लोगों की राय

विविध उपन्यास >> प्रतिशोध

प्रतिशोध

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5381
आईएसबीएन :000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

357 पाठक हैं

एक रोचक उपन्यास...

Pratishodh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

दुनियादारी में साधारणतः और राजनीति में विशेष रूप से यह माना जाता है कि शत्रु मित्र होता है। इस मान्यता पर राज्य और सांसारिक जीव कार्य करते भी देखे जाते हैं। परन्तु क्या यह मान्यता ठीक है ? यही इस पुस्तक का विषय है।
जिनकी दृष्टि केवल बाहरी व्यवहार को देखती है अथवा जो कभी दूर की बात विचार करते ही नही, उनको उक्त सिद्धान्त जीवन के व्यवहार की एक महान् धुरी प्रतीत होती है। कार्य और कारणों का गम्भीरता से अध्ययन करनेवालों के लिए ‘शत्रु का शत्रु मित्र’ वाला सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या ही प्रतीत होगा।

यह नहीं कि किसी एक समय पर किसी विशेष परिस्थिति में शत्रु के शत्रु को प्रयोग करना पाप है। ऐसा कई बार किया जाता है। कभी इस प्रयोग का शुभ फल भी होता देखा जाता है, परन्तु यह फल इतना शत्रु के शत्रु के मित्र होने के कारण नहीं होता जितना शत्रु के शत्रु से सहयोग करनेवाले की चतुराई का परिणाम होता है।

चतुर व्यक्ति तो शत्रु के शत्रु को मित्र कहता है, परन्तु उसको मित्र मानता नहीं। सरलचित्त शत्रु के शत्रु को मित्र मान स्वयं किसी न किसी मुसीबत में फँस जाता है। सरलचित्त व्यक्ति शत्रु के स्वभाव और उद्देश्य को भूल जाता है। अपनी इस भूल और विश्वास पर उसके लिए पश्चात्ताप के अतिरिक्त अन्य कुछ करने को रह ही नहीं जाता।
राजनीति में भी, जहाँ सतत सतर्कता एक अत्यावश्यक व्यवहार है, ‘शत्रु का शत्रु मित्र’ का सिद्धान्त सदैव मिथ्या सिद्ध हुआ है। जहाँ कहीं भी शत्रु के शत्रु से किसी प्रकार का लाभ उठाया गया है वह जागरूकता से शत्रु के शत्रु को एक संदिग्ध साथी मानकर ही उठाया गया है।

विश्वव्यापी द्वितीय जर्मन युद्ध ने इसका उदाहरण इतने स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया था कि इस विषय में दो मत हो ही नहीं सकते। इस युद्ध के आरम्भ में तो नाज़ी जर्मनी और सोवियत संघ की मित्रता हो गई, परन्तु शीघ्र ही दोनों में जंग छिड़ गई। इस समय अंग्रेजों ने समझा कि जर्मनी उनका शत्रु है और जर्मनी का शत्रु सोवियत रूस है, अतः इससे मित्रता कर लेनी चाहिए। युद्ध में सहयोग तो हुआ, परन्तु मित्रता नहीं हुई। कुछ अंग्रेज और अमेरिका के अधिकारी रूप के भुलावे में आ गए और उसको मित्र समझ बैठे। परिणाम भयंकर ही हुए थे।

सत्य तो यह है कि मित्र होने के लिए स्वभाव, जीवन-लक्ष्य और व्यवहार में समानता आवश्यक है। इन लक्षणों के अभाव में कोई शत्रु का मित्र हो अथवा शत्रु का शत्रु, कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता।
कभी भावुकता अथवा सामयिक परिस्थितियाँ वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं होने देती। समय पर वस्तुस्थिति प्रकट हुए बिना नहीं रहती।
कुछ शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मित्रता और सत्रुता में मानसिक अवस्था कारण होती है। व्यवहार, जो परिस्थितियों से विवश होकर स्वीकार किया जाता है, मित्रता अथवा शत्रुता का सूचक नहीं हो सकता।
शेष तो यह कहानी है जिसमें पात्र, स्थान और घटनाएँ काल्पनिक ही हैं।

