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नाटक-एकाँकी >> चंदनबाला

चंदनबाला

स्वामी विमलेश्वरानंद

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5437
आईएसबीएन :81-88266-08-6

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भगवान महावीर स्वामी की प्रथम आर्यिका महासती चंदनबाला के जीवन पर आधारित...

Chandanbala

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक चंदनबाला चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण की प्रथम आर्यिका महासती चंदनबाला के जीवन पर आधारित है। लेखक ने उसको भगवान महावीर स्वामी के दो हजार पाँच सौवें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर लिखकर भारत में अनेक स्थानों पर इसका मंचन हो सकेगा। इसी प्रेरणा से यह उपक्रम है।

 

चंदनबाला का जीवन प्रेरणा का अजस्र स्रोत है। उन्होंने जिस भक्ति और आस्था के साथ भगवान् महावीर की वन्दना की, जिन अश्रुकणों के द्वारा महावीर के प्रति समर्पण किया, वह अनुपम है। दास-प्रथा के उन्मूलन का जो सूत्र जनता को मिला, वह एक उदाहरणीय आलेख है। स्वामी विमलेश्वरानंदजी ने चंदनबाला के जीवन-वृत्त को अपनी शैली में अंकित किया है, वह जनता के मन को आकृष्ट करेगा।

 

आचार्य महाप्रज्ञ

 

लेखकीय

 

 

चंदनबाला के दैवीय गुणों से प्रभावित होकर ही कई कवियों, लेखकों, उपन्यासकारों, नाटककारों व इतिहासकारों ने उनको अपनी रचनाओं का केन्द्र बिंदु बनाकर उनके लोकोत्तर गुणों को रेखांकित करने का प्रयास किया है।
चंदनबाला पर अलग-अलग शीर्षकों से कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित घटनाओं, ऐतिहासिक तथ्यों एवं विवरणों में भिन्नता मिलती है। कथावस्तु एवं पात्रों में भी एकमत न होकर भिन्नता पाई जाती है। कथानक को लेकर यही कठिनाई हमारे सामने भी रही। उनके साथ घटी हुई घटनाओं का वर्णन जैन साहित्य में है, परंतु उसमें भी मतभेद है, किंतु कुछ बातें सर्वमान्य हैं। चंदनबाला राजपुत्री थीं, स्वाभाविक ही सुख-वैभव उन्हें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। कालक्रम में उन्हें घोर विपत्तियों से गुजरना पड़ा, परंतु अपनी गुण संपदा के कारण वे धीर-गंभीर बनी रहीं और प्रत्येक परिस्थिति में अपने शील की रक्षा करते हुए शारीरिक प्रताड़ना व मानसिक वेदना को धैर्यपूर्वक सहन करती रहीं। विशेष यह कि अपने कष्टों को अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का ही फल मानते हुए उन्होंने अत्याचार करनेवालों के लिए अपने मन में कोई क्षोभ और वैरभाव अंकुरित नहीं होने दिया।

अत्यंत कठिन परिस्थितियों में उनके आराध्य भगवान् महावीर स्वामी ने न केवल उन्हें दर्शन दिए वरन् पाँच मास पच्चीस दिन के निराहार के पश्चात् चंदनबाला के हाथों से आहार ग्रहण कर उन्हें कृतार्थ भी किया था। इसीलिए तीर्थंकर महावीर करे समवसरण की एक आदर्श श्राविका और साध्वी के रूप में सर्वत्र उनका स्मरण किया जाता है। उन्हें महावीर स्वामी ने चतुर्विध संघ की प्रथिम आर्यिका व गणिनी के रूप में प्रतिष्ठित किया।
जैन समाज में मतांतर होने पर भी, जैसा यह नाटक लिखा वैसा ही, इसका सफल मंचन भी हुआ और वैसा ही इसे प्रकाशित किया जा रहा है।
लेखक का जैन परंपरा में जन्म व पल्लवन न होने के कारण संभव है कि कहीं कोई त्रुटि रह गई हो। प्रयास यह किया गया है कि किसी ऐसी बात का उल्लेख न हो, जिससे किसी भी जैन मतावलंबी को अप्रसन्नता हो। तो भी अपनी कमियों के लिए क्षमा माँगते हुए, विद्वज्जनों से संराधन की कामना करता हूँ।
स्वामी विमलेश्वरानंद

