तो आती नहीं...।’’

बिन्दु का गला भर आया था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि भाभी क्यों नहीं आईं। न आतीं, लेकिन सूचना भी क्यों नहीं भेजी। मैं इसी उलझन में था। बिन्दु का चौका बिखरा पड़ा था। कैलाश के नए कपड़े, मिठाइयाँ, खिलौने, नया पैरेम्बूलेटा जिसे बिन्दु ने भाभी के दाम से खरीदे थे, सब बरामदे में मौन, निरीह, स्पन्दनहीन से पड़े थे, जैसे किसी अनागत की प्रतीक्षा में हर्षातिरेक में आत्मविभोर होकर सन्न पड़े हों....
और तभी एक बार बिन्दु ने फिर कहा – ‘‘रामायण कौन पढ़ेगा....भाभी जैसी रामायण की चौपाइयों की लोरी मुझे तो नहीं आती।’’
मेरे सामने एक चित्र नाच गया। लगा, जैसे भाभी आ गई हैं। बरामदे में खड़ी हैं। कैलाश को उन्होंने गोद में उठा लिया है। जैसे वह वहीं से कह रही हैं-

‘‘सुनते हो देवर...। यह बिन्दु रानी केवल पहाड़ पर चढ़ना जानती है...कैलाश का मूल्य नहीं समझती...।’’
और उनकी बड़ी-बड़ी सौम्य आँखें, माथे पर लाल चमकता सिन्दूर का टीका...हाथों में खनखनाती भरी-भरी चूड़ियाँ, गले में लटकता हार और खिचड़ी हुए बालों के बीच पीले सिन्दूर से भरी-भरी माँग। एक व्यंग्य मिश्रित मुद्रा में जैसे वह फिर कुछ कहने वाली हैं....जैसे वह कह रही हैं – ‘‘तुम दोनों दीवाने हो। ओ बिन्दु, अब का धरा है देवर में, जो बच्चों को छोड़ उन्हीं से चिपकी है...देख तो, कैलाश अकेला है....।’’
और यह सोचते-सोचते स्वयं मेरी आँखें भर आईं। लगा भाभी के प्रति मेरा मौन स्नेह जिसे मैंने कभी जाना-पहचाना नहीं था, एकदम सलिलमय होकर फूट पड़ा है। कमरे में लगी उनकी भव्य तस्वीर जैसे उनके न आने पर भी आशार्वाद दे रही है। बिन्दु अब भी सिसकियाँ ले रही थी।

सहसा कैलाश रो पड़ा तो मेरा और बिन्दु का ध्यान टूटा। मैं दौड़ा-दौड़ा बाहर आया। बिन्दु भी बरामदे में आई, सारा बरामदा मौन था। लगता था जाने क्या हो गया है घर की...
रात काफी हो गई थी। बिन्दु ने पूजा की मोमबत्तियाँ जलाईं। भाभी के पैसों के खरीदे कपड़े कैलाश हो पहनाकर पैरेम्बूलेटा में लिटा दिया। कैलाश खेल रहा था। उसकी हँसी, दूध भरा मुँह, काजल से ओत-प्रोत आँखें अजीब लग रही थीं। बिन्दु रामायण का पाठ कर रही थी। वह भाभी की प्रिय चौपाई...‘‘रहा एक दिन अवधि अधारा’’ मुझे अजीब-सी लग रही थी। मैं नहीं जानता था कि बिन्दु में कहीं किसी कोने में इतने सारे संस्कार भी पड़े हैं। बिन्दु ने जैसे भाभी का स्वर भी पा लिया था...वही करुण स्वर, वही दूधिया आँचल का स्वर, वही माँ का स्वर, माँ का केवल माँ का स्वर....।

लेकिन यह सब कैसे हो गया बिन्दु। नास्तिक बिन्दु, दकियानूसी का विरोध करने वाली बिन्दु....स्त्री जाति के उद्धार के लिए वर्षों इधर-उधर भटकने वाली बिन्दु, मोटर ड्राइविंग से लेकर आधुनिकता की दौड़ में पुरुषों के प्रति स्पर्द्धा रखने वाली बिन्दु....आधुनिकतम विचारों वाली बिन्दु....मैं जैसे कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.....जैसे मैं एक स्वप्न देख रहा था....जैसे एक सत्य बन रहा था....एक असत्य मिट रहा था...धूमिल पड़ रहा था।