-गुरुदत्त


प्रतिशोध


प्रथम परिच्छेद


पद्यजीतसिंह ज़िला रायबरेली की एक छोटी-सी ज़मींदारी का मालिक था। उसका लड़का लखनऊ में ताल्लुकेदारों के स्कूल में पढ़ता था। लड़के की पढ़ाई का ख़र्चा दो सौ रुपये मासिक पड़ जाता था। पढ़ाई तो उस स्कूल में जैसी होती थी वह थी ही; हाँ, वहाँ अभिमान और निर्धनों के प्रति घृणा सीखने का बहुत अच्छा अवसर मिलता था। पद्यजीतसिंह के लड़के का नाम पृथिवीपालसिंह था। अभी छठी श्रेणी में ही पढ़ता था कि उसको यह ज्ञान हो गया था कि उसका पिता ज़मींदार है और उसकी भूमि पर कई सौ परिवार बसे हुए हैं। उसको यह भी अनुभूति होने लगी थी कि वे सब परिवार उसके पिता जी की भूमि जोतते, बोते और उसी से निर्वाह करते हैं। यदि वह भूमि उनसे छीन ली जाए तो वे भूखों मर सकते हैं।

ज़मींदार पद्यजीतसिंह कुरेड़ी गांव में एक बहुत बड़ी हवेली में रहता था और उसमें उसके भाई-बन्धु, बहन-बहनोई प्रायः आकर टिके रहते थे। हलेवी, जो कोट कहाती थी, इन सगे-सम्बन्धियों से प्रायः भरी रहती थी। पृथिवीपालसिंह ग्रीष्म ऋतु की छुट्टियों में घर आया था और कोट में बहुत भारी भीड़ एकत्रित देख बेचैनी अनुभव करने लगा था। स्कूल के होस्टल में उसको रहने के लिए एक पृथक् कमरा मिला हुआ था। कमरा तो कोट में भी उसके रहने के लिए पृथक् था। परन्तु इस बार सम्बन्धियों की भीड़ अधिक होने से उसकी बुआ का लड़का दुर्गानन्दसिंह वहाँ टिका हुआ था।
दुर्गानन्दसिंह पृथिवीपालसिंह से आठ वर्ष बड़ा था। कॉलेज से बी.एस. पास कर अब वह घर का काम-काज सँभालता था। ईसाई स्कूलों में सीखी जानेवाली बुराइयों के अतिरिक्त वह और विषयों में भी बहुत-कुछ जानता था। वह अच्छी और बुरी बातों का एक विचित्र सम्मिश्रण बन गया था।

पृथिवीपालसिंह इस बार लखनऊ से आया तो अपने कमरे में दुर्गानन्दन को डटकर बैठा देख द्वार पर ही ख़ड़ा रह गया। दुर्गानन्दन कुर्सी पर बैठा सामने मेज पर दर्पण रख दाढ़ी बना रहा था। मेज़ पर हजामत बनाने का सामान रखा हुआ था।
दिन के ग्यारह बजे थे। पृथिवीपालसिंह लखनऊ से स्नान और नाश्ता करके चला था। प्रातः दस बजे की गाड़ी से रायबरेली पहुँचा था और पिता की भेजी घोड़ागाड़ी में सवार हो स्टेशन से साढ़े दस बजे कुरेड़ी पहुँच गया था। गाडी से उतर, माँ से मिल और पिता को नमस्कार कर वह अपने कमरे में पहुँचा तो अपने फुफेरे भाई को नाइट ड्रेस में हजामत बनाते देख पहले तो विस्मय में खड़ा रह गया, फिर आहिस्ता-आहिस्ता बात समझ खिलखिलाहकर हँस पड़ा।
दुर्गानन्दन उसके हँसने का कारण नहीं समझ सका। वह एक गाल पर का साबुन उस्तरे से उतारते हुए घूमकर पृथिवीपाल की ओर देख बोला, ‘‘वहाँ खड़े क्या हा-हा कर रहे हो ? भीतर आओ बेटा ! बड़े भाई को ‘पाये लागूँ’ करो और फिर मुझसे आशीर्वाद लो।’

