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भाग्य का सम्बल

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5382
आईएसबीएन :0000

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भाग्य पर एक रोचक उपन्यास...

Bhagya Ka Sambal a hindi book by Gurudutt - भाग्य का सम्बल - गुरुदत्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भाग्य अवसर प्रदान करता है परन्तु भाग्य स्वमेव लँगड़ा होता है।
पुरुषार्थ के बिना सफलता नहीं मिलती।
भाग्य हमारे अधीन नहीं, और पुरुषार्थ हमारे अधीन है। जब पुरुषार्थ और भाग्य दोनों अनकूल हो जाते हैं तो सफलता मिलती है।
सुअवसर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आते हैं, परन्तु भाग्य का फल उनको मिलता है जो पुरुषार्थ से स्वयं को उस अवसर से लाभ उठाने के योग्य बनाए हुए होते हैं।
इस विषय पर एक रोचक उपन्यास।


प्रथम परिच्छेद
:1:


दमयन्ती अपने पति के दफ्तर लौटते समय घर की ड्योढ़ी में आ खड़ी हुआ करती थी। यह उसका नित्य का काम था। कभी उसके पति को लौटने में विलम्ब हो जाता तो उसे एक-एक घंटा-भर प्रतीक्षा करनी पड़ जाती थी। आस-पड़ोस की स्त्रियाँ उसको इस प्रकार किसी की प्रतीक्षा में खड़े देखकर मुस्कुराया करती थीं।
दमयन्ती विवाह के उपरान्त इसी घर में आयी थी। नव-विवाहिता का संकोच तो कुछ ही दिनों में उतर गया था। एक तो दिल्ली नगर का वातावररण और दूसरे स्वराज्य-प्राप्ति के उपरान्त पढ़े-लिखों में संकोच-रहित जीवन का चलन इसमें उसका सहायक बन गया। अतः विवाहित जीवन के प्रथम मास में ही पति की प्रतीक्षा में, ऊपर की मंजिल से उतर मकान की ड्योढ़ी में आकर वह खड़ी होने लगी थी। वह पढ़ी-लिखी भी थी। उसने बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी।

घर में सास, वह और उसका पति नवल किशोर, तीन प्राणी ही थे। चौथा कोई व्यक्ति घर में नहीं था। सास कुछ पढ़ी-लिखी नहीं थी। अतः वह इसको विलक्षण समझती हुई भी अपनी पढ़ी-लिखी बहू से कुछ कहती नहीं थी।
सामने के मकान वाली सुधा भी किसी दफ्तर में नौकरी करती थी और प्रायः सवा पाँच बजे लौट आती थी। जब आती और दमयन्ती को अपने मकान की ड्योढ़ी में खड़े देखती तो हँस पड़ती थी। दमयन्ती पड़ोस की स्त्रियों के मुस्काराने तथा सुधा के हँसने के कारण समझती थी। इस पर भी वह अपने निश्चित समय पर ड्योढ़ी में आ खड़ी हो होती है ? वह अपने व्यव्हार पर विस्मय भी करती थी। वह सोचती कि वह क्यों आ खड़ी होती है ? वह अपने मन से पूछती; परन्तु इसका कोई युक्तियुक्त उत्तर उसके पास नहीं था।

वह विचार करती थी कि यह प्रतीक्षा वह घर के भीतर, ऊपर छत पर अथवा खिड़की में खड़े होकर भी कर सकती है। आखिर उसके पति को मोटरसाइकिल रख, सीढ़ियाँ चढ़, ऊपर आने में समय ही कितना लगेगा ! परन्तु इस सब विवेक से उसका मन संतुष्ट नहीं होता था। पाँच बजते ही वह ड्योढ़ी में आ खड़ी होती।
सुधा ने अपनी सहेलियों से दमयन्ती के इस व्यवहार की चर्चा की। सब की सब इस व्यवरहार को एक अति फूहड़ प्रदर्शन मात्र मानती थीं। सुधा एक अति मिलनसार और हँसी पसंद करने वाली युवती थी। नित्य सायंकाल उसके घर में आस-पास की उसकी सहेलियाँ उसके हँसी मज़ाक का रस लेने के लिए एकत्रित हो जाया करती थीं और जब तक सुधा का पति अपने काम से आ नहीं जाता था, उसके घर में मजलिस लगी रहती थी।

सुधा की जेठानी रमा भी इनमें आ बैठा करती थी और अपनी देवरानी के हँसी-मज़ाक में रुचि लिया करती थी। उसका पति दुकानदार था और रात के आठ बजे लौटा करता था। घर में एक नौकर था और वह छोटी बहू की सहेलियों के आने पर उनको चाय पिलाने में लगा रहता था।
एक दिन सब सखियों ने यह राय की कि दमयन्ती की हँसी उड़ायी जाए। इस राय के उपस्थित होते ही सुधा ने कह दिया, ‘‘अच्छा, मैं कल बात करूँगी।’’
इसपर एक बोल उठी, ‘‘बहुत मज़ा रहेगा। हम सब तुम्हारी बातचीत की रिपोर्ट सुनने के लिए तैयार रहेंगी।’’
अगले दिन गंगाराम की पत्नी सुधा अपने दफ्तर से लौटी तो दमयन्ती को खड़े देख, अपने घर के भीतर जाने के स्थान, दमयन्ती के सामने आ खड़ी हुई। उस दिन यत्न से अपनी मुस्कुराहट को रोककर उसने पूछ लिया, ‘‘दमयन्ती बहन ! कैसे खड़ी हो यहाँ ?’’

