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जीवनी/आत्मकथा >> देहरि भई विदेस

देहरि भई विदेस

राजेन्द्र यादव

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5574
आईएसबीएन :9788170167020

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इस ग्रंथ में संकलित सभी आत्मकथांश और आत्मकथ्य किसी न किसी स्तर की प्रतिष्ठित और स्थापित और जानी-मानी लेखिकाओं का योगदान है।

Dehri Bhai Vides

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आत्मकथ्यों का यह संदर्भ-ग्रंथ

किताबघर प्रकाशन द्वारा आयोजित ‘आर्य स्मृति साहित्य सम्मान’ की आठवीं कड़ी (सन् 2001) के रूप में हिंदी की श्रेष्ठ आत्मकथा/जीवनी की पांडुलिपि को पुरस्कृत किया जाना निश्चित किया गया था। उपयुक्त पांडुलिपि के अभाव में यह सम्मान लंबित रहा तथा एक और वर्ष (सन् 2002) के लिए इसकी अवधि को बढ़ाया गया। मगर परिणाम में कोई परिवर्तन नहीं आया। इस विद्या की लोकप्रियता तथा प्रासंगिकता को देखते हुए आयोजकों द्वारा यह निर्णय लिया गया कि हिंदी की रचनाकारों के स्वतंत्र आत्मकथांशों को लेकर एक ग्रंथ की ‘रचना’ की जाए जिसमें स्त्री के कुछ अद्यतन और जीवंत चित्र पाठकों के सामने आ सकें। इस ग्रंथ का प्रकाशन, सम्मान के विकल्प के रूप में स्थापित किया गया।

प्रख्यात साहित्यकार, चिंतक और ‘हंस’ के संपादक श्री राजेन्द्र यादव के अतिरिक्त इस संचयन का अधिकारी संपादक कोई अन्य हो सकता है—वैसा विचार दिमाग में कौंधा ही नहीं। अतः इस आयोजन के लिए उन्हीं से अनुरोध किया गया। रचनाकारों के रूप में शामिल आत्मकथाकारों की संख्या भी पंद्रह तक सीमित करने का आग्रह किया गया ताकि इस सम्मान की निर्धारित राशि (पंद्रह हजार रुपए) को सभी रचनाकारों के बीच समान रूप से विभक्त करके दिया जा सके तथा पुस्तक की पृष्ठ-सीमा भी नियंत्रण में रहे। श्री राजेन्द्र यादव ने कृपा करके इस प्रस्ताव को स्वीकर किया तथा प्रख्यात लेखिका सुश्री अर्चना वर्मा तथा युवा समीक्षक बलवंत कौर के गहन सहयोग से इस ग्रंथ को एक दस्तावेजी रूप में तैयार किया जो कि आपके हाथों में है।

हिन्दी शब्द-कर्म से जुड़ा हुआ समाज संभवतः जानता ही है कि किताबघर प्रकाशन के संस्थापक पंडित जगतराम आर्य स्वयं भी लेखन में रुचि लेते थे तथा पुस्तकों के द्वारा वह एक ऐसा संसार रचना चाहते थे जहाँ मनुष्य जाति का निरंतर विकास प्रवाहमान हो। कहना न होगा कि स्त्री के रूप में हमारी आधी आबादी; उदाहरणों से अतिरिक्त, अभी भी निष्क्रिय और निष्प्रभावी रूप में ‘उपस्थित’ है। आत्मकथांशों का यह ग्रंथ यदि किंचित् मात्र भी उक्त स्थिति को गति देता है तो हम इसे एक बेहतर शुरुआत मानना चाहेंगे। शब्दों के माध्यम से यह सम्मान अपेक्षितों तक पहुँचेगा—ऐसा भी हमारा विश्वास है।
अंत में पुस्तक के संपादक श्री राजेन्द्र यादव, सहयोग के लिए सुश्री अर्चना वर्मा एवं बलवंत कौर तथा सभी संकलित रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए यह ग्रंथ हिंदी के विशाल पाठक समाज को सादर समर्पित है।

 

-सत्यव्रत
संयोजक : आर्य स्मृति साहित्य सम्मान
किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली

 