इससे तो पृथिवीपाल और भी ज़ोर से हँसा। इस समय तक वह भीतर कमरे में आ गया और दुर्गानन्दन के मुख पर ध्यान से और समीप से देखने लगा।
‘‘अबे बच्चू ! मैं दुर्गानन्दन हूँ। तुम्हारे बाप के बहनोई का लड़का। अब भी पहचाना कि नहीं ?’’
‘‘भैया ! पहचाना तो है। मैं तो यह देख रहा हूँ कि यह हजामत किसकी कर रहे हो। तुम्हारी ठु़ड्डी पर बाल तो एक भी दिखाई नहीं देता ?’’
‘बैठो, पृथिवी ! तुमको चश्मा लगाने की आवश्यकता है। जरा ठहरो। बकाया हजामत बना लूँ तो फिर तुमको फिरोज़ चश्मेवाले के पास ले चलूँगा।
‘‘और दादा ! अभी सोकर उठे हो ?’’

‘‘हाँ, तो क्या इस समय सोकर उठना पाप है ?’’
‘‘नहीं भैया, पाप नहीं, पुण्य कर रहे हो। मगर तुमको इस कमरे में किसने ठहराया है ?’’
‘‘तुम्हारी माँ के पति ने। उसको भी जानते हो कि नहीं ?’’
‘‘तुम गँवार के गँवार ही रहे ! तुमको बिल्कुल बात करने की अक्ल नहीं। और मैं समझता हूँ कि तुम जैसे बेवकूफ से मेरा निर्वाह कठिन है। मुझको रात सोने का प्रबन्ध कहीं अन्यत्र करना होगा।’’
‘‘तो यह रात होने तक विचार कर लेंगे। बैठो, अभी तो यह बताओ कि कब आए हो ?’’
पृथिवीपाल हँस पड़ा और पलंग पर बैठ गया। वहाँ दूसरी कुर्सी नहीं थी। सामने दीवार के साथ नौकर उसका सूटकेस और बिस्तर रख गया था। पृथिवीपाल विचार कर रहा था कि वह अपना सूटकेस खोले अथवा अपने पिता के पास जाकर कहे कि उसके लिए पृथक् कमरा दिया जाए।

दुर्गानन्दन हजामत समाप्त कर उठा और ब्रश तथा सेफ्टी रेजर लेकर कमरे के बाहर तिपाई पर रखे गगरे में से जल लेकर उनको धोने लगा। ब्रश, रेजर और प्याला धोने में उसे पर्याप्त समय लग गया। इस समय तक पृथिवीपाल मन में निश्चय कर चुका था कि वह कुरेड़ी में ही नहीं रहेगा; उसको अपने फुफेरे भाई की निन्दा करने की अपेक्षा पहाड़ पर जाने का कार्यक्रम बना घर से ही छुट्टी लेनी चाहिए।

वह उठा और पिताजी को अपनी इच्छा बताने के लिए चल पड़ा। पिताजी आज शतरंज की बाजी लगाए बैठे थे। उनके सामने खेलनेवाला इलाहाबाद का वकील था। वह ज़मींदारी के किसी मुकद्मे के संबंध में आया हुआ था और अभी जाने का समय न होने के कारण शतरंज खेलकर समय निकाल रहा था। कुछ अन्य सम्बन्धी दोनों का खेल देख रहे थे। वकील साहब हार रहे थे और बाबू साहब जीत रहे थे। ज्यो-ज्यों वकील साहब हार रहे थे और बाबू साहब जीत रहे थे ज्यों-ज्यों वकील साहब के प्यादे और मोहरे कट रहे थे, सब वाह-वाह कर रहे थे और वकील साहब प्रत्येक हार पर हँस देते थे।

पृथिवीपाल कुछ देर तक खड़ा-खड़ा उनका खेल देखता रहा। एकाएक उसकी समझ में आया कि वकील साहब तो जान-बूझकर हार रहे हैं। इसको वकील साहब की खुशामद समझ उसको खेल में रस नहीं आया और वह पिताजी के खाली होने की प्रतीक्षा में वहाँ ठहरना उचित न समझ बाहर निकल आया। द्वार पर चौकीदार हाथ में बन्दूक लिये खड़ा था। वह पृथिवीपालसिंह को कोट से निकलता देख सलाम कर पूछने लगा, ‘‘भैया ! कब आए हो ?’’
‘‘अभी आया हूँ बटनसिंह ! क्यों, तुम किसलिए पूछ रहे हो ?’’

