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सामाजिक >> सब एक रंग

सब एक रंग

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1981
पृष्ठ :239
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5367
आईएसबीएन :0000

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एक सामाजिक उपन्यास...

Sab Ek Rang

प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश


सामाजिक व्यवहार हैं खान-पान, विवाह-शादी, इकट्ठे सभा-जलसे मनाना, परस्पर इच्छानुसार मित्र-शत्रु स्वीकार करना; और मज़हब है देवी-देवताओं, पीर पैगम्बर को मानना तथा पूजा-पाठ, नमाज पढ़ना इत्यादि। ये व्यक्ति की निजी बातें हैं।
परन्तु देश में समाज एक होना चाहिए। उसके नियम-उपनियम एक हों। सबके अधिकार तथा कर्तव्य समान हों; देश में शान्ति तथा व्यवस्था इसके बिना संभव नहीं......
‘सब एक रंग’ उपन्यास की यही पृष्ठभूमि है।

प्रथम परिच्छेद


चौधरी मोटूराम एक बंदूक और एक पिस्तौल खरीदने नगर में आया हुआ था। उसके गांव झुनझुन टीकड़ी का एक अन्य किसान भी अपनी फसल का दाम वसूल करने वहां पहुंचा हुआ था। किसान का नाम गौरीशंकर। वह जाति का ब्राह्मण था और ज्वालामुखी कांगड़ा के पुजारियों के परिवार का होते हुए भी झुनझुन टीकड़ी में बीस बीघा भूमि जोत कर निर्वाह करता था।
मन्दिर की आय का भी एक भाग उसे मिलता था। वह भाग बहुत अधिक तो नहीं होता था। प्राय: वर्ष भर में पांच-छ: सौ रुपये ही होते थे। इस पर भी, उस काल में एक कृषक को वर्ष में इतना कुछ मिल जाना ही एक जागीर के समान ही समझा जाता था।

गौरीशंकर ने अपने आढ़ती की दुकान से कुछ रुपये प्राप्त किये। फिर घर के लिए वह ‘बस स्टैण्ड’ की ओर जा रहा था कि चौधरी मोटूराम अपने तांगे में सवार सामने से आता मिल गया।
गांव नगर से दस मील के अन्तर पर था और चौधरी मोटूराम तांगे में ही नगर को आया था तथा तांगे में ही गाँव को लौटना चाहता था।
गौरीशंकर ने चौधरी को देखा तो हाथ ऊंचा कर आशीर्वाद दे दिया। चौधरी ने तांगा खड़ा किया और पूछ लिया, ‘‘पण्डित, कहां घूम रहे हो ?’’
‘‘लाला धन्नामल्ल से कुछ लेना बनता था। वह लेने आया था और बच्चों के लिए कुछ सामान खरीद कर ले जा रहा हूं।’’
‘‘तो अभी ठहरोगे या चलोगे ?’’

‘‘काम तो निपटा चुका हूं। यदि बस में स्थान मिल गया तो चल दूंगा।’’
‘‘तो हमारे ठेले में ही चले चलो।’’ चौधरी साहब ने प्रस्ताव रख दिया।
‘‘ठेले में ?’’ सरल चित्त गौरीशंकर ने बात को समझते हुए पूछ लिया।
‘‘हां, पण्डित ! बस के मुकाबले में यह तांगा ठेला ही तो है।’’
‘‘ओह ! तो अपने तांगे में ले चलने के लिए कह रहे हैं।’’
चौधरी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘पण्डित ! बस पहुंचेगी पौन घंटे में और यह तांगा डेढ़ घंटे में जा पहुंचेगा। बस, इतनी ही अधिक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’

गौरीशंकर यही तो चाहता था। वास्तव में उसने हाथ उठा, आशीर्वाद भी इसी आशा से दे दिया था। अब चौधरी ने स्वयं ही उसे ले चलने को कहा तो पण्डितजी ने कह दिया, ‘‘यजमान की जय हो। भगवान आपको शीघ्र पौत्रों-दुहितों से सुशोभित करे।’’ ‘‘आओ, सामान आगे कोचवान के पास रख दो और मेरे पास ही बैठ जाओ।’’
पण्डित गौरीशंकर के दिमाग में खुजली उठ रही थी। बीस दिन हुए चौधरी ने गांव में एक बहुत भारी उत्सव किया था। उस उत्सव में जिला हाकिम मिस्टर कार्टर स्मिथ, आई.सी.एस. भी आये थे। योरुप में जर्मनी से जंग आरम्भ हुए तीन महीने हो चुके थे और इंग्लैंड की सरकार की ओर से धन और जन की अपील हो चुकी थी। हिन्दुस्तान के वाइसराय ने भी हिन्दुस्तान सरकार की ओर से जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी थी, साथ ही देशवासियों को खुले दिल से धन देने और सेना में भरती होने की मांग की थी। इस युद्ध में कांग्रेस तब तक सहायता देने से इन्कार कर रही थी जब तक देश में स्वराज्य स्थापित नहीं हो जाता।

