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मनोज दास की कहानियाँ

राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5473
आईएसबीएन :81-237-3558-8

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मनोज दास की चुनी हुई कहानियों का संकलन...

MANOJ DAS Ki KAHANIYAN

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनोज दास की कहानियां ओड़िया के प्रख्यात कथाकार मनोज दास की तैंतीस ओड़िया कहानियों का का हिन्दी अनुवाद है। इनकी कहानियों की खास विशेषता है कि ये पारंपरिक रीति से लिखी गई आधुनिक कहानियां होती हैं। आध्यात्मिकता इन कहानियों का एक मुख्य विभाव होती है। द्वितीय विश्व युद्ध और भारतवर्ष की स्वाधीनता, कथाकार के जीवन की मुख्य घटना है और इन स्थितियों से उद्भूत जीवन की सारी विडंबनाएं इनके लेखन में जीवंत होकर आई हैं।

स्वप्नभंग और मूल्यबोध के संकट- स्वातंत्र्योत्तर काल की बहुत तीक्ष्ण स्थिति है। पर इन कहानियों के रचनाकार को ये स्थितियां कभी निराश नहीं कर पाईं। इनकी रचना शक्ति के बूते पर इनका आशावाद मनुष्य के असली रूप पर इनकी आस्था को अटल रखे हुए है। जैसा कि हर भाषाओं के स्वभाव को देखकर कहा जा सकता है कि यह रचना अमूक भाषा की है, मनोजदास की कहानियों में ऐसा कुछ लक्ष्य नहीं होता। ये कहानियां जिस किसी भी भाषा में होंगी, उसी भाषा की होंगी, और, यही किसी बड़े रचनाकार की ऊंचाई भी साबित करता है।

भूमिका


एक अन्य समसामयिक लेखक के लिए मनोज दास की कहानियों के संबंध में किसी तरह की राय देना कितना मुश्किल है, उसका आभास मैंने संग्रह की भूमिका लिखने की जिम्मेदारी मिलते ही किया है। पहली बात तो यह है कि उनका मूल्यांकन करने की योग्यता मुझमें नहीं है, और फिर मैं उनके बारे में जो कुछ कहूँगा वह पूरी तरह निर्वैयक्तिक कतई नहीं होगा। इसका मुख्य कारण है मनोज दास से लगभग तीन दशक से भी अधिक समय से मेरा अविच्छिन्न स्नेह, संबंध, घनिष्ठता और मेरे मन में उनके प्रति अशेष श्रद्धा व सम्मान। उनके अनगिनत मुग्ध पाठकों की तरह मुझे भी उनकी कहानियां बारंबार पढ़कर आनंद मिलता रहा है, मैं उनकी कथन शैली का विमल रस ग्रहण करता हूं और उन कहानियों में निहित मानवीय मूल्यबोध के अनबुझे संदेशों का प्रच्छन्न निर्देश पाता आया हूं।

 उन सबको कभी विश्लेषित करके नहीं देखा जा सकता। वे सब फूल की तरह स्वयं संपूर्ण, मधुमय और ताजे हैं। एक दूसरा कारण है कि वे अब तक सतत सृजनशील होने के कारण एक प्रवाहमान नदी की तरह अतुलनीय हैं। वे उत्कल भारती के गले में और भी कई रत्नहार पहनाएंगे यह निश्चित है। ऐसे में उनके लेखन-जीवन के मध्याह्न में जब उनकी अनन्य रसोत्तीर्ण रचनाएं साहित्य आकाश में सूर्य की तरह स्वयंप्रभ हो दमक रही हैं, मेरे कुछ प्रशंसा भरे वाक्य उस सूर्य को दीपालोक दिखाने-सा अवांतर होंगे। यह कोशिश नहीं करूंगा। साहित्यिक मूल्य और कहानियों की बाहुलता की दृष्टि से सिर्फ उनकी काहनियों पर एक बिहंगम दृष्टि डालना ही समयोपयोगी होगा। उड़ीसा के बाहर भारतीय व विदेशी पाठकों के लिए शायद ऐसी आलोचना उपादेय भी होगी। उनकी कहानियों का दिगंत विपुल होने पर भी समसामयिक आलोचना में कभी-कभी एक ही पक्ष पर अधिक दृष्टिपात होने-सा लगता है। इसलिए मैं इस बात की पूरी कोशिश करूंगा कि उनकी कहानियों के विस्तार को ठीक से समझा जा सके। इसके लिए मैं आग्रही पाठकों की सूचना हेतु यहां उन कहांनियों का उल्लेख भी करना चाहूंगा। जो कि इस संग्रह में शामिल नहीं हैं।