बटनसिंह मुस्काराया और बोला, ‘‘श्रीपति आपके विषय में पूछ रहा था।’’
पृथिवी को श्रीपति की याद ही नहीं रही थी। वह उसका बचपन की साथी था। स्कूल में भरती होने से पहले दोनों गहरे मित्र थे। पीछे श्रीपति गाँव के स्कूल में भरती हो गया था और पृथिवीपाल लखनऊ के स्कूल में। इस पर भी जब पृथिवी गाँव में आता, दोनों मिलते-जुलते और खेतों तथा जंगल में घूमते रहते थे।
एक बात हो रही थी कि पृथिवीपाल और श्रीपति को अपनी सामाजिक स्थिति में अन्तर का ज्ञान होता जा रहा था। बाबू साहब अपने चौकीदार के लड़के से अपने लड़के का मेल-जोल पसंद नहीं करते थे और वे अब जहाँ श्रीपति को मुख नहीं लगाते थे वहाँ पृथिवीपाल को भी कहा करते थे कि गाँव के लोगों से मित्रता का कुछ प्रश्न ही नहीं। वे हमारी प्रजा हैं और श्रीपति एक दिन उसकी प्रजा बननेवाला है।

अपने स्कूल के मास्टरों के नित्य यह बताने पर कि वहाँ पढ़नेवाले समाज में नेता का पद रखते हैं, और साधारण स्कूलों में पढ़नेवाले छोटे दर्जे के लोग हैं, पृथिवी के मन में अभिमान की मात्रा द्रुति गति से बढ़ रही थी। घर पिताजी के कहने और स्कूल की इस शिक्षा के प्रभाव से श्रीपति विस्मृत होता जा रहा था।
जब बटनसिंह ने उसको बताया कि उसका बेटा उसको याद कर रहा था तो उसके मन में विचार उठा कि श्रीपति से मिला जाए। एक बार उसके मन में यह भी विचार उठा-किसलिए मिला जाए ? परन्तु तुरन्त ही उसको कारण जानने की बात भूल गई और वह बचपन के संस्कारों से प्रेरित बटनसिंह के घर की ओर चल पड़ा।

बटनसिंह को यह स्वाभाविक ही प्रतीत हुआ था। बचपन के काल में तो पृथवी उसके ही घर में घुसा रहता था और श्रीपति की माँ से गुड़-चबैना छीनकर खा जाया करता था। अब उतनी घनिष्ठता नहीं रही थी। इस पर भी श्रीपति उसको याद करता था और अब पृथवीपाल को भी श्रीपति की ओर जाते देख बटनसिंह को समझ में आया कि अभी बचपन की मित्रता स्थिर है।

2


श्रीपति ज़मीदार के लड़के से स्नेह रखता था। दोनों बचपन में कई प्रकार के खेल-कूद और बातों तथा कलप्नाओं में इतने एक-दूसरे के साथ-साथ रह चुके थे कि श्रीपति इसको भूल नहीं सका था। उस समय तो पृथिवी प्रत्येक बात में उससे बाज़ी ले जाता था।

बातों और कल्पनाओं में भी पृथिवी श्रीपति से आगे रहता था। इसमें कारण दोनों के घरों का वातावरण था। दोनों के घरों में भिन्न-भिन्न प्रकार की बातें और प्रथाएँ चलती थीं। दोनों के श्रुत तथा दृश्य ज्ञान  में अन्तर था।
परन्तु जब स्कूल भिन्न-भिन्न हुए, अध्यापक भिन्न-भिन्न हुए और उसकी शिक्षा भिन्न हुई तो श्रीपति पृथिवी से बाजी ले-जाने लगा था। वह दोहात के स्कूल के लड़कों से लड़ता-झगड़ता और कबड्डी-कुश्ती खेलता हुआ पृथिवी से शरीर में सुदृढ़ हो रहा था। स्कूल की पढ़ाई में भी वह अपने पर ही निर्भर करने के कारण द्रुत गति से उन्नत कर रहा था।