 

दृश्यानुसार पात्र परिचय

 

क्रमांक     पात्र का नाम    पात्र  परिचय एवं अन्य विवरण आयु
(वर्ष में)
राजमहल (वैशाली राज्य)
1.    राजकुमारी चंदनबाला      वैशाली की राजकुमारी                16
2. नृत्यांगनाएँ      राजकुमारी की सखियों का नृत्यदल        16
3. विशाला          राजकुमारी की अंतरंग सखी            26
4. दीपांगना      राजकुमारी की अनन्य सखी            26
5. चेटक          वैशाली के महाराज                    40
6. सुभद्रा          वैशाली की महारानी                    32
7. प्रतिहारिणी      द्वारपालिका                        30
8. श्रृंगार परिचारिका    सौंदर्य-प्रसाधन एवं केश विन्यासिका    20
9. सुगुप्त           वैशाली के प्रधान अमात्य                55
10. श्रृंगार परिचारिका   
    (सहायक)    -सौंदर्य-प्रसाधन एवं केश विन्यासिका        20
11 सुभट सारथि      एक लुटेरा रथवाहक सैनिक            35

 

कौशांबी नगर राजमार्ग

 

 

1. पथिक   कौशांबी राजमार्ग पर एक पथिक            35
2. गृह सेविका      सुभट सारथि की गृह सेविका                  30
3. भानुमती      सुभट सारथि की पत्नी                    30
4. सैन्य नायक दल
5. घोष विक्रयकर्ता
6. घोष क्रय दल समूह
7. संदेश उद्घोषक दल
8. आम्रपाली             कौशांबी राज्य की प्रसिद्ध नृत्यविद्गणिका                        30
9. भीमदत्त     आम्रपाली का युवा मल्ल                25
10. शिविका वाहकदल     -(कहार)                       
11. धनावह श्रेष्ठी          कौशांबी राज्य के नगर श्रेष्ठी

 

आम्रपाली का रंगमहल

 

 

1. प्रियंवदा        आम्रपाली की नृत्यविद् अनुचरिणी        16
2. तरलिका        आम्रपाली की अनुचरिणी                16
3. सेनापति          कौशांबी राज्य के प्रमुख सेनापति            35
4. वेत्रवति        आम्रपाली की अनुचरिणी                16

 

धनावह श्रेष्ठी का विशाल प्रासाद

 

 

1. मूलाश्री        कौंशांबी राज्य के नगर श्रेष्ठी की पत्नी        40
2. विजया        धनावह श्रेष्ठी के प्रासाद की सेविका        25
3. नापित        केश कर्तक                            25
4. लौह शिल्पी     लौहकार                            25
5. पार्श्व पथिकों के
  विभिन्न चार स्वर
  आकाशवाणी हेतु ध्वनि

 

अंक : एक

दृश्य :पहला

 

 

पात्र : राजकुमारी चंदनबाला एवं सखियाँ
स्थान : रमणीय उद्यान

 

वैशाली राज्य के रमणीय उद्यान में राजकुमारी चंदनबाला अपनी सखियों के साथ एक लोकनृत्य संगीत में मग्न है। अन्य सखियाँ भी नृत्य के साथ वाद्ययंत्रों से संगति कर रही हैं। नृत्य समाप्ति पर प्रकाश धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है।

 

दृश्य : दूसरा

 

 

पात्र : राजकुमारी चंदनबाला
     दिपांगना
     विशाला
     महाराजा चेटक
     महारानी सुभद्रा
     सेविका व प्रधान अमात्य सुगुप्त
स्थान : वैशाली का राजमहल
समय : प्रातःकाल

 