आत्मकथ्यों के चयन का तर्क

बलवंत कौर
इस संकलन में कई आत्मकथांश ऐसे हैं जो ‘आत्मकथा’ के अकादमिक अनुशासन के ढाँचे से तथाकथित रूप से बहिष्कृत हैं। लेकिन इन चयनों का मुख्य आधार वस्तुतः स्त्री-मन की आत्माभिव्यक्ति ही है। चूँकि सामाजिक मर्यादाओं के कैदी स्त्री-मन की अभिव्यक्तियाँ मात्र आधुनिक काल की ही उपज नहीं हैं इसीलिए संकलन के ‘दस्तावेज’ खंड के अंतर्गत मीराँ, एक अज्ञात हिंदू औरत, दुःखिनी बाला से लेकर शिवरानी देवी तथा महादेवी वर्मा की अभिव्यक्तियों को भी प्रस्तुत किया गया है। इस खंड की ज्यादातर रचनाएँ ‘आत्मकथा’ विद्या में नहीं लिखी गईं बल्कि ‘हम’ या ‘वह’ की शैली में रची गई हैं। लेकिन इनमें से दुःखिनी बाला ही एकमात्र ऐसी महिला है जिन्होंने ‘सरला’ में आत्मकथा के रूप को काफी हद तक अपनाया है।

पुस्तक के दूसरे खंड में फिर से सीमाओं को लाँघा गया है। ‘आत्मकथांश’ शीर्षक के अन्तर्गत इस खंड में ऐसे चयन हैं जो उपन्यास या आत्मकथात्मक उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुए तथापि इन लेखिकाओं ने कहीं न कहीं अपनी आपबीती के रूप में स्वीकार किया है। इसी आत्मस्वीकृति के आधार पर यह अंश पुस्तक में शामिल किए गए। मैत्रेयी पुष्पा का ‘उम्र के बसंत में खड़ी लड़की’ तो ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ शीर्षक से लंबे आत्मकथ्य के रूप में पहले भी ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ है जबकि दिनेशनंदिनी डालमिया ने स्पष्टतः लिखा ही है कि ‘अपने सकारात्मक अनुभवों को अभिव्यृक्त करते हुए मैं अपने से जुड़े अन्य व्यक्तियों के निजी जीवन की गोपनीयता का अतिक्रमण कर रही थी, जिसका मुझे अधिकार नहीं था। इसी अनधिकार चेष्टा के एहसास के फलस्वरूप इस आत्मकथा को मैंने उपन्यास के रूप में प्रकाशित करवाया...।’ (ऋचा) इसी प्रकार कौसल्या बैसंत्री का ‘दोहरा अभिशाप’ भी उपन्यास के रूप में छपा, परंतु पुस्तक की भूमिका में ही इसे लेखिका ने ‘आत्मकथा’ स्वीकार किया है।

पुस्तक का तीसरा खंड विधा के अनुशासन के अन्तर्गत आए ‘आत्मकथ्यों’ का है जो इस समग्र प्रस्तुति को विश्वनीयता और पठनीयता सौंपता है।

 

देहरी पर दीपक

राजेन्द्र यादव
एक ऐसा संकलन किया जाना चाहिए जहाँ हिंदी की महिला रचनाकारों के कुछ महत्त्वपूर्ण आत्मकथांश सुलभ हों, ताकि स्त्रीवादी चेतना के अंतर्सूत्र तलाश किए जा सकें—
इस नतीजे पर हम कैसे पहुँचे इसकी कहानी सत्यव्रत जी ने अलग से दी है। हमारे इस संकलन ‘देहरि भई विदेस’ का प्रारंभ मीराँबाई से होता है और समापन जयंती से।

