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जीवनी/आत्मकथा >> नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार

नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार

राजबहादुर सिंह

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :312
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5585
आईएसबीएन :9788170282150

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नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकारों का परिचय, उनकी विशिष्ट शैली, उनकी मान्यताएँ, उनकी विचारधारा और उनकी कृतियों पर प्रकाश डाला गया है

Nobel puraskar vijeta sahityakar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नोबल पुरस्कार संसार का सर्वश्रेष्ठ और सबसे मूल्यवान पुरस्कार है। प्रतिवर्ष विज्ञान, चिकित्सा अर्थशास्त्र भौतिकी आदि विभिन्न क्षेत्रों के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी एक विशिष्ट साहित्यकार को सम्मानित किया जाता है।
सन् 1901 से लेकर, जब नोबल पुरस्कार की शुरुआत हुई थी 2002 तक, विश्व के 99 साहित्यकारों को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
इस पुस्तक में आप इन दिग्गज साहित्यकारों के जीवन और कृतित्व का परिचय पाएंगे। उनकी रचनाओं, मान्यताओं और विचारों और शैली की चर्चा भी यथास्थान की गई है। एक तरह से यह ग्रन्थ विश्व-साहित्य के उच्च-कोटि के साहित्यकारों का विश्वकोश है।

 

नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार

 

 

इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में आज तक के जिन साहित्यकारों को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुए हैं उनके साहित्य, उनकी शैलियों, उनके विचारों का तो परिचय मिलता ही है, साथ ही उनके जीवन का रोचक परिचय भी इस ग्रंथ में है। अनेक साहित्यकारों ने अपनी साहित्य साधना के लिए मज़दूरी की, घोड़ागाड़ी हांकी, विभिन्न देशों के तानाशाहों से लोहा लिया, उनके कोप भाजन बने और अन्ततः देश छोड़ने को बाध्य होना पड़ा।
विश्व के सुप्रिसद्ध साहित्यकारों के जीवन, उनकी कृतियों, मान्यताओं और विचारों का परिचय देने वाला हिन्दी में यह अपनी तरह का पहला ग्रंथ है’।

 

दो शब्द

 

इस पुस्तक के पिछले संस्करण में 1962 तक के नोबेल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकारों का परिचय था, तब से 1995 तक विभिन्न देशों के पैंतीस और साहित्यकारों को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। एक ही स्थान पर इन सभी दिग्गज साहित्यकारों का परिचय आप इस पुस्तक में पाएँगे।

इस पुस्तक की विशेषता यह भी है कि इसमें सभी सम्मानित साहित्यकारों का केवल परिचय ही नहीं, उनकी विशिष्ट विचारधाराओं, उनकी शैली, उनकी मान्यताओं के साथ उनकी कृतियों पर भी प्रकाश डाला गया है। इनमें से अनेक साहित्यकारों को बड़ी ही विषम परिस्थितियों में से गुजरना पड़ा-उन्होंने तानाशाहों के जुल्म सहे, देश-निकाला सहन किया, श्रमशिविरों में सज़ाएँ भुगतीं, विश्व युद्धों की विभीषिका देखी ही नहीं, वरन् शस्त्र उठा उनमें भाग भी लिया, फाके सहे, मज़दूरियाँ करके अपनी साहित्य साधना जारी रखी कोचवान बनकर घोड़ा गाड़ियाँ हाँकीं और न जाने क्या-क्या नहीं किया। ऐसे ही लोगों की साधना अन्ततः फल लाती है।

पुस्तक के प्रारंभ में नोबेल पुरस्कार के संस्थापक एल्फ्रेड नोबेले की संक्षिप्त जीवनी एवं इन पुरस्कारों की चयन प्रक्रिया पर भी रोचक सामग्री दी गई है।
यह पुस्तक एक प्रकार से 1901 से लेकर आज तक की अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक गतिविधियों, विचारधाराओं, मान्यताओं और आकांक्षाओं की परिचायक भी है।