मेरे सामने चित्र आ रहे थे....लगता था....भाभी ने दादा को जो वचन दिया था, उसे वह पूरी तरह से निभाकर यहाँ से गई थीं। विवाह के बाद उन्होंने धीरे-धीरे बिन्दु को वह सब रास्ता बतला दिया था जो उनका था....उनके संस्कारों का था। लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता था कि बिन्दु ने भाभी जैसी अर्द्धशिक्षिता की बात मानी क्यों।
भाभी ने बिन्दु के नारी सुलभ व्यक्तित्व को कौन-सा अंश छू दिया था कि वह बिलकुल बदल गई। कभी-कभी बिन्दु का यह परिवर्तन भी मुझे अच्छा नहीं लगता था। मुझे उसका वह विद्रोहिणी का रूप ही अधिक प्रिय प्रतीत होता था....उसके बेलौस बालों में  उड़ती हुई चिनगारियाँ, उसका प्रतिरोध, उसका क्षण-प्रतिक्षण की गंभीर मौन, कठोर व्यक्तित्व जिसे मैंने जब-जब छुआ, पसीजा अवश्य, लेकिन वह स्थायी नहीं हो पाया। मुझे वे क्षण याद हैं जब वह एक तीर की तरह थी। एम. ए. तक पढ़ने का स्वाभिमान उसमें था। वेग था....जो हर बात पर तर्क करने को उद्धत रहता था। बिना तर्क किए उसे जैसे मन की शांति नहीं मिलती थी। ऐसे ही किसी दिन वह मुझसे उलझी थी। जाने कहाँ से लड़कर आई थी, पहुँचते ही मुझसे बोली, ‘‘तुम लोग औरतों को फूल-सा, खिलौना-सा क्यों समझते हो।’’ तो मैं कुछ नहीं बोला, लेकिन जब मैंने कहा, ‘‘इसलिए कि तुम औरत हो।’’ तो जैसे वह झुँझला गई। लगा, मैंने उसे गाली दे दी। आवेश में बोली, ‘‘तो क्या।’’

मैंने कहा, ‘‘हर औरत एक फूल की जिन्दगी जीती है। वह हँसती है तो सारा चमन हँस पड़ता है। वह हटती है तो जैसे सारा चमन सूना हो जाता है। वह जब द्रवित होती है तो सुगंध बनकर बिखरती है। वह जब पिघलती है तो करुणा की प्रतिरूप हो जाती है....माँ हो जाती है....सृजनशील हो जाती है। जब स्पर्धा की विह्नल हो जाती है तो काठ हो जाती है, पत्थर हो जाती है, लेकिन रहती फूल ही है। वह चाहे पंखुरियों की बनी हो, चाहे काठ की, चाहे पत्थर की...।’’
बिन्दु को यह बात बड़ी कटु लगी। बोली, ‘‘तुम कवि हो न, इसीलिए तुम औरत को फूल ही समझते रहोगे.... औरत तुम्हारी विवशता है। वह स्वयं में विवशता लेकर नहीं जन्मती....वह आग की चिनगारी है। सिर से पैर तक आग....।’’
मैंने कहा, ‘‘हाँ, लेकिन दावाग्नि नहीं, चूल्हे की आग....आग का फूल बनकर वह तृप्ति की प्रतिरूप होती है....समर्पम की चिह्न होती है, उत्सर्ग की कड़ी बन जाती है और तब उस आग का अर्थ ही बदल जाता है....।’’

बिन्दु मेरी इस बात को पराजय अनुभव कर रही थी। उसके मन में यह धारणा कार्य कर रही थी कि मैं उसकी मैत्री को अनुचित लाभ उठा रहा हूँ। आज जब वह एक प्रतिष्ठित पद पर समस्त देश के सामने एक प्रगतिशील क्रांतिकारी महिला के रूप में पूजी जाती है, तब शायद मुझे यह नहीं कहना चाहिए था। लेकिन मैं बिन्दु को पिछले कई वर्षों से जानता था। मैंने उसके साथ एक नहीं अनेक महत्त्वपूर्ण क्षण बिताए हैं। मैंने देखा है कि मेरी बाँहों में वह तिलमिलाकर, विवश होकर, अपना सिर डाल देती है। आर्द्र नेत्रों से अब भी वह मेरे वक्ष में सिर डालकर कहती है, ‘‘मैं ही जानती हूँ कि मेरी सारी आग तुम्हारे सामने क्यों नहीं तीव्र रूप में व्यस्त होती...क्यों नहीं वह मुझें तुम्हारे सामने ठीक उसी रूप में प्रस्तुत होने देती जिस रूप में औरों के सामने प्रस्तुत होती हूँ।’’