अंग्रेजी में कुछ साल पहले दो खंडों में एक पुस्तक आई थी—‘विमेन राइटिंग इन इंडिया’। संपादन किया था सूज़ी थारू और....ने। संपादकों ने काफी शोध और श्रम से स्त्री-लेखन का पुनर्संधान किया था और इसका विस्तार ईसा पूर्व 600 से लेकर 2000 तक था। बौद्घ मठों में ‘चेरियाँ’ ‘थेरी’ कहलाती थीं। इनकी गाथाएँ मानवीय पीड़ा और आकांक्षाओं के ऐसे दस्तावेज हैं जो आज भी हमें उदास कर जाते हैं। इस संकलन का प्रारंभ भी इन्हीं ‘थेरी-गाथाओं’ से होता है। शायद ऐसे ही निजी गीत ईसाई चर्चों में रहने वाली ननों ने भी लिखे होंगे और निश्चय ही उनके अनेक संकलन भी रहे होंगे (इधर मैंने अनेक लेखक-लेखिकाओं) के ऐसे लेख देखे हैं जहाँ बिना सूजी थारू वाले संकलनों का आभार स्वीकार किए सामग्री का धड़ल्ले से उपयोग कर लिया गया है। अगर ये इनकी अपनी शोध हैं तो ‘विमेन राइटिंग इन इंडिया’ से पहले कहीं कोई जिक्र क्यों नहीं दिखाई देता ? यही दुर्घटना रूथ वनिता के संकलन ‘लव इन दा सेम सेक्स’ के साथ हुई। लगता है, दूसरे रात-दिन पसीना बहाकर हमारे विद्वता-प्रदर्शन के लिए ही सामग्री छोड़ गए गए हैं।)।

स्त्री-मन की अंतरंग अभिव्यक्तियों में जो नाम अनायास ही मेरे मन में उभरता है, वह है ‘बिलिटिस’ नाम की कवयित्री का। पता नहीं बिलिटिस सचमुच थी या पियरे लुई नाम के लेखक का अपना आविष्कार है। माना जाता है, बिलिटिस, सैफ्फो नाम की कवयित्री की समकालीन और मित्र थी। स्वयं सैफ्फो की प्रामाणिकता पर भी काफी बहसें हुई हैं। उसका और सुकरात का काल एक ही बताया जाता है। पियरे लुई ने बिलिटिस के कुछ गीतों का संकलन किया है—‘सोंग्स ऑफ बिलिटिस’। इसमें उसने सैफ्फो को संबोधित करके गहरे प्यार और मनोकामनाओं के गीत लिखे हैं। वह सैफ्फो की प्रेमिका थी। शायद संबंध लैस्बियन थे। कलकत्ता के दिनों में मैंने इसे पढ़ा था और इन गीतों से इतना अभिभूत रहा कि सौ-पचास गीतों को हिंदी में अनूदित कर डाला (पता नहीं वे अब कहीं हैं भी, या खो गए।)
ऐसी ही अंतरंग स्त्री-कथाओं की खोज में ‘देहरि भई विदेस’ अस्तित्व में आई है। जाहिर है, भारतीय संदर्भों में हिंदी की स्थितियाँ ही चुनाव में उत्प्रेरक रही हैं और उन्हीं से लड़ते हुए दुःखिनी बालाओं ने मेरी अपनी गोपन-कथाएँ शब्दबद्ध की हैं।

इनमें सिर्फ एक रचना को लेकर मेरे मन में संशय है—इसे शामिल भी हमने अंतिम क्षणों में, लगभग पुस्तक तैयार हो चुकने पर, किया है—वह है गुमनाम लेखिका एक दुःखिनी बाला’ की आपबीती। इसे शोधार्थिनी प्रज्ञा पाठक ने मैनेजर पांडेय के निर्देशन में खोजा, संपादित किया है। यह ‘कथादेश’ के तीन अंकों (मार्च, 2005 से मई, 2005) में प्रकाशित हुई है। प्रज्ञा पाठक के अनुसार यह ‘आपबीती’ जुलाई, 1915 से जनवरी, 1916 तक ‘स्त्री-दर्पण’ पत्रिका में छपी थी। मगर इसे लेकर दो संदेह हैं : कहीं यह किसी पुरुष लेखक का कमाल तो नहीं है (नाम बदलने का यह सिलसिला जॉर्ज इलियट और जॉर्ज सैंड बनकर अपने असली स्त्री नामों को खा गया।) !
दूसरा संशय इसकी भाषा को लेकर है। इसकी भाषा उस समय की भाषा के मुकाबले इतनी अधिक आधुनिक है कि सहसा विश्वास ही नहीं होता कि तब किसी स्त्री ने इसे लिखा होगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि वहाँ इसमें किसी और की भी कलम लगी हो और उसने इतनी नई भाषा लिख डाली हो....बहरहाल, यहाँ इसे यह मानकर ही शामिल किया गया है कि यह प्रामाणिक है।