 


-संपादक

 

एल्फ्रेड नोबेल और नोबेल पुरस्कार

 

 

भारत के साहित्यकारों में-विशेषकर हिन्दी के साहित्यकारों में-अभी तक नोबेल महोदय और उनके पुरस्कार के संबंध में बहुत थोड़ा ज्ञान है। वास्तव में कवि सम्राट श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर और विज्ञान विशारद चन्द्रशेखर व्यंकट रामन् को नोबेल पुरस्कार मिलने के पूर्व बहुत थोड़े भारतीयों को इस बात का ज्ञान था कि नोबेल महाशय कौन थे और उपर्युक्त पुरस्कार कहाँ से और क्यों दिया जाता है। इधर इन दो भारतीयों को यह पुरस्कार मिलने के कारण हमारे देश में उसकी काफी चर्चा हुई और समय-समय पर हिन्दी की पत्र पत्रिकाओं में इनके संबंध में थोड़ा बहुत उल्लेख होता रहा।

 हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ने तो एक प्रकार से नोबेल पुरस्कार का अनुकरण भी कर डाला और स्वर्गीय श्री मंगलाप्रसादजी के नाम पर प्रतिवर्ष पारितोषिक देने का प्रबन्ध कर लिया। किन्तु अभी तक हिन्दी के पाठक-पाठिकाओं को जगत्प्रसद्धि नोबेल महोदय के सम्बन्ध में बहुत अल्प-लगभग नहीं के बराबर-ज्ञान है।
पुरस्कार विजेताओं और उनकी रचनाओं का परिचय देने के पूर्व हम यहाँ नोबेल महोदय और उनके नाम पर प्रचलित पुरस्कार के सम्बन्ध में कुछ विस्तृत रूप से बतला देना चाहते हैं।

 

वंश-परिचय

 

 

नोबेल महोदय का पूरा नाम एल्फ्रेड बर्नार्ड नोबेल था। इनके पूर्वजों का पारिवारिक नाम ‘नोबिलियस’ था। इनके पितामह इमानुएल फ़ौजी डॉक्टर थे और वे अपने पारिवारिक नाम को बदलकर नोबेल लिखने लगे थे। एल्फ्रेड नाबेल के पिता युवावस्था में स्टॉकहोम में विज्ञान के शिक्षक थे। उनकी अभिरुचि आविष्कार करने की ओर विशेष थी, इसलिए उन्होंने विस्फोट पदार्थों के सम्बन्ध में प्रयोग करने आरम्भ कर दिए और संयोगवश चीर-फाड़ में काम आनेवाले यंत्रों तथा रबड़ के ऐसे गद्दों के निर्माण करने के लिए नक्शे बनाने में सफल हुए जो आहतों और रोगियों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकते थे। जहाजों की निर्माण कला में भी काफी दिलचस्पी लेते थे और इस सम्बन्ध में उन्होंने अपना कुछ समय मिस्त्र में व्यतीत किया था। प्रयोग के समय विस्फोटक पदार्थों द्वारा उन्हें बड़ी हानि पहुँची थी।

इस प्रकार का पहला विस्फोट 1837 ई. में स्टॉकहोम में हुआ था, जिसके बाद वे अपने मित्रों के परामर्श से रूस चले गए। रूस में उन्हें सामुद्रिक खानों के प्रयोग करने की नौकरी मिल गई। क्रीमिया के युद्ध के बाद तक वे सपरिवार वहीं रहे और जल सेना के लिए युद्धोपयोगी रासायनिक आविष्कार करते रहे। जब वे सपरिवार स्वीडन लौटने लगे, तो उनका बड़ा लड़का लुडविग रूस में ही रह गया। लुडविग रूस में प्रख्यात इंजीनियर बन गया और उसने बाकू में तेल की कई खानों का पता लगाया। दूसरी बार स्वीडन के एक कारखाने में 1864 ई. में फिर एक भयंकर विस्फोट हुआ, जिसमें उनके छोटे लड़के की मृत्यु हो गई और उनके पिता को ऐसी चोट आई, जिससे वे अपने शेष जीवन भर रोगी बने रहे।