(राजकुमारी चंदनबाला विचारमग्न एकांत में बैठी है। मुख पर बहुत उदासी है। विशाला एवं दीपांगना नामक दो सखियों का प्रवेश।)
विशाला : ओह ! तो आप यहाँ हैं। हम आपको आपके शयनकक्ष, श्रृंगार कक्ष, वसंत उपवन, क्रीड़ा उद्यान और कहाँ-कहाँ नहीं देखकर आ रही हैं।
दीपांगना : परंतु आप यहाँ एकांत में किस विचार में मग्न हैं ?
विशाला : कहीं हमने आपकी विचारतंद्रा को भंग तो नहीं कर दिया ? क्यों दीपांगना ? (दीपांगना की ओर अर्थ भरी दृष्टि से)।

राजकुमारी : (उनकी ओर देखकर उदास मन से कहती है) ऐसी कोई बात नहीं है, सखी। आज प्रातः से ही अंतर्मन खिन्न है।
दीपांगना : इस खिन्नता का कोई कारण तो होगा ही। क्यों विशाला ? अन्यथा यह खिन्नता कैसी ?
राजकुमारी : निश्चय ही बिना कारण कुछ भी नहीं होता; परंतु सखी, हमारे मन में ऐसा कुछ भी नहीं है।
विशाला : मन में तो अवश्य ही कोई होगा; परंतु सखियों को नहीं बताना हो तो ना सही।
दीपांगना : हम तो युक्ति से सब पता ही लगा ही लेंगी, आखिर ऐसा क्या है, जो सखियों से भी गोपनीय है ?
विशाला : कोई बात नहीं, दीपांगना। हम तो इसलिए आए थे कि वसंतोत्सव में राजकुमारी को सम्मिलित होना है, कहीं अन्य कार्यक्रम में व्यस्त न हो जाएँ।

राजकुमारी : अच्छा हमारा अंतर्मन व्यथित है, इसलिए किसी भी तरह की कोई इच्छा नहीं है। आज हम कहीं नहीं जाएँगे।
दीपांगना : राजकुमारी ! आपके बिना पूरा वसंतोत्सव रंगहीन हो जाएगा, सभी सखियाँ उदास हो जाएँगी।
विशाला : आपके बिना ऋतुराज वसंत के आगमन का स्वागत कौन करेगा ?
राजकुमारी : सखी ! ऐसा कुछ नहीं है। न जाने हमारा मन अनमना सा क्यों हो रहा है ? आज हमारे मन को अज्ञात आशंकाओं के काले बादलों ने घेर लिया है। वसंत के स्थान पर काले-काले बादलों की गड़गड़ाहट और उसके अंधकार में हमारा मन डूबा जा रहा है।

दीपांगना : किंतु सखी, हम कैसे जान पाएँगे कि सर्वदा खिलनेवाला सुमन आज क्यों मुरझा रहा है ?

 

(महाराज व महारानी का प्रवेश)

 

महारानी : कौन मुरझा रहा है ?
(राजकुमारी, दीपांगना व विशाला महाराज व महारानी को प्रणाम करते हैं।)
दीपांगना : प्रणाम, आज वसंतोत्सव हेतु हम राजकुमारीजी को लेने आई थीं; किंतु राजकुमारीजी...(बोलते हुए रुक जाती है)।
महारानी : क्या हुआ राजकुमारी को ?
राजकुमारी : कुछ नहीं, माताजी। किंचित् व्यथित है हमारा अंतर्मन। आज हम उत्सव में सम्मिलित नहीं होना चाहतीं।
महारानी : क्यों ? मन को ऐसा क्या हुआ है ? राजवैद्य को दिखला देते हैं।
विशाला : बिलकुल ठीक कहा राजमाताजी ने। आपको अवश्य ही राजवैद्यजी को दिखलाकर रोग का निदान करवाना चाहिए।
महारानी : यही उचित है।
दीपांगना : महारानीजी ! हम राजवैद्यजी को राजकुमारीजी के परीक्षण हेतु शीघ्र भेज देते हैं, ताकि राजकुमारीजी आज संध्या तक स्वस्थ होकर उत्सव में सम्मिलित हो सकें।

 

(दोनों सखियों का प्रस्थान)

 

महाराज : हमारी प्यारी बेटी को अनायास क्या हो गया है ?