अब संकलन आपके हाथों में है। इसे तैयार करने का श्रेय बलवंत कौर को है। जाहिर है, यह कार्य अर्चना वर्मा और राजकुमार गौतम की देख-रेख में ही संपन्न हुआ है।
स्त्री का अपना ‘घर’ नहीं होता। घर बाप का होता है, पति का होता है या बाद में बेटे का होता है—वह वहाँ सिर्फ मेहमान या शरणार्थी होकर रहती है। चूँकि वह आर्थिक या भौतिक रूप से पराश्रित है, इसलिए जानती है कि गैर-जरूरी या असुविधाजनक होने पर किसी भी दिन उसे यह घर या संसार छोड़ना पड़ सकता है। इसके लिए बेहद जरूरी है कि वह दूसरों के इस घर में अधिक से अधिक उपयोगी बनकर रहे। उसकी सारी कोशिश होती है कि इसी पराए घर को अपना मानकर ही अपने जीवन की सार्थकता सिद्ध करती रहे।

दलित जिस मंदिर का एक-एक ईंट रखकर निर्माण करता है, वह मंदिर खुद उसका नहीं होता। विडंबना यहाँ भी यही है कि मूल स्रोत होने के बावजूद, परिवार भी स्त्री का अपना नहीं होता; वह भी बाप या बेटे का ही होता है। हाँ, उसकी मर्यादा और हितों की रक्षा वह जान देकर भी करती है। वह उस परिवार की इज्जत होती है, मगर इस इज्जत की परिभाषा परिवार का केंद्रीय पुरुष तय करता है—जिसके पीछे धर्म, संस्कृति, वंश और रक्त की परंपराएँ होती हैं। वह जन्मदात्री है, मगर वंश पिता के नाम पर चलता है और बेटा ही ‘वंशधर’ कहलाता है। परिवार की बनावट एक सामंती दुर्ग की तर्ज पर की जाती है, जिसे हर, बाहरी’ हमले से बचाकर रखना होता है। अगर दुर्ग का हर सदस्य निष्ठावान, समर्पित और चौकस नहीं होगा तो बाहरी हमले या भीतरी विद्रोह उसे नष्ट कर देंगे। वस्तुतः सामंती समाज इन पारिवारिक दुर्गों की द्वीप-श्रृंखला से बना होता है। इन दुर्गों के नियंत्रण और सुरक्षा की बागडोर भले ही पुरुषों के हाथों में हो, बोझ सारा स्त्री के कंधों पर ही होता है। उसका कर्तव्य है कि दुर्ग के हर सदस्य के स्वास्थ्य, भोजन और क्षमता को बनाए रखने की व्यवस्था में ढील न आने दे; वंश-परंपरा चलाए रहे।

वह अधिकारहीन कर्तव्यों की गौरवशाली प्रतीक है : वह अन्नपूर्णा है। उधार के अधिकारों का वह उसी सीमा तक प्रयोग कर सकती है जितने की अनुमति गढ़-स्वामी उसे सौंपता है—या जो परिवार लिए असुविधाजनक नहीं होते। उसे कही या अनकही सख्त हिदायत होती है कि अपना सारा जीवन और संसाधन वह सिर्फ परिवार के संवर्धन और संरक्षण में लगाए रखेगी। कर्तव्यों में जरा-सी भी ढील उसे न केवल सारे अधिकारों से वंचित कर सकती है, बल्कि उसे फालतू बोझ की तरह ठिकाने भी लगा सकती है। उसके सम्मान की एक मात्र शर्त है—परिवार के प्रति उसकी निष्कंप वफादारी....वह हर साँस में भगवान् से परिवार की कुशल-क्षेम के लिए प्रार्थना करती है, व्रत-उपवास और तपस्या द्वारा अपना होना सिद्ध करती है। उसकी हर पूजा पति-पुत्र के लिए कृतज्ञता-ज्ञापन है। इन्हीं की सेवा में प्राणोत्सर्ग करने वाली स्त्री, देवी की तरह पूजी जाती है क्योंकि संसार के सारे स्वर्ग उसके चरणों में होते हैं। वह हर भारतीय स्त्री का रोल-मॉडल होती है।