 

जन्म और शिक्षा

 

 

एल्फ्रेड बर्नार्ड नोबेल का जन्म 1833 ईं. में स्टॉकहोम में हुआ था वह अपने भाइयों की अपेक्षा कम हृष्ट-पुष्ट थे; उनमें स्नायविक दुर्बलता थी और वे कोमल प्रकृति के थे। वे जीवन-भर सिर-दर्द से रुग्ण रहे। उनकी माता कैरोलाइन हेनरीट आलसिल उन्हें बड़ा प्रेम करती थीं और बचपन से ही वे उन्हें वीर और बुद्धिमान मनुष्यों की कहानियाँ सुनाया करती थीं। बुद्धिमती माता को मानो पहले ही इस बात का पता लग गया था कि अस्वस्थ प्रकृति का होते हुए भी उनका पुत्र किसी दिन एक महान पुरुष बनेगा। अल्फ्रेड ने विवाह नहीं किया, यद्यपि उनका एक लड़की से प्रेम हो गया था, जो अपनी तरुणावस्था में ही इस संसार से चल बसी थी। वे अन्त तक अपनी माता के भक्त बने रहे। वयः प्राप्त होकर जब वे विदेशों में रहने लगे, तो प्रायः अपनी माँ को बड़े ही प्रेमपूर्ण पत्र लिखा करते थे और कभी-कभी स्वीडन जाकर उनके दर्शन कर आया करते थे।

अपने पिता की तरह अल्फ्रेड ने भी रसायन, प्रकृति विज्ञान, और यांत्रिक शिल्प का अध्ययन करने में काफी दिलचस्पी ली। लगभग सत्रह वर्ष की ही अवस्था में उनका ध्यान जहाज के निर्माण की ओर गया ओर वे उसके यंत्रों आदि का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजे गए। एल्फ्रेड के पिता ने उन्हें इरिक्सन नामक अपने एक स्वदेशवासी के पास भेजा, जो उन दिनों सूर्य की गर्मी से इंजन चलाने के सम्बन्ध में कुछ प्रयोग कर रहे थे। एल्फ्रेड ने लगभग एक वर्ष वहाँ रहकर इरिक्सन को उनके आविष्कार में सहायता दी। इरिक्सन के भाग्य में उन दिनों परिवर्तन आरम्भ हो गया था। 1849 ई. में उनके पास 132 डालर की सम्पत्ति शेष थी, और उस साल उन्हें कुल 2,000 डालर की आमदनी  हुई थी।

 किन्तु दो ही वर्ष बाद उनसे पास 8700 डालर के लगभग रकम इकट्ठी हो गई। इस बीच उन्होंने बहुत से नये आविष्कार करके उनके अधिकार बेच दिए थे और स्वीडन सम्राट् से उन्हें इस सफलता के लिए बधाई प्राप्त हुई थी। किन्तु 1853 ई. में जब इरिक्सन की 5 लाख डालर की विपुल सम्पत्ति की लागत से उनका नवाविष्कृत इंजन लगाकर तैयार किया हुआ ‘दि इरिक्सन’ नामक जहाज़ जिसे उन्होंने कितने ही वर्षों के लगातार अध्यावसाय के बाद तैयार किया था, परीक्षा के समय समुद्र में डूब गया, तो इरिक्सन का दिल टूट गया। फिर भी इरक्सिन ने साहस नहीं छोड़ा और द मानीटर नामक एक दूसरा जहाज बनाने का नक्शा अमेरिका की सरकार को उन्होंने दिया, जिसके निर्माण के फलस्वरूप सरकार को बड़ी सफलता मिली।