पृथवीपाल के लिए न तो शारीरिक संघर्ष था न मानसिक। सब-कुछ स्कूल मास्टर, होस्टल के नौकर और घर के नौकर-चाकर कर देते थे। पढ़ाई के विषय में भी वह मास्टरों से सीमा से अधिक आश्रय ले रहा था। अतः वह धीरे-धीरे इस विषय में श्रीपति से पीछे रहता जाता था।
इस पर भी पृथवीपाल को इस बात का ज्ञान नहीं था। इसके विपरीत श्रीपति अपनी विशिष्टता को अनुभव करने लगा था।
पृथवीपाल ने बटनसिंह के द्वार पर खड़े होकर आवाज़ लगाई तो श्रीपति धोती-कुर्ता पहने पाँव तथा सिर से नंगा भागा-भागा घर के द्वार पर चला आया और पृथवीसिंह को नेकर-कमीज़ और सिंर पर हैट लगाए तथा घुटनों तक मोज़े और बूट पहने खड़ा देख एक क्षण के लिए तो अपने और उसमें अन्तर देख ठिठककर खड़ा रह गया, फिर आगे बढ़कर बोला, ‘‘भैया। तुम आ गए ? सब ठीक है ?’’

पृथवीसिंह उसकी बाँह में बाँह डालता हुआ बोला, ‘‘क्या कर रहे हो ?’’
‘‘छुट्टियों का काम कर रहा हूँ।’’
‘‘कब से छुट्टियाँ हैं ?’’
‘‘कल से ही। आज छुट्टियों का पहला दिन है।’’
‘‘और आज से ही बैल की भाँति जुट गये हो ?’’
श्रीपति ने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘आज मैं प्रातः से ही तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। विचार था कि दो सवाल और हल कर कोट में पहुँच पता करूँगा।

‘‘वैसे मैं कल वहाँ गया था और तुम्हारा कमरा खुला देख वहाँ जा पहुँचा और वहाँ एक अन्य प्राणी को मज़े में तुम्हारे पलँग में लेटे देख विस्मय में मुख देखता रह गया। मैं तो बिना बात किए लौट आने वाला था कि उसने बुला लिया और मुझको सामने खड़ा देख कर मेरे विषय में पूछने लगा। जब सब-कुछ जान गया तो पूछने लगा कि क्या कोट में प्रवेश करने से मुझे किसी ने रोका नहीं ?
‘‘मैंने उसको बता दिया कि मुझे कोट के किसी भी भाग में जाने से मनाही नहीं है।
‘‘उसने मेरी ओर आँखें फाड़कर देखा और फिर कहने लगा कि वह मुझे कोट में आने के लिए मना करता है। कहने लगा, ‘भाग जाओ नहीं तो कान मरोड़कर नानी याद करा दूँगा !’’
‘‘तब मैं वहाँ से चला आया ।’’

‘‘चलो, उस इन्दारा तक चलें, जूता पहन लो।’’
‘‘भैया ! जूता नहीं है, मैं ऐसे ही चलूँगा।
‘‘तो स्कूल में भी नंगे पाँव जाते हो ?’’
‘‘हाँ, जब है ही नहीं तो कहाँ से पहनूँ !’’
दोनों मित्र कुएँ की ओर चल पड़े। गाँव से आधा कोस दूर पर एक बहुत बड़ा कुआँ था और इन दोनों को उस कुएँ की जगत पर बैठने का अभ्यास था।