सामंती-परिवार में स्त्री का न नाम होता है, न चेहरा। हो सकता है, पिता के घर वह किसी पुरनी देवी या पिता के नाम से पुकारी जाती हो, मगर उसके ‘अपने परिवार’ में उसका नाम ठीक वैसा ही होता है जैसा जेल में कैदी का नंबर। गाँव, घर या परिवार में उसके स्थान के संदर्भ और आसंग ही उसके नाम तय करते हैं। चेहरे की जगह होते हैं—घूँघट, बुर्के या अँधेरी कोठरियों की चलती-फिरती छायाकृतियाँ। उससे उम्मीद की जाती है कि बाहर वालों को न उसका चेहरा दिखाई दे, न आवाज सुनाई दे। उसका कार्य क्षेत्र बिस्तर से रसोई तक ही सीमित है।
नाम की तरह स्त्री की भी कोई जाति नहीं होती। वह पति के जातिवाचक नाम से ही पहचानी जाती है। कल तक कुमारी श्रीवास्तव शादी के बाद श्रीमती शुक्ला या सिंह हो जाती है। आश्चर्य यह भी है कि घर-परिवार हो जाने के बाद वह उसी नई जाति के संस्कार और स्वार्थ आत्मसात् करने लगती है—यहाँ तक कि वह अस्वीकार नहीं करना चाहती कि पहले उसकी जाति कायस्थ थी।

जाति ही नहीं, स्त्री का अपना कोई धर्म भी नहीं होता। धर्म पुरुष का होता है। न जाने कितनी स्त्रियाँ, दंगों में या स्वेच्छा से दूसरे धर्म में गई हैं और वे वहीं की होकर रह गई हैं। मुसलमान परिवार में गई स्त्री दस-बीस साल में खाँटी मुसलमान हो जाती है। गीतांजलिश्री की कहानी ’बेलपत्र’ में पति-पत्नी के बीच अपने-अपने धर्म का आग्रह विवाह टूटने तक आ जाता है। मगर ज्यादातर औरतों को नया धर्म अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होती और मोनिका मिश्रा, हबीब तनवीर के साथ आकर मोनिका तनवीर हो जाती है या इरफाना, शरद जोशी के साथ इरफाना शरद के नाम से जानी जाती है।
कहते हैं, भाषा में ही मनुष्य का अस्तित्व है। भाषा अभिव्यक्ति के स्तर पर आने से पहले व्यक्ति का संस्कार, स्वभाव और प्रकृति बन चुकी होती है। यहाँ विडंबना यह है कि जिस भाषा के साथ स्त्री सबसे अधिक एकाकार होती है और हमेशा ‘चबर-चबर’ करती है, वह भाषा भी उसकी अपनी नहीं होती।

मेरी माँ यवतमाल या अमरावती की थीं और मराठी के सिवा कोई भाषा नहीं बोल पाती थीं, मगर जब आगरा आईं तो दस साल में ही उस भाषा को बिलकुल भूल गईं जिसमें उन्होंने सोलह-सत्रह साल साँस ली थी। भरतपुर के बैर कस्बे में रहने वाली रांगेय राघव की माँ सिर्फ ब्रज भाषा ही बोल पाती थीं—मातृभाषा तमिल वे बिलकुल ही भूल गई थीं। शायद इसीलिए कहते हैं कि बच्चे और स्त्रियाँ जितनी आसानी से दूसरी भाषाओं में सहज हो जाते हैं, पुरुष नहीं हो पाते। मैं दस साल कलकत्ता में रहकर भी बाँग्ला बोलना नहीं सीख पाया। वहाँ जो धड़ल्ले से बाँग्ला बोल लेते थे, वे भी अपनी मूल भाषा को सुरक्षित रखे हुए थे।