 

(वात्सल्य भाव से राजकुमारी के सिर पर हाथ फेरते हुए।)

 

राजकुमारी : तात ! आप व्यर्थ चिंतित न हों। सब ठीक हो जाएगा।
महाराज : रोग और शत्रु दोनों की अवहेलना उचित नहीं होती। इन दोनों का उपचार तत्काल करना चाहिए, अन्यथा ये विपत्ति के कारण बन जाते हैं।
राजकुमारी : (माँ की ओर अर्थ भरी दृष्टि से देखते हुए) माताजी, आज बहुत शीघ्र निद्रा टूट गई। रात्रि के चौथे पहर एक बहुत ही भयावह स्वप्न देखा, इसलिए हम चिंतित हैं।
महारानी : कैसा भयावह स्वप्न था ? क्या देखा उसमें ?
राजकुमारी : इतना वीभत्स और भयानक स्वप्न जीवन में इसके पूर्व कभी नहीं देखा। उसका स्मरण होते ही रोम-रोम रोमांचित हो उठता है। माँ, उसका वर्णन करने में हमारा हृदय काँप रहा है।
महारानी : बेटी, स्वप्न को विस्तारपूवर्क पिताजी के सम्मुख निस्संकोच कहो।

राजकुमारी : तात ! हमने अपनी आँखों से वैशाली को अग्नि की लपटों में चारों ओर से जलते हुए देखा। लूटमार, चीत्कार, प्रत्येक दिशा में हाहाकार काल रात्रि की गहन कालिमा में निर्ममतापूर्वक भीषण झंझावतों से घिरी यह हमारी मातृभूमि, अब क्या होगा, तात ?
महाराज : भयभीत होने की कोई बात नहीं, बेटी। (राजकुमारी के सिर पर हाथ फेरते हुए) स्वप्न आखिर स्वप्न होता है, जीवन की वास्तविकता नहीं। इसलिए स्वप्न और यथार्थ में अंतर होता है।
राजकुमारी : माँ ! स्वप्न से ही हम इतने भयभीत हो गए हैं कि वास्तविकता तो हमारी कल्पना की परिधि से परे है।
महारानी : महाराज ! धृष्टता के लिए क्षमा करें। प्रातःकाल के स्वप्न कभी-कभी जीवन में यथार्थ रूप में परिणत हो जाते हैं।
महाराज : अगर ऐसी बात है तो हम राज्य के स्वप्न फल विशेषज्ञ से इस विषय पर मंत्रणा कर मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहेंगे।

 

(श्रृंगार परिचारिकाओं का प्रवेश)

 

परिचारिका : वैशालीनरेश महाराज चेटक की जय हो ! महारानीजी और राजकुमारी को इस सेविका की ओर से अभिवादन स्वीकार हो। आज प्रातःकाल से ही हम राजकुमारीजी के श्रृंगार करने हेतु प्रतीक्षारत हैं। सेविका को सेवा करने का अवसर देकर कृतार्थ करें।
परिचारिका-2 : कितनी मलिन हो गई है चंद्रिका की कांति !
महाराज : बेटी ! जाइए और व्यर्थ की व्यथा को धो डालिए। नई उमंग से ओजपूर्ण मुखड़े को कांति और मुसकराहट से इस महल को जगमगा दीजिए।
राजकुमारी : तात ! हमारा मन अभी तक अज्ञात आशंकाओं से अशांत है, फिर भी आपकी जैसी इच्छा। भगवान् सब ठीक ही करेंगे।

 

(राजकुमारी एवं दोनों परिचारिकाओं का प्रस्थान)

 