इस पर भी चौधरी मोटूराम युद्ध प्रयास में सरकार की सहायता कर रहा था।
डिप्टी कमिश्नर ने एक दिन चौधरी से, जब वह अदालत में किसी विषय पर गवाही पर हाजिर हुआ था, पूछा था, ‘‘चौधरी साहब ! वायसराय बहादुर की अपील पर कुछ दे रहे हो न ?’’
चौधरी ने कह दिया, ‘‘मैं तो हुजूर को गांव की ओर से निमंत्रण देने का विचार कर रहा हूं। आप यदि आयें तो मैं आस-पास के गांवों में डुग्गी पिटवा दूंगा कि हुजूर युद्ध के लिए मदद मांगने आये हैं। स्वयं भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार दूंगा और अन्य जमींदारों से भी दिलवाने का यत्न करूंगा। साथ ही यदि आप कुछ समय वहां ठहरने की मंजूरी दें तो मैं पास-पड़ोस के गांवों के युवकों में कुश्तियों का दंगल करवा दूंगा, जिससे दस-बीस गांवों के युवक एकत्रित हो जायेंगे और फिर भरती के लिए भी अपील की जा सकती है।’’

डिप्टी कमिश्नर इस प्रस्ताव पर फड़क उठा। उसने कहा, ‘‘तो चौधरी ! करो, मैं आऊंगा।’’
दिन निश्चित हुआ और जिस दिन चौधरी गौरीशंकर को नगर के बाजार में मिला था, उससे बीस दिन पूर्व उत्सव हुआ था।
उत्सव में दंगल हुआ। दंगल में जीतने वालों को बीस-बीस रुपये इनाम और जीतने-हारने वालों, दोनों को पगड़ियां दी गयीं।
युद्ध के लिए धन जमा हुआ। पचास हजार रुपये इक्ट्ठा हुए जिसमें पांच हजार चौधरी मोटूराम ने ही दिये थे।
भरती के लिए भी मांग की गयी और पचास के लगभग युवक तो उसी समय तैयार हो गये। वहां भरती का दफ़्तर खोल दिया गया, और दस-बीस युवक नित्य भरती होने लगे।
यही बात थी जो गौरीशंकर के दिमाग में खुजली उत्पन्न कर रही थी। जब तांगा नगर से निकला तो गौरीशंकर के मन की बात कह दी।

‘‘चौधरी साहब ! डिप्टी कमिश्नर के आने पर जलसा तो बहुत शान का हुआ था।’’
‘‘हां ! आसपास के गांव वालों ने बहुत सहायता दी थी। पचास हजार रुपये चन्दा हो गया था। ज़िलह भर में हमारे गांव के भरती दफ्तर में सबसे अधिक खर्च किया है ?’’
‘‘कितना रुपये आपने खर्च किया है ?’’
‘‘बहुत कुछ नहीं। पांच हजार नकद तो चन्दे में दे दिया और जलसे में भी इतना कुछ ही हो गया है।’’
‘‘पर आपको क्या मिला है ? लोग कह रहे हैं, आपको रायबहादुर का खिताब मिलेगा।’’
चौधरी हंस पड़ा। हंसते हुए बोला, ‘‘कहीं सरकार ने यह मूर्खता की तो मैं इन्कार कर दूंगा।’’
‘‘तो आपने इतना कुछ फोकट में ही खर्च कर दिया है ?’’

‘‘पण्डित ! तुम को भी कुछ न कुछ देता ही हूं।’’
‘‘हां, पूजा-पाठ चौधरायिन कराती रहती हैं।’’
‘‘परन्तु तुम तो शुद्ध मंत्र भी नहीं बोल सकते। इस पर भी मैं देता हूं।’’
पण्डित की जबान बंद हो गयी। बात चौधरी ने ही कही, ‘‘आज से दस वर्ष पूर्व मेरी मां ने एक दिन कहा था कि पण्डित गौरीशंकर की पत्नी के पास एक ही धोती है। वह बेचारी उसी से नहाती और उसी को सुखा कर पहनती है।’’
‘‘बस, उसी दिन से तुमको मैंने अपनी पुरोहित बना लिया था। प्रतिवर्ष पण्डितायिन और बच्चों के लिए दो-दो जोड़े वस्त्र भेजता रहता हूं।’’

‘‘एक दिन मेरी पत्नी का भाई अश्विनीकुमार कहने लगा कि तुम्हारा मंत्रोच्चारण अशुद्ध होता है। इस पर भी मैंने तुमको ही पुरोहित माना है। मैंने अश्विनी से कहा था कि तुम्हारा उच्चारण शुद्ध करा दे। इसके प्रतिकार में उसको भी कुछ दूंगा।’’


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