एल्फ्रेड नोबेल के दुर्बल स्वभाव पर श्री इरिक्सन के इस भारी उत्थान और पतन का गहरा प्रभाव अवश्य होगा। कदाचित् उसी समय नवयुवक नोबेल ने यह विचार किया होगा कि वैज्ञानिकों की सहायता के लिए कुछ ऐसा धनकोश होना चाहिए, जिससे परीक्षण के समय असफल हो जाने पर, उन्हें कुछ आर्थिक सहायता मिल सके। जब वे स्वीडन और रूस से लौटे, तो विस्फोटक पदार्थों की निर्माण क्रिया में अपने पिता और भाइयों का हाथ बटाने लगे। एल्फ्रेड नोबेल अब इसी खोज में लग गए कि किसी ऐसे पदार्थ का निर्माण होना चाहिए, जो अधिक शक्तिशाली होते हुए भी कम खतरनाक हो। सन् 1857 ई. में उन्होंने पीटर्सबर्ग में वाष्प-मापक-यंत्र बनाया और उसके निर्माणाधिकार की रजिस्ट्री अपने नाम से करा ली। कई लेखकों का कथन है कि डाइनामाइट नामक प्रबल स्फोटनशील द्रव्य का आविष्कार उन्होंने अन्य परीक्षणों के समय सन् 1865-66 ई. में संयोगवश कर लिया था। इस आविष्कार के पश्चात् अतुल धन कमाने की आशा से उन्होंने कई देशों में इसके निर्माण के लिए कारखाने खोलने के लिए जहाँ सरकारों से प्रार्थना की और फ्रांस के बैकों से यह कहकर ऋण माँगा कि उन्होंने एक ऐसा पदार्थ तैयार किया है, जिससे संसार को उड़ा दिया जा सकता है; किन्तु बैंकवालों ने रकम देने से इन्कार कर दिया।

 

सफलता और अन्त

 

 

अन्ततः नैपोलियन तृतीय ने नोबेल के इस आविष्कार में दिलचस्पी ली और फ्रांस में कारखाना खोलने के लिए नोबेल को कुछ रकम दे दी। डाइनामाइट के कुछ नमूने थैले में बन्द कर एल्फ्रेड नोबेल उसके व्यापार के सम्बन्ध में अमेरिका गए। न्यूयार्क के होटलों ने डरते-डरते उन्हें अपने यहाँ ठहराया, क्योंकि उनके विस्फोटक पदार्थों की चर्चा वहाँ पहले ही से हो चुकी थी। न्ययार्क से वे कैलीफोर्निया गए, जहाँ उनके बड़े भाई के मित्र डॉक्टर बैण्डमैन रहते थे। उनकी सहायता से नोबेल ने लास एंजिल्स नगर के पास एक कारखाना खोल लिया। कुछ ही वर्षों में इटली, स्पेन, फ्रांस, स्कॉटलैण्ड, इंग्लैण्ड और स्वीडन में नोबेल के कारखाने खुल गए। जिस समय एल्फ्रेड नोबेल की अवस्था चालीस वर्ष की हुई, उस समय ‘जायण्ट पाउडर’ नामक पदार्थ के निर्माण से उन्हें बड़ा आर्थिक लाभ हुआ। कई वर्ष पेरिस में रहकर उन्होंने सरेश, बैलेस्टाइट और अनेक प्रकार के धूम्रहीन पाउडरों के आविष्कार के लिए रसायनशालाएँ खोलीं। इसके पश्चात् ‘सैन रीमो’ में रहकर उन्होंने पेट्रोल और कृत्रिम गटापारचा के निर्माणाधिकार की रजिस्ट्री कराई। वैज्ञानिकों और शिक्षितों ने उनका बड़ा आदर किया; किन्तु अर्द्धशिक्षित और अज्ञानी लोग उन्हें भय की दृष्टि से देखते थे।