उड़ीसा की कहानी परंपरा बहुत पुरानी है। यहां ‘गल्पसागर’ के नाम से प्रख्यात कथा लोग गांव-गांव घूमकर मनोरंजक शैली में कहानियां सुनाकर लोकमान्य और राजसम्मान हासिल करते थे। उनकी शैली में गद्य और पद्य का सम्मिश्रण होता था तथा समझ में आने जैसे यमक और अलंकारों का प्रयोग भी होता था। मेरे बचपन में बांछानिधि शतपथी नामक एक कथक महाशय विभिन्न शिक्षण संस्थानों में अपने कार्यक्रम करके थोड़ा बहुत कमा लेते थे। अभी कुछ वर्षों पहले उन्हें भुवनेश्वर के पूर्वांचल भाषा केंद्र में द्वितीय भाषा के रूप में ओड़िया भाषा की तालिम पा रहे शिक्षानवीसों के आगे कथकता प्रदर्शन करते देखा था। यह परंपरा थी केवल मौखिक। अब वह लुप्त हो चुकी है। फिर भी, एक तरह से उसी रूप में लिखे गए ब्रजनाथ बड़जेना के ‘चतुर विनोद’ को ही आलोचक ओड़िया में लिखित गल्प-साहित्य का प्रारंभिक उदाहरण मानते हैं। ‘चतुर विनोद’ अठरवीं शताब्दी की रचना है। इसमें चार खंड थे : नीति विनोद, प्रीति विनोद, हास्य विनोद और रस विनोद। ये सब आज भी उपभोग्य हैं। इसके बाद ऐसी रचना फिर देखने में नहीं आई।

उन्नीसवीं शताब्दी के आखिर में, 1887 में कवि मधुसूदन राव का ‘हेममाला’ शीर्षक से एक प्रणय प्रधान था ‘रोमांस’ प्रकाशित हुआ था। उधर गल्प कहने की मौखिक परंपरा शायद चलती रही। गोपाल प्रहराज की ‘उत्कल कहानी’ और कुंजबिहारी दास की ‘लोक गल्प संचयन’ से इसके प्रमाण मिलते हैं। ‘अबोलकरा कहानी’ और ‘बुढ़िया कहानी खणि’ आदि सुखपाठ्य कहानियां ओडिया छापाखाना शुरु होने के ठीक बाद से लोकप्रिय हुई हैं। यह सब कहने का कारण यह है कि पारंपरिक रीति को आत्मसात करके आधुनिक कहानियां लिखने की एक प्रवृत्ति मनोज दास में दिखाई देती है। ‘प्राप्तवयस्क का गणतंत्र’, ‘मनोज पंचबिंशति’ तथा इस संग्रह में शामिल ‘सुवर्ण कलश’ कहानी इसके उदाहरण हैं। ओडिया की संस्कृति से इन पारंपरिक कहानियों का संबंध होने के कारण मनोज दास की ये कहानियां कहानी-पाठकों की स्मृति को जागृत कर एक अपूर्व रसबोध कराती हैं।