इसलिए मुझे लगता है कि अपने निजी मुहावरों के बावजूद स्त्री की अपनी कोई भाषा नहीं होती। वह भी मर्द की ही होती है जो स्त्री की शक्तिसंपन्न होने का स्थायी भ्रम देती है। चूँकि भाषा में शक्ति-सत्ता के सारे मुहावरे और शब्द मर्दवादी होते हैं और जो स्त्री को दी जाने वाली गालियों या अपमानजनक वक्तव्यों तक जाते हैं, स्त्री उन्हें ही अपनी भाषा बना लेती है, वह भी अपने बेटे को डाँटती है—‘क्या औरतों की तरह रो रहा है ?’, ‘तू क्यों डरेगा, तू क्या लड़की है ?’ चूड़ियाँ या साड़ी पहनने देने वाली औरत जब धड़ल्ले से ‘मादरचोद’, ‘बहनचोद’ जैसी गालियों का इस्तेमाल करती है तो उसे सपने में भी ध्यान नहीं होता है कि वह अपना ही अपमान कर रही है। सुनते हैं, पुलिस-ट्रेनिंग में स्त्रियों को भी मर्दानी गालियाँ देने का अभ्यास कराया जाता है ताकि अपराधी को उसकी हैसियत बताई जा सके...मर्दों जैसी भाषा का इस्तेमाल करके स्त्री अपने ‘जनानेपन’ से मुक्त होकर मर्दों जैसी ताकतवर होने का प्रभाव डालती है—विशेषकर दूसरी औरतों पर...सुनते हैं, फूलनदेवी अपने दल के डाकुओं को प्रेरित करती थी कि वे शिकार औरतों के साथ उसके सामने बलात्कार करें। बहरहाल, भाषा के माध्यम से स्त्री अपने आप से टूटकर ‘दूसरी’ बनती है—वह स्त्री-वेश में पुरुष होती है—यानी हिजड़ा...स्त्री विमर्श का सबसे जटिल पहलू यह है कि उसे पुरुष भाषा के वर्चस्व में ही अपनी बात कहनी है, क्योंकि उसकी अपनी कोई भाषा नहीं है। जो है उसे कोई सुनना, समझना नहीं चाहता।

इसलिए वह अपने आप से बातें करती है। दूसरे या तो उसे पागल समझते हैं या उस पर हँसते हैं—सिर्फ अपनी बात कहने वाली स्त्री आगे जाकर या तो चुड़ैल’ कहलाती है या ‘डायन’...
यह आदर्श है भारतीय नारी की संपूर्ण तसवीर...ऋषी उसका गुणगान करते हैं और देवता उस पर फूल बरसाते हैं, ‘कल्याण’ जैसी पत्रिकाएँ विशेषांक निकालती हैं। जाहिर है, अपने पुराण और धार्मिक विश्वास न स्त्री की इस छवि को बदलने देते हैं, न ‘परिवार’ किसी ऐसी स्थिति या विचार के प्रवेश का जोखिम उठा सकते है जो स्त्री-दमन की चली आती मर्यादाओं में विघ्न डालें। चूँकि स्त्री एक फ्लोटिंग इकाई है और उसे एक घर से दूसरे घर जाना होता है, इसलिए नए परिवार के अनुसार अपने को ढालने का उसे अभ्यास हो जाता है। वह हर घर में चैखव की ‘डार्लिंग’ है। वह हर उस पहचानहीन पहाड़ी नौकर की तरह है जिसका नाम ‘बहादुर’ होता है। एक बहादुर गया तो दूसरा आ गया।