यद्यपि नोबेल महोदय का कार्य उच्चाभिलाषापूर्ण था और उन्हें सफलता धन और प्रतिष्ठा खूब प्राप्त हुई, फिर भी उन्होंने विवाह नहीं किया। उनका स्वास्थ्य ऐसा खराब रहता था कि वे प्रायः सिरदर्द से दबे-से रहते थे। फिर भी वे सिर पर पट्टी बाँधे रसायनशाला में डटे रहते थे। उन्हें इस बात का भय था कि लोग उनकी और उनके विपुल धन के कारण आकर्षित हो रहे हैं। बैरोनेस बर्था वॉन सटनर नामक एक महिला ने, जो कुछ समय इनकी सेक्रेटरी रह चुकी थीं, उनके संस्मरण में लिखा है-‘‘वे कद में कुछ छोटे थे; उनके रूप में कोई विशेषता नहीं थी। वे बहुभाषाविद् और दार्शनिकतापूर्ण स्वभाव के थे। बातचीत में पटु और कहानी कहने में अद्धितीय थे। वे उच्छृंखल और झूठे लोगों के तीव्र आलोचक थे, और वैज्ञानिकों तथा साहित्यकों से मिलकर प्रसन्न होते थे।’’

बैरोनेस वॉन सटनर के संस्मरणों से इस बात का पता लगता है कि नोबेल महोदय का उद्देश्य पुरस्कार और विशेष करके शान्ति सम्बन्धी पुरस्कार निश्चित करने में क्या था। यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि ‘शान्ति-सम्बन्धी’ पहला पुरस्कार बैरोनेस वॉन सटनर को उनकी प्रख्यात कहानी ‘हथियार फेंक दो !’ के लिए मिला था। इस कहानी में उक्त महिला ने संसार में शान्ति स्थापना करने की आवश्यकता का प्रबल समर्थन किया था। इसके प्रकाशन के बाद 1890 ई. में नोबेल महोदय ने इसकी बड़ी प्रशंसा की। एक अवसर पर उन्होंने कहा था कि यदि मैं कोई ऐसा यंत्र बना सकता, जिसके द्वारा युद्ध रोकना सम्भव होता, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती। 7 जनवरी, 1893 ई. को, अपनी मृत्यु के तीन वर्ष पूर्व उन्होंने उपर्युक्त बैरोनेस को पेरिस से लिखा था कि मैं अपने धन का एक भाग प्रति पाँचवें वर्ष शान्ति स्थापना के लिए पुरस्कार के रूप में देना चाहता हूँ और इसे तीस वर्ष तक अर्थात् छः किस्तों में देना उचित होगा, क्योंकि यदि तीस वर्ष तक सब राष्ट्रों ने वर्तमान अवस्था को सुधार कर युद्ध बन्द करने का प्रबन्ध न किया, तो फिर वे असभ्य और जंगलियों के रूप में परिवर्तित हो जाएँगे। नोबेल महोदय धन एकत्रित करके उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ जाने के विरोधी थे।

10 दिसंबवर 1896 ई. को अकस्मात् सैन रीमो के कारखाने में एल्फ्रेड नोबेल का देहांत हो गया। उन्होंने बहुत पहले से ही दुर्बलता का अनुभव करके डॉक्टरों से अनिच्छापूर्वक परामर्श लिया था और बड़ी हिचकिचाहट के साथ उनके आदेशों का पालन करते थे। इस अवस्था में भी वे दिन-भर रसायनशाला में काम करते थे। अपने अन्तिम दिनों में ही उन्होंने अपने धन के उपयोग पर विचार किया था और अन्ततः यह निश्चित किया था कि वे अपना धन विज्ञान, साहित्य और मनुष्य जाति के कल्याणर्थ सार्वभौम शान्ति की शिक्षा के लिए व्यय करेंगे। उनके मौलिक और आदर्श दान के वसीयतनामे से सारा सभ्य संसार चकित हो उठा। जिस व्यक्ति ने इतनी सफलतापूर्वक संसार के विनाशकारी पदार्थों का आविष्कार किया था, उसने अपना विशाल धन समस्त संसार के मंगल के लिए रचनात्मक साहित्य की सृष्टि में लगा दिया।