फकीर मोहन सेनापति ने 1898 में ‘रेवती’ नामक कहानी छपवाकर ओड़िया साहित्य में कहानी की शुरूआत की थी। शायद ओड़िया साहित्य की प्रारंभिक कहानियों में यह एक है। किसी-किसी आलोचक ने ‘रेवती’ को भारतीय साहित्य की पहली कहानी कहा है। इन विवादों पर तुलनात्मक साहित्य के आलोचक विचार करेंगे। ‘रेवती’ आज तक ओड़िया कहानियों का सिरमौर है। लगभग सौ साल से वह अपने आसन पर अटल है। अंग्रेजी अथवा अन्य भाषाओं में पारंगत हुए बगैर, किसी विधिवत शिक्षा के प्रभाव के बिना फकीर मोहन ने ओड़िया गद्य साहित्य को अपनी कहानियों, उपन्यासों, और जीवनी से जिस तरह समृद्ध किया है, उसकी तुलना किसी दूसरे साहित्य में विरल है। कहानियों की लोकप्रिय़ता बढ़ने पर ‘मुकुर’ ‘उत्कल साहित्य’ आदि प्रारंभिक पत्रिकाओं से लेकर अन्य सभी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित करने के प्रति आग्रह देखा गया। फलस्वरूप अनेक प्रतिभाशाली लेखक कहानी के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान पिछली एक शताब्दी से देते आए हैं।

गोदावरीश मिश्र, गोदावरीश महापात्र, कालिंदीचरण पाणिग्राही, भगवती चरण पाणिग्राही, राजकिशोर पटनायक, अनंत प्रसाद पंडा, कान्हूचरण महांति, हरिश्चंद्र बराळ, पुलिन बिहारी राय, नित्यानंद महापात्र, राजकिशोर राय आदि नाम केवल एक अनायास संगृहीत व अपूर्ण सूची होगी। उड़ीसा साहित्य अकादमी द्वारा संकलित व महापात्र नीलमणि साहू द्वारा संपादित ‘शतब्दीर श्रेष्ठ गल्प’ में पिछली शताब्दी की कुछ अमूल्य कहानियां हैं, जबकि स्वयं इसके संपादक ने इसकी संपूर्णता से चिंतित होकर इसका दूसरा खंड प्रकाशित करने के लिए अकादमी को सलाह दी है। स्वाधीनता प्राप्ति के समय गोपीनाथ महांति, कान्हूचरण महांति, सुरेन्द्र महांति, नित्यानंद महापात्र, प्राणबंधु कर, सुनंद कर, राजकिशोर राय और सच्चि राउतराय ने कहानी के नभमंडल को आलोकित कर रखा था। उस समय की पत्रिकाएं कहानियों को प्रधानता देती थीं। तब से ‘सहकार’, ‘डगर’, ‘प्रभाती’, ‘युगवाणी’, ‘आधुनिक’, ‘चतुरंग’, ‘आरती’ आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशित कहानी-सग्रहों को देखने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि उस समय कहानी की प्रगति कितनी तेजी से हुई। अनेक पत्रिकाओं के नाम तक कहानियों के विकास संबंधी निबंधों में अब दिखाई नहीं देते।

कुछ लेखकों के प्रयास से प्रकाशित ‘उदयन’ नामक पत्रिका में कई प्रयोगधर्मी कहानियां अभी याद हैं। बंबई से प्रकाशित लिथो प्रोसेसिंग से हस्तलिखित पत्रिका देव महापात्र द्वारा संपादित ‘कुंकुम’ का पाठक बेसब्री से इंतजार किया करते थे। उस पत्रिका का कलात्मक पत्र देखने लायक होता था। समय की अतल धूल में दबी ऐसी अनेक मूल्यवान कहानियों ने निश्चित ही मनोज दास जैसे स्वाधीनता के बाद लेखकों को कुछ हद तक स्पर्श किया होगा। मनोज दास का आर्विभाव उनके प्रथम कहानी संग्रह ‘सुमुद्रर क्षुधा’ के प्रकाशन से अर्थात् 1951 मान लिया जाए, तब कहानी जगत के सर्वमान्य प्रतिभा थे सुरेन्द्र महांति, कालिंदी चरण पाणिग्राही, गोपीनाथ महांति और राजकिशोर राय।