महारानी : भगवान् की इच्छा से ही इस सृष्टि का निर्माण, पालन व संहार होता है। उन्हीं की इच्छा सर्वोपरि होती है।
महाराज : प्रिये ! आप कहाँ सृष्टि के जाल में फँस गईं। हम तो आपके मोहजाल में ऐसे उलझे हैं कि अब इस जीवन में तो निकलना असंभव प्रतीत होता है।
महारानी : प्राणनाथ ! अपने अनुराग के आलाप में राजकुमारी के दुःस्वप्न की आपको कोई चिंता नहीं है। मात्र अपना प्रेमराग अलापने की ही पड़ी है।
महाराज : प्रेमराग ! हमारी हृदय स्वामिनी सुभद्रे ! आपने उचित ही कहा। ऋतुराज वसंत का आगमन कितना मादक एवं सर्वव्यापी है। उसने जड़-चेतन सभी को पुनः उत्साह और मादकता प्रदान कर दी है। (पार्श्व से कोयल की कूक गूँजती है।) देखिए, वह पक्षी भी कुहुक-कुहुककर अपने प्रिय को पुकार रही है।

महारानी : प्राणनाथ ! आपको ज्ञात होगा कि सबकुछ समय के अनुकूल होने पर ही अच्छा लगता है। वसंत में ही फूल खिलते हैं, पतझड़ में नहीं। मानव जीवन का चक्र जीवन के सभी प्रकार के अनुभवों को स्पर्श करता हुआ ही पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।
महाराज : आज प्रणय सरिता के रसमय प्रवाह के स्थान पर यह विराग की ज्ञानगंगा का प्रवाह कैसा ? (महारानी के हाथों को अपने हाथों में लेकर दबाते हुए) आपके अनिंद्य सौंदर्य का परागरस प्राप्त करने हेतु यह भ्रमर अतृप्त सा मँडरा रहा है। (आगे बढ़ करके) और आप...

महारानी : इतनी अधीरता अब आपको शोभा नहीं देती, प्राणनाथ। (महाराज महारानी को समीप खींचकर आलिंगन करने का प्रयत्न) अजी, आप यह क्या कह रहे हैं, काल और परिस्थिति का तो ध्यान रखिए। अगर ऐसे में कोई आ गया तो ? हमारी बेटी अब वयस्क हो चुकी है। अब हमें उसके विवाह का विचार करना चाहिए।
महाराज : नहीं, सुभद्रा, हमारी राजकुमारी तो अभी कोमल कली है। अतः उस विषय में अधिक सोचने की आवश्यकता नहीं। आओ, इस समय आपके सुगंधमय शरीर के स्पर्श से समीर ने जो अनुरागमय वातावरण उत्पन्न कर दिया है उसमें आलिंगन की अनुभूति का विस्मृत होना असंभव है।

महारानी : प्राणनाथ ! हमें यह सब अच्छा नहीं लगता। क्या कुछ क्षणों के लिए आप भक्ति भाव में डूब नहीं सकते। (भगवान् की ओर संकेत करते हुए) अतिहंत देव की भक्ति ही जन्म-जन्मांतर के हमारे पापों को नष्ट कर सकती है। अब भी मन की चंचलता नहीं गई तो फिर...
महाराज : क्या करें सुभद्रे, एक क्षण के लिए भी आपकी रूप मोहिनी को हम नहीं भुला सकते। जब से आप हमारे जीवन की स्वामिनी बनकर आई हैं, यह जीवन धन्य हो गया। हम आपसे सत्य कह रहे हैं।
महारानी : (महाराज के मुख पर हाथ फेरते हुए) आपका सत्य हम भली-भाँति जानते हैं। क्यों बार-बार इस नश्वर शरीर की प्रशंसा करते रहते हैं। सर्वदा एक समान रहनेवाली तो अमर आत्मा है और उसकी अमरता का संदेश हमें अरिहंत देव के दर्शन पूजन से मिलता है।
महाराज : कमल की पंखुड़ियों जैसे इन कोमल होंठों से धर्म का उपदेश नहीं, अपितु इनको छूकर निकलनेवाले प्रेमवचनों का श्रवण करने हेतु ये कान चातक की तरह आतुर रहते हैं। आपको सुनानी ही है तो प्रेमवाणी सुनाइए, ताकि जन्म-जन्म का प्यासा हृदय तृप्त हो जाए।
महारानी : छिः छिः : हम प्रभु जिनेंद्र के समक्ष खड़े हैं उनके सम्मुख मान-मर्यादा का उल्लंघन करना ठीक नहीं।


 

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