श्रीपति और पृथिवीपाल एक ही आयु के थे। दोनों के जन्मदिवस में एक माह का अन्तर था। श्रीपति छोटा था। इस पर भी श्रीपति ज़मीदार के ल़ड़के से दो अंगुल ऊँचा हो गया था। उसकी छाती और गर्धन भी मित्र से मज़बूत हो गई थी।
श्रीपति के कहने पर कि उसके पास जूता नहीं है, पृथिवीपाल के दिमाग में वे सब बातें प्रस्फुटित होने लगीं जो उसका पिता और स्कूल मास्टर उसके कान में भरा करते थे। उसने कहा, ‘‘पाँव में ठोकर लग जाए तो ?’’
‘‘नहीं लगती। मैं तो नंगे पाँव ही फुटबाल भी खेल लेता हूँ।’’

पृथिवी विस्मय से उसके पाँव देखने लगा तो श्रीपति ने बात बदल दी और कहने लगा, ‘‘भैया इस बार मैंने परीक्षा में बहुत अच्छे अंक लिए तो हेडमास्टर ने मुझे दो श्रेणियां चढ़ा दिया है और अब मैं सातवीं श्रेणी में हूँ।’’
‘‘बहुत मूर्ख है तुम्हारा मास्टर।’’
‘‘और इस त्रैमासिक परीक्षा में मैं सातवी श्रेणी में भी प्रथम रहा हूँ।’’
‘‘तो तुम्हारे स्कूल में सब बुद्धू ही पढ़ते हैं ?’’
‘‘हाँ भैया ! मैंने छठी श्रेणी की हिन्दी तथा अंग्रेज़ी की सब किताबें घर पर ही पढ़ ली थीं। केवल एक-दो बार मास्टर जी से सहायता लेनी पड़ी थी।’’

‘‘तो तुम अंग्रेज़ी में चिट्ठी लिख सकते हो ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘पर तुम और बहुत-सी बातें नहीं जानते।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘तुम जानते हो कि हिन्दुस्तान में कितने सूबे हैं ?’’
‘‘हाँ, ज्योग्राफी कि किताब में लिखा है। आठ सूबे हैं।’’
‘‘सूबे के हाकिम को क्या कहते हैं ?’’
‘‘गवर्नर।’’

‘‘हमारे सूबे का क्या नाम है ?’’
‘‘संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध।’’
‘‘इसको ऐसा क्यों कहते हैं ?’’
‘‘पहले दो प्रन्त पृथक्-पृथक् थे। अब इनको इकट्ठा कर दिया गया है। इस पर भी दोनों के कई-कई कायदे कानून अभी भी भिन्न-भिन्न हैं।’’
पृथिवीपाल समझ गया कि इस बात को भी उसका मित्र उससे अधिक जानता है। इस कारण इस बात को उसके मन पर अंकित करने के कारण वह उससे छोटा है, उसने कुछ उन विषयों की बात आरंभ कर दी जो स्कूल की पढ़ाई के अतिरिक्त थी।

उसने पूछा, ‘‘अच्छा श्रीपति ! यह बताओ यहाँ के शहंशाह का क्या नाम है ?’’
‘‘जार्ज पंचम दि किंग ऑफ इंग्लैंड एण्ड एम्परर ऑफ इंडिया, सीलोन एण्ड बर्मा।’’
‘‘यह क्यों, इंग्लैंड का किंग और हिन्दुस्तान का एम्परर में क्या भेद है ?’’
‘‘इसलिए कि वह इंग्लैंड का रहनेवाला है और हिन्दुस्तान-जैसे पराये देश पर राज्य करता है।’’
‘‘तो वह एम्परर हो गया ?’’
‘‘हाँ, मगर हमको इसका राज्य यहाँ से हटाना है।’’ अब श्रीपति भी वैसी ही बात करने लगा था जैसी स्कूल के बाहर की बात पृथिवीपालसिंह ने की थी।
‘‘कैसे हटाओगे ?’’