मनोज दास के स्कूल में पढ़ते समय ‘दिगंत’ और ‘आगामी’ नामक पत्रिकाओं का संपादन किया था। मैंने वह ‘आगामी’ नहीं देखा, लेकिन बाद में जब उड़ीसा के छात्रसंघ के मुखपत्र के रूप में ‘आगामी’ पत्रिका का पुनराविर्भाव हुआ, उसे देखा। तब भी मनोज दास ही उसका संपादन करते थे। कानून की परीक्षा पास करने के बाद अंग्रेजी से एम.ए. कर रहे थे तथा कटक के क्राइस्ट कालेज में अंग्रेजी पढ़ाते थे, ‘दिगंत’ पत्रिका का पुनर्प्रकाशन करते थे तथा ‘युगरूपा प्रेस’ नामक छापाखाना का संचालन भी किया करते थे। उनका सक्रिय सृजन जारी था और उनके कार्यालय में उस समय के ख्याति प्राप्त अनेक कवियों व लेखकों का समागम हुआ करता था तथा चाय, कॉफी के साथ-साथ साहित्य चर्चा भी समताल में हुआ करती थी। ‘दिगंत’ पत्रिका पाठकों द्वारा बेहद सराही जाती थी और उसकी कहानियां, रम्य रचनाएं, कविताएं, व निबंध अति उच्च कोटि के होते थे। उस कार्यालय में नियमित रूप से आया करते थे कवि भानु जी राव, डाक्टर जेनामणि नरेंद्र कुमार, स्वयं लेखक और अनेक सक्रिय साहित्यकार तथा कटक के बाहर से अन्य कामों में आने वाले आलोचक, अध्यापक और लेखकगण। अब मैं 1960-1963 की बात कह रहा हूं। सन् 1962 में ‘डगर’ पत्रिका अपनी रजत जयंती मना रही थी। इस अवसर पर उसने डाक के जरिए वोट संग्रह किया था कि साहित्य की विभिन्न विधाओं में कौन-कौन से लेखक सबसे अधिक जनप्रिय हैं। उस गिनती में मनोज दास सर्वाधिक जनप्रिय कहानीकार हुए थे।

 आज से तीस साल पहले जैसा जनमत संग्रह मेरी जानकारी में और किसी संस्था ने नहीं किया। मुझे पूरा विश्वास है कि यदि आज भी उसी तरह से जनमत संग्रह किया जाए तो मनोज दास ही अप्रतिद्वंद्वी कहानी-सम्राट के रूप में उभरकर आएंगे। यश और ख्याति के उस उज्ज्वल घड़ी में मनोज दास श्री अरविंद दर्शन और वृहत्तर जीवन के दुर्वार आह्नान के लिए सपत्नीक श्री अरविंद आश्रम, पांडिचेरी चले गए। उनके साथी और सहकर्मीगण अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के एक समर्थक, वामपंथी राजनीति और मार्क्सवादी समाजवाद के आदर्श से प्रत्यक्ष रूप से अनुप्राणित मनोज दास को इस तरह एक अंतर्मुखी साधक बनते देख चकित हुए होंगे। स्वभावत: सरल, निष्कपट, निरहंकार और हमेशा प्रसन्न रहने के कारण बाहर से उनमें कोई परिवर्तन के लक्षण दिखाई नहीं देते थे, किन्तु उनके अंतर की जीवन जिज्ञासा निश्चय ही एक तेज प्लावन से अस्त-व्यस्त हो रही थी। श्री अरविंद आश्रम के आध्यात्मिक परिसर में निरंतर अध्ययन और अनुशीलन उनकी सृजन शीलता के लिए अनुकूल हुआ होगा। आधुनिक युग में वेदज्ञ, साधक और व्याख्याकार, ‘सावित्री’ के अनन्य काव्य स्रष्टा श्री अरविंद के अतिमानस तत्व और ससीम को लांघकर मनुष्य के असीम में पहुंच सकने के आशावाद ने उन्हें निश्चय प्रभावित किया होगा तथा उन्होंने स्वयं श्री मां का आशीष प्राप्त किया होगा।