इस तरह कह सकते हैं कि स्त्री का न अपना घर है, न परिवार; न नाम है, न पहचान; न उसकी कोई जाति है, न धर्म; न उसकी भाषा है, न भूषा—उसे सब कुछ पुरुष ने ही दिए हैं—अगर वह इस सबको अस्वीकार कर दे तो उसका अपना कहने को कुछ भी नहीं है। मगर यहीं से उसकी शक्ति का अन्वेषण शुरू होता है। वह सच्चे अर्थों में सर्वहारा है, गुलामी के सिवाय उसके पास कुछ भी खोने के लिए नहीं है। वह एक निर्विशेष, निरुपाधि, नंग-निहंग ऐसी इकाई है जिसे शुद्ध ‘मानवी’ कहा जा सकता है, इसीलिए वह ऐसी बहती नदी है जिसके पानी को किसी भी पात्र में डाला जाए, वह अपने पात्र के नाम से ही जानी जाती है। यहीं से वह अपनी निजी यात्रा शुरू कर सकती है, और खंड-खंड में करती भी है, क्योंकि उसकी सारी स्वतंत्रता छीनकर ही तो बदले में यह सब दिया गया है। उसके पास कुछ न हो, मगर देह और मन तो उसके अपने हैं। उन्हीं को लेकर अपने फैसले ही उसे मुक्ति की नई राह दिखाएँगे। यह उसके अपने ऊपर है कि इस दिए गए को कितना छोड़ या अपनाकर वह अपनी रणनीतियाँ बनाती है।

और सचमुच यह यथास्थिति हजारों साल इसी तरह बनी रहती अगर स्त्री के पास बुद्धि और सौंदर्य न होते...सौंदर्य स्त्री के लिए वरदान भी है और अभिशाप भी। सुंदर और स्वतंत्र स्त्री, पुरुष के लिए चुनौती है। लोलुप पुरुष हर कीमत पर उसे पाना ही नहीं चाहता, बल्कि हर संभव तरीके से उसे जीतकर परिवार की गुमनामियत में डाल देता है। स्त्री उसका ‘शिकार’ है। जीती गई स्त्री का सौंदर्य पुरुष की निजी मिल्कियत है, उस पर दूसरों की निगाह किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं की जाएगी। सौंदर्य स्त्री के व्यक्तित्व को स्वतंत्र पहचान देता है और यह स्वतंत्रता पुरुष की हेठी है। परिवार और पर्दे के पीछे भी यह सौंदर्य स्त्री की विशेष या निर्विशेष हैसियत का स्रोत है। हर स्त्री अपने सौंदर्य की शक्ति को पहचानती और कौशल से इसका इस्तेमाल करती है। जो जितने बंधनों में है, वह उतनी ही स्कीमिंग (तिकड़मी) भी है। उसे हर क्षण तलवार की धार पर चलना होता है। चाल जरा भी डगमगाई कि गए...पुरुष की तुलना में स्त्री की आर्थिक और शारीरिक कमजोरी उसे और भी चौकस-चौकन्ना बनाए रखती है। वह अधिक से अधिक कल्पनाशील होती जाती है। बेवकूफ से बेवकूफ व्यक्ति भी शेर से अपने को बचाने की तरकीब जानता है। परिवार की अंदरूनी राजनीति उसे कुशल रणनीतिकार बनने का प्रशिक्षण देती है, जिनका इस्तेमाल वह अवसर मिलने पर बाहरी दुनिया के दाँव-पेचों के लिए भी करती है। न जाने कितनी स्त्रियाँ रही हैं जिन्होंने पर्दे के पीछे से बाहरी दुनिया पर शासन किए हैं। मगर सच है कि स्त्री की बुद्धि की पहचान तभी हुई है जब भौतिक कारणों से वह पुरुष के अंकुश से मुक्त हुई है। परिवार और देश चलाने वाली स्त्रियाँ वे ही रही हैं जिन्हें अपने कार्यों का हिसाब किसी मालिक को नहीं देना होता, या जो अपने फैसले खुद ले पाई हैं।

स्त्री-देह का कोई एक मालिक या संरक्षक नहीं होता तो वह सार्वजनकि संपत्ति या सार्वजनिक सुविधाओं का पर्याय हो जाती है—पुंश्चली और वेश्या। हर कोई उसे दाम देकर या मुफ्त में भोग सकता है। इस तरह अपने आपको बेचना उसकी मजबूरी है। मगर जैसे ही स्त्री की देह को सार्वजनिक किया जाता है, या वह उसे स्वयं सार्वजनिक करती है—वैसे ही सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदार हाय-तोबा मचाने लगते हैं। सारी भारतीय संस्कृति, धर्म और इतिहास स्त्री-देह को ढकने-उघाड़ने पर ही टिका है। परिवार हो या देश, दोनों की मर्यादा, सम्मान और गरिमा को स्त्री-देह के माध्यम से तोड़ा या बचाए रखा जाता है। दुश्मन बदला लेने के लिए उसके साथ बलात्कार करते हैं। उसे गाली देना प्रतिशोध का सबसे आसान हथियार है। इसके लिए न जाने कितनी जानें ले ली या दे दी गई हैं।