वह आज भी शायद मुझसे कहने आई थी लेकिन मैंने बात ही कुछ इस सिलसिले से कहनी शुरू की थी कि केवल प्रतिक्रिया-रूप में वह यह सब न कहकर केवल मेरे सामने मूर्ति के समान खड़ी रही। लॉन की धूप घास पर बिछती जा रही थी। क्यारियों के फूल संध्या की अरुणिमा में नहा रहे थे और इन सबके बीच यद्यपि बिन्दु बिलकुल पत्थर की मूर्ति-सी खड़ी थी, फिर भी वह पत्थर की मूर्ति नहीं लग रही थी। लगता था, वह एक फूल की मूर्ति....जिसकी पंखुरी बाहर से कठोर होते हुए भी एक आंतरिक स्निग्धता से रससिक्त है। शायद छू लेने से वह बाहर की कठोर कर्कश पंखुरियाँ टूट जाएँ – उनका अस्तित्व पिघल जाए....उनकी शुष्कता एक रसपूर्ण धार बन जाए। मुझे जाने क्यों बिन्दु का यह रूप ही बहुत प्रिय लगता था। मुझे जब कभी इस रूप में वह मिली है, मैंने उसे केवल प्यार किया है, उसके नीरस बेलौस उड़ते बालों को मैंने सँवारा है, उसे अपनी बाँहों में कसकर इतना अमित स्नेह दिया है कि उसकी जलती आँखों ले आँसू निकल आए हैं...लेकिन वह उस समय भी मुझे फूल-सी ही लगी है – उतनी ही कोमल, उतनी रसमय, उतनी ही तरल, उतनी ही छविमय।

तब भी वह उसी मुद्रा में थी। उसके बेलौस बाल उसी प्रकार शुष्क और नीरस रूप में बिखरे थे। गोधूलि की नम वायु से वह उलझकर उसके कपोलों और आँखों पर आ जाते थे। अपने स्वेगट की जेब से हाथ निकालकर वह उन्हें बार-बार समेट लेती...लेकिन वे जैसे सिमटने के लिए प्रस्तुत ही नहीं थे। वे बार-बार बिखर जाते....बार-बार उलझ जाते....बार-बार उसके मुखमंडल के चारों ओर फैलकर उसके रूप और सौंदर्य को मोहक बना देते। मैंने प्रारम्भ में जान-बूझकर उन्हें नहीं छुआ था। मुझे उनका बिखराव भी अच्छा लगता था। बिन्दु का समेटना भी उतना ही अच्छा लगता था। उसकी परेशानी भी अच्छी लगती थी, मुझे लगता था वह फूल है, फूल....केवल काठ का फूल जिनमें गंध भले ही न हो, पर जो प्रत्येक स्पर्श से अपना पराग बिखेर सकता है....स्पर्श....जो उसकी विवशता को एक अर्थ दे देता है....जो उसकी शुष्कता को करुणा में बदल देता है....

और जब उस दिन भी मैं उसके बिलकुल समीप जाकर खड़ा हो गया, उसके उड़ते हुए बालों को छूने लगा, उसे एक बार अपनी बाँहों से भर लिया....उसके कपोलों के चारों ओर उमड़ते बादलों से लहकते केशों को अपनी हथेली में समेटकर उसका सारा मुखमंडल अपनी अंजलि में बंद कर दिया, तो उसकी पलकें अपने आप झुक गईं। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसने रोम-रोम से स्पंदन मचलने लगा। काठ-सी चेतनाहीन होते हुए भी वह सदा की भाँति मेरी गोद में सिर डालकर खड़ी हो गई....और जब आँखें खोलीं तो वह और कुछ नहीं थी...केवल एक स्त्री थी, एक नारी थी, एक औरत थी केवल औरत। मैंने उसका नाम लेकर कई बार पुकारा। उसे एकदम निकट से देखना चाहा, लेकिन मुझे स्पष्ट लगा कि वह न तो आग है न चिनगारी, न तो काठ है न पत्थर। वह एक चेतन पिंड है, जिसकी उष्णता में पत्थर को पिघला देने की क्षमता है। मैंने कहा, ‘‘बिन्दु’’, उसने केवल आँखें खोलकर मेरी ओर देखा।

उसका सारा शरीर जैसे मेरे ही हाथ में व्याप्त रस भोग लेना चाहता था। मैंने उसे अपने से अलग कर दिया। उसके बाल सँवार दिए...उसके स्वेटर के खुले बटनों को बंद कर दिया और दाएँ बाँह से सँभाले हुए ऊपर अपने ड्रेसिंग रूम में ले-जाकर बैठा दिया। ट्यूब की रोशनी जलाने के बाद मैंने उसे फिर देखा, तो लगा जैसे वह बड़ी ही सरल मोम की प्रतिमा है जो शायद छू लेने से गल जाएगी, अधिक तेज रोशनी में पिघल जाएगी...जैसे उसका सारा विद्रोह, उसकी सारी प्रतिक्रिया शांत हो चुकी थी....ठंडी हो चुकी थी। वह बिलकुल निस्पृह-सी कमरे में बैठी रही... फिर सहसा उठकर टहलने लगी.... कमरे में चित्रों को ठीक करने लगी.... मेरी बिखरी किताबों-कागजों को व्यवस्थित करने लगी.... लेकिन यह सब करते हुए भी वह मेरी ओर नहीं देखती.... मुझसे नहीं बोलती.... जाने क्यों उसे एक संकोच होता.... एक शील का झीना आवरण उसे घेर लेता।



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