 हालांकि किसी और को यह सब सुनाकर प्रत्यक्ष रूप से उसे दीक्षित करने की चेष्टा करते मैंने उनसे अपने लंबे परिचय के दौरान कभी नहीं देखा था। श्री अरविंद आश्रम में भी मैं उनसे मिला हूं और वाकई कर्मरत अवस्था में ही देखा है। अन्य जगह की तुलना में वहां उनकी जीवन धारा में मैंने कोई खास फर्क नहीं देखा। उनके अंतर्मानस का कोई अज्ञात रहस्य उद्घघाटित करना मेरा उद्देश्य नहीं है। उनके साधक जीवन की छाया उपछाया उनकी कहानियों में ढूंढना भी अवांतर हैं क्योकि साधक मनोज दास के साथ जीवन का प्रसंग इसलिए उठाया कि इसी पृष्ठभूमि पर मनोज दास अधिकांश समसामयिक कहानीकारों से पूर्णत: भिन्न हैं, उनके व्यक्तित्व में साधारण यशोलिप्सा, मोह और अहंकार आदि गंदगी न होने के कारण भी वे दूसरों से भिन्न हैं, कम से कम इतना तो साफ-साफ समझा ही जा सकता है।

ओड़िया कहानियों को ले जाकर विश्व दरबार में हाजिर करने का श्रेय सिर्फ मनोज दास को है। अंग्रेजी भाषा में ओड़िय़ा की तरह गति होने की वजह से मूल ओड़िया में अंग्रेजी में उनके द्वारा अनुदित कहानियां हू-ब-हू और समान रूप से रसोत्तीर्ण होकर पाठक समाज में स्वीकार की गई हैं। इंग्लैंड, अमेरिका तथा अंग्रेजी प्रचलित अन्य देशों में उनकी कहानियां लोकप्रिय हुई हैं। आज से दो दशक पहले अमेरिका के इलिनोइ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अपनी ‘एसेंट’ पत्रिका के प्रवेशांक में अमेरिका के बाहर से सिर्फ एक कहानी शामिल करने का निर्णय लेते हुए जिस कहानी का चयन किया था, वह भी मनोज दास की कहानी ‘ए नाइट इन द लाइफ ऑफ ए मेयर’ (मधुवन का मेयर)। ऐसी अनेक स्वीकृतियां, लोकमान्य पुरस्कार और अवसर उन्हें मिलें हैं तथा और भी मिलेंगे, इसमें संदेह नहीं।

लेकिन उनकी कहानियों का झरना ठीक पहले-सा प्रवाहित होता रहेगा, उनके पाठक अधीर आग्रह से इसके लिए आस लगाए रहेंगे। यहां एक और बात कहनी उचित होगी। समसामयिक ओड़िया कथाकारों में से बहुत कम कथाकार उड़ीसा या भारत के बाहर की जीवन यात्रा से प्रत्यक्ष रूप से परिचित हुए हैं। अन्य भारतीय साहित्य और विदेशी साहित्य की कृतियों का अनुवाद या फिर अन्य सूत्रों से सूचना मिलनी भी मां की तुलना में प्रचुर नहीं हैं। किसी भी कारण से क्यों न हो, बहुत कम ओड़िया लेखक सांस्कृतिक दल के साथ विदेश यात्रा करते हैं अथवा बाहर का निमंत्रण पाकर साहित्यिक शोध का अवसर पातें हैं। इस दृष्टि से मनोद दास का अन्य देश, अन्य भाषा और जीवन यात्रा से अधिक संबंध रहा है। मुझे स्मरण है, सिंगापुर की सरकार वहां के नागरिक और युवा संप्रदाय के मूल्यबोध के उन्मेष के लिए योजना तैयार करने के लिए उन्हें कई बार आमंत्रित करके ले जा चुकी है। भारतीय संस्कृति से जुड़ी मद्रास से प्रकाशित अंग्रेजी मासिक ‘द हेरिटेज’ पत्रिका के

भी वे संपादक रह चुके हैं। श्री अरविंद आश्रम में भी विभिन्न देशों के बुद्धिजीवियों का समागम लगा रहता है। ऐसे नाना कारणों से वृहत्तर जगत के संपर्क में आकर उनकी मनोभूमि ऐवर्श्यमंडित हुई होगी। यह भी मनोद दास की एक अनन्यता है।


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