‘‘लड़कर।’’
पृथिवीपाल हँस पड़ा। बोला, ‘‘हम सब राजा-महाराजा, किंग एम्परर की तरफ से लड़ेंगे। हम उसके राज्य को यहाँ रखेंगे और जो भी उसके बरखिलाफ होगा उसे मार डालेंगे।’’
‘‘परन्तु भैया ! राजा-महाराजा तो थोड़े-से हैं न ? उनके लड़ने से क्या होगा ? प्रजा तो बहुत ज़्यादा है !’’
‘‘मगर सेना हमारी तरफ होगी।’’
अब बात श्रीपति की बुद्धि पार करने लगी थी। जो कुछ लड़ने की बात उसने कही थी वह उसके मास्टर ने एक दिन बताई थी। उसे राजा-महाराजाओं के विषय में तथा सेना के विषय में बात नहीं बताई गई थी।

यह सन् 1920 की बात थी। जर्मनी का अंग्रेज़ों से युद्ध हो चुका था। अंग्रेज़ अमेरिका की सहायता से विजयी हो गये थे। इस युद्ध पर चर्चा करते हुए मास्टर ने बताया था एक दिन वे भी अंग्रेज़ों से लड़ेंगे। इस पर उसने किंग तथा एम्परर शब्दों की व्याख्या भी की थी। इसी सम्बन्ध में उसने बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, दादाभाई नैरोजी, गोखले इत्यादि देश के नेताओं की भी बातें बताई थीं।

जब पृथवीपालसिंह ने सेना की बात की तो श्रीपति उसका मुख देखता रह गया। इसपर पृथिवीपाल खिलखिलाकर हँस पड़ा। और बोला, ‘‘देखो, तुम मुझसे कम जानते हो।’’
‘‘हाँ भैया ! लखनऊ के मास्टर अधिक पढ़े-लिखे हैं।’’
इसपर पृथवीपाल ने इस पाँव और सिर से नंगे अपने साथी के मन पर यह अंकित कर दिया कि वह उससे कम से कम इस ज्ञान में अधिक है।

श्रीपति ने बात बदलकर कहा, ‘‘भैया ! कल तुम्हारे कमरे में कौन टिका था ?’’
‘‘वह मेरी बुआ का लड़का दुर्गानन्दनसिंह है। वह अब भी वहीं टिका हुआ है।’’
‘‘बहुत ही बदतमीज़ है।’’
‘‘श्रीपति ! वह हमसे बड़ा है, इसलिए हमारे कान भी मरोड़ सकता है।’’
‘‘क्यों ?’’

‘‘उसका विचार होगा कि तुमको कोट में नहीं आना चाहिए। वह अपने आपको बाबू साहब का सम्बन्धी जो मानता है !’’
‘‘पर मैं तुम्हारा दोस्त जो हूँ ! मैंने उसको बताया भी था।’’
‘‘इसपर भी मित्रता से रिश्तेदारी बड़ी बात है।’’
श्रीपति गम्भीर हो गया। वह इसके अर्थ पर विचार करने लगा। इस पर पृथिवी ने कह दिया, ‘‘देखो मैं यहाँ के ज़मीदार का लड़का हूँ। इस कारण मेरी और तुम्हारी इज़्ज़त में अन्तर है।’’
‘‘पर मैंने तो उसको अपनी इज़्ज़त करने के लिए नहीं कहा था ?’’

‘‘कोट मे जाना भी तो एक इज़्ज़त ही है !’’
‘‘परन्तु पहले तो मैं सब जगह जाता था ? कल भी सीता ने मुझसे पूछा था कि अब मैं माताजी से मिलने के लिए क्यों नहीं आता ?’’
‘‘ओह ! वह तुमको कहाँ मिली थी ?’’
सीता पृथिवीपालसिंह की सौतेली बहन का नाम था। वह पृथिवीपाल से पाँच वर्ष छोटी थी। श्रीपति ने उत्तर दिया, ‘‘कोट में। मैं तुम्हारे कमरे से उस भयानक जानवर से डरकर लौट रहा था कि वह सामने से आती हुई मिल गई। उसके साथ मैं उसकी माता जी के पास गया। पाय लागूँ तो उन्होंने पीठ पर हाथ फेरकर प्यार किया, खाने को मिठाई दी और जब मैंने बताया कि मैंने एक वर्ष में दो श्रेणियाँ पास की हैं तो उन्होंने मुझे एक पुस्तक इनाम में भी दी।’’
श्रीपति ने यह बात यह प्रकट करने के लिए बताई थी कि उसके अन्य सम्बन्धी उसकी इज़्ज़त करते हैं। परन्तु पृथिवीपाल इसको एक दूसरे ढंग से विचार करता था। वह समझता था कि श्रीपति बटनसिंह चौकीदार का लड़का है, और नौकरों के लड़कों को इनाम-इकराम मिलता रहता है।