 

नोबेल पुरस्कार का विवरण

 

यहाँ नोबेल महोदय के वसीयतनामे का सारांश दिया जाता है, जिससे पाठक समझ सकें कि पुरस्कार की शर्ते क्या-क्या हैं :
‘‘मैं डॉ. एल्फ्रेड बर्नार्ड नोबेल, अपनी चल भू-सम्पत्ति के सम्बन्ध में, जिसका नक्शा 27 नवम्बर, 1885 ई. को बनाया गया था, आदेश देता हूँ कि वह रुपये के रूप में परिवर्तित करके सुरक्षित रूप में जमा करवा दी जाए। इस प्रकार जो धन जमा होगा, उसके ब्याज से प्रति वर्ष उन व्यक्तियों को पुरस्कार दिए जाएँ, जो उस वर्ष में मानव-जाति के हित के लिए सर्वोत्कृष्ट पुस्तकें लिखें। ब्याज की रकम पाँच बराबर भागों में बँटेगी, जिसका विभाजन निम्नलिखित ढंग से होगा-इस धन का एक भाग उस व्यक्ति को मिलेगा, जिसने प्रकृति-विज्ञान या पदार्थ विद्या के सम्बन्ध में किसी नई बात का आविष्कार किया होगा; एक भाग उसको मिलेगा, जिसने रसायन में किसी नये तत्व का उद्घाटन किया होगा; एक भाग उस व्यक्ति को दिया जाएगा, जिसने प्राणि-शास्त्र या औषध-विज्ञान में किसी नई बात का अविष्कार किया होगा और एक भाग उस व्यक्ति को प्रदान किया जाएगा, जो साहित्यिक-जगत् में आदर्शपूर्ण सर्वोत्तम नूतन ज्ञान की सृष्टि करेगा; तथा अन्तिम एक भाग उस व्यक्ति को समर्पित किया जाएगा, जो संसार के सब राष्ट्रों में बन्धु-भाव और शान्ति स्थापित करने और युद्ध रोकने का सत्प्रयत्न करेगा।’

आगे चलकर उन्होंने लिखा है : ‘‘पदार्थ-विद्या और रसायन के पुरस्कार प्रदान करने का अधिकार स्टॉकहोम-स्थित स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइन्स’ को होगा; प्राणि-शास्त्र और औषध-विज्ञान सम्बन्धी पुरस्कार स्टॉकहोम का ‘कैरोलिन मैडिकल इन्स्टीट्यूट’ प्रदान किया करेगा, साहित्य सम्बन्धी पुरस्कार देने का अधिकार स्टॉकहोम की एकेडमी (स्वेन्स्का एकेडमी) को होगा और सार्वभौम शान्ति सम्बन्धी पुरस्कार का निर्णय पाँच व्यक्तियों की एक समिति करेगी, जिनका निर्वाचन ‘नार्वेजियन स्टॉरदिंग’ के द्वारा होगा। मेरी यह विशेष इच्छा है कि पुरस्कार देने में किसी भी उम्मीदवार के देश, जाति या धर्म का विचार न किया जाए।’’