‘‘यों ही।’’ दमयन्ती को यह बताते हुए कि वह अपनी पति की प्रतीक्षा में खड़ी है, लज्जा लगने लगी। परन्तु इस ‘यों ही’ से सुधा चुप होने वाली थोड़े ही थी। वह इतना ही सुनकर चले जाने के लिए थोड़े ही आयी थी। अतः उसने पूछ लिया, ‘‘तो नित्य यों ही आ खड़ी होती हो ?’’
‘‘हाँ, सुधा बहन ! जब किसी कार्य का कारण समझ में न आये तो यों ही कह देना पड़ता है।’’
‘‘तो तुम नहीं जानती कि किस कारण यहाँ आकर खड़ी होती हो और किसकी प्रतीक्षा किया करती हो ?’’ इतना कहते-कहते सुधा की हँसी निकल गई। दमयन्ती, जो सुधा के हँसने के स्वभाव से परिचित थी, इसी की आशा कर रही थी। इस कारण वह भी हँसने लगी।
‘‘तो तुम अपने पति के प्रेम की डुग्गी पीट रही हो ? परन्तु फिर लज्जा...’’ कहती-कहती वह रुक गई। इस समय दमयन्ती का पति नवलकिशोर अपनी मोटर साइकिल पर सवार आ पहुँचा था। दमयन्ती ने हाथ जोड़कर पति को नमस्कार किया। नवल मकान के नीचे गैरेज में मोटर साइकिल रखने लगा तो सुधा ने वहां से टल जाना ही उचित समझा।

नवल मोटर साइकिल रख कर बाहर निकला और सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। दमयन्ती उसके पीछे-पीछे थी।
ऊपरी मंजिल पर, बैठक में माँ एक आसन पर विराजमान रामायण का पाठ कर रही थी। नवल आया तो माँ ने पूछ लिया, ‘‘आज कुछ जल्दी नहीं आ गए नवल ?’’
‘‘हाँ माँ ! आज हमारा अफसर किसी कार्यवश जल्दी चला गया था। इस कारण मैं भी जल्दी उठ आया।’’
‘‘तो काम अधूरा छोड़ आए हो ?’’
‘‘माँ ! काम तो दोपहर के बारह बजे से भी पहले समाप्त हो जाता है।

उसके बाद तो ड्यूटी पूरी करने के लिए वहाँ बैठना पड़ता है। ड्यूटी भी चार बजे पूरी हो जाती है, परन्तु अफसर के बैठे रहते, उठकर चले आना ठीक नहीं लगता। इस कारण जब तक वह बैठा रहता है, हमें भी बैठना पड़ता है।’’
‘‘तो इसका मतलब तो यह हुआ कि तुम्हारे अफसर को तुम लोगों से भी ज़्यादा काम करना पड़ता है।’’
इस समय तक नवल निश्चिंत होकर बैठ गया था और दमयन्ती रसोई में चाय लेने के लिए चली गयी थी। माँ की बात पर मुस्कुरराते हुए नवल ने कहा, ‘‘काम तो माँ ! उसको भी नहीं होता। यही कुछ हस्ताक्षर करने होते हैं। वह कर देता है फिर वह कोई पुस्तक निकाल कर पढ़ता रहता है या अन्य अफसरों से मिलता रहता है। कभी अपनी मेज़ पर कभी अन्य किसी अफसर की मेज़ पर जा चाय पीता है। कभी सब अफसर मिलकर मीटिंग कर लेते हैं और एक प्रस्ताव पास करते हैं कि दफ्तर में काम बहुत अधिक है कुछ और क्लर्क चाहिएँ। यह प्रस्ताव ऊँचे अफसरों के पास जाता है तो एक-आध क्लर्क और मिल जाता है।’’

‘‘कितने आदमी काम करते हैं तुम्हारे विभाग में ?’’
‘‘माँ, मेरे अधीन बीस क्लर्क हैं। हमारे विभाग का काम सरकार के कामों का प्रचार करना है। इसके लिए हमें सप्ताह में एक ऐलान करना होता है। यह ऐलान समाचार-पत्रों अथवा सरकारी गजट में छप जाता है।’’
‘‘इस प्रचार की क्या आवश्यकता होती है ?’’
‘‘माँ ! आजकल विज्ञापनों का युग है। लोग करते हैं और सरकार भी करती है।’’
इस समय दमयन्ती चाय ले आयी। टोस्ट मक्खन, मिठाई तथा नमकीन खाने के लिए थी। साथ ही ट्रे में तीन प्याले और चाय का पात्र था। उसने ट्रे मेज़ पर रख दी और एक-एक खाली प्लेट अपनी सास तथा पति के सामने रख दी। वे दोनों मिठाई इत्यादि अपनी प्लेटों में रखकर खाने लगे और दमयन्ती चाय बनाने लगी।



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