परन्तु उसने बात बदलकर बताया, ‘‘मैं किसी पहाड़ पर जाने का विचार कर रहा हूँ।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘जहाँ पिताजी भेज दें।’’
श्रीपति ने उत्तर में केवल एक दीर्घ निःश्वास छोड़ दिया। पृथिवी का ध्यान उस ओर नहीं था। उसने कहा, ‘‘यदि मैं जा सका तो तुमको साथ ले चलूँगा।’’
‘‘बहुत कठिन है।’’
‘‘क्यों, खर्चा तो पिताजी देंगे।’’
‘‘इस पर भी मुझे स्कूल का काम तो करना ही है।’’
‘‘किताबें वहीं ले चलेंगे।’’
‘‘और भैया, तुम्हारे साथ कौन जाएगा ?’’
‘‘मैं तो केवल एक नौकर को ही साथ ले जाना चाहूँगा।’’
‘‘असम्भव है, बाबू साहब जाने नहीं देंगे।’’
‘‘यह कैसे कहते हो ?’’
‘‘अच्छा, देख लेना।’’

3


पृथिवीपाल के पहाड़ जाने पर बहुत विचार हुआ। पृथवीपाल का बहुत कहना था, ‘‘हमारे स्कूल के प्रायः सब विद्यार्थी किसी-न-किसी पहाड़ पर जा रहे हैं। हमारा हेडमास्टर कहता था कि इससे ज्ञान-वृद्धि और चरित्र-निर्माण होता है।’’
पहले ही दिन मध्याह्न के भोजन के बाद यह बात हो रही थी।
पद्मजीतसिंह यह समझ नहीं सकता था कि ग्यारह वर्ष का लड़ाका माता-पिता के बिना किस प्रकार परदेश जा सकता है। पृथिवीपाल की माता भी यही समझती थी और वह चाहती कि वह अपने माता-पिता के साथ ही पहाड़ पर क्यों न जाए। सब धनी-मनी लोग जाते हैं। बाबू साहब समझते थे कि घर पर बीस से अधिक सम्बन्धी आए हुए हैं, उनको छोड़कर वे जा नहीं सकते।

पृथवी की माता नर्मदारानी ने कहा, ‘‘सम्बन्धियों को कह दिया जाए कि हम पहाड़ पर जा रहे हैं। इससे वे शीघ्र ही विदा हो जाएँगे। उनका यहाँ आकर टिक जाना भी तो किसी प्रायोजन से नहीं है।’’
पद्मजीतसिंह समझता था कि इस प्रकार तो सम्बन्धियों का अपमान हो जाएगा। वह ऐसा करना नहीं चाहता था। इस पर पृथिवी की माता ने कह दिया, ‘‘तो पृथिवी, तुम पहाड़ पर नहीं जा सकते।’’
‘‘माँ ! क्यों ?’’
‘‘हम तुमको अकेले नहीं जाने देंगे।’’

‘‘मैं किसी आदमी को साथ ले जाऊँगा।’’
‘‘किस आदमी को साथ ले जाओगे ?’’
‘‘बटनसिंह चौकीदार को।’’
‘‘तुम उसको आदमी समझते हो ? वह तो मूर्ख है !’’ पद्मजीतसिंह ने कहा।
‘‘पिताजी ! वह कलकत्ते में नौकरी कर चुका है।’’
‘‘नहीं, तुम उसके साथ अकेले नहीं जा सकते।’’
‘‘तो माताजी को साथ भेज दीजिए।’’
‘‘घर पर भी तो कोई रहेगा कि नहीं ?’’
‘‘छोटी माँ जो हैं !’’
पृथवीपाल का अभिप्राय अपनी विमाता विन्ध्यवासिनी से था।
    



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book