इस प्रकार नोबेले महोदय की जमा की हुई सम्पत्ति 20 लाख पौण्ड से अधिक थी, जिसमें प्रत्येक पुरस्कार में प्रतिवर्ष 8000 पौण्ड दिए जाते हैं।
साहित्य-सम्बन्धी पुरस्कार में दो शर्तें और रखी गई थीं, जिनमें से पहली यह थी कि यदि साहित्य की दो पुस्तकें पुरस्कार-योग्य सिद्ध हों, तो उपर्युक्त पुरस्कार की रकम दोनों में बराबर विभाजित की जा सकती है।’’ इसके अनुसार 1904 ई. का पुरस्कार स्पेनी नाटककार जोज़ एकेगारे और प्रावेन्स के कवि फ्रेडरिक मिस्त्राल में बराबर-बराबर बाँट लिया गया था। इसी प्रकार 1917 ई. में यह पुरस्कार डेनमार्क के दो लेखकों में समान रूप से विभाजित कर दिया गया था। दूसरी शर्त यह थी कि यदि किसी वर्ष ऐसा परीक्षाधीन साहित्य उच्चतम कोटि का न सिद्ध हो सके, तो उस वर्ष पुरस्कार किसी को नहीं दिया जाएगा और वह रकम मूलधन में जोड़ दी जाएगी।’’ उसके अनुसार 1914 और 1918 ई. में कोई साहित्यिक पुरस्कार नहीं दिया गया।

पुरस्कारों का निर्णय न्यायपूर्वक हो, इसके लिए वसीयतनामे में यह नियम भी लिखा गया था कि इस कार्य के लिए नोबेल कमेटी नाम एक संस्था स्थापित होगी, जिसमें तीन से पाँच तक ऐसे सदस्य होंगे, जो पुरस्कार का निर्णय करेंगे। इस कमेटी समिति का सदस्य बनने के लिए यह आवश्यक नहीं होगा कि वह व्यक्ति स्वीडन का ही नागरिक हो।
पुरस्कार के उम्मीदवार उपर्युक्त समिति से किसी प्रकार लिखा-पढ़ी कर सकते हैं, इसके सम्बन्ध में पुरस्कार-सम्बन्धी नियमावली के सातवें नियम में लिखा है कि वसीयतनामे की शर्त के अनुसार पुरस्कार के लिए उम्मीदवार का नाम किसी सुयोग्य व्यक्ति द्वारा प्रस्तावित होगा। पुरस्कार के लिए सीधे भेजे हुए प्रार्थनापत्र पर विचार नहीं किया जाएगा। ‘सुयोग्य व्यक्ति’ का मतलब यहाँ ऐसे मनुष्य से है, जो विज्ञान साहित्य आदि के क्षेत्र में प्रतिनिधित्व करता हो, चाहे वह स्वीडन का निवासी हो, या अन्य देश का। पुरस्कार सम्बन्धी नियमों को सर्वसाधारण में प्रचारित करने के लिए यह आवश्यक है कि प्रति पाँचवें वर्ष उन्हें सभ्य संसार के प्रभावशाली पत्रों में प्रकाशित कराया जाए।

पुरस्कार के लिए उम्मीदवारों के नाम प्रति वर्ष पहली फरवरी तक स्टाकहोम पहुँच जाने चाहिए। यद्यपि सफल उम्मीदवारों के नाम समाचारपत्रों द्वारा प्रति वर्ष नवम्बर महीने में प्रकाशित हो जाते हैं, किन्तु संस्था की ओर से इनकी सूचना नियमपूर्वक 10 दिसम्बर को प्रकाशित होती है, जो एल्फ्रेड नोबेल की निधन-तिथि है। इसी प्रकार निर्णयकर्ता पुरस्कार-पुरस्कार विजेताओं को पुरस्कार की रकमों के चैक (जिनमें से प्रायः प्रत्येक 8000 पौण्ड को होता है) देते हैं और साथ ही उन्हें सनद और स्वर्ण पदक भी प्रदान करते हैं, जिनपर नोबेल महोदय की खुदी हुई मुखाकृति और कुछ लिखित मजमून होता है। पुरस्कार के नियमों में एक बात यह भी लिखी हुई है कि पुरस्कार-विजेता के लिए, जहाँ तक सम्भव हो, यह आवश्यक होगा कि जिस पुस्तक पर उसे पारितोषिक मिला हो, उसके ‘विषय’ पर पुरस्कार प्राप्त करने के छः मास के अन्दर स्टॉकहोम में व्याख्यान दे और शान्ति-संस्थापना-सम्बन्धी पुरस्कार-विजेता क्रिश्चियना में भाषण दे। पुरस्कार सम्बन्धी उपर्युक्त नियम साहित्यिक परितोषिकों पर लागू नहीं हो सका, क्योंकि साहित्यिक-पुरस्कार विजेताओं में से बहुत थोड़े ऐसे हुए हैं, जो स्वयं उपस्थिति होकर पुरस्कार-प्राप्त कर सके हों। निर्णयकर्ताओं के निर्णय के विरुद्ध किसी प्रकार की आपत्ति की सुनवाई नहीं हो सकती। यदि निर्णयकर्ताओं में कोई मतभेद होगा, तो उसकी सूचना न तो कार्य विवरण में प्रकाशित होगी, न सर्वसाधारण को दी जाएगी।