सौंदर्य यानी अपनी देह से स्त्री का संबंध बेहद जटिल है; वह उसके प्रभाव को भी जानती है और परिणाम को भी। उसी के लिए वह मारी भी जा सकती है और सिंहासन पर बिठाई भी जा सकती है। भयंकर संकटों से मुक्ति के तरीके भी वह उसी के बल पर निकाल सकती है। यातना व्यक्ति को खंडित करती है, स्त्री भी दोस्तोयव्स्की के ‘डबल’ की तरह द्विखंडिता बन जाती है। वह अपनी देह से बाहर भी है और उसके भीतर भी। वह योगियों की तरह उसे साक्षी भाव से देख सकती है और भोगियों की तरह अंग-अंग में उसे महसूस भी कर सकती है। संस्कृत में स्त्री को ‘अंगिनी’ या ‘रमणी’ कहा गया है—यानी वह सिर्फ देह में स्थित है। उसकी पहचान भी उसके अंगों के नाम से ही की जाती है—सुभगे, सुमुखि, सुनयना आदि...उसे परिवार या पुरुष बचपन से ‘देह-चेतन’ बनाते रहते हैं—यह प्रशिक्षण या कंडीशनिंग इतने बारीक और अचूक होते हैं कि वह स्वयं भी उसकी देह है; उसी को लेकर भाषा के सारे सौंदर्यमूलक शब्द हैं तो उसी के लिए वीभत्सतम गालियाँ भी। सारे कामशास्त्र उसके देह को अनुशासित करने के हथकंडे बताते हैं—सारे कवि और कविराज स्त्री-देह को लेकर ही ऑब्सैस्ड (आतंकित) रहे हैं। पुरुष की पहली सार्थकता ही स्त्री-देह को जीतना और उसे सिर्फ अपनी संपत्ति और पुत्र की माँ बनाना है। वह उसे हीरे-जवाहरात की तरह लूटता है। सारे विजेताओं ने हाथी-घोड़ों, धन-दौलत के साथ स्त्री को भी माले-गनीमत, यानी लूट का माल मानकर अपने हरम सजाए हैं। उन्होंने ही जर, जमीन और जन को झगड़े की जड़ बताया है।

देह के साथ ‘देह की भाषा’ स्त्री का दूसरा सबसे बड़ा हथियार है। बंदिशों के बीच संकेतों और प्रतीकों में वह अपनी निजी और अचूक भाषा विकसित कर लेती है। शब्दों का कितना धारदार और प्रभावी इस्तेमाल किया जा सकता है, यह स्त्री से अधिक कोई नहीं जानता। छोटी-सी पारिवारिक दुनिया के ईर्ष्या-द्वेष, स्वार्थ और सरोकार उसे हमेशा आत्मकेंद्रित या युद्ध की मानसिकता में बनाए रखते हैं—और इन्हें वह भाषा से साधती है। क्योंकि परिवार में उसकी हैसियत अपने पुरुष से ही तय होती है, इसलिए उसे बाहरी हमले विफल करने और अपने पुरुष के मन को जीतना होता है। परिवार में वह सिर्फ युद्ध-कला ही नहीं सीखती, एक गहरा बहनापा भी सीखती है। गुलाम होने का साझा दुःख (कॉमन सफरिंग) दो स्त्रियों को आपस में जोड़ता है। एक-दूसरे से अपने मन और शरीर की बात कहकर वे जीने का बल अर्जित करती हैं। प्रसूति जैसी स्थितियों में या दूसरी जनानी-बीमारियों में उसे हमेशा दूसरी स्त्री की सहायता की जरूरत पड़ती है। द्वेष और दुःख की द्वंद्वात्मकता उन्हें आपस में संवाद-सेतु बनाए रखने की प्रेरणा देती है। यहीं वह हमारे लिए यानी समाज के लिए अपनी भाषा का ‘आविष्कार’ करती है।


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