जिस समिति द्वारा पुरस्कार के धन का प्रबन्ध होता है, उसका नाम है ‘नोबेल फाउंडेशन। इसके पाँच सदस्य होते हैं, जिनमें से एक प्रधान-की नियुक्ति स्वीडन सम्राट् करते हैं और शेष चार सदस्यों का चुनाव समिति से होता है। साहित्य-सम्बन्धी पुरस्कार का निदर्शन ‘स्वीडिश एकेडमी’ करती है, जिसके सदस्य ‘नोबेल इन्स्टीट्यूट’ और उसके पुस्तकालयाध्यक्ष की सहायता से सब प्रबन्ध करते हैं। इस संस्था के पुस्तकालय में पुस्तकों का सुन्दर संग्रह है-खास करके आधुनिक लेखकों की कृतियाँ सब यहाँ मिल जाती हैं। पुस्तकें सभी प्रगतिशील भाषाओं की रखी जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर उनके अनुवादों की प्रतियाँ भी रखी जाती हैं। नव प्रकाशित पुस्तकों के नये से नये विवरण भी यहाँ प्रस्तुत रहते हैं।

 

सुपरिणाम

 

 

चाहे और जो हो, किन्तु यह बात सुनिश्चित है कि अल्फ्रेड नोबेल की पुरस्कार सम्बन्धी दो शर्तों का पालन सुचारु रूप से हुआ है। पहली बात यह हुई है कि सभी क्षेत्रों के पुरस्कार विजेताओं द्वारा मनुष्य जाति की बहुत नहीं, तो कुछ सेवा अवश्य हुई है, और दूसरी बात यह हुई है कि पुरस्कार के उम्मीदवार की जातीयता पर कोई विचार नहीं किया गया।
पहला नोबेल साहित्य पुरस्कार सन् 1901 ई. में दिया गया था। तब से 1995 ई. तक साहित्य सम्बन्धी पारितोषिक संसार के विभिन्न राष्टों के व्यक्ति प्राप्त कर चुके हैं।

 

1
सुली प्रुधम

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Sully Prudhomme: 1901

 

 

साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रुधम को 1901 ई. में मिला। यूरोप में फ्रांस का साहित्य बहुत पहले से अद्वितीय रहा है। शताब्दियों से फ्रांसीसी भाषा यूरोप की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक भाषा मानी जाती है। साहित्य में जो गौरवपूर्ण पद हमारे देश में बंगभाषा को प्राप्त है, वही-बल्कि उसके भी ऊंचा-यूरोप में फ्रांसीसी भाषा को प्राप्त है। यही कारण है कि पहले-पहले नोबेल पुरस्कार जीतने का श्रेय फ्रांसीसी कवि रेनी फ्रांसिस अर्मां को प्राप्त हुआ था